Saturday, January 29, 2011

कला में भदेस और अनर्गल

आकल्पन, रूपविधान और रचना से कोई भी चित्र मौलिक और आनन्ददायक बन सकता है परन्तु वैश्विकरण के इस दौर में अभिव्यक्ति एवं कला के नवीन तरीके खोजने के प्रयास में सौन्दर्यबोध के माने भी जैसे बदल रहे हैं। संस्थापन में भदेस और अनर्गल भी कला है। स्वतंत्रता का अर्थ है जो मन आए करो। गवेषणा का विषय जो बन गई है कला। नई संभावनाओं और मूल्यों के प्रति इधर कलाकारों के आग्रह को इसी से समझा जा सकता है कि विचार, नैतिक सिद्धान्त और तथ्यात्मक सामग्री की बजाय अतिशय उत्तेजकता, चौंकाने वाले और किसी छोर से समझ न आने वाले दृश्य की उत्पति ही कला का हेतु हो रही है। क्या है कला की इस आधुनिकता का भविष्य? कला आलोचक मित्र विनयकुमार कला दीठ को लेकर इस पर टिप्पणी करते हैं, ‘दर्शकों को नासमझ समझने की भूल नए मीडिया के कलाकार कर रहे हैं।’

बहरहाल, पिछले दिनों ‘इण्डिया आर्ट समिट’ में भाग लेते लगा, कला का आधुनिक युग पंाच सितारा संस्कृति का है। ग्लेमर से लबरेज। प्रगति मैदान में कला के आज से आंखे चौंधिया रही थी। विश्वभर की कला विथिकाएं एक छत के नीचे थी और संस्थापन कला की तगड़ी नुमाईश में कला की प्रचलित मान्यताएं तय कर पाना मुस्किल हो रहा था। पुणे से आए कलाकार मित्र स्वरूप और स्मिता विश्वास, लखनऊ से आए अवधेश और दिल्ली के हेमराज, वेदप्रकाश भारद्वाज के साथ ‘इण्डिया आर्ट समिट’ में विचरते लगा किसी और दुनिया में आ गया हूं। कला की यह हमारी दुनिया तो किसी अर्थ में नहीं कही जा सकती थी। कैनवस किनारे पर था। विडियो इन्स्टालेशन, ध्वनि प्रभाव और एक जगह तो बाकायदा जिन्दा मुर्गों की नीम बेहोशी को भी कला के दायरे में लाते प्रदर्शित किया गया था। प्रयोगों में कहीं आम इस्तेमाल में होने वाले 10-20 के नोटों में महात्मा गॉंधी की आकृति को हटाकर कुछ और आकृतियां बनाकऱ उसे फ्रेम कराया हुआ था तो कहीं ग्राफिक्स में बहुत सारे लाउड स्पिकर थे, विडियो में न थमने वाली भद्दे ढंग की हंसी थी। अजीबोगरीब शक्ल बनाए इंसानों का कोलाज था और संस्थापन में कूड़े-कचरे को भी यथास्थिति में प्रदर्शित किया गया था। बहुत सारी विथिकाओं से बाहर निकल जूठे ग्लास फेंकने की डस्टबीन की तलाश करते अवधेश ने एक जगह कचरे के ढेर को देख हमें भी जूठन फेंकने के लिए वहां बुला लिया। स्मिता ने गौर किया, कचरा फेंक स्थल नहीं, वह भी संस्थापन था। मुझे लगा, कलाकार बनने का यह अच्छा अवसर है। कैनवस पर तो हाथ आजमा नहीं सकता, क्यो नहीं इन्स्टालेशन आर्टिस्ट ही बन जाउं। पूरी कॉफी पीने के मोह को त्यागते आधे ग्लास को मैंने भी कचरे के उस ढ़ेर में सजा दिया। हो गया इन्स्टालेशन!

