Thursday, December 29, 2016

उच्च शिक्षा शिक्षण

राजस्थान में राज्यपाल और विष्वविद्यालयों के कुलाधिपति श्री कल्याण सिंह की पहल पर कुछ समय पहले सरकारी विष्वविद्यालयों में कुलपति चयन मेें पारदर्षिता लाने के लिए विज्ञापन प्रकाषित कर उसके जरिए पात्र आवेदकों से आवेदन आमंत्रित करने के संबंध में दिषा निर्देष जारी हुए थे। इसके अंतर्गत अब संबंधित विष्वविद्यालय के लिए गठित कुलपति चयन समिति कुलपति पद के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन जारी कर योग्य अभ्यर्थियों से आवेदन आमंत्रित करती है। यह निष्चित ही महत्वपूर्ण कदम है परन्तु विष्वविद्यालय षिक्षण प्रक्रिया में षिक्षकों की नियुक्ति एवं कुलपति चयन में रूढ़ हो चुके नियमों को बदले जाने की भी बहुत से स्तरों पर जरूरत है।
थोड़ा अतीत में जाएं। जब देष आजाद हुआ था, देष में विभिन्न मंत्रालयों का गठन किया गया था। तब षिक्षा को संस्कृति से जोड़ते हुए केन्द्र सरकार ने ‘षिक्षा और संस्कृति मंत्रालय’ का गठन किया था। बाद में इसमें विज्ञान को भी जोड़ दिया गया और मंत्रालय का नाम हुआ, ‘षिक्षा विज्ञान और संस्कृति मंत्रालय’। देष में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस मंत्रालय मंे मानवीय विषयों और संसाधन को जोड़़ते हुए इसे नाम दिया, ‘मानव संसाधन मंत्रालय’। अभी तक मंत्रालय का नाम यही चला आ रहा है। षिक्षा से संबंधित महकहमे का नामकरण सरकार चाहे जो करे परन्तु सवाल यह है कि क्या वास्तव में हमारे यहां षिक्षण से जुड़े सरोकारों पर नीतिगत कोई ठोस पहल हुई है? उच्च षिक्षा की वर्तमान व्यवस्था से क्या बेहतर मानव संसाधन समाज को मिल पा रहे हैं? यह सही है, उच्च स्तर पर समय-समय पर षिक्षा से जुड़े निर्णय होते रहे हैं परन्तु यह ऐसे होते हैं जिनमें या तो पाठ्यक्रम में बदलाव से जुड़ी बात होती है या फिर परीक्षाओं को कराए जाने या नहीं कराए जाने, उनके मूल्यांकन से जुड़ी ही बातें होती है। षिक्षकों के चयन में योग्यताओं के आधार से जुड़े निर्णयों में भी कभी पीएच.डी. को मान्य करने और कभी उसके स्थान पर केवल नेट, स्लेट या फिर संबंधित किसी वर्ष तक के अभ्यर्थियों के लिए चयन में किसी प्रकार की छूट से आगे कभी कोई निर्णय आज तक किसी भी सरकार में नहीं हुआ है। सवाल यह है कि क्या विष्वविद्यालयों या उच्च षिक्षण संस्थाओं में पढ़ाने वाले प्रोफेसर या कुलपति की योग्यता क्या केवल औपचारिक स्नातकोत्तर डिग्री, पीएच.डी या फिर नेट, स्लेट ही होनी चाहिए? 
बाकी विषयों के अध्यय-अध्यापन को छोड़ दें। केवल भाषा, साहित्य और संस्कृति की ही बात करें तो बहुत पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का लिखा जे़हन में इस समय कौंध रहा है, ‘भाषा और साहित्य के संबंध में उल्लेखनीय शोध कार्य अधिकांष विष्वविद्यालयों के बाहर ही हुए हैं।’ माने विष्वविद्यालयों में इस दिषा में उल्लेखनीय कुछ नहीं हुआ है। यह बात द्विवेजी ही नहीं, समय स्वयं जैसे कह रहा है। भाषा और साहित्य से जुड़ा अधिकतर शोध उन लेखकों ने किया है जो किसी विष्वविद्यालय में पढ़ाने से नहीं जुड़े रहे हैं। ऐसे भी बहुत हैं जिनके पास औपचारिक षिक्षा की डिग्री तक नहीं है। उदाहरण बहुत सारे दिए जा सकते हैं पर एक ही शायद बहुत होगा। संसार का अद्वितीय हिंदी थिसारस वृहत समांतर कोष अरविंद कुमार ने तैयार किया है। किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा शब्दकोष और थिसारस नहीं मिलेगा जिसमें शीर्षकों एवं उपषीर्षकों में अद्भुत भाषाई संपदा को अंवेरा गया हो। अरविंद कुमार फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’, ‘सर्वोत्तम रिडर्स डाइजेस्ट’ और दिल्ली प्रेस पत्रिका समूह की ‘सरिता’ के संपादन और फुटकर लेखन से जुड़े रहे हैं परन्तु उन्होंने अनूठा कार्य हिंदी में अपने तई किया है। वही क्यों राहुल सांकृत्याययन, अज्ञेय, मनोहरष्याम जोषी आदि की एक वृहद श्रृंखला है जिन्हें पाठ्यक्रमों में पढ़ा जाता है और जिन्होंने हमारी भाषा को संपन्न और सृदृढ किया है। राहुल सांकृत्यायन के पास तो औपचारिक डिग्री तक नहीं थी।
यह सही है, षिक्षा की बुनियाद में आरंभ में षिक्षण के लिए निर्धारित शैक्षिक योग्यता प्राप्त षिक्षक ही अधिक कारगर होता है। चूंकि तब सिखाने के लिए कुछ निर्धारित मानकों, पद्धति से ही षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है परन्तु उच्च षिक्षा में यह जरूरी नहीं है। पर हम ब्रिटिष काल की पारम्परिक षिक्षा पद्धति की रूढ़ियां से आज भी इस कदर ग्रस्त हैं कि वहां पढ़े हुए का अंत में कोई बहुत अधिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिलता है। मसलन किसी भी विषय में स्नातक भले वह तृतीय श्रेणी से उत्तीर्ण हो अथवा सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण, दोनों ही सर्वोच्च भारतीय प्रषासनिक सेवा में सफल हो सकते हैं। माने सफलता का मापदंड न तो विषय है और न ही अधिक अंक। यही बात दूसरे व्यवसायों में भी है। सदा वरीयता सूची में आने वाला हमारे यहां क्लर्क पद पर मिल सकता है और सदा सर्वदा औसत अंक लाने वाला सफतम अधिकारी। कारण यही है कि, एक समय के बाद हमारे यहां डिग्री की उपादेयता औपचारिक प्रतिस्पद्र्धी परीक्षा में प्रवेष भर के लिए रह जाती है। संगीत, नृत्य, चित्रकला का क्षेत्र देख लीजिए, अधिकतर सफल वहां वे लोग नहीं है जो विष्वविद्यालय की बड़ी डिग्रीयां प्राप्त हैं बल्कि वे हैं जो आत्मदीक्षित हैं। भले बाद में उन्हें वही विष्वविद्यालय जिन्होंने सामान्य डिग्री भर नहीं दी, उन्हें डाॅक्टरेट, डी-लिट जैसी मानद उपाधियाॅं देते हैं।  
राहुल सांकृत्यायन 36 भाषाओं के जानकार प्रकाण्ड विद्वान थे। तिब्बत और श्रीलंका से दुर्लभ ग्रंथो को खच्चरों पर लादकर वह भारत लाए और उनका विषद् विश्लेषण, व्याख्या का महत्ती कार्य किया। राहुलजी के पास औपचारिक डिग्री नहीं थी पर उनकी लिखी पुस्तक ‘मध्य एषिया का इतिहास’ को आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया था। यह तब की बात है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू देष के प्रधानमंत्री थे। वह उनकी विद्वता से बेहद प्रभावित थे सो उन्होंने तत्कालीन षिक्षा मंत्री हिमायु कबीर को कहा कि राहुलजी की सेवाएं हमारे यहां प्रोफसर के रूप में उच्च षिक्षा में ली जाए। हिमायु कबीर थे पारम्परिक ब्रिटिष षिक्षा पद्धति के हिमायती। सो उन्होंने औपचारिक डिग्री के अभाव में उनकी सेवांए प्रोफसेर के रूप में लिए जाने से साफ इन्कार कर दिया। यह बात अलग है कि उन्हीें राहुल सांकृत्यायन को उन्हीें दिनों श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विष्वविद्यालय ने अपने यहां प्रोफसर के रूप में नियुक्त कर लिया। सोवियत सरकार ने भी आग्रह कर उन्हें अपने विष्वविद्यालयें में पढ़ाने के लिए बुलाया। पर हमारे यहां पढ़ाने के लिए तब भी और अब भी औपचारिक स्नोतकोत्तर डिग्री, नेट-स्लेट जरूरी है। यह ठीक है, सैद्धान्तिक स्तर पर पढ़ाने के लिए किसी तरह का नियुक्ति पैमाना होना भी चाहिए परन्तु व्यावहारिक स्तर पर क्या संबंधित विषय का विषिष्ट ज्ञान क्या पढ़ाने की एक योग्यता नहीं हो सकती? 
यह बात इसलिए कि इस समय जो तरीका उच्च षिक्षा और विष्वविद्यालयी षिक्षण के लिए चयन प्रक्रिया का है वह इतना रूढ़ है कि उसमें पुस्तकों से हुबहु नकल कर पीएच.डी. करने वाले, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पत्रवाचन और आईएसएसएन नम्बर की निकलने वाली अनाप-षनाप पत्रिकाओं में निर्धारित राषि का भुगतान कर शोध पत्र छपवाने वाले बहुतेरे असिस्टेंट, एसोसिएट और प्रोफसर बन जाते हैं। याद है, कुछ साल पहले भारत सरकार की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में इन पंक्तियों के लेखक की एक शोधपरक आवरण कथा प्रकाषित हुई थी। कुछ समय बाद वही आवरण कथा हुबहु पत्रिका में किसी शोधार्थी ने अपने नाम से प्रकाषित करा ली। पता चला तो त्वरित मैंने संपादक को पत्र लिखा। बाद में उस शोधार्थी ने बहुत गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगी और कहा, ‘सर आप अपनी षिकायत वापस ले ले। मेरा कैरियर बर्बाद हो जाएगा।‘ लबोलुआज यह कि उच्च षिक्षा में षिक्षक पद पर आवेदन के लिए दूसरों के लिखे को अपने नाम से प्रकाषित करवा निर्धारित योग्यता के काॅलम को बहुत से स्तरों पर पूरा कर दिया जाता है। बहुत कम स्तरों पर यह पता चल पाता है कि वह कार्य किसी ओर की मेहनत को अपने नाम किया होता है। उच्च षिक्षण में नियुक्ति का पैमाना यदि इसी तरह शोधपत्र प्रकाषन, सम्मेलन में पत्रवाचन रहेगा तो स्वतः समझा जा सकता है कि उसका परिणाम क्या हो सकता है, होता रहा है।
बहरहाल, विद्यालयी षिक्षा से उच्च षिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। पर बुनियाद तैयार होने के बाद षिक्षक वही पर्याप्त नहीं है जो निष्चित शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के बाद पढ़ाने के क्षेत्र में आता है। वह भी जरूरी है पर अधिक उपयोगी शिक्षक वह है जो संबंधित विषय के सरोकारों से सीधे जुड़ा है। माने पाठकों में लोकप्रिय ख्यात लेखक, चिंतक और लब्धप्रतिष्ठि पत्रकार, सपंादक यदि पढ़ाने के सरोकारों में आता है तो वह विद्यार्थियों को अधिक बेहतर ढंग से ज्ञान का संप्रेषण कर सकता है। विद्यार्थियों में सोचने-समझने की शक्ति का विकास संबंधित ज्ञान से व्यावहारिक रूप में जुड़ा वही व्यक्ति अधिक कर सकता है जो उस विषय को गहराई से जीता रहा है। वह नेट, स्लेट और पीएच.डी. करने वाला अभ्यर्थी भी हो सकता है। इसलिए जरूरी है, नियुक्ति मानदंड ऐसे हों जिनसे अर्से से चली आ रही उच्च षिक्षा मंे षिक्षक नियुक्ति की रूढ़ियों से जड़ हो रहे मूल्यों को बदला जा सके। 
व्यापक समझ की व्यावहारिकी और सैद्धान्तिकी दोनों का दायरा और दोनांे का हिस्सा अलग-अलग होता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उच्च षिक्षा षिक्षण का मानदंड पूरी तरह से किसी एक विचार यानी केवल संबधित विषय की आधिकारिता और कार्य पर ही आधारित हो। वहां सैद्धान्तिक स्तर पर किसी प्रकार की षिक्षण योग्यता भी निर्धारित होनी चाहिए परन्तु षिक्षक चयन प्रक्रिया में कुछ हिस्सा उस व्यावहारिकी का भी होना चाहिए जिससे विद्यार्थियो को सैद्धान्तिक के साथ संबंधित विषय का व्यावहारिक ज्ञान भी मिल सके। अगर ऐसा होता है तो उच्च षिक्षा प्राप्त मानव संसाधन का देष और समाज के लिए वास्तव में बेहतर उपयोग हो सकता है। पर जरूरत इस बात की है कि बरसों से चली आ रही परम्पराओं और नियम-कानूनों में बदलाव की कोई सार्थक पहल हो।

