Friday, June 28, 2013

रंगकर्म अनुभूतियों के दृष्यालेख

प्रदर्शनकारी कलाओं में रंगकर्म आरंभ से ही हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। इसीलिए अथर्ववेद, सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद के साथ ही पांचवा वेद नाट्यषास्त्र कहा गया है। 
संस्कृत ने नाट्य की हमारी परम्परा को निरंतर समृद्ध किया परन्तु अब जब इस भाषा के संस्कार ही हम भुलाते जा रहे हैं, संस्कृत नाटकों का मंचन कहां से हो! हां, केरल में कूडिआट्टम से़ संस्कृत नाटकों की परम्परा जरूर कुछ आगे बढ़ी। कावलम नारायण पणिक्कर इधर संस्कृत की समृद्ध नाट्य परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। रवीन्द्र मंच पर पिछले दिनों ‘रंग पणिक्कर’ समारोह के तहत पणिक्कर के रंगकर्म अवदान को गहरे से अनुभूत किया। इससे पहले उनके बारे में पढ़-सुन भर रखा था परन्तु जब उनके निर्देषन में नाटकों का आस्वाद किया तो लगा भारतीय रंगकर्म की वह अपने तई पुनःसृष्टि करते हैं। अपने अद्भुत रंग प्रयोगों के जरिए। इन प्रयोगों में परम्परा है परन्तु उसमें लोकधर्मिता की सहज छोंक भी है। इसीलिए रंगकर्म की उनकी दृष्टि में रस की अपूर्व व्यंजना हैं। संस्कृत नाट्य रचनाओं ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘मध्यमव्यायोग’, ‘कर्णभारम्’ और ‘उत्तररामचरितम्’ की उनकी मंच प्रस्तुतियां विरल है। रंग परिकल्पना के अंतर्गत दृष्य के साथ अदृष्य की सत्ता से वह अनायास ही साक्षात् कराते हैं। अपने नाटकों में वह दर्षकों को स्मृतियों के दृष्यालेख बंचवाते हैं। भवभूति रचित ‘उत्तररामचरितम्’ की उनकी नाट्य प्रस्तुति को ही लें। यह राम के राज्याभिषेक के बाद सीता निर्वसन और फिर से मिलन की कथा है। रामायण की मूल कथा दुखान्त है परन्तु भवभूति की सुखान्त। पणिक्कर के रंग निर्देषन में नाटक और नाटक के भीतर एक और नाटक जीवंत हो जैसे देखने वालों से संवाद करता है।
संयोग देखिए! भवभूति के इस नाटक का 1913 में सत्यनारायण कविरत्न का किया अनुवाद मिलता है। इस वर्ष जब उनके किए इस कार्य के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं कवि, कथाकार उदयन वाजपेयी के लिखे आलेख में इसे मंच पर देखने का सुयोग हुआ। वाजपेयी ने संप्रेषण की दीठ से भवभूति के कथ्य को अपने तई गुना और बुना है। अभिव्यक्ति की पारम्परिक परन्तु जीवंत परम्परा के साथ।
बहरहाल, मलयालम कलाकारों की संवाद भाषा से नाटक भले ही मुक्त नहीं हो पाया परन्तु यह खलता नहीं बल्कि नाटक को और अधिक रमणीय कर देता है। पणिक्कर की रंग दृष्टि भाषीय जड़ताओं से मुक्त जो है! कहें वह रस के रंगकर्म सर्जक हैं। नाट्य चरित्रों के भावाभिनय के साथ उनकी स्थिति, गति और प्रयुक्त पाष्र्व ध्वनियोें में वह दृष्य के अद्भुत अर्थ संकेत देते हैं। ‘उत्तररामचरितम्’ अनुभवातीत भव्यता लिए है। रंग षिल्प ऐसा जिसमें कलाकार दृष्यमय होता अदृष्य को भी बहुतेरी बार जीने लगता है तो अदृष्य होता दृष्य का अहसास कराता है। अपने आंतरिक समय को जीते हुए। 
नाटक के एक दृष्य में वन देवी वासंती राम के ठीक पीछे आती कहती है, ‘मैं तुम्हारा पीछा करता प्रष्न हूं।’ भले वह यहां दर्षकों को सदेह दिखाई देती है परन्तु प्रष्न रूप में उसका अदृष्य ही अनुभूति में बसता है। पणिक्कर रंगकर्म के अंतर्गत नाटक के कथ्य के साथ उसके परिवेष को भी गहरे से जीते हैं। इसीलिए तो पात्रों की वेषभूषा, अंग संचालन और संवाद के समानान्तर वह परिवेष के अर्थ संकेत गहराई से रचते हैं। पाष्र्व ध्वनियां के साथ पात्रों का मंद गति से तैरते हुए से प्रवेष। बहुत अधिक ताम-झाम नहीं। मंच से जुड़ी मोहक कल्पनाएं दृष्य अनुभव का अद्भुत सौन्दर्य से साक्षात् कराती। काव्य, संगीत और चित्रकला का भी वह अपने रंगकर्म में भरपूर उपयोग करते हैं। सच! उनके नाट्यकर्म का आस्वाद संवेदना के मर्म में उतरते हुए दृष्य से जुड़ी अनगिनत रंग अनुभूतियों से साक्षात् होना ही तो है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक 28-6-2013, आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं-