बरहाल, कला की इस चकाचौंध में पिकासो, वॉन गॉग, अवनीन्द्रनाथ, सुबोध गुप्ता, रज़ा, हुसैन के चित्रों से साक्षात् करते सुकुन भी हुआ। कला के हर रंग, हर ढंग में अतुल डोडिया भी अलग से ध्यान खींच रहे थे। रेखांकनों के साथ अतुल ने डिजिटल फोटोग्राफी के प्रयोग में कला के इस वर्तमान दौर को जैसे कैनवस पर जिया। कैप्सन और फिल्म पोस्टर चित्रों के अंतर्गत बाजार, कलाकार, कला में व्यवसाय को ढूंढते लोगों पर उनकी कला टिप्पणी मौजूं थी।

सच ही तो है! चाक्षुष कलाओं का प्रतिनिधित्व अब परफार्मेंन्स, मिक्स मीडिया, फोटोग्राफी, इन्स्टालेशन जैसे माध्यम ही कर रहे है। यानी तकनीक कला में निरंतर हावी होती जा रही है। ‘इण्डिया आर्ट समिट’ के दर्शकीय अनुभव से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा। अर्न्तमन संवेदनाओं और विचारों के बगैर बहुत से स्तरों पर केवल और केवल तकनीक का कौशल क्या कला का भविष्य है? हे पाठको! इसका निर्णय तो अब आप पर ही छोड़ता हूं।
(कला तट - २८-१-२०११)

Tuesday, January 25, 2011

काल का उनके गान पर क्या जोर!

पंडित भीमसेन जोशी कालवश नहीं हो सकते! अजर है, अमर है उनका गान। काल से होड़ लेते ब्रेन ट्यूमर के बाद भले वह मंद पड़ गए परन्तु उन्होंने संगीत का जो सागर हमें दिया है, उसकी अनंत गहराईयों को मापा नहीं जा सकता। याद करें लता और बाल मुरली कृष्णा के साथ आज भी घर-घर गूंज रहा है उनका गाया ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा...’। सच! यह पंडित भीमसेन जोशी ही थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की धारा का हर आम और खास में प्रवाह किया। ठुमरी और भजन गायकी में तो उनका आज भी कोई शानी नहीं है।

सवाई गंधर्व से गान की विधिवत् शिक्षा उन्होंने ली परन्तु बचपन में मां जब मधुर कीर्तन गाती तो वह ध्यान से सुनते। उसे भी बाद में उन्होनंे निरंतर गुना। जो उन्होंने सीखा उसके शास्त्र और उसकी रंजक शक्ति पर सदा उनका विश्वास भी रहा। सुनता तो उन्हें बचपन से ही रहा हूं परन्तु साक्षात् भेंट और मन मुताबिक संवाद करने का मौका साहित्य अकादमी की यात्रा फैलोशिप के तहत कोई एक दशक पहले ही महाराष्ट्र भ्रमण के दौरान पुणे में उनके निवास पर ही मिला था। याद पड़ता है, मैंने उनके गान पर एक बड़ा आलेख लिखा था और उसमें शास्त्रीय गान कीउनकी लोकोन्मुख धारा का विशेष रूप से जिक्र किया था। पुणे में मराठी के ख्यातनाम उपन्यासकार शिवाजी सावंत से भेंट के बाद उनके पुत्र श्रीनिवास जोशी जी से मिला और उन्हें वह लेख दिखाया। उन्होंने ही बाद में पंडितजी से भेंट की मुराद पूरी की। विश्वास नहीं हो रहा था, जिन्हे सुना है, जिनके बारे में लिखता रहा हूं, वह यूं मिल जाएंगे। श्रीनिवासजी खुद बहुत अच्छे गायक हैं...उनके साथ मिलने के सुख को बंया नहीं किया जा सकता। कल्पना मंे सदा बसी रहने वाली मुस्कराहट मेरे सामने थी। मंद मुस्काते ही पंडितजी ने देर तक बातें की। कौन नहीं जानता उनका व्यक्तित्व! सो मैंने गान पर ही संवाद केन्द्रित करते बहुत सी बातें पूछी थी। तभी उन्होंने कहा था, ‘स्व के आनंद के लिए गाता हूं और जब गाता हूं तो श्रोताओं की भीड़ को नहीं देखता।...गुरू आपको सिखाता है परन्तु आपने केवल वही कंठस्थ कर लिया तो वह दूसरों को रूचेगा नहीं। वह नकल होगा। आपको नकल थोड़े ही करनी है, गाना है। उसके लिए शक्ति चाहिए। दृष्टि चाहिए। अपनी समझ से गायकी में टिकने की, चिरंतन होने की शक्ति ही आपको आगे तक ले जाती है।’ कहते हुए वह सवाई गंधर्व के गान को याद करते यह कहना भी नहीं भुले थे कि उनका गला गान के लिए ठीक नहीं था परन्तु उसे उनके गुरू ने तैयार किया। सुबह एक घंटा और शाम को एक घंटा। गला तैयार करवाने की तालीम चली। पांच वर्ष यही चला। और कुछ नहीं।