Wednesday, December 14, 2016

बाजार पोषित कला का यह छाया-छवि दौर

सम् और कृति से बना है संस्कृित। अभिप्राय है, संषोधन अथवा उत्तम करने का कार्य। सम् माने ठीक प्रकार से और कृति यानी करना। इसीलिए कहें, संस्कृति कोई भी बुरी नहीं होती। भले वह पाष्चात्य हो या फिर भारतीय। पर इधर देष में आर्थिक उदारीकरण के बाद उपभोक्तावाद का नया दौर प्रारंभ हुआ, उसने जैसे संस्कृति को भी बाजारीकरण के मोल से जोड़ दिया है। मुझे लगता है, अब सब कुछ जो हमारे इस संसार में सुन्दर है वह सौन्दर्य के भाव से नहीं बल्कि मूल्य से आंका जाने लगा है। कला, साहित्य और संस्कृति भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। देषभर में कलाकृतियों का बाजार बन गया है। ऐसे लोग जिन्हें कला का क ख ग भी नहीं पता, वह कला आयोजनों के प्रमुख और कला पारखी बन गए हैं। कलाकृतियां  आनन्दानुभूति की बजाय बाजार विक्रय की वस्तु जो हो गई है। यही हाल संगीत और नृत्य कलाओं का भी हुआ। संगीत, नृत्य की प्रस्तुतियों में पोषाक और तड़क-भड़क के साथ कोरियोग्राफी में चमक-दम के नूतन का अधुनातन रचा जाने लगा। संगीत में रागदारी और नृत्य में थिरकन का लोप हो गया।  प्रस्तुतियों में उन्हीं की भागीदारी अधिक होने लगी है जो रंजन की बजाय मूल्यों के भंजन में अधिक विष्वास रखते हैं। 
कला में बाजार का आलम यह हो गया है कि निजी कलादीर्घाएं ही नहीं मध्यमवर्ग का एक तबका भी इसीलिए सोने और चांदी की कीमती धातुओं की तरह ही कलाकृतियांे को अपने घर का हिस्सा बनाने लगा है। यह सोचकर कि अभी खरीद  लेते हैं और जब फलां कलाकार की कलाकृतियां का मूल्य बढ़ेगा या वह इस संसार में नहीं रहेगा तो उसे बेच देंगे। माने कला भी निवेष की वस्तु ओ गई। इसका कलाकारों को लाभ भी हुआ। कुछेक कलाकारों को उनकी कला के अच्छे-खासे दाम मिलने लग गए। रातों-रात गरीबी से अमरी के ठाठ में भी बहुत से कलाकार आ गए परन्तु जो बाजार से जुड़ न सके, उसकी समझ को भुना न सके वे फिर भी हासिए पर ही रहे। हां, इस सबका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि कलाएं आम जन से धीरे-धीरे दूर होती चली गई हैं। या कहें अभिजात्य होती जन सरोकारों से उनकी दूरी हो गई है। 
कहने को लिटरेरी फेस्टिवल, आर्ट समिट जैसे आयोजनों की शुरूआत इसीलिए हुई है कि इनके जरिए साहित्य और कलाओं में लोगों की अधिकाधिक भागीदारी की जा सके परन्तु यह आयोजन भी बाजार पोषित व्यवस्था के हिस्से बन कर ही रह गए हैं। जयपुर में लिटरेरि फेस्टिवल प्रारंभ होने के दो-एक बरस तक तो ठीक-ठाक रहा परन्तु शनैःषनैः वह भी व्यावसायिकता का षिकार हो गया। उत्सव में हिंदी और राजस्थानी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकों की उपस्थिति होती है परन्तु उनसे अधिक शोर और प्रचार अंग्रेजीदां उन लेखकांे को मिलता है, जिन्हें बाजार या कहें उनके प्रकाषक अधिक बिक्री के लिए पोषित करता है। यही हाल आर्ट समिट जैसे आयोजनों का है। वहां देषज कलाकारों की कला की कोई पूछ नहीं है जबकि लोक कलाओं का सहारा अपने संस्थापन में लेने वाले बडे़ बाजार पोषित कलाकारों की चांदी है। ऐसे में कुछ लोगों के पास अपनी कला की बजाय अपने आपको दिखाने का सिगूफा ही बचा रह जाता है। ऐसे आयोजनों की मीडिया कवरेज देखेंगे तो यह भी पाएंगे कि वहां कला की सूक्ष्म सूझ की बजाय अपने आपको प्रदर्षित करने वालों को ही अधिक स्थान मिलता है। संस्थापन के नाम पर चाहे जो करने वाले या फिर अष्लीलता को प्रचार हथकंडा मान परोसने वालों को मीडिया भी तव्वजो अधिक देता है। इसीलिए कलाकृतियों में रंग, तान और रेखाओं की बजाय अपने आपको रंगने वाले, गुलाल बिखेरकर चाहे जैसे उसे अपने तई व्याख्यायित करने वालों को अधिक प्रचार मिल जाता है।  माने जो कला का प्राकृतिक सहज सौन्दर्य है, उसकी बजाय चमक-दमक ही इस समय प्रमुख हो गयी है। 
बहरहाल, एक समय था जब गान में गायक और वादक श्रोता के राग-अनुराग की सोचते हुए अपने को साधते थे। प्रस्तुति से पहले रियाज पर ध्यान दिया जाता था परन्तु अब स्थितियां बदल गई है। अब आप किसी संगीत सभा मंे जाएंगे तो पाएंगे कलाकार महोदय प्रस्तुति से पहले तबले की थाप और यंत्रचलित तानपुरे की ध्वनि पर खांसने के अभ्यास को ही अपने ध्यानाकर्षण का जरिया बनाए हुए हैं। बाद की उनकी प्रस्तुति में भी स्वयं की बजाय सह गायक-गायिकाएं आलापते हैं। भीड़ भी इस बात पर जुटती है कि कलाकार के साथ चमक-दमक कितनी है। याद है, भारत भवन, भोपाल में एक व्याखान के लिए जाना हुआ था। जिस होटल में ठहराया गया था वहीं एक नामी-गिरामी अपने ही शहर के वादक भी ठहरे हुए थे। उनकी भी प्रस्तुति थी परन्तु उससे पहले उन्होंने अपने बालों को रंगा, मैकअप किया और आपको प्रस्तुति की स्टाईलिष पोषाक में फीट करने में कोई तीन-चार घंटे लगाए। गोया कलाकार की बजाय उसके लटके-झटके और उसका ताम-झाम ही प्रधान हो गया है। नृत्य के साथ भी यही हो रहा है। वहां थिरकन और भाव-भंगिमाओं की सहज प्रस्तुति की बजाय कोरियोग्राफी की सज्जा प्रधान हो रही है। वह समय बीत गया जब साधारण सी पोषाक पहने, बीड़ी पीने के बाद उस्ताद बिस्मिला खां की शहनाई बजने लगती तो लोग उनके वादन से विभोर हो पूरी-पूरी रात उन्हें सुनते। उनकी शहनाई मन को सुकून देती लोगों के दिलों पर छा जाती। 
पर समय का सच यही है कि हर चमकने वाली चीज हीरा है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। परिवार में एक शादी समारोह में जाना हुआ था। देखा, बहुत से निकट के परिजनों ने बाकायदा कोरियोग्राफर से फिल्मों में किए जाने वाले नृत्य के लटके-झटके सीखे हुए थे। पत्नी ने टोकते हुए कहा, आप न तो सीखते हो न हमें सीखाने का कोई जतन करते हो। मैंने त्वरित कहा, किसने कहां मुझे नृत्य नहीं आता। मैं भी नाच सकता हूं। सबके आग्रह पर मैंने भी अपनी चमकदार प्रस्तुति दी। मैंने कुछ नहीं किया। हाथ और पैरों की नृत्य से जुड़ी भंगिमाएं कुछ इस तरह से कर स्थिर खड़ा हो गया जिससे छायाकार मेरी उन भंगिमाओं की भिन्न कोणों से छवियां ले सकें। भौचक्के होते मेरे परिजनों ने कहा, यह कौनसा नृत्य हुआ! मैंने तुरंत कहा, यह ‘फोटोग्राफी डांस’ है। सच ही था, तमाम दूसरों से मेरा वह नृत्य भारी था। जब छायाचित्रों का आस्वाद कैमरे से किया गया तो उसमें  भरत नाट्यम, कथक, कथकली और फिल्मों में होने वाले तमाम नृत्यों के मेरे ऐसे दृष्य थे जिनसे कोई कह नहीं सकता कि मैं नृत्य नहीं जानता। संगीत, नृत्य और चित्रकला का आज का सच क्या यही नहीं है! प्रस्तुतियां भले मन को रंजित नहीं करे, उनकी छाया-छवियां तो मन को भाती ही है। 

Monday, December 12, 2016

नर्मदा सौन्दर्य के अविराम चितराम

अमृत लाल वेगड़जी नर्मदा के अनथक पदयात्री तो हैं पर रेखाओं की लय में वह दृश्य संवेदनाओं का भी मोहक भव रचते हैं। नर्मदा की उनकी पदयात्रा को उनके शब्दों से ही नहीं बांचा जा सकता, रेखाओं में उकेरे उजास से भी अनुभूत किया जा सकता है। उनकी पेपर कोलाज कलाकृतियां भी नर्मदा के तीरे ले जाती अदभुत रंग लोक से साक्षात् कराती है। नर्मदा यात्रा और उनके कलाकर्म पर 'नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो!' पर यह आलेख ...

मध्यप्रदेष की जीवनरेखा है-नर्मदा नदी। विष्व की वह प्राचीनतम और एकमात्र नदी जिसकी परिक्रमा की जाती है। कहते हैं, जब हिमालय नहीं था, गंगा-यमुना का मैदान नहीं था, नर्मदा तब भी थी। सौन्दर्य की नदी नर्मदा! तपोभूमि नर्मदा! मध्यप्रदेष और गुजरात को मिला प्रकृति का वरदान नर्मदा! 
नर्मदा के अनथक यात्री हैं-अमृतलाल वेगड़। नर्मदा उनके लिए नदी नहीं संस्कृति है। याद है, बचपन में उनकी नर्मदा नदी के यात्रावृतान्त को पढ़ा था। जे़हन में बरसों वह बसा रहा। बाद में तो वेगड़जी की नर्मदा परिक्रमा की त्रयी ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ और ‘अमृतस्य नर्मदा’ को पढ़ा तो लगा नर्मदा उनके भीतर निरंतर घटती रही है। पर इधर उनकी एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाषित हुई है, ‘नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो’। सच! यह वेगड़जी द्वारा नर्मदा सौन्दर्य की भरी गागर है। ऐसी जिसमें नर्मदा के सौन्दर्य का सागर पूरी तरह से समाया हुआ है। 
अमृतलाल वेगड़ इस समय के अद्भुत कलाकार हैं। देष की नदियों में पांचवी सबसे बड़ी नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी है। देष की दूसरी तमाम नदियां पष्चिम से पूर्व की ओर बहती बंगाल की खाड़ी में मिलती है, पर नर्मदा पूर्व से पष्चिम की ओर बहती खंभात की खाड़ी में मिलती है। वर्ष 1977 से इस पवित्र नदी की पदयात्रा का सिलसिला वेगड़जी ने प्रारंभ किया था और तभी से उनके भीतर के कलाकार ने रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियां, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही  विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों के नर्मदा के कोलाज भी बनाने प्रारंभ कर दिए थे। नर्मदा के सौन्दर्य की ठौड़-ठौड़ व्यंजना करते वेगड़जी ने इस नदी की संस्कृति को गहरे से जिया है। पर मन की प्यास देखिए, 4 हजार किलोमीटर की नर्मदा पद परिकमा के बाद भी वह ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में लिखते हैं, ‘कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे।’
नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ ने इस नदी से विष्वभर के लोगों को अपने लिखे और कलाकर्म से साक्षात् कराया है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में वेगड़जी लिखते हैं, ‘यात्रा पर निकलते समय हर बार कहता-नर्मदा! तुम संुदर हो, अत्यन्त सुन्दर। अपने सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुंचा सकूं। और नर्मदा ने मुझे कभी निराष नहीं किया। हर बार मेरी झोली छलका दी। मैंने अपने जीवन के उत्कृष्ट क्षण नर्मदा-तट पर बिताए हैं। परिक्रमा के दौरान मैंने कितने पहाड़ देखे, कितनी नदियां पार कीं, टूटी-फूटी धर्मषालाओं में रात रहा, ठंड में ठिठुरा, गरमी में झुलसा। खूबसूरत लेकिन कठिन पगडंडियों पर चला। खुला आकाष, हरियाली से लहलहाते खेत, सुरम्य प्रभात, जाने क्या-क्या देखा। कितने सुहाने थे वे दिन-एक से बढ़कर एक!’
वेगड़जी की सद्य प्रकाषित कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते उनके इस कहे साक्षात् भी होता है। इसमें थोड़े शब्द हैं, चित्र और रेखांकन अधिक। नर्मदा तट पर तपस्या करके उसे तपोभूमि बनाने वाले ऋषियों के साथ सुदूर केरल से आकर नर्मदातट पर विद्याध्ययन करने और अत्यन्त मधुर नर्मदाष्टक लिखने वाले आदि शंकाराचार्य को निवेदित इस कृति में ‘एक नदी की सौंदर्ययात्रा’ में वेगड़जी ने शांतिनिकेतन में हुई अपनी षिक्षा-दिक्षा के साथ ही प्रकृति के सौन्दर्य को देखने की दृष्टि देने वाले आचार्य नन्दलाल वसु को षिद्दत से याद किया है। वह लिखते हैं, ‘जब पढ़ाई पूरी करके घर आने लगा तो गुरू के आषीर्वाद लेने गया। चरणस्पर्ष करके बैठा तो उन्होंने कहा, ‘बेटा, जीवन में सफल मत होना, अपना जीवन सार्थक करना।’ वेगड़जी ने यही किया। नर्मदा की परिक्रमा में अपने जीवन की सार्थकता देखते उन्होंने एक साथ नहीं, रूक-रूक कर, खंडो में नर्मदा की यात्रा की। उनके समस्त सृजन का आधार बाद में यही नर्मदा बनी। वह लिखते हैं, ‘नर्मदा ने मेरी कला को नया आयाम दिया। मेरी प्रथम परिक्रमा के समय नर्मदा तट का एक भी गांव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी जैसी सैंकड़ो वर्ष पर्वे थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौंदर्य को मैंने सदा के लिए इन पृष्ठों पर संजोकर रख दिया।’
यह सच है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ इस दीठ से अपूर्व है। नर्मदा के सौन्दर्य चितराम ही इसमें पन्ने दर पन्ने मंडे हैं। रेखाओं के उजास में इसमें वेगड़जी के नदी मे ंस्नान करती, घाट पर कपड़े बदलती स्त्रियों के मनोरम स्केच हैं। गांव की संस्कृति, वहां के लोगों की बतकही, आस्था के सींचन को ठौड़-ठौड़ उद्घाटित करते नर्मदा से जुड़े जीवन को उन्होंने इसमें अपने कलाकर्म से जैसे जीवंत किया है। और सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि इसमे उनके वह पेपर कोलाज हैं, जिनमे नर्मदा का सौन्दर्य झिलमिलाता हमें उसके होने का जीवंत अहसास कराता है।
वेगड़जी विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों से कोलाज बनाते हैं। आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए परन्तु बाद में ‘नेषनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ के पन्ने उनके इन्हीं पेपर कोलाज की सुरम्यता से लबरेज हैं। अचरज होता है! कैसे छाया-प्रकाष, जल के सूर्य से बदलते रंगों और जीवन से जुड़े सरोकारों की रंग धर्मिता को कैसे वेगड़जी ने कागजों से निर्मित अपनी कला में जीवंत किया है। लगता है, नर्मदा ने उनका इसमें निरंतर साथ दिया है। यह है तभी तो उनके रंगीन पेपर कोलाज में नर्मदा से जुड़ा जीवन गहरे से उद्घाटित होता देखने वाले के मन में जैसे हमेषा के लिए बस जाता है। एक पेपर कोलाज है, पेड़ की छांव उकेरता। मिट्टी और झांकते पेड़ के पत्तों और जमीन पर सूखे बिखरे पत्तों का परिवेष जैसे पूरी तरह से उद्घाटित हो गया है। छांव को पार कर वहां से गुजरते लोगों का पुस्तक का यह अद्भुत चितराम है। ऐसे ही ‘अमरकंटक से यात्रा शुरू’ पेपर कोलाज भी अद्भुत है। इसमें यात्रा की तैयारी की अनुभूति भर नहीं है बल्कि नर्मदा से जुड़ा वह परिवेष भी है जिसमें अभी भी कलाकार का मन बसा है। ‘नमामि देवी नर्मदे’ का स्त्री रेखांकन और बाद में नर्मदा पर दीप दान करती स्त्रियों के चित्र भी रंग-रेखाओं का अद्भुत लोक रचते हैं। ‘अमरकंटक के तीर्थयात्री’ पेपर कोलाज में यात्रा से जुड़े मन की सुमधुर व्यंजना है। और ‘कपिलधारा अमरकंटक’ कोलाज तो अद्भुत है। तेजी से बहते झरने के पानी का श्वेतपन और आस-पास का रंगाकन माधुर्य की सीमा को भी पार करता है। वेगड़जी के पेपर कोलाज की यही विषेषता है। वह अपने इस कलाकर्म में समय को जैसे व्यंजित करते संस्कृति का उसमें छांेक लगाते हैं। ‘नगारावादक’, ‘एक कन्या’, ‘बैगा महिला’, ‘रात में घाट’, एकांत स्नान, ‘विश्राम’, ‘दही मथती नारी’, ‘वानरलीला’, ‘एक शांत पहाड़ी गांव’, आदि बहुतेरे कोलाज ऐसे ही पुस्तक में हैं जो नर्मदा नदी की उनकी यात्रा की जीवंत गवाही सरीखे है। और वह चित्र तो अद्भुत है जिसमें नर्मदा को पैदल पार करते दंपति को उकेरा गया है। पेपर में अपना झोला उठाए दंपति की इस नर्मदा यात्रा के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है। वेगड़जी के पास वह दृष्टि है जिसमे ंवह स्थानों को उसके भुगोल में ही नहीं वहां के संस्कार, संस्कृति में देखने वालों को बंचवाते हैं। पुस्तक में उनके रेखांकन की लय और निहित बारीकी में भी मन अटक अटक जाता है। ‘ओंकारेष्वर’ का रेखा चित्र ऐसा ही है। टापू पर स्थित ओंकारेष्वर को उसकी पूर्णता में उकेरते वह उससे जुड़े परिवेष को इसमें गहरे से व्यंजित करते हैं। यह सच है! प्रकृति को देखने की उनकी कला दृष्टि अपूर्व है। इस कला दृष्टि से उपजे उनके पेपर कोलाज, रेखांकनों पर पन्ने दर पन्ने लिखे जा सकते हैं फिर भी जो कुछ लिखा जाएगा, वह कम ही लगेगा।
बहरहाल, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ की कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, हिन्दी में अपने तरह की यह विरल कृति है। यहां यात्रा के सौन्दर्य का शब्द गान है, रेखाओं का आकाष भर उजास है और है, वह रंगीन चित्रकृतियां जिससे नर्मदा के सौन्दर्य का घूंट घूंट पान किया जा सकता है। नर्मदा को उसकी समग्रता में, दिखाती-बंचाती ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ कला जगत को अमृतलाल वेगड़ का अप्रतीम उपहार है। नर्मदा के सौन्दर्य का वेगड़जी का शब्द कहन देखें, ‘नर्मदा सौन्दर्य की नदी है। वह चलती है उछलती कूदती, बलखाती, चट्टानों को तराषती, पहाड़ों में मार्ग तलाषती, डग-डग पर सौन्दर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती।’ मुझे लगता है, उनकी कृति में इस शब्द कहन का चित्र सच है।
अमृतलाल वेगड़ इस समय 87 वर्ष के हैं। नर्मदा की 400 किलोमीटर की पद परिक्रमा उन्होंने की। सहधर्मिणी कान्ता भी 2002 में उनके 75 वें वर्ष में प्रवेष के समय 1250 मिलोमीटर साथ चली। नर्मदा को अपनी पदयात्राओं और कलाकर्म में उन्होंने गहरे से जिया है। ‘नर्मदा तुम कितनी  सुन्दर हो’ कृति में नर्मदा, उसके मोड़, घाट, नदी को पार करते ग्रामीणों, बैगा, गोंड, भील, आग तापते ग्रामीण, ग्रामीण गायक, पडे-पुरोहित, नाई, चक्की पीसती या मूसल चलाती महिलाएं और तमाम नर्मदा यात्रा का परिवेष रेखांकनों और पेपर कोलाज में जैसे हमसे बतियाता है। सौन्दर्य के अविराम चितराम है उनकी यह कृति। बावजूद इसके वेगड़जी इसमें लिखते हैं, ‘नर्मदा के राषि-राषि सौन्दर्य में से अंजुरी भर सौंदर्य ही लरा सका हूं। कोई असीम को कैसे समेट सकता है? इसलिए जो लाया हूंू वह ‘चिड़ी का चोंच भर पानी’ ही है।...‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ की यह व्यंजना गुदगुदा रही है। यह सब लिख दिया है पर मैं फिर से इस कलाकृतिनुमा पुस्तक के पन्ने पलटने लगा हूं। सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद कर रहा हूं, करता रहंूगा। अवसर मिले तो आप भी करियेगा।