Friday, June 21, 2013

कला प्रदर्शनियों के सरोकार


कला का सौन्दर्य सत्य का स्वरूप है। वहां सौन्दर्य की हरेक में अलग-अलग प्रतीती होती है। मुझे लगता है, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकलाएं देखने के समय से ही जुड़ी हुई नहीं है, उनका सत्य हमारी स्मृतियों से भी जुड़ा है। कहें, यह कलाएं ही हैं जिनका सौन्दर्य देख-सुन कर ही महसूस नहीं किया जाता बल्कि स्मृतियों में भी सदा स्पन्दित करता है।
बहरहाल, अभी बहुत समय नहीं हुआ ख्यात कला क्यूरेटर अलका रघुवंशी से साक्षात् हुआ था। कला प्रदर्शन में अलका ने कुछ नए प्रयोग किए है। ख्यात कलाकारों की कलाकृतियों को क्यूरेट करते वह उनमें रमती है, बसती है। परम्परा के साथ आधुनिकता के नए कला संदर्भ जोड़ते हुए। इसलिए भी कि समकालीन कला जीवन से गहरे से जुड़े। आधुनिक कला को दैनिन्दिनी जीवन से जोड़ने के तहत आयोजित ‘अहसास’ प्रदर्शनी का आस्वदा करते कलाओं के अन्र्तसंबंधों को भी जैसे गहरे से जिया। संवाद हुआ तो कहने लगी, ‘यह सही है कि क्राफ्ट ने जिन्दगी को खूबसूरत किया है परन्तु सामयिक कला भी जिन्दगी को हसीन कर सकती है। इसीलिए मैंने ‘एहसास’ के तहत आधुनिक कला को दैनिन्दिनी जीवन से जुड़े परिधानों से जोड़ने का उपक्रम किया। यह जो प्रयोग था उसमें नर्तक, संगीतकार, कलाकार सभी जुड़े और इसी से यह सार्थक हुआ।’ अलका जब यह कहती है तो कलाओ के उनके बहुआयामी सरोकारों पर सहज ही मन जाता हैं। लोक कलाओं से लेकर शास्त्रीय कलाओं में उनकी गहरी पैठ हो है!
अलका की उपस्थिति कलाकृतियों के प्रदर्शन के बहाने बढ़ते क्यूरेटरों की भूमिका पर भी सवाल उठाती है। सवाल यह भी उठता है कि कलाकारों की कलाकृतियां कलादीर्घाओं में निंरतर प्रदर्शित हो रही है