बहरहाल, पंडितजी ने अपने को साधा। आरंभ में सोलह से सत्रह घंटे तक का रियाज किया। बाद में तो संगीत के सप्तक की उनकी समझ इतनी बढ़ी कि किराना घराने का उन्होनंे अपने तई पुनराविष्कार किया। इस पुनराविष्कार में लयबद्ध आलाप और भिन्न शैलियों के मिश्रण के बावजूद भावों की संगीत संवेदना हरेक के मन के भीतर तक प्रवेश करती है। उनके गान में आरोह-अवरोह में कहीं कोई तनाव नहीं है। अद्भुत संयम है वहां। अनंत माधुर्य। विराट रेंज। विशाल वितान में वह कईं बार सुरों को इतना ऊपर तो कईं बार इतना नीचे ले जाते कि अचरज होता, कैसे यह संभव होता था। अद्भुत आलापकारी के तो कहने ही क्या! पारम्परिक रागों में यह पंडित भीमसेन जोशी ही रहे हैं जो आरंभ में ही अपनी आवाज को पंचम में अवर्णनीय प्रभाव के साथ ले जाते और मुरकियां और आकर्षक मींड में श्रोताओं को अवर्णनीय आनंद की अनुभूति कराते हैं। परम्परा से जो उन्होंने ग्रहण किया उसमें युग के हिसाब से बहुत सा मिश्रण भी किया। मसलन सवाई गंधर्व से सीखे में उन्होंने जयपुर घराने की केसरबाई केरकर और पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर से बहुत सी तान रचनाएं ली तो इलाहबाद के भोलानाथ भट्ट से ‘सखि, श्याम नहीं आये’ रचना ली। उनके बहुत से बोल आलाप और बोल तान रचनाएं आगरा घराने के विलायत हुसैन खां साहब से भी प्रेेरित है। एक तरह से किराना घराने को बहुत से दूसरे घरानों से उन्होंने संगीत के नये संस्कार दिए परन्तु ऐसा करते स्वयं गान की अपनी मौलिकता को सदा उन्होंने बरकरार रखा। जरा सुनें उनके गान को...‘अखियां रही दर्शन को प्यासी...’, ‘जो भजे हरि को सदा वही परम पद पाएगा...’। दीर्घ तान के बाद ख्याल की बंदिश।...सधे स्वरांे में सम तक की यात्रा मंे उनका श्वांस नियंत्रण, ठहरावों के साथ लयात्मक जोर में ध्वनि उत्पादन की उनकी शैली मन को झंकृत करती है। अंतरर्मन संवेदना का अदभुत सौन्दर्य है वहां। यमन कल्याण, शुद्ध कल्याण, राग पूरिया, मालकौंस में तुकाराम, नामदेव के भजनों को सुनें तो मन न भरे। ठुमरी और नाट्य संगीत का अपूर्व रस भी वहां है। कभी उनके संगीत से प्रतिकृत चित्र हुसैन ने बनाए थे तो पंडित बिरजू महाराज ने उनकी गायकी पर नृत्य भी प्रस्ततु किया। लता को उनका गान बेहद पसंद है। सचिन को वह बेहद पसंद करते थे। सबको अचरज में डालते खुद लम्बी दूरी की कार ड्राइव करते गान के लिए पहुंच जाते थे।... पुणे में ही फिर से उनसे ‘सवाई गंधर्व संगीत समारोह’ में भी एक बार भेंट हुई थी। तब भी सहज बतियाए। कहीं से कुछ ओढ़ा हुआ नहीं। सब कुछ सहज। उनके व्यक्तित्व और गान की यही विशेषता थी। यह जब लिख रहा हूं, राग भीमपलासी मंे गाये ‘ब्रज में धूम मचावे..’ बोल मन को झंकृत करने लगे हैं। नहीं! वह कहीं नहीं गए। यहीं है। उनके सुर सदा हमारे साथ रहेंगे। काल का उनके गान पर क्या जोर! कालजयी हैं पंडित भीमसेन जोशी।