Saturday, November 19, 2016

सांगीतिक भाव-भाषा का वृहद ग्रंथ ‘लता सुर-गाथा’


यतीन्द्र मिश्र के पास संगीत की सूक्ष्म सूझ और उसे शब्दों में पिराने की मौलिक दीठ है। संगीत पर लिखे का उनका अपना मुहावरा है। ऐसा जिसमें अंतर्मन संवेदनाओं की लय में वह पढ़े-सुने को गुनते हैं या कहें उसका एक तरह से स्मृति छंद रचते हैं। लता मंगेशकर  के गायन और उनसे हुए संवाद के जरिए उनके जीवन में रमते-बसते इधर उन्होंने सांगीतिक भाव-भाषा का वृहद ग्रंथ "लता सुर—गाथा"  सृजित किया है। लता के गान से जुड़ी अनुभूतियों , उनसे हुए संवाद के साथ ही संगीत की यतीन्द्र की विरल दीठ का एक तरह से यह सौन्दर्यान्वेषण है।
संगीत व सिनेमा अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने इस पुस्तक में जीतेजी किवदन्ती बन चुकी महान भारतीय पाष्र्वगायिका लता मंगेषकर की सांगीतिक यात्रा को ही नहीं संजोया है बल्कि एक महान गायिका के भीतर छूपे संवेदन मन की अनजानी परतों को बहुत से स्तरों पर खोला है। लता के गायन और उनके जीवन पर इतना अधिक लिखा जाता रहा है, कि बहुधा वह लिखा दोहराव का षिकार हो गया है। वही बातें, वही सब कुछ जो दूसरों ने लता पर कहा है, से ही पाठक प्रायः रू-ब-रू होते हैं पर ‘लता सुर-गाथा’ इस मायने में भिन्न है। इसमें लता की गायिकी की बारीकियों का सूक्ष्म ब्योरा ही नहीं है बल्कि लता से हुए संवाद के जरिए प्रामाणिकता के अनछूए समय संदर्भों का ताना-बाना भी है। लता के गीतों को सुनते सृजित यतीन्द्र की भाव-भाषा की रूप-सृष्टि यहां है। मुझे लगता है, ‘लता सुर-गाथा’ लता के गान का शब्द में पिरोया स्मृति तीर्थ है। 
यतीन्द्र ने इस पुस्तक में लता मंगेषकर के गायन के साथ ही उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं के आधार पर उनके सदाबहार होने, उनकी महानता को इस पुस्तक में ठौड़-ठौड़ अपने सांगीतिक शब्द राग में संजोया है। सूक्ष्म सूझ से लता के जीवन से जुड़े पहलुओं पर विचारते यतीन्द्र ने पुस्तक में लता के गीतों मे सुरों के अर्थ पर विचार किया है तो उनकी सुर-यात्रा के बहुत से अनछूए हिस्सों को भी वह पाठकों के समक्ष पहली बार लेकर आए हैं। मसलन इस पुस्तक से ही पता चलता है कि रेडियो के लिए लता पहली बार अपने पिता का हाथ पकड़कर गाने के लिए पहुंची थी, यह भी कि उन्होंने पहला जो राग सीखा वह पूरिया धनाश्री था, यह भी कि पहले उनके पिता ने नाम हृदया रखा जो बाद में लता हो गया और यह भी कि गाने से पहले 5 वर्ष तक लता ने फिल्मों में अदाकारा का सफरनामा तय किया और यह भी कि कभी ‘आनन्दघन’ के नाम से मराठी फिल्मों मे ंलता ने संगीत निर्देषन का कार्य भी किया था। पुस्तक में लता के प्रिय भूपाली और मालकोंस राग की की संवाद चर्चा के साथ ही रियाज के लिए सबसे अच्छी राग पहाड़ी को भी गुना और बुना गया है। यूसुफ यानी दिलीप कुमार द्वारा यह कहे जाने पर कि मराठी लोगों के मुंह से तो दाल-भात की महक आती है, वह उर्दू का बघार क्या जानें?’ को सुनकर लता द्वारा गालिब, मीर, मोकिन, जौक, सौदा और दाग़ जैसे शायरों को पढ़ने और बाकायदा मौलवी उस्ताद महबूब से उर्दू सीखने की रोचक दास्तां भी पुस्तक में है तो यतीन्द्र के एक प्रष्न के जवाब में मोक्ष और संगीत में से किसी एक को चुनने पर लता संगीत को चुनती है। यह कहते हुए कि मेरा संगीत ही मुझे अन्ततः जन्म-मृत्यु के खेल से मुक्त करेगा।’ 
‘लता सुर-गाथा’ के आरंभ के 200 पन्ने लता के जीवन और गान पर केन्द्रित यतीन्द्र की विवेचना के हैं। यतीन्द्र ने इन पन्नों में लता के गायन को रूपकों के जरिए सुमधुर शब्द लय में अंवेरा है। पढ़ते यह अहसास भी होता है कि उनकी भाषा पाठक को अंतर से प्रकाषित करती है। वह लिखते हैं, ‘लता ने अपनी सांगीतिक यात्रा में इत्रफरोष का कार्य किया है।’ लता के गाए गीतों के सांगीतिक सूत्रों की तलाष करते पुस्तक में उनकी आवाज के बड़े दायरे के साथ वाद्य के प्रभाव में विकसित होती उनकी गायिकी के स्वरूप को गहरे से गुना और बुना गया है। यतीन्द्र लता के गान में कभी रागों के शुद्ध चेहरे को देखते हैं तो कभी रागों की स्वरावलियों पर जाते उनके उच्चतम स्तरों पर जाते आरोह-अवरोह के सुरीले उतार-चढ़ावों में आम जन की स्वीकृति को भी अनुभूत करते उसे पाठकों से साझा करते हैं।
Daily Navjyoti
‘लता सुर-गाथा’ को पढ़ते हुए यह अहसास भी बारम्बार होता है कि यतीन्द्र मिश्र ने इसमें रूपकों में अपनी भाषा के घर को एक तरह से आबाद किया है। उनकी शब्द व्यंजना देखें, ‘वे एक ही बार में तमाम ऐसे सीमान्तों तक जाकर लौट आती हैं, लगता है जैसे वामन की तरह अपने एक डग से ही पूरी पृथ्वी को नाप लेना चाहती हों।’ इसी तरह एक स्थान पर वह लिखते हैं, ‘अपने सुरीले संसार में एक साथ कईं धु्रवान्तों पर सक्रिय और समय के पा चली जाने वाली जिजीविषा के साथ जगमगाती हुई है लता।’ 
यतीन्द्र पुस्तक में लता के गायन की खूबियों के सूक्ष्म ब्योरों में भी बहुतेरी बार ले जाते हैं। ऐसा करते वह उनकी गायन खूबियों के साथ चहलकदमी करते सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए उनके ढ़ेरों गंीतों की याद दिलाते हैं तो लता के सुरों को कथन के बोल व पढ़त से जोड़ते उनके गान की नृत्य भाषा से भी साक्षात् कराते हैं। ‘झनक झनक पायल बाजे’ के बहाने लता रची रागमाला के बारामासा षिल्प को भी उन्होंने इस पुस्तक में अपने तई गहरे से गुना और बुना है। लता के गायन के बारे में चर्चा करते एक जगह वह लिखते हैं, ‘अपनी आवाज को वह तीनों सप्तकों में घुमा सकती है। वे अति मन्द्र से लेकर अति तार तक की यात्रा में इतनी सहजता से कुछ ही क्षणों में गमन कर सकती है, जो उनके कौषील के लिहाज से एक आसान बात ही है। इसके पीछे कुछ तो उनके रियाज का कड़ा अनुषासन दिखता है, तो कहीं यह बात भी समझ में आती है कि उनके गले पर दैवीय कृपा या प्राकृतिक देन ऐसी अवष्य रही है, जो रेकाॅर्डिंग के व्याकरण पर अक्षरषः सटीक ढंग से उभरती है।’
यह सही है, लता का गायन सर्वथा अलहदा है। उसे किसी सीमाओं से नहीं बांधा जा सकता। इसीलिए यतीन्द्र ने इस पुस्तक में उनके गाने के अलहदेपन को ही बंया नहीं किया है बल्कि संगीत की अपनी सूक्ष्म सूझ से उनके गान में अपने तई गुने सांगीतिक अनुभवों की मिठास को भी घोला है। वह लता की गायकी की विषेषताओं की चर्चा करते इस पुस्तक में सिनेमा की अत्यन्त मुखर दुनिया से अलग उनकी आवाज के मौन और एकांत अर्जन को भी खासतौर से रेखांकित करते हैं। पढ़ते हुए जेहन में यह भी आता है कि ‘लता सुर-गाथा’ लता के गायन और जीवन पर गहन शोध, संवाद भर ही नहीं है बल्कि  यह लता की गायिकी से जुड़े द्वैत और अद्वैत के साथ ही शास्त्रीय रागों के आलोक में भाषा का विरल सांस्कृतिक पाठ है।
यतीन्द्र ने सही ही लिखा है कि लता मंगेषकर का जीवन और गायन महाकाव्यात्मक सी लगती महान संगीत यात्रा है। वह लिखते हैं, ‘...वे (लता) अपनी गायिकी के वजूद की बरगद सी सदाषांत छाया के नीचे इतने तरीके का हुनर संजोए हुए हैं, लगता है जेसै किसी बड़ी रंगोली पर चारों दिषाओं की तरफ़ छितराकर छोटे-छोटे कईं मणि दीप जलाए गये हों।’ एक स्थान पर लता के गाए मीरा भजनों की चर्चा करते हुए यतीन्द्र ने लता की गायिकी को मीरा के जीवन से भी जोड़ा है। वह लिखते हैं कि उनका गायन परम्परा से विद्रोह और पुनः उसके साथ संतुलन है। इसी में वह लता के गायन की  स्वयं की दुनिया बनते देखते हैं तो उनके गाए हुए मीरा भजनों में लौकिक और अलौकिक की लुका-छिपी को भी उदाहरणों के जरिए बेहद सहज ढंग से रूपायित करते है। वह लिखते हैं, ‘लता अपने कण्ठ से भक्ति का उतना ही बड़ा अछोर बनाती हैं, जितना कि स्वयं वह कृष्णाभिमुख सन्त गायिका।’
पुस्तक में लता के संगीत की अप्रतिम यात्रा से प्रारंभ बातचीत को यतीन्द्र मिश्र ने 350 के करीब पन्नों में समेटा है। टूकड़ों टूकड़ों में लता से हुआ यह संवाद कोई 6 वर्षों तक चला। लता के गायन के विभिन्न पहलुओं के साथ ही यतीन्द्र ने उनके साथ के गायक-गायिकाओं, उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं और उनके समकाल को गहरे से छूने का प्रयास किया है। यह सच है, सुरों की 640 पृष्ठ की यह वृहद गाथा एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसमें भारत रत्न लता मंगेषकर की सुर यात्रा के अद्भुत सांगीतिक संसार को शब्दों के जरिए पाठकों के समक्ष एक तरह से जीवंत किया गया है। पुस्तक नहीं यह लता के गाए गीतों के आलोक में रचा यतीन्द्र मिश्र का ऐसा स्मृति छन्द है जिसमें भारत की महान गायिका के जीवन और सृजन का सौन्दर्यान्वेषण किया गया है।
पुस्तक :   लता सुर-गाथा
लेखक :   यतीन्द्र मिश्र
प्रकाषक :  वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली - 110002
मूल्य :     695 रू. मात्र, पृष्ठ 640

Thursday, October 27, 2016

अनुभूतियों का ‘रंग अध्यात्म’


अनिल गायकवाड़ की कलाकृति 

तमाम हमारी कलाएं सौन्दर्य का अन्वेषण हैं। दृष्य की संवेदना और अदृष्य के मर्म की तलाष। कहें, मन के भीतर नया कुछ रचने, गढ़ने की अकुलाहट। पर सौंदर्य का प्रकाष तभी है जब अंतर में उजास हो।...और अंतर का उजास भी तभी है जब, कलाओं का हममें वास हो। इसीलिए तो कहें, कलाओं से ही है यह जीवन। कलाकृतियां अपने रूप सौन्दर्य से आकृष्ट ही नहीं करती, सहज मन में अवर्णनीय उमंग भी अनुभूत कराती है।

 चित्रकला की ही बात करूं तो वहां रंग, रंखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर बिंब और रूपक रचते हैं। अंतर्मन की वेदना, द्वन्द और त्रासदियों से मुक्त करने का मार्ग ही कलाएं नहीं है बल्कि बहुत से स्तरों पर मन के रीतेपन को हर हमें संपन्न भी करती है।

बहरहाल, यह महज संयोग ही नहीं है कि ‘रंग अध्यात्म’ में सम्मिलित कलाकृतियों में रंगो में बरती भाषा, कहन और रेखाओं से सृजित आकाष में एक खास तरह की सांगीतिक संगत है। यहां अनुभूतियों स्मृतियों की संवेदना दीठ है तो सौन्दर्य की अर्थ बहुल ध्वनियां भी हैं। चित्रों की बहुरंगी कलादृष्टि में किसी एक शैली विषेष का जड़त्व नहीं होकर परम्परा में समकालीनता का एक तरह से घोल है। 

श्याम सुन्दर शर्मा की कलाकृतियां अतीत और वर्तमान को पुनर्नवा करती रेखाओं का ‘रंग-अध्यात्म’ है। परम्परा में रंगो का विचार स्थापत्य यहां है तो सामयिकता के अर्थगर्भित संदर्भ भी इनमें हैं। रेखाओ की जकड़न से मुक्त, फलक पर विलग होते हल्के-गहरे रंगों में अंतर्मन अनुभूतियों का आकाष उनके चित्रो में हैं। कैलीग्राफी में वह पुराण ग्रंथों, चीजों को अपने तई परोटते रंगो का एक तरह से छन्द रचते हैं। इन चित्रो में कहीं अंधेरे-उजाले में उभरती छायाओं के बहाने दृष्य का अदृष्य और अदृष्य का दृष्य रूपान्तरण भी हैं। आंतरिक जगत की व्यंजना में रंगो के उजास, एक खास तरह की लय में उनकी कलाकृतियां दार्षनिक गहराईयों में ले जाती गहरे ध्यान के लिए प्रेरित करती है। मुझे लगता है, यही इन कलाकृतियों की बड़ी विषेषता है कि इन्हें देखते मन संस्कारित होता है।
श्याम शर्मा की कलाकृति 

अनील गायकवाड़ प्रकृति को अपने तई रंगो में रूपान्तरित करते हैं। उनकी कलाकृतियां का अपना मुहावरा है। इस मुहावरे में रंगो का जैसे ‘स्मृति छंद’ रचा गया है। फलक पर विलग होते रंगाकार और उनमें व्यंजित खेत-खलिहान की उर्वरता। परिवेष का मर्म। रंग दर रंग परतें। कहीं कोई ठहराव नहीं...रंगो की शास्त्रीय व्यंजना। देखते औचक यह भी लगता है, जो कुछ प्रत्यक्ष दिखता है, वही पूर्ण नहीं है। उससे परे भी चिंतन और अनुभूतियों से जुड़ा बहुत कुछ वहां है। रंगो का द्वैत। कहूं, एकान्त का रंग प्रवाह। अन्तध्र्वनियों में अनुभूतियों का आकाष यहां है। दृष्यालेख सरीखी उनकी कलाकृतियों को देखते औचक यह भी खयाल आता है कि रंगों के बहाने आत्मान्वेषण की उनकी उत्सुकता इनमें व्यंजित हुई है।
सुप्रिया की कलाकृति 

सुप्रिया की कलाकृतियों के केन्द्र में स्त्री आकृतियां हैं पर इनको रूपायित करते वह सामाजिक अवधारणाओं को एक तरह से व्याख्यायित करती है। पाष्र्व रंग छटाओं, अभिप्रायों में रोजमर्रा के जीवन से संवाद सुप्रिया के चित्रों में है तो स्त्री जीवंतता, उसकी अखूट ऊर्जा का सुमधुर अंकन भी। अपने होने के उत्सव का गान इन कलाकृतियो में है तो स्त्री स्वतंत्रता और उसकी अंतर्मन प्रकृति का वैचारिक द्वन्द भी इनमें है। कलाकृतियों में बरते रंग परिवेष से संवाद करते अपने समय के सच को जैसे गहरे से व्यंजित करते हैं। यहां परम्परा का पुनर्निमाण या कहूं पुनर्ननवीकरण है।

गजराज चानन की कलाकृतियां में पारम्परिक मिनिएचर की एप्रोच है। स्त्री-पुरूषों की आकृतियों में रेखाओं की लय और निहित गत्यात्मक प्रवाह है पर आधुनिकता की आहट भी इनमें है। ग्रामीण जीवन की समकालीनता में उनकी कलाकृतियां लोक का उजास लिए है। रेखाओं की सांगीतिक लय यहां है पर मोबाईल से संवाद के बहाने इन कलाकृतियों में समय संवेदना को भी गहरे से जीया गया है।  उनके उकेरे चरित्रों के पाष्र्व परिवेष में मांडणों और दूसरे अलंकारों के साथ लोक कलाओं का एक तरह से उजास है। छवियों की मोहक व्यंजना है उनके चित्र, परिवेष में परिवर्तन की अनुगूंज लिए।

कलाकृति : उत्तम चापते 
उत्तम चापटे की कलाकृतियां से रू-ब-रू होते लगता है, कैनवस पर वह रंग पोतते नहीं बल्कि फैलाते हैं। इसीलिए किसी एक रंग को भी उन्होंने कैनवस पर बरता है तो उसकी बहुलता में अंतर्मन संवेदनाओं का अनूठा भव निर्मित होता वहां प्रतीत होता है। कहूं, अंतराल पर उठती रंग सतहों में दृष्य और मनःस्थितियों का सूक्ष्म अंकन वहां है।  रंगो की सुनहरी दीठ और अनूठा लालित्य यहां है। किसी एक रंग में अपने को व्यंजित करते वह उसके बहुआयामों को उद्घाटित करते हैं। देखने वालो ंको अनुभूतियों का वह जैसे दृष्य पाठ बंचाते हैं। यह करते औचक वह कैनवस पर जैसे कुछ उघाड़ते हैं।
गजराज की कलाकृति 
इस उघड़ेपन में उभरता रंग और उससे जुड़ी संवेदना देखने की हमारी एकरसता को तोड़ती उस क्षण का गुणगान करती है। मुझे लगता है, तमाम कलाकृतियां मूर्त-अमूर्त में शुद्ध रंगो का एक तरह से सांगीतिक गठन है। अनगढ़ भावों की जीवंतता इनमें है। रंगो की चमक इनमें है, पर हरेक कलाकृति की अपनी वह लय भी है जिसे अनुभूत करने के बाद भी मन उसे फिर से देखने-गुनने को संस्कारित होता है। 

सभी में एक खास तरह की गीतात्मकता है, इसीलिए यह तमाम चित्र देखने के समय का ही सच भर नहीं है बल्कि उसके बाद भी अर्थ बहुलता की तलाष को प्रेरित करते कलाओं से हमारा नाता और सघन करते हैं।


Monday, September 12, 2016

उत्सवधर्मिता का आकाश


कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य को पुनर्नवा करती है। और हां, वैयक्तिक मुझे लगता है, देखने और सुनने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। जवाहर कला केन्द्र की कलादीर्घाओं में अक्सर जाना होता है। कुछ समय पहले चतुर्दिक कला दीर्घा में ‘कला चर्चा’ समूह के 26 कलाकारों की कलाकृतियों का आस्वाद सर्वथा नया अनुभव देने वाला था। भिन्न कला माध्यमों में कलाकारों ने जो सिरजा था, उसमें ठौड़-ठौड़ उत्सवधर्मिता को जैसे गहरे से जिया गया था। रंग-रेखाओं में कलाकारों ने प्रकृति को गुना और बुना था। और हां, कैनवस के साथ दूसरे माध्यमों  में भी जीवनानुभूतियों की व्यंजना कलाकरों ने इस प्रदर्षनी में की थी। एक खास बात यह भी नजर आई कि बहुत सी कलाकृतियों में लोक का आलोक था। माने स्थान-विषेष की लोक संस्कृति से जुड़े सरोकारों को भी कलाकारों ने अपने तई इस प्रदर्षनी में अंवेरा था। 
आमतौर पर समूह प्रदर्षनियांे में विषय विविधता के साथ रंग छटाओं की अनुभूतियां मन को रंजित करती बहुत कुछ नया देती है पर प्रायः सोचकर भी कलाकृतियों या कलाकारों पर चाहकर भी लिख नहीं पाता हूं। शायद इसलिए कि किसी कलाकार की कुछेक कलाकृतियों से उसके सृजन को समग्रता में नहीं कूंता जा सकता। पर ‘कला चर्चा’ के कलाकारों के उकेरे चित्रों को देखते बार-बार मन करता रहा कुछ लिखूं...पर चाह की राह कहां! याद आया, कभी सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यानिवास मिश्रजी को अपना कविता संग्रह ‘झरने लगते हैं शब्द’ भेंट किया था। कुछ समय बाद उनका पत्र आया था जिसमें उन्होंने कुछेक कविताओं पर अपनी राय दी थी पर फिर यह भी लिखा था, ‘कविता घूंट घूंट आस्वाद का विषय है सो कर रहा हूं।’ ‘कला चर्चा’ समूह की कला प्रदर्षनी का आस्वाद करते हुए और बाद में भी कलाकृतियों पर विचारते विद्यानिवासजी के लिखे शब्द ही ज़हन में गूंजते रहे। कलाकृतियां भी घूंट घूंट आस्वाद के लिए ही होती है। ‘कला चर्चा’ के कलाकारों की कलाकृतियों में बरता रंग, परिवेष और रेखाओं की लय अभी भी मन में बसी है। बहुत सी में परिपक्वता की राह भी दिखाई दे रही थी पर महत्वपूर्ण यह भी था कि फूल-पत्तियों, आकृतिमूलकता में सृजन की राह पर आगे बढ़ते कलाकारों में सृजन में नया मुहावरा बनाने की उत्सवधर्मिता हूंस को गहरे से अनुभूत किया। माने तमाम नए कलाकारों ने जो कुछ सिरजा उसमें जीवन से जुड़े सृजन पलों के प्रति आभार झलक रहा था, रंग और रेखाएं जैसे इसकी गवाही दे रही थी।
छायांकन सौजन्य : ललित भारतीय 
बहरहाल, ‘कला चर्चा’ के अंतर्गत कलाकारों ने कैनवस पर भी बहुत कुछ सिरजा था पर कैनवस से परे भी कला का मोहक संसार वहां झिलमिला रहा था। अदिति अग्रवाल ने पक्षियों के छोड़े पंखों पर कल्पनाओं का ताना-बाना बुनते रंग रेखाओं का नया आकाष रचा था तो अजीत कुमार के छायांकन में दृष्य में निहित संवेदनाओं की घट-घट सौरम थी। ममता रोकना के चित्रो में लोक संस्कृति से जुड़ा जीवनानुराग खासतौर से दाय आया तो संजय कांति सेठ के मोबाईल छायाचित्रों में उभरी दृष्यानुभूतियां अभी भी मन मे ंबसी है। तमाम कलाकारों की कला साधना पर जाऊंगा तो न जाने कितने और पन्ने भर जाएंगे, इसलिए इतना ही कि समूह कला प्रदर्षनियो में वैविध्यता के साथ रंग-रेखाओं के राग का सर्वथा नया उजास कलाकारों ने अपने तई रचा था। मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् भी अपनी तरह की साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है, नृत्य की भंगिमाओं को जिया है-तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं-उसके प्रति। कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करंेगे तो कुछ और सौन्दर्य भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा? ‘कला चर्चा’ की कलाकृतियों के बारे में भी कुछ ऐसा ही भव मन में निर्मित हो रहा है। एक और खास बात इस प्रदर्षनी के चित्रो ंकी साझा की जानी चाहिए कि इसमें संगीत, नृत्य और नाट्य से जुड़ी संवेदनाओं का भी ठौड़-ठौड़ वास था। शायद यही वह कारण था कि चित्रों का आस्वाद करते उत्सवधर्मिता की हमारी संस्कृति के बारे में भी मन बारम्बार जा रहा था।
प्रदर्षनी स्थल पर ही एक रोज वडोदरा के वरिष्ठ कलाकार अजीत वर्मा की सैंड कास्टिंग देखते लगा, वह मिट्टी-कंक्रीट में देखने का सर्वथा नया अनुभव-भव निर्मित करते हैं। उनकी षिल्प दीठ का आस्वाद करते मन रह-रह कर रामकिंकर बैज की कलाकृतियों को भी याद करता रहा। सैंड को दृष्य की अनंत संभावनाओं में रूपान्तरित करते अजीत वर्मा जी जैसे कला के उस आकाष में ले जाते है जहां जीवन को देखने का नजरिया औचक बदल जाता है। ऐसे ही नवल सिंह चैहान के रेखाचित्रों के आस्वाद के वह क्षण भी सुखद थे जिनमें गत्यात्मक प्रवाह की उनकी रेखाओं में परिवेष के साथ उकेरे पोट्रेट्स में चेहरे के भावों को गहरे से जिया गया था। डाॅ. वीरबाला भावसर के सैंड आर्ट डेमो के साथ ही हरिषंकर भालोटिया की कैलिग्राफी का आस्वाद भी तो अब तक कहां भूला हूं।
ऐसे दौर में जब कलाओं पर संवाद गौण प्रायः हो रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि ‘कला चर्चा’ समूह ने कलाओ में विमर्ष की राह खोली है। संयोजक द्वय डाॅ. ममता रोकना और ताराचंद शर्मा स्वयं कलाकार हैं, सो उनके आग्रह पर समूह के कलाकारों से अनौपचारिक संवाद जब हुआ तो यह जानकर सुखद लगा कि समूह के देषभर के कलाकारो ंमें नया कुछ रचने की ही नहीं बल्कि कलाओं से जुड़ी अनुभूतियों पर जानने की भी अखूट ललक है। संवाद में कलकारों से कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा षिल्प के साथ ही कलाओं के अंतःसंबंधों पर अपनी अनुभूतियों को साझा करते, कलाकारों द्वारा जिरजे कला आकाष पर जाते यह भी लगा यह कलाएं ही है तो मन को रंजित करती हमें अंदर से संपन्न करती है। ‘कला चर्चा’ कलाकृतियों में नया कुछ रचने की दीठ से ही नहीं कलाओं मंे संवादधर्मिता को भी इसी तरह भविष्य में आगे बढ़ाएगी, इस उम्मीद के साथ...स्वस्तिकामना।