Sunday, January 23, 2011

आकाशीय प्रभाव दृष्य चित्रों का अनूठा लोक


दृष्य चित्रों के अंतर्गत चित्रकार जीवन के ज्ञात प्रसंगों का एक प्रकार से संकलन करता है। यथार्थ के रूपाकार की इस प्रविधि में वह देखने वाले को अपनी दृष्टि भी एक प्रकार से देता है। जिस कोणए जिस दीठ से दृष्य का रूपांकन होता हैए कला आस्वाद की बाद में वही हमारी दृष्टि बन जाती है। पचास के दषक में कभी अमेरिका की रूबेन कलाविथी में ख्यात कलाकार अॅलेन काप्रो की एक प्रदर्षनी लगी थी। अमेरीकी घटनाओं को आधार बनाते प्रदर्षित उनके यह चित्र जीवन सदृष ही प्रतीत हो रहे थे। कहते हैंए वहीं से यथार्थ चित्रण शैली की एक नई धारा ‘घटना.निर्माणश् चित्र का भी विकास हुआ। पिछले दिनों स्वरूप विष्वास के चित्र जब देखे तो लगा घटना.निर्माण चित्र शैली के बरक्स वह एक नई यथार्थ चित्र तकनीक का अपने तई जैसे विकास कर रहे हैं। इस नई शैली में जीवन से जुड़े प्रसंगोंए अनुभूतियोंए क्रियाओं को छायाभाषी रूप प्रदान करते वह बहुधा देखे दृष्यों को आष्चर्यजनक स्पष्टता के साथ हमारे नेत्रों के निकट लाते हैं। दूरदृष्यलघुता में उनके चित्रों के नाटकीय प्रभाव मन को रोमांचित करते हैं और दृष्य को उसके पूरेपन में देखने की चाह भी अनायास ही जगाते हैं। वह ऊपर से नीचेए नीचे से ऊपर क्षेत्र जोड़कर अपने चित्रों में स्पेस के जरिए जैसे समय के अवकाष को पकड़ते हैं।

स्वरूप विष्वास मानवाकृतियां को केन्द्र में रखते हुए जीवन से जुड़ी सामान्य घटनाओंए प्रसंगों को अपने अंदाज में कैनवस पर परोटते हैं। खास बात है उनके चित्रों के दृष्य प्रभाव। उनके चित्र भू दृष्यों को ऊपर आकाष से देखने का अहसास लिए हैं। दूरदृष्यलघुता के उनके अधिकांष चित्र ऐसे हैं जिनमें दूरी के साथ आंख वस्तुओं के छोटे.बड़े आकार का अपने आप ही निर्धारण करती है। मानेए आंगन में यदि कुछ लोग बैठें हैं तो छत से बगैर उनको बताए उनकी गतिविधियों को कैमरे ने कैद कर लिया हो। ऐसा करते उनके चित्र में उभरी घटनाए प्रसंग हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाती है। केवल देखने के समय ही नहीं बल्कि सदा के लिए।

बहरहालए मानव आकृतियों के कोलाज में स्वरूप के वे चित्र बेहद प्रभावी हैं जिनमें ताषए शतरंज और ऐसे ही दूसरे खेलों में मगन व्यक्तियों के समूह दिखाए गए हैं। वायलीन बजानेए गिटार बजाने में मगन व्यक्ति हों या फिर गमले की सार संभाल करती मां का चित्र.सभी में शबीह अंकन का उनका अंदाज भी सर्वथा अलग है। वह सीधे शबीह न बनाकर ऊपर से देखते जैसे उसका निर्माण करते हैं। चित्र संयोजन एवं चित्रण विधि में जीवन दर्षन की उनकी समझ भी अंतर्मन संवेदनाएं लिए है। अपनी अंतरभुत संवेदनाआंे में वह घटना.निर्माण का यह अहसास भी कराते हैं कि भौतिकता में तेजी से भागते जीवन में उसकी डोर हमारे हाथों से कहीं छूटती भी जा रही है। मुझे लगता हैए घटनाओं की स्थिरता में स्वरूप जीवन की गत्यात्मक्ता का अनूठा प्रवाह करते हैं।