Tuesday, August 30, 2016

छायाचित्रों की कलाधर्मिता में रचा प्रकृति का रंगाकाश


कलाएं मन को रंजित करती है। शायद इसलिए कि वे हमारी संवेदना को चक्षु देती है। यथार्थ को सर्वथा नई दीठ से देने का एक प्रकार से संस्कार भी कलाएं ही देती है। छायांकन की ही बात करें। ब्रितानी सैरा चित्रकार टर्नर ने कैमरे के आविष्कार के समय कहा था कि फोटोग्राफी के आगमन का अर्थ है, कला का अंत। पर कला स्वरूपों की सृजन प्रक्रिया का आज छायांकन प्रमुख आधार है। न्यु मीडिया का तो प्रमुख आधार ही आज फोटोग्राफी ही है।
मुझे लगता है, छायांकन दृष्य संवेदना में अनुभव का सर्वथा नवीन भव निर्मित करती है। संवेदना से उपजी यह वह सर्जना है जिसमें देखने का हमारा ढंग बदल जाता है। दृष्य में निहित बाहरी ही नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य की भी दीठ इसमें निहित है। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में छायाकार महेश स्वामी की छायाचित्र कला की एक सर्वथा भिन्न दृष्टि की प्रदर्षनी  का आस्वाद किया। लगा, दृष्य के साफ-सुथरेपन के साथ प्रकृति में घुले रंगो का उन्होंने बजरिए तकनीक सर्वथा नया आकाष रचा। कोई कह रहा था, खींचे गए छायाचित्रों से छेड़-छाड़ कर छायाकार ने दृष्यों को अपना निजत्व देते अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है। पर इसमें बुरा भी क्या है? तकनीक साधन है, साध्य नहीं। 
कैमरे से लिए गए छायाचित्रों को कलाकृतियो मेें रूपान्तरित करते यदि प्रयोगधर्मिता का ताना-बाना बुना जाए तो इसमें बुरा भी क्या है। और फिर कैमरे से लिए गए चित्रों में यदि हूबहू जो कुछ दिख रहा है वही दर्षकों का सच बनता है तो इसमे ंफिर कला क्या है? कला तो संवेदना की वह आंख ही है जिसमें छायाकार अपने तई दृष्यों को अंवेरता, उसे अपनी सूक्ष्म सूझ से रूपान्तरित करता है। एक समय में पिकासो, मातीस, सेजां, साल्वो आदि ने फोटोग्राफी से निरंतर प्रभावित होते स्वयं की कला के संप्रेषण माध्यम में इसका उपयोग किया भी तो है। और फिर यह भी तो सच है, छायाकंन मे ंयदि यथार्थ का ही अंकन होता है तो उसमे फिर कला कहां है? छायाकार यदि कलाकार है तो वह दृष्य में निहित उस सौन्दर्य से भी हमारा साक्षात् करा देता है, जो नंगी आंखों से चाहकर भी हम देख नहीं पाते। इसमें यदि प्रयोगधर्मिता का सहारा कलाकार लेता है तो यह तो जड़त्व को तोड़ने की सृजनधर्मिता ही हुई ना। इसी की तो कला में दरकार है।
छायाकार महेश स्वामी 
बहरहाल, महेष स्वामी की छायाचित्र प्रदर्षनी ‘दर्पण’ पर लौटता हूं। इस बार के उनके छायाचित्र देखने के हमारे चले आ रहे ढंग की लीक को तोड़ने वाले हैं। कहूं, एक खास तरह की एकांतिका उनके इस बार के छायाचित्रों में व्याप्त है। लॉन में पड़ी कुर्सियॉं, साईकिल और कूलर, गमले और यहां तक की दरवाजों तक के अकेलेपन के बावजूद उनमें रमी फूल-पत्तियों की गुनगुनाहट की सूक्ष्म अंर्तदृष्टि में इन छायाचित्रों में समय के अवकाष को गहरे से पकड़ा गया है। यह भी महज संयोग नहीं है कि प्रयोगधर्मिता लिए उनके छायाचित्रों में पेड़ों के हरेपन के बहाने दैनिन्दिनी उपयोग की वस्तुओं की छवियों को एक खास तरह का अर्थ दिया गया है। यह सही है, तकनीक के प्रयोग से महेष ने अपने इन छायाचित्रों को कैनवस पर सृजित कलाकृतियों सरीखा रूपाकार दिया है परन्तु महत्वपूर्ण इस सृजन का वह पक्ष है कि जिसमें प्रकृति से जुड़ी उनकी संवेदना को पंख लगे हैं।
उनके छायाचित्रों में गमलों में उगे पौधों, फूलों में निहित सौन्दर्य को असल में रूपक की तरह इस्तेमाल किया गया है। इसलिए कि कैमरे से जो कुछ आंख ने देखा, वही भर यहां सत्य नहीं है-उससे परे वह संवेदना भी है जिसमें प्रकृति को अपने तई गुना और बुना जाता है। छायांकन-कला की यह वह नवीन प्रयोगधर्मिता है जिसमें छाया-प्रकाष की कलात्मक सूझ के साथ रंग और रूप के मनः स्केच एक तरह से उकेरे गए हैं। मसलन पेड़ों से छाई हरियाली के हरेपन को, पतझड़ के पीलेपन को और सूर्ख गुलाब और दूसरे फूलों के रंगो को चुराते महेष ने अपने कैमरे की छवि की दृष्यात्मकता को सर्वथा नया आयाम दिया है। यह है तभी तो उनकी कैमरे से उकेरी छवियां यहां रंग-रूप का नया आकाष रचती देखने वालों में बसती है।
उनकी छायाचित्र प्रदर्षनी में प्रकृति एक तरह से वह दर्पण ही तो है जिसमें जीवन से जुड़े बिम्ब झिलमिलाते हैं। इनमें उभरे हल्के हरे, नीले, लाल, भूरे, काले रंगों का और रूप का अद्भुत उजास है। यह अनायास ही नहीं है कि उनकी इस श्रृंखला के छायाचित्रों को देखते हुए औचक वॉन गॉग की कलाकृतियों की याद आती है तो पिकासो के कला प्रयोग भी ज़हन में कौंधते हैं। कुछ इस तरह से कि प्रदर्षनी में देखने के बाद भी उनकी छाया-छवियां मन में सदा के लिए बसी रहती है। मुझे लगता है, महेष ने अपने इन छायाचित्रो ंमें अनुभूतियों को स्केचेज की अपनी प्रयोगधर्मिता में इस कदर सरल, सहज कैमरे से रूपान्तरित किया गया है कि कोने में पड़ी साईकिल, कार, सन्नाटे में पसरी कोई बेल, करीने से रखे हुए गमलों का लाल रंग और पक्षियों के लिए रखा पानी सदा के लिए हममें बस जाता है। इस छायाचित्र श्रृंखला का वह फोटोग्राफ तो अद्भुत है जिसमें खाली पड़ी कुर्सियों की के मौन को पीले उगे फूल स्वर दे रहे हैं। ऐसे ही एक फोटोग्राफ में बेल में उगे फूल जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं तो दूसरे एक में हरे पत्ते और बारिष से नहाया आंगन जैसे मुस्करा रहा है। उड़ते पक्षियों की परछाई, एक स्थान पर एकत्र हरे तोते, पानी का रखा पात्र पर उसमें झांकती पेड़ की शाखाएं आदि की बिम्ब-प्रतीक व्यंजना के इन फोटोग्राफ्स में छायांकन कला के जरिए महेष स्वामी ने जैसे प्रकृति का रंगाकाष रचा है। जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मन की अनुभूतियों को सहेजती, छाया-कला प्रदर्षनी के फोटोग्राफ दरअसल मौन में प्रकृति की गुनगुनाट सुनाती कलाकृतियां ही तो है।

Sunday, August 14, 2016

खुली किताब : यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'


यादवेंद्र शर्मा चंद्र से संवाद (1989)

यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' राजस्थान के ऐसे साहित्यकार थे जिनके जीवन का कर्म और मर्म लिखना और बस लिखना ही था। लिखते बहुत से लोग हैं परन्तु चन्द्रजी जैसे विरले हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन या यूं कहें आजीविका मात्र लेखन के सहारे ही गुजारी। हिंदी और राजस्थानी में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, संस्मरण आदि सभी विधाओं में उन्होंने विपुल सृजन किया। 

उनके सान्निध्य और दिए गए स्नेह की बहुत सी यादें हैं। याद करूंगा तो न जाने कितने पन्ने भर जाएंगे! यह १९८९ की बात है, जब उनका एक बड़ा साक्षात्कार मेंने किया और वह प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' में छपा था। बाद में उनके साथ 'राजस्थानी की कालजयी कहानियां' के संपादन का सुयोग भी मिला। नई धारा, इण्डिया टूडे, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति आदि के लिए निरंतर मैंने उनके साक्षात्कार किए। 'जागती जोत' के लिए मित्र नीरज दईया के आग्रह पर कभी मैंने राजस्थानी में उनका बड़ा साक्षात्कार किया। इतना कुछ उनके बारे में सहेजा, संजोया है कि पूरी एक किताब प्रकाशित हो जाए। याद पड़ता है, उनकी साक्षात्कार की एक किताब का शीर्षक ही है, 'खुली किताब'। मुझे लगता है, चन्द्रजी भी सबके लिए खुली किताब थे।
उनसे पहली भेंट का किस्सा भी उनके बड़पन्न को बंया करने वाला है। याद है, तब कॉलेज में पढ़ता था और 'ब्लिट्ज' के लिए पत्रकारिता करता था। उनके उपन्यास की समीक्षा मैंने इसमें एक दफा की। शायद वह उनका लिखा राजस्थानी परिवेश का'रक्तकथा' उपन्यास ही था। समीक्षा में अपने होने को गहरे से जताते मैंने अनावश्यक अश्लील शब्दों, कथा विस्तार और शब्दावली आदि जुमलों से जैसे उसकी भरपूर खिंचाई की थी। सच में तो यह आसमान पर पत्थर फेंकने जैसा ही था। तय था, चन्द्रजी कभी मिलेंगे तो खबर लेंगे पर हुआ बिल्कुल उलट। एक रोज़ चन्द्रजी घर के बाहर से आवाज लगा रहे थे, 'यह राजेशजी का ही घर है?' मैं लपककर पहुंचा। वह शायद चेहरे से मुझे नहीं जानते थे पर जब मिले तो तुरंत कहा, 'तुम्हारे यहां चाय पीने आया हूं।' बातों ही बातों में वह मेरी लिखी समीक्षा पर आ गए परन्तु स्वर बिल्कुल संयत। बोले, 'अच्छी लिखी है पर अतिशयोक्ति से की है तुमने समीक्षा।' मैं जानता था, वह सही कह रहे हैं परन्तु बाद में उन्होंने इस बात को भी हवा में उड़ा दिया। यह तो बहुत बाद में पता चला सम्पादक उनके निकट के मित्र थे। चाहते तो वह सदा के लिए मेरा लिखना "ब्लिट्ज" से छुड़वा सकते थे। पर यह उनका बड़पन्न था कि उन्होंने संपादक श्री नौटियालजी से मेरी तारीफ की।....ऐसे बहुत से और भी किस्से हैं, जो उनकी उदात्तता के हैं। वह साफ मन के थे। बहुत प्यार देने वाले। 
जब भी बीकानेर जाता हूं, लौटता हूं तो चन्द्रजी के नहीं होने के खालीपन को लेकर ही लौटता हूं। इतना प्यार अब कौन दे? और शायद उन्होंने बिगाड़ भी दिया था कि जितना नेह वह देते थे, उतने से कम में अब पार नहीं पड़ती। नमन, चन्द्रजी। नमन!

Saturday, August 13, 2016

जब कलाएं पास आती है...'



कलाएं समय, समाज और परिवेश की एक तरह से सुघड़ व्यंजना है। सृजन के स्त्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परम्परा, इतिहास को वहां ध्वनित पाएंगे। अतीत और वर्तमान वहां साथ-साथ झिलमिलाता है। मुझे लगता है, बहुत से स्तरों पर कलाएं अतीत के जरिए भविष्य का किवाड़ भी खोलती हैं। कलाओं में अतीत यदि ध्वनित होता है तो इसका कारण शायद यह भी है कि अतीत का जो भी सुदंर है-मनभावन है, वह बचाया जा सके। अतीत से जुड़ी वस्तुएं सीढ़ी है-कला के सौन्दर्य तक पहुंचने की। इस सीढ़ी के जरिए ही पाई जा सकती है, नव्यतम दीठ। सोचता हूं, अपने अंतरतम तक पहुंचने का मार्ग भी तो है अतीत! 
विनय शर्मा मूलतः चित्रकार है परन्तु इधर अपनी कला में अतीत को सर्वथा नवीन दीठ से संजोया है। उनका कैनवस संगीत से जुड़ गया है, नृत्य की थिरकन उसमें समा गयी है और नाट्य की भंगिमाओं से उनकी कलाकृतियां जैसे दृष्य के अद्भुत आख्यान हमारे समक्ष रखती है। उनके स्टूडियो में बीते हुए कल को जीवंत करता अतीत ठौड़-ठौड़ जैसे बिखरा पड़ा है। पुराने जमाने की रोजमर्रा से जुड़ी भांत-भांत की चीजें उनकी कला का हिस्सा हैं। पुराने जमाने का ग्रामोफोन, टाईपराईटर, बड़ी सी दवात, झूले, झाड़ फानुस, ईरानी आईना, सूत कातते चरखे और गुजरे जमाने की याद दिलाते ढेर सारे रेडियो का अद्भुत संग्रह उन्होंने पिछले कुछ वर्षों के दौरान किया है। उनकी कलादीर्घा (स्टूतडियो) में प्रवेष करेंगे तो पाएंगे, एक कोने में बहुत सारे पुराने टेलीफोन यंत्र हैं। पुराना टेलीफोन बूथ और उसके बाहर लटकते ढेर सारे अलग-अलग समय के दूरभाष यंत्र। यही नहीं, बीते कल की फिल्मों के पोस्टर! अतीत से जुड़े ढेरों दस्तावेज। हर ओर, हर छोर। और हां, इन सबसे ही यहां अतीत जैसे रागायमान है। भले पुराने जमाने की चीजें यहां स्थिर हैं परन्तु उनमें लययुक्त गतियां हैं। गुम हुई आवाजें हैं और हैं स्मृतियां। 
चीजें स्थिर रहें, मौन रहें तो उदासी, सन्नाटा पसरता है पर कलाकर्म से उनमें ध्वनित होने की अनुभूतियां पैदा की जाए वह राग बन जाता है। ‘अतीत राग’। विनय शर्मा की स्टूडियो इस दीठ से मुझे ‘अतीत राग’ ही लगता है। इसलिए कि अतीत को अपनी कला में उनने गहरे से संजोया है। बीते हुए कल को अपने तई संवारते कैनवस पर ही नहीं संस्थापन की अपनी सूझ में भी उसे गहरे से जीया है। कैनवस पर रंग-रेखाओं के संग का पाष्र्व कुछ और नहीं पुरानी बहियां, स्टाम्प पेपर, जन्मपत्रियां, पुराने भोजपत्र और तमाम वह दस्तावेज जो कल की बात हो चुके हैं। सोचता हूं, अतीत से यह कैसा अनुराग है। नया काम पर अतीत से जुड़ा। कला की आधुनिक दीठ पर परम्परा का सांगोपांग मेल। संस्थापन की विनय की नव्यतम प्रस्तुति में चित्रकला के साथ संगीत, नृत्य, नाट्य में ध्वनित होते इतिहास में परम्परा का राग है तो आधुनिकता का अनुराग भी।
हाल ही में जयपुर आर्ट समिट में इस बार विनय शर्मा का संस्थापन विषेष आकर्षण का केन्द्र रहा। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में एक कोना विनय के संस्थापन का था जिसमें अतीत से जुड़ी चीजों का विनय का कला संग्रह ही नहीं था बल्कि वहां अतीत दृष्य के साथ ध्वनित भी हो रहा था। वह सांझ सचमुच खास थी। विनय ने अपनी नव्यतम संस्थापन प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया था। पहुंचा तो देखा कलर पेलेट लिए ब्रष से ईजल पर रखे कुछ बनाते विनय दिख रहा था पर बहुत प्रयास के बाद भी कुछ शायद बन नहीं पा रहा था। कुछ न बना पा सकने की झुंझलाहट भी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी। औचक, विनय ने कैनवस पर ब्रष से कुछ बनाया पर फिर शायद उसे लगा, जो कुद वह सृजित करना चाहता है कैनवस उसके लिए पर्याप्त नहीं है। हमने देखा, अपनी पुरानी चीजों में से वह कुछ तलाष करने लगा। अपनी संग्रहित अतीत से जुड़ी वस्तुओं में से एक पुरानी लालटेन को अंततः उसने ढूंढ निकाला। लालटेन को रोषन कर वह फिर से ईजल के पास आया। रोषनी ईजल पर रखे कैनवस पर पड़ती दिखाई दी पर उसने कैनवस पर कुछ उकेरने की बजाय उसे हटा दिया। लालटेन की रोषनी ईजल पर फिर से थी, उजास में दिखाई दी कैनवस के पीछे छीपी वह मूर्तिनुमा मानवाकृति जो अब तक स्थिर, खामोष थी। 
लालटेन की रोषनी जैसे ही मानवाकृति पर पड़ी जैसे अब तक सोई उस मूर्ति में जान आई। रोषनी से पूरी तरह नहाते रंगपूति मानवीय आकृति जैसे जीवंत हो उठी। विनय ने कलर पेलेट से रंग उठाए और ब्रष से उस आकृति में और कुछ रंग पोत दिए। गणेष की सूंड। गजानन जैसे रंग-रेखाओं में जी उठे। गणेष वंदना के ध्वनित संगीत पर तभी नृत्यांगना झंकृति जैन की नृत्य भंगिमाएं भी जैसे परिवेष को जीवंत करने लगी। पुरानी चीजों के संग्रह में एक ओर नटेष के अभिनय में रंग-रेखाओं पूते अषोक बांठिया थे तो दूसरी ओर 51 लघु कैनवस पर उकेरी गणेष की भांत-भांत की मुद्राओं की विनय की कलाकृतियां थी। चित्रकला, नृत्य, संगीत और अभिनय का यह अद्भुत मेल था। इधर झंकृति का नृत्य थमा कि छत से लटके पुराने टेलिफोन के चोगों की घंटियां एक साथ बज उठी। विनय की कलाकृति बने अषोक बांठिया हैलो....हैलो...हैलो करते हैरान-परेषान फोन सुनते भांत-भांत के टेलिफोन यंत्रों की ओर लपकते हैं। उधर ध्वनियों का आकाष है। एक टेलिफोन पर प्रसन्न्ता का समाचार दिया जा रहा है तो दूसरे किसी में शोक समाचार का रूदन है, तीसरे किसी में प्यार और रोमांष की बातें हैं तो चैथे किसी में दैनिन्दिनी जीवन से जुड़ी कोई बात।...तब-जब मोबाईल नहीं थे, टेलिफोननुमा यंत्र जीवन को ऐसे ही तो स्पन्दित किया करता था। 
प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक अशोक बांठिया 
नाटक जारी आहे! एक टेलिफोन पर गाना बनजे लगा है, ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलिफोन, तुम्हारी याद सताती है...।’ यह टेलिफोन में गूंजरित रेडियो ध्वनि है। विनय के एकत्र रेडियो सैट जैसे इसी की याद दिलाते हैं। गीत पूरा होता है कि टन...टन...टन के घंटे बजते हैं। अभिनय कर रहे अषोक बांठिया हैरान होकर इधर-उधर देखते हैं। रंगपूती विनय की कलाकृति की बैचेनी साफ दिखाई देती है। इधर-उधर अतीत को जीवंत करती वस्तुओं पर लाईट घूमती है। औचक बड़ी सी दिवार घड़ी पर नजर जाती है। जीवित कलाकृति गौर से इस घड़ी को देखती है। घड़ी में रात के 9 बजने के साथ ही टन-टन-टन करते नौ घंटे भी बज जाते हैं। टिक...टिक...टिक करती एक नहीं अनेक घडि़यां दिखती है। अलग-अलग रूपाकारों में। पुराना समय जैसे इन घडि़यों में जीवित हो उठा है कि फिर से रेडियो से गीत बजता है, ‘सुनो गजर क्या गाए...समय गुजरता जाए।’ विनय की कलाकृति (अषोक बांठिया) इस गीत पर थिरकने लगती है। भावाभिनय  की अद्भुत व्यंजना! बांठिया के अभिनय में बीता हुआ समय जैसे ध्वनित होते देखने वालों को भी अतीत के किसी गलियारे में ले जाता है। लगता है, देखने वाले टाईम मषीन में बैठ गये हैं, समय पीछे लौट गया है। ...धीरे...धीरे कलाकृति पुराने जमाने की संग्रहित चीजों में जैसे अपनी ही तलाष करती है कि खर...खर की आवाज से उसका ध्यान भंग होता है। फिर से हैरानी...विस्मय के भाव कलाकृति के चेहरे पर दिखाई देते हैं। वह इधर-उधर नजर दौड़ाती है कि नजर पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो सैटों पर पड़ जाती है। रेडियो के वाॅलियम और बैंड को मिलाने पर आकाषवाणी के समाचार सुनाई देने लगते हैं। रेडियो की आवाज समाचारों से होती हुई बहुत सी और रेडियो प्रस्तुतियां सुनाती है। इन प्रस्तुतियों में आजादी की लड़ाई के समाचार हैं, विचार हैं और लोकतांत्रिक राष्ट्र से जुड़े आख्यान-व्याख्यान की पुरानी रिकाॅर्ड ध्वनियां दर ध्वनियां हैं। इन ध्वनियां पर कलाकृति बने अषोक बांठिया का सहज, आवाज में निहित भावों को जीवंत करता अभिनय इस कदर प्रभावी है कि आंखे उनकी भंगिंमाओं पर ही केन्द्रित हो जाती है। ...पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो की आवाजें धीरे-धीरे शांत होती है कि लाईट फिर से पुराने झाड़फानुस, टाईपराईटर, दवात, कलमों और दूसरी अतीत से जुड़ी जीचों पर केन्द्रित हो जाती है। इन्हें ही विनय ने इधर अपने कलाकर्म का माध्यम बनाया है। कलाकृति बने अषोक बांठिया इन चीजों में अपने होने की तलाष करते इधर-उधर हो रहे हैं कि फिर से कलाकार विनय पाष्र्व से लालटेन लिए आ जाते हैं। कलाकृति लालटेन के उजास को पाते ही फिर से ईजल की ओर लौटती उसपर कैनवस बनती थिर हो जाती है। शायद यह जताते हुए कि हरेक कला दूसरी कला से मिलकर ही पूर्ण होती है।
बहरहाल, विनय शर्मा के कलाकर्म पर विदूषी और अजय जैन की इस आधा घंटे की भावपूर्ण प्रस्तुति में कलाओं के अन्तःसबंधो को जैसे मुझ अंकिंचन ने गहरे से जीया। इस प्रस्तुति को देखकर कहीं पढ़ा हुआ ज्याॅं सेराॅ का वह कथन भी जेहन में फिर से कौंधता है जिसमें वह कहते हैं कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही नहीं तमाम कलाएं अनुभव का अनूठा लिए ही तो होती है। कलाएं इसीलिए शरण्य है कि वहां कोई एक अर्थ नहीं अर्थ की अनंत संभावनाओं का आकाष होता है। बगैर उनमें रमे-बसे इस आकाष की थाह कहां कोई पा सकता है!
मौलिक दीठ के विनय के इस ड्रामा-इंस्टालेषन में रंग-रेखाओं को मानव शरीर पर जीवंत करते अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की गहरी सूझ है। नाट्य अभिनेता, निर्देषक अषोक बांठिया के साथ मिलकर विनय ने संस्थापन के अपने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया है। 
अशोक बांठिया और  विनय शर्मा  
बहरहाल, कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा षिल्प है। षिल्प माने नृत्य, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, स्थापत्य और यहां तक कि हस्तकलाएं तक। विष्णुधमोत्तरपुराण का तीसरा खंड चित्रसूत्र है पर वहां चित्रकला ही नहीं है, प्रतिमाशास्त्र और मंदिर वास्तु पर भी विषद् विवरण है। नृत्य और संगीत के साथ नाट्य की मुद्राओं, भाव एवं रस आदि सहित समस्त कलाओं के पारस्परिक अंतरसंबंधों को अंवेरते यह बताया गया है कि एक कला को समझे बगैर दूसरी कला को समझा नहीं जा सकता। वैसे भी संगीत का उद्देश्य स्वरों की भाव सृष्टि से होता है और चित्र का उसमें निहित रूप-रेखाओं से। वास्तु या मूर्ति में पत्थर, काष्ठ या धातुओं में उसी रूप की प्रतिष्ठा होती है। और फिर वास्तुकला की तो सागीतिक भाषा तक बताई गयी है। इसीलिए कहें तमाम हमारी कलाएं कारू (उपयोगी) भी है और चारू (कलात्मक) भी हैं। सभी कलाओ को एक समान मानने का उद्देश्य सत्य का संधान तथा मानव जीवन को सौंदर्य एवं माधूर्य से परिपूर्ण बनाना ही तो रहा है। इस दीठ से विनय शर्मा का संस्थापन ‘अतीत राग’ मन को मथता है,  कलाओं के अन्तःसंबंधों की गवाही देता हुआ।                         