स्वरूप के चित्र सादृष्य हैं। माने दर्पण में प्रतिबिम्ब। परस्पेक्टिव। इतने कि आप दूर तक के बहुत से दृसरे दृष्यों की भी इनमें खोज कर सकते हैं। चित्राकृतियां भले किसी खास प्रयोजन में रत हैं परन्तु उनमें संवेग है। एक खास तरह के कथ्य का संप्रेषण भी। प्राकृतिक रंगों की सूक्ष्मता को पकड़ते स्वरूप दृष्यों की सहज समझ विकसित तो करते ही हैंए कईं बार मैटेलिक में भी वह ऐसे प्रभाव डाल देते हैं कि चित्र अपनी समग्रता में मन को गहरे से छूता है। मसलन मैटेलिक रंग संयोजन का चाय के प्यालों के साथ ताष खेलती मानवाकृतियां का उनका परस्पेक्टिव एक चित्र चाह कर भी हम स्मृति से विस्मृत नहीं कर सकते। वह अपने चित्रों में दृष्य में भिन्न दूरगामी समतलों का निर्धारण करते विषय की गहराई में जाते हैं। आकाशीय दूरदृष्यलघुता में उनके चित्र कला की पृथक शैलीए पृथक तकनीक और चित्रांकन का अलग ढंग लिए है। कला की उनकी यही मौलिकता है।
(कला तट 21-1-2011)