Sunday, August 7, 2016

मौन हो गया, कलाओं के अंतःसंबंधों का वह रंगाकाश

कालिदास ने रंगमंच को चाक्षुष यज्ञ की संज्ञा दी है और भरतमूनि ने इसे सामुदायिक अनुष्ठान बताया है। मुझे लगता है, कावलम नारायण पणिक्कर के नाटक इन कथनों को अपने तई जीवंतता प्रदान करते हममें बसते है। भावों की समग्रता में उनके नाटक रागबन्ध है। रागबन्ध माने रस के रूप में भावों की सुमधुर व्यंजना वहां है। उनकी नाटय प्रस्तुतियों पर विचारता हूं तो सहज कलाओं के अंतःसंबंधों के दृश्य माधुर्य को भी वहां पाता रहा हूं। इसलिए कि वहां नृत्य, भावभिनय है, गान और चित्रमय दीठ का सांगोपांग है। 
बहरहाल, भारतीय रंगमंच में पणिक्करजी का नहीं होना सदैव खलता रहेगा। उनके देहांत की सूचना जब मिली, तब श्रीनगर में था। विष्वास नहीं हुआ। भारतीय रंगकर्म में किए उनके प्रयोगों में ही मन बसा रहा। यह सच है, उनके नाटक कलाओं के अंतःसंबंधों की एक तरह से व्याख्या ही है। उनके कुछेक नाटकों का आस्वाद तो पहले भी किया था परन्तु जयपुर के रवीन्द्र रंगंमंच पर वर्ष 2013 में ‘रंग पणिक्कर समारोह’ के अन्तर्गत मंचित उनके नाटकों में मन अभी भी रचा-बसा है। कोई सप्ताह भर तक पणिक्कर जी का प्रवास भी इस दौरान जयपुर ही रहा, सो एक बार निरंतर दो घंटे और फिर टुकडों-टुकडों में नाटय और कलाओं पर महती संवाद का सुयोग भी हुआ। नाटय प्रदर्शन से पहले वह कलाकारों से संवाद करते, मंच के पार्श्व परिवेश में भी क्या कुछ पहले से नया हो सकता है, इसके लिए भी वह अपने तई जुटे रहते। तभी गौर किया, प्रकाश, ध्वनि और तमाम दूसरे नाटय उपादानों से भी वह निरंतर अपने को जोड़े रखते। मुझे लगता है, यह था तभी तो उनके निर्देशित नाटक रंगमंच की परम्परा के जडत्व से मुक्त होते संस्कृति के लोक सरोकार लिए जहन में सदा के लिए दर्षकों के मन में बसते रहे हैं। 
कावलम नारायण पणिक्कर छाया-चित्र  : महेश स्वामी
कावलम नारायण पणिक्कर निर्देशित नाटकों की अर्थ अभिव्यंजना ही नही उनमें निहित परिवेश भी समय की अधुनातन संवेदना से जुडा देखने वालो का मोहता रहा है। साधारीकरण में वह सौन्दर्य की वस्तु सत्ता से साक्षात कराते रहे है। उनका एक नाटक है, अवन वन कडिम्बा। सुप्रसिद्ध फिल्मकार जी. अरविन्दन ने इसे कभी उनके सहयोग से मंचित किया था। खुले रंगमंच पर वृक्षों की पृष्ठभूमि पर जब यह हुआ तो भारतीय रंगकर्म के लिए यह सर्वथा नवीन पहल थी। जयपुर में हुए संवाद में उन्होने इसका उल्लेख भी किया  और कहा भी कि प्रकृति से जुडी चीजों की मंच पर प्रयोग की सीख उन्हे जी. अरविन्दन से ही मिली। रवीन्द्र रंगमंच पर मालविकाग्निमित्र के मंचन में अशोक वृक्ष का जो चितराम उनके निर्देशन में हुआ, वह भी अदभूत था। अशोक वृक्ष, उसकी पत्तियां, शाखाओं के विरल दृश्य रूपान्तरण अभी भी जहन में बसे है। मुझे लगता है, मंचीय परिवेश की जीवन्तता की उनकी अनूठी सूझ है। नाटयकुलम की और से रंग पणिक्क्र समारोह में मध्यमव्यायोम कर्णभारम मालविकाग्निमित्र उत्तरामचरितम, थैया थैयम कलिवेशम नाटकों का मंचन हुआ। इनका आस्वाद करते लगा, वह भारत के विरल नाट्य निर्देशक है। ऐसे जो संस्कृत और दूसरे परम्परागत नाटकों के रूप में विधान से किसी प्रकार की छेडछाड नही करते। परन्तु उन्हें हुबहु वैसा ही नही रखकर उसमें अपनी सूक्ष्म दीठ से समय के संदर्भ पिरोते रहे है। बतौर नाटय निर्देशक रंगकर्म में उन्होने जोखिम भरे प्रयोग भी कम नही किए है। मसलन उनके बहुतेरे नाटकों में पात्र के साथ उसके छाया पात्र से दर्शकों का बार बार सामना होता हे। अंतर्मन संवेदनाओं, मन मंें घुमडते विचारों, खुद के खुद से होने वाले प्रश्नों और द्वन्द का मंचन आसान नही है। बल्कि कहे, इन सबके नाटय रूपान्तरण की जोखिम नाटक में कोई ले भी नही सकता। परन्तु यह जोखिम ही पणिक्कर जी के नाटकों की बडी विशेषता है। उनके नाटको में नह केवल  इस जोखिम को उठाया गया है बल्कि चरित्र का आत्म संवाद गहरे से अभिव्यंजित भी हुआ है।
छाया-चित्र महेश स्वामी
पणिक्कर जी के नाटकों में संकेतो के जरिये संवेदना का संम्प्रेषण तो है साथ ही नाटय दृश्य में पात्रों की भंगिमाओं से गढे गये अदृश्य का भी भावनात्मक रूपान्तरण है। इसीलिए उनके नाटक देखते हुए हमारे भीतर घटने लगते है।  भास रचित ‘मध्यम व्यायोम’ को ही ले। घटोत्कच जब वहां पहाड उठाने का अभिनय करता है तो लगता है, सच में उसने विशाल काय पहाड को अपनी भुजाओं में उठा लिया है। भले ही पहाड़ वहां विचार है। परन्तु पहाड़ उठाए पात्र को देखने लगता है, वह हमारे भीतर घटने लगा है। ऐसे ही इस नाटक में घटोत्कच और हिडिम्बा के उनके रण प्रयोगो में लोक अनुष्ठान्न है। भवभूति रचित ‘उत्तर रामचरित्रम’ की उनकी नाटय प्रस्तुति भी विरल है। यह राम के राज्य या अभिषेक के बाद सीता निर्वसन और फिर से मिलन की कथा है। रामायण की मूल कथा दुखान्त है। परन्तु भवभूति  की सुखान्त। पणिक्करजी के रंग निर्देशन में नाटक और नाटक के भीतर एक और नाटक जीवंत हो जैसे देखने वालो से संवाद करता है। 
बहरहाल, पणिक्कर जी ने अपने तई देष में नवीन रंग संस्कृति का विकास किया। ऐसी नवीन संस्कृति का जिसमे रंग कर्म संस्कृति से जुडी हमारी एक अनिवार्यता लगता है। नाट्यकर्म पर उनसे दीर्घ संवाद में नाटय शास्त्र की प्रासंगिकता के साथ ही आधुनिक रंगकर्म पर ढेरो बाते हुई है। वह नहीं है पर नाट्य में लोकधर्मिता के प्रयोगो पर और भारतीय रंगकर्म की स्थापनाओं पर उनसे हुए संवाद मन को निरंतर मथता रहा है। अनुभव संचित रंगाकाश में कलाओं के अंतःसंबंधों का अदभूत उजास संवाद में उनसे मिला। भारतीय रंगकर्म की चर्चा जब भी की जाएगी, पणिक्करजी की रंगधर्मिता के समय को भी याद किया जाएगा।

Sunday, July 24, 2016

सत्यम् शिवम् सुन्दरम


शिव माने कल्याणकारी। जो कल्याण करता है, वही तो इस जगत में सुन्दर है। और जो सुन्दर है, वही सत्य है। इसीलिए कहें ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम’ का उत्स भगवान शिव है। देह कहां सुन्दर होती है, सुन्दर तो वह स्वरूप होता है जो मन में बसता है। शिव निराकार हैं। सुखद अनुभूति प्रदान करने वाले। सुन्दरता का अर्थ भद्र और कल्याण का भाव है। सौंदर्य की अवधारणा आनंदानुभूति में ही तो है। सौन्दर्य में शुचि, शुभ और भद्र की समन्विति है। मंगल की भावना है। कहते हैं, सृष्टि से पहले न सत् ही था न असत्। आदिकाल में जब केवल अंधकार ही अंधकार था, न दिन था न रात्रि, न सत् यानी कारण था न असत् यानी कार्य। तब केवल निर्विकार शिव ही विद्यमान थे, ‘न सन्नासच्छिव एव केवलः।’ केवल एक निर्विकार षिव। 
आदि देव। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र और आत्मा-अष्टमूर्ति  रूप से उपास्य। शिर पर गंगा और चन्द्र कला को धारण करने वाले। हाथ में त्रिशूल, डमरू लिए हुए भस्मी रमाये हुए। कभी दिगम्बर तो कभ व्याघ्र का चर्म वसन पहने हुए। त्रिपुर संहारक। भक्त मार्कण्डेय को बचाने के लिए यमराज की छाती पर पाद प्रहार करने वाले। विष्णु द्वारा एक हजार कमल अर्पण के संकल्प में एक कमल कम पड़ने पर स्वयं अपना ही नेत्रकमल उखाड़कर चढाने पर उन्हें प्रसन्न हो सुदर्शनचक्र प्रदान करने वाले भगवान शिव कोटि सूर्यप्रभः है। अखिल संसार की रचना करने वाले परमेश्वर। ज्ञान, वैराग्य के परम आदर्श। 
यह शिव ही तो हैं जो नृत्य, संगीत, नाट्य के आदि प्रवर्त्तक आचार्य हैं। संगीत को अधिक सूक्ष्मता प्रदान करने के लिए ही उन्होंने सुर सप्तक की रचना की। नादतनु कहलाए। शिव सूत्र में कहा गया है ‘नर्तक आत्मा’ अर्थात् आत्मा नर्तक है। शिव का नृत्य आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों ही स्तरों पर हो रहा है। नृत्य का जहां जन्म होता है, वहीं गति होती है। सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चौदह बार डमरू बजाया। इसी से चौदह शिवसूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चौदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की। मन में कल्पना होती है, नटराज शिव मगन हो नृत्य कर रहे हैं। सृष्टि के विकास में सभी प्रादुर्भूत सहायक शक्तियां वहां एकत्र है। ब्रह्मा ताल देते हैं। सरस्वती वीणा बजाती है। इन्द्र बांसूरी बजाते हैं और विष्णु मृदंग। लक्ष्मी गान करती है। भेरी, परह, भाण्ड, डिंडिम, पणन, गोमुख आदि अनद्ध वाद्यों से गुंजरित है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज का नृत्य ही तो है। शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है। 
मुझे लगता है, नटराज शिव केवल अपने वैभव, शक्ति, शांति, संयम में ही सर्वोत्तम नहीं है, वे समय और स्थिति के आध्यात्मिक अतिक्रमण के भी प्रतीक हैं। इसीलिए तो वह महादेव हैं। जहां कहीं भी ‘ईश्वर’ अथवा ‘ ईश’ शब्द बगैर किसी विशेषण के आया है उसका अर्थ शंकर ही तो है।...शिव का रूद्रावतार कला का पर्याय है। इसी अवतार में उन्होंने कभी नारद को संगीत कला का ज्ञान दिया था। नारद ने संगीत के पूर्ण ज्ञान के लिये भगवान शिव की तपस्या जो की थी। संगीत ही क्यों, शिव सभी विधाओं के आदि आचार्य हैं। इसीलिए तो कहा है, ‘ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः।’ 
सोचता हूं, अकेले शिव ही हैं जो नंग-धड़ंग पूजे जाते हैं। और कुछ नही ंतो लंगोटी की जगह चमड़े का टुकड़ा ही लपेट लिया। गहनों के नाम पर गले में सांप धारण कर लिया। चिता की राख लपेटे भी वह लुभाते हैं। उनकी सवारी भी कोई और नहीं सांड है। आप-हम उसके पास जाते हुए भी डरें। भंग-धतुरा उनका भोजन है। कंठ में विष की भंयकर ज्वालाएं। भूतभावन। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तो उसे कौन पीए। भोले भंडारी ही आगे आए। दूषण हलाहल उनके कंठ में पहुंच भूषण बन गया। इसी से वह नीलकंठ कहाए। गंगा के प्रचण्ड वेग को कौन धारण करें? शिव यहां भी आगे। कर लिया अपनी जटाओं में उसे धारण। कलंकी चन्द्रमा किसके पास जाए! शिव ने उसे भी अपने सर पर स्थान दिया।...यही तो है शिव का सौन्दर्य। कला का अद्भुत रूप! शिव लिंग जहां है वहां शिव की मूर्ति कहां है! माने वह मूर्त भी है और अमूर्त भी। जिस भी भेष में, रूप मंे हम दर्शन करना चाहें, प्रकट हो वह दर्शन दे देंगे। षिव यानी सर्वव्यापी। सर्वेष्वर। निर्गुण, सगुण, निराकार और साकार। शब्द जहां पहंुच नहीं पाते, ऐसे हैं षिव। शब्दातीत। कहते हैं एक भक्त ने उनके बगल में पार्वती की पूजा करने से इन्कार कर दिया। षिव आधा पुरूष आधा नारी यानी अर्धनारीष्वर बन गए। इसीलिए तो आदि शंकराचार्य लिखी षिव लहरी की पंक्तियां जेहन में कौंध रही है, ‘सा रसना ते नयने तावेव करौ स एव कृतकृत्यः। या ये यौ यो भर्गं वदतीक्षेते सदार्चतः स्मरति।।’ वही जिह्म है जो षिव के विषय में बोलती है। वे ही आंखे हें जो षिव को देखती है। वे ही हाथ हैं जो सदा षिव की पूजा करते हैं। वह ही कृतार्थ है जो सदा षिव का स्मरण करता है।
श्रावण शिव का प्रिय मास है। इस मास में शिव से संबंधित किसी भी लीला का वर्णन शास्त्र-पुराणों में नहीं है पर शिव को यही मास प्रिय है। कहते हैं, हिमालय की पुत्री के रूप में जब सती फिर से जन्मी तो श्रावण मास में ही शिव की विधिवत् पूजा-अर्चना की। शिव प्रसन्न हो पुनः पति रूप में उन्हें प्राप्त हो गये। फिर क्या था। श्रावण शिव का प्रिय हो गया। आषुतोष हैं शिव। शीघ्र प्रसन्न जो होते हैं। श्रावण षिव का मास है पर पूजा-पाठ का लम्बा-चौड़ा ताम-झाम करने की जरूरत नहीं है। मन से भजें शिव को, वह त्वरित प्रसन्न हो परम अलभ्य भी सहज दे देंगे। बिना जन्म और बिना अंत के हैं शिव। ईश्वर  की तरह अनंत पर ईश्वर से भी असीमित। देवों के देव महादेव! अर्चना कर रहा है मन, ‘प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप।’