Friday, January 14, 2011

काव्य संवेदनाओं का कैनवस पर रूपान्तरण


विष्णुधर्मोत्तर पुराण का तीसरा खंड चित्रसूत्र है। इसमें विभिन्न कलाओं के अंर्तसंबंधों पर गहरे से प्रकाश  डाला गया है। एक स्थान पर रोचक प्रसंग आता है। राजा वज्र नृत्य सीखना चाहते हैं। ऋशि मार्कण्डेय कहते हैं, पहले चित्रकला को सीखना होगा। वह चित्रकला सीखना चाहते हैं तो कहा जाता है, इसके लिए संगीत सीखना होगा। वह संगीत सीखना चाहते हैं तो कहा जाता है पहले काव्य कला को जाना होगा। इस तरह कलाओं के अंतरसंबंधों की चर्चा करते संवाद व्याकरण तक पहुंच जाता है। संवाद का मूल है,कलाओं की परस्पर निर्भरता। चित्रसूत्र स्पष्ट  करता है कि सभी कलाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक कला को जाने बिना दूसरी कला को नहीं समझा जा सकता। सभी कलाएं परस्पर अन्तर्गुम्फित है। एक दूसरे से अंदर तक जुड़ी हुई। कभी टाईम्स ऑफ इण्डिया ने नव वर्ष  पर अपने पाठकों के लिए आवरण पेज  पर एम.एफ.हुसैन का एक बेहद सुन्दर चित्र प्रकाशित  किया था। ख्यातनाम चित्रकार अखिलेष बताते हैं,  हुसैन ने यह चित्र शमसेर  बहादुरसिंह की कविता ‘पतझर’ की पंक्तियां ‘एक पीली शाम /पतझर का जरा/अटका हुआ पत्ता...’ पर बनाया था। कविता पर चित्र बनाने के साथ ही चित्रों को देखते, संगीत का आस्वाद करते भी हमारे यहां कम काव्यकर्म नहीं हुआ है। अशोक  वाजपेयी ने रजा, हुसैन, स्वामीनाथन के चित्रों और कुमारगंधर्व के गान पर उम्दा कविताएं लिखी हैं तो कभी चित्रकार जय झरोटिया ने सौमित्र मोहन की कविता ‘लुकमान अली’ के पाठ को सुनते पूरी की पूरी एक चित्र श्रृंखला ही उस पर बना दी थी। महादेवी, शमसेर के  काव्य के साथ चित्रकर्म भी करते रहे हैं।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों सप्तक का आस्वाद किया। चित्र और कविताओं के सप्तक का। सात कवियों की कविताएं थी और उन पर सात चित्रकारों के चित्र। कवि-चित्रकार सप्तक का आस्वाद करते लगा एक कलाकार को दूसरे माध्यम के कलाकार की रचना संवेदना के स्तर पर छू जाए तो वह रूपान्तरण की प्रक्रिया में लग जाता है। कला प्रदर्शनी ‘हमकदम’ जैसे इसे ही व्यक्त कर रही थी। दुष्यंत की काव्य पंक्तियां ‘अकेला चांद और तुम’ में मन के भावों का कलात्मक सौन्दर्य हैं, अडीग ने इसे कैनवस पर गहरे से जैसे जिया है। रिच टैक्स्चर में अडीग ने सर्वथा अलग स्पेस रचते पाशर्व के काले में पीले और लाल रंग की महीन बुनावट करते संवेदना का अलग उजास रचा है। अभिशेक गोस्वामी की ‘हम कुछ बोलेंगे’ कविता को विश्वास  ने कैनवस पर सलेटी, धूसर रंगों की अनुभूतियों से संवारा तो प्रभात की ‘पन्द्रह साल’ पर निधि सक्सेना ने छिटके हुए बैंगनी रंगों का जैसे स्मृति कोलाज रचा है। देवयानी की ‘बदनाम लड़कियों’ को राजेद्रसिंह के मूर्त-अमूर्तन के त्रिआयामी रूपाकार में और प्रेमचन्द्र गांधी की ‘मलयाली स्त्रियॉं’ पर महेन्द्रप्रताप शर्मा  की रूपसर्जना में अनुभूत किया जा सकता है। बलराम कावंत की ‘तेरी तलाश  में’ पर ज्योति व्यास ने छायाकला के अंतर्गत सर्जनात्मकता की अर्थव्यंजना की है तो हरेन्द्र कौर की कविता ‘ये कैसी लड़की’ को अविनाश ने रेखाओं की सरल चित्र संरचना में निहित किया है।

सप्तक आस्वाद करते मुझे लगता है यह शब्द की संवेदना ही है जो किसी भी कलाकार की रागात्मक वृत्ति को, उसके सौर्न्दबोध को परिस्कृत करती है। जिन सात कवियों की संवेदनाओं का कैनवस पर रूपान्तरण हुआ, उन सब ने अपने अनुभवों, स्मृतियों को एक खास तरह की व्यंजना दी और अपने तई समकालीन सरोकारों से भी अपने को जोड़ा है। काव्य की उनकी संवेदनाओं का कैनवस पर यह रूपंकरण कला के अन्तर्गुम्फन समय का ही तो एक प्रकार से रचाव है! महादेवी वर्मा की "दीपशिखा"  में लिखी भूमिका याद आ रही है, ‘कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वत सहयोगी होने की क्षमता रखता है।’

Friday, January 7, 2011

संगीत ऋषि के सुरों में माधुर्य का अनुष्ठान

सुरों के माधुर्य में अमरत्व का भाव कहीं मिलता है तो वह भारतीय संगीत में ही है। उपनिषद् कहते हैं, ‘जन्म ग्रहण किया है इसलिए सभी अमर नहीं होते, जिन्होंने असीम की उपलब्धि की है वे ‘अमृतास्ते भवन्ति’।...तो यह संगीत ही है जिसमें व्यक्ति असीम को भी पा लेता है। असीम माने उसके आनंद की कोई सीमा नहीं है। अमृतरस की वर्षा है वहां। मधुर गान के श्रवण की अनुभूति को क्या व्याख्यायित किया जा सकता है! शायद नहीं। शब्द वहां पहुच ही नहीं सकते।