Saturday, May 28, 2016

मनोरंजन में हो कलाओं का वास


 इस सोमवार को देशभर  में नर्सों ने एक टीवी चैनल पर उन्हें बेहद भद्दे ढंग से फुहड रूप में प्रस्तुत किए जाने पर कॉमेडियन कपिल शर्मा के खिलाफ नाराजगी जताते हुए उन्हें माफी मांगने के लिए कहा गया है। कॉमडी धारावाहिकों में ही नहीं इस समय में लगभग सभी मनोरंजन चैनलों में हास्य के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है, उसे देखकर शर्म आती है। भद्दे मजाक, चिरौरियां, रिष्तों को नेस्तनाबुद करते धारावाहिकों के बोल और इस कदर भोंडापन खुलेआम प्रस्तुत किया जा रहा है कि मर्यादा तार-तार हुई जा रही है। एक धारावाहिक है जिसमें मां समान भाभी को लेकर पूरी की पूरी कॉमेडी गढते फुहड़पन को जैसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया गया है। मनोरंजन के नाम पर टीवी चैनलों पर इस कदर सामग्री दी जा रही है कि उन्हें पूरा परिवार बैठकर एक साथ देखले तो एक दूसरे से आंख तक न मिला सके।
बहरहाल, मनोरंजन का अर्थ है, मन को रंजित करना। मन को रंगना। अतीत में जाएंगे तो पाएंगे, मनोरंजन का बड़ा आधार हमारी कलाएं रही हैं। सोचिए, इस समय मनोरंजन का जो दौर चल रहा है, क्या उससे मन वास्तव में रंजित होता है! फूहडता, भौण्डेपन में अनर्गल कार्यक्रमों से सजे हैं सारे के सारे टीवी चैनल। मंचीय कार्यक्रमों में चुटकुलों को कविता रूप में परोसा जा रहा है। विडम्बना यह है कि मन के बगैर रंजित हुए भी हम लगोलग देखे जा रहे हैं, सहन कर रहे हैं। विकल्प जो नहीं है! सवाल यह है कि ऐसा आखिर हो कैसे रहा है? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन में कला पक्ष की पूरी तरह से अनदेखी हो गयी है। मनोरंजन को हमारे सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़कर नहीं देखा जा रहा है। जबकि सच यह है कि कभी मनोरंजन की जो विधाएं समाज में पुष्पित और पल्लवित हुई हैं, उनके पीछे कलाओं का ही मजबूत आधार रहा है, और इधर हो यह रहा है कि मनोरंजन से कला पक्ष पूरी तरह से तिरोहित सा हो गया है।
बहरहाल, साहित्य के साथ मनोरंजन से जुड़ी कलाओं ने ही हमारी संस्कृति को बहुत से स्तरो ंपर समृद्ध किया है। कहानी कहने वालों का भी एक दौर था। हमारे यहां तो वैसे भी कहानी की परम्परा का लूंठा इतिहास है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ को ही लें। ‘पंचतंत्र’ में कहानियां है पर कहन की कला का सौन्दर्य भी है। कुशल पारंगत गुरू मूढ शिष्यों को भी विवेकवान बना सकता है, यही इन कथाओं का आधार है। मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथा के जरिए नीति के महत्वपूर्ण संदेश इसमें दिए गए हैं। अकबर-बीरबल और तेनालीराम की कहानियां आज भी खत्म कहां हुई है!  मूल कहानियां तो पता नहीं किस तरह की रही है परन्तु जिसने जैसे चाहे उसमें बदलाव करके बीरबल, तेनालीराम की बुद्धिमानी को अपने तई व्यंजित किया है। पहेलियां भी मनोरंजन का बड़ा आधार रही है, और इसके सांस्कृतिक संदर्भ भी हैं। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खुसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। मनोरंजन के अंतर्गत संगीत की बात करें ंतो धु्रवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर इसमें संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। खुसरो अरबी विद्वान थे। उन्होंने धु्रवपद में निर्थक शब्द ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। 
कला-संस्कित का अभिजात दक्षिण भारत के कलात्मक रूप में परिणत हुआ है। आधुनिक मनोरंजन विधाओं का बहुत से स्तरों पर संस्कृतिकरण बाद में इन कलाओं ने ही किया। परन्तु बड़ी विडम्बना यह भी है कि आज के दौर में मनोरंजन का अर्थ पूरी तरह से हास्य से लिया जाने लगा है। सोचिए! हंसना ही क्या मनोरंजन है? हास्य मनोरंजन के एक पक्ष की स्थूल अभिव्यक्ति जरूर है पर यह पूरी तरह से मनोरंजन तो नहीं ही है। टीवी चैनल इधर यही कर रहे हैं। हंसाने के नाम पर दर्शकों को वहां निरंतर भोंडापन परोसा जा रहा है! माने वक्ट काटना है। कैसे भी कटे परन्तु वक्ट काटना क्या मनोरंजन है? वक्ट काटने के अर्थ में ही यदि मनोरंजन लें तो उसका परिणाम मन में उपजे क्षोभ, विषाद से अतिरिक्त कुछ न होगा। वक्ट कटे पर भौंडेपन से उपजे हास्य से नहीं, इस तरह से कि वक्ट से व्यक्ति ऊपर उठ जाए। मनोरंजन हो पर मन को रंजित करता। स्वस्थ मनोरंजन। कलाएं यही करती है। मन उनसे रंजित ही नहीं होता, सृजन के लिए निरंतर प्रेरित भी होता है। 
नाट्य, नृत्य, संगीत के ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ है। इन संदर्भों में जीवनानुभूतियां है। संस्कार हैं और है हमारी संपन्न संस्कृति का आधार। सोचिए! सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आखिर कोई समाज कैसे आगे बढ़ सकता है! कालिदास ने रंगमंच को ‘चाक्षुस यज्ञ’ की संज्ञा दी थी। देखने के यज्ञ का अर्थ है, हमारी देखने के संस्कार की आहुति। कलाओं में गूंथा मनोरंजन व्यक्ति को संस्कारित करता है, संस्कृति के गुणों से लबरेज करता है। इस दौर में जबकि सांस्कृतिक मूल्य क्षीण हो रहे हैं, सबसे बड़ी आवश्यकता तो यही है कि हम मनोरंजन में कलाओं के वास पर गौर करें। ऐसा मनोरंजन जो खाली वक्त काटने के लिए ही किया जा रहा है, उसका कोई औचित्य नहीं है। 

Sunday, April 24, 2016

रंग-रेखाओं में ध्वनित संस्कृति छन्द


 भाषाई भिन्नता और परिवेष की असमानता होते हुए भी राम भारतीय संस्कृति में भावों के सुन्दर छन्द सरीखे है। यह है तभी तो कार्बी रामायण के राम आदिवासी रूप में लोक संवेदनाओं का उजास बिखेरते हैं तो वन में रहते वह कबिलाई संस्कृति के संवाहक भी कला में बनते हैं। इण्डोनेषिया, थाइलैण्ड, बर्मा आदि सुदूर देषों में राम की लीला है। फैजाबाद में अयोध्या शोध संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्रीय कला षिविर में बतौर कला समीक्षक भाग लेते यह जैसे गहरे से अनुभूत किया। देष के विभिन्न प्रांतों से आए 15 कलाकारों ने अयोध्या के राजा और स्थापत्य को केन्द्र में रखते हुए कलाकृतियों का सृजन किया। 
शिविर में मुम्बई के शार्दूल कदम ने अपनी कलाकृति में राम-सीता के जनजातीय स्वरूप के साथ ही अयोध्या के स्थापत्य की व्यंजना में महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत गूड़ी पर्व को भी याद किया। अरण्य प्रवास के उनके चित्र रूपक में राम और सीता के पुष्प आभूषण अलग से ध्यान खींचते हैं। बड़ौदा के राहुल मुखर्जी वृहद विषयों का एक तरह से कैनवस रूपान्तरण करते हैं। उनके चित्र रूप गोठ हैं। उनके एक चित्र का आधार रामायण के सातों काण्डो से जुड़े प्रसंग है। दूसरे चित्र में रघुवंष की व्यंजना भी कुछ ऐसी ही है। गुवाहाटी के दिलीप तामुली ने असम के आदिवासी इलाकों में रची-बसी कार्बी रामायण के राम को अपने चित्र का आधार बनाते आदिवासी राम के चरित्र चित्रण को श्वेत-ष्याम में रचा। उनका चित्र ‘सबिन अलून’ माने राम का गाना है। हेलेन बाला ब्रह्मा भुवनेष्वर की हैं। उनके चित्रों की बड़ी विषेषता है, रेखाओं की ओपती लय और टैक्सचर। अपने एक चित्र में हेलेन ने स्वर्णमृग को उकेरा है। ओडि़सा की सुप्रसिद्ध सम्बलपुरी साड़ी के रंगो को कैनवस पाष्र्व बनाते उन्होंने स्वर्णमृग के बहाने रामायण को आख्यायित किया है। 
भोपाल की अपर्णा अनिल ने राम और अयोध्या के राजाओं की प्रतीक और बिम्बों में रेखीय व्याख्या की है। कैनवस में गहरा नीला रंग और उनमें रेखाओं में रचे तीर-धनूष के सुनहरेपन में उन्होंने राम की मर्यादापुरूषोतम छवि की जैसे दृष्य व्याख्या की है। उनके सृजित चित्र में बरते रंग अयोध्या के शासकों के साथ ही राम की असीम उदात्तता और घट-घट में व्याप्त उनके आदर्ष को जैसे व्याख्यायित करते हैं। मुझे लगता है, रंगो की उत्सवधर्मिता में अपने चित्रों में वह रेखाओं का जैसे छन्द रचती है। 
मुम्बई के डगलस जाॅन ने अपने कैनवस में अयोध्या नगरी और सरयू का सांतरा चितराम किया है। उनके चित्र में अयोध्या के प्रमुख स्थानों, मंदिरों, हिन्दु और मुगल स्थापत्य के साथ ही सरयू नदी को प्रतीक रूप में उकेरा गया है। दूसरे चित्र में चित्त को आकर्षित करते राम की मोहक छवि है। बहुत सारे गहरे रंग पर धीरे-धीरे परछाई स्वरूप में वह वह उन्हें इस कदर हल्का कर टैक्सचर का हिस्सा बना देते हैं कि उनकी सिरजी आकृतियों से औचक अपनापा होने लगता है। कोलकत्ता के दिप्तिष घोष दस्तीदार के चित्र देखने की हमारी बंधी-बंधाई सोच से जैसे हमें विलग करते हैं। दूर-लघू परिप्रेक्ष्य (परस्पेक्टिव) में वह चरित्रों को सर्वथा नए ढंग से हमारे समक्ष उद्घाटित करते हैं। उनके एक चित्र में धनुष-बाण लिए राम है तो दूसरे में सेतुबंध के दौरान मदद करने वाली गिलहरी को लिए राम है। दोनों में ही रेखाओं की लय अंवेरते उन्होंने राम के चरित्र और घटना विषेष के भावों की गहराई को छूआ है। 
पटना के मिलन दास ने लोक में व्याप्त राम-सीता को अपने तई कैनवस मं जिया है। टैक्सचर में बिहार की जनजातीय कलाओं, खासकर मिथिला कला का परिवेष रचते उन्होंने लिपियों की भाव सर्जना में राम लीला को ही जैसे उकेरा है। पीले, हरे, लाल, नीले, सफेद रंगो को कैनवस पर पोतने की बजाय वह जैसे बिखेरते हैं। रंग लय के साथ टैक्सचर में बुने राम और सीता और पाष्र्व में अक्षरों की बुनघट। लोक में गुंजरित रामकथा जैसे उनके कैनवस पर चलायमान है। उनकी कलाकृति बिहार की सुप्रसिद्ध कला मधुबनी  का समकालीनता में जैसे पुनराविष्कार है।
जयपुर के विनय शर्मा ने इस बार कला षिविर में सर्वथा नवीन प्रयोग किया। अयोध्या स्थित नया घाट में सरयू नदी के भीड़-भाड़ रहित एक तट को उन्होंने अपने कैनवस का हिस्सा बनाया। श्रीमदभागवत के नवें स्कन्ध में आए अयोध्या के चित्रण को आधार बनाते उन्होंने अपने दूसरे चित्र में सूर्यवंषी राजाओं की परम्परा, यज्ञ से जुड़ी भारतीय संस्कृति और अयोध्या के स्थापत्य अलंकरण को बिम्ब और प्रतीक में रखते हुए रंगो का जैसे छन्द रचा है। लखनऊ के अवधेष मिश्र ने लव-कुष द्वारा पकड़े गए अष्वमेघ यज्ञ के घोड़े को कैनवस पर जीवंत किया है। नीले, लाल, हरे, पीले, भूरे रंगों के घोल में रेखाओं की लय रचते अवधेष ने घोड़े के बहाने जीवन की गति और राम से जुड़ी आदर्ष की भारतीय संवेदना को अपने कैनवस पर जैसे मुखर किया है। उनके दूसरे चित्र में अयोध्या का षिल्प केन्द्र में है। इमारतों की बारीकी में जाते उन्होंने वृत्त में स्थापत्य प्रतीक मछली को भी कैनवस पर बुना है।
अवधेष के चित्रों में स्थान, परिवेष से जुड़ी संवेदना उनके बरते रंगों और रेखाओं में ऐसे ही ध्वनित होती है। चेन्नई के षिवा बालन ने अपने कैनवस पर अयोध्या के कनक भवन की भव्यता को उकेरा तो दिल्ली के एम.के. पुरी ने अयोध्या से भारतीय जन-जीवन के जुड़ाव के आलोक में राम के घट-घट में व्याप्त होने की दृष्य सर्जना की। लखनऊ के राजेन्द्र प्रसाद ने समाधिस्थ राम का चित्रांकन किया है। राम है पर तापस स्वरूप में। रंग और रेखाओं का उनका पाष्र्व तप की भारतीय संस्कृति का आख्यान स्वरूपा है।
बहरहाल, कला षिविर में सिरजे राम और अयोध्या के स्थापत्य विषयक चित्रों में रंगाच्छादन और मौलिक दृष्य प्रभाव कुछ इस तरह से है कि कला में रूप तत्वों का सांगीतिक आस्वाद होता है। भिन्न प्रांत पर राममय भारतीय संस्कृति को कलाकारों ने रंग और रेखाओं में  गहरे से जिया है। यह है तभी समालीनता की लय के बावजूद लगभग सभी चित्रों में पारम्परिक भारतीय चित्र शैलियांे की दीठ भी है और है, लोक कलाओं का अलंकरण।