बहरहाल, पंडित जसराज को सुनते मन में अध्यात्म के अद्भुत भाव जगते हैं। उन्हें पहले भी सुना है परन्तु अस्सी की उम्र में इकत्तीसवें राजमल सुराणा संगीत समारोह में पिछले दिनों उन्हें सुना तो लगा, अध्यात्म की अद्भुत चेतना में उनके सुर जैसे अभी भी पुनर्नवा हैं। हमारे यहां ऋषियों ने सदा ही रागों को मंत्रांे की तरह देखा है। मुझे लगता है, पंडित जसराज हमारे समय के संगीत ऋषि हैं।...राग नट नारायण से वह मंगलाचरण करते हैं, ‘मंगलम भगवान विष्णु...मंगलम गरूड़ध्वज...।’ सुरों में पवित्रता की अवर्णनीय खनक। पंडितजी का गान खुद की उनकी प्रभु भक्ति का सहज संगीतात्मक रूपान्तरण ही तो है। स्वर, ताल और राग को निभाते वह रागों के अथाह समुद्र में ले जाते हैं। सुनने वालों को उसमें डूबकी लगवाते, पवित्र करते।

साज और सुरों का अनूठा मेल लिए वह गा रहे हैं, ‘जब से छवि देखी...’। स्वरों को ऊपर ले जाते औचक वह नीचे ले आते हैं... सप्तकों का भेद जैसे समाप्त हो रहा है। आरोह में अवरोह और अवरोह में आरोह। प्रस्तुत बंदिशों में मींड और स्वर, श्रवण सौन्दर्य क जैसे अद्भुत उजास रच रहे है। गान में अर्थवत् ध्वनियों का जो लोक वह रचते हैं, उसमें अध्यात्म की अनंत गहराईयां हैं। गायन की उनकी द्रुत गति तबले को भी बहुतेरी बार मात देती है। स्वरों की स्वाधीनता में कहीं कोई दखल नहीं करते हुए भी वह उन पर गजब का नियंत्रण रखते हैं। हृदयतंत्री के तार-तार को झंकृत करते विचलित होते हमारे भावों को अद्भुत शांति देता है उनका गान।

अचरज होता है, अस्सी की उम्र में भी श्वांस पर इस कदर नियंत्रण! लय में, सात सुरों में ‘निरंकार नारायण’ से प्रभु की प्रार्थना। म प ध नी...ध ग प ध नी। बीच-बीच में स्वरों का कंपन। गान मंे बहुतेरी बार वह स्वरों को हिलाते हैं। उनकी यह गमक चित्त को आनंदित करती है। झूले में झूल रहे हैं स्वर। आंदोलित गमक का अनूठा लोक रचा जा रहा है। संगीत का यह माधुर्य और कहां है! राग के वादी, संवादी, अनुवादी स्वरों में...सच! वह बढ़त करते हैं। सज रहे हैं स्वर। बोल बदल जाते हैं, ‘राधे-राधे बोलो बिहारी चले आएंगे...’। सहज-सरस गान। कहीं कोई उलझाव नहीं। आलाप में वह खुद को भी जैसे भुल रहे हैं। यह गान में आत्म की उनकी खोज है। भावों में माधुर्य का अनुष्ठान। ‘राधे गुन गावूं, मैं श्याम को रीझावूं...’, सुरदास के पद ‘मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायौ...’ गाते वह खुद रचित भजन भी सुनाते हैं, ‘मेरे प्यारे लला, हनुमान लला...’। हृदय के सूक्ष्म भावों की भाषा ही जैसे इसमें उन्होंने रची है।

मुझे लगता है, संगीत मार्तण्ड गान में स्वरों का सर्वथा नया बनाव करते हैं। राग वही है जिसे दूसरे भी गाते हैं परन्तु पंडित जी की अपनी उपज है। वहां शब्दों को जैसे भक्तिरस से गुना गया हैं। सर्वथा अलग है राग का उनका निभाव। पवित्रता का आह्वान करता। हमारे यहां कहा भी गया है, ‘नादाधीनं जगत’ अर्थात् संपूर्ण जगत नाद के अधीन है। पं. जसराज के नाद के सभी सुनने वाले हम अधीन हैं। जीवन में पूर्णता का आर्विभाव करते उन्हें सुनना क्या अनिवर्चनीय की उपलब्धि ही नहीं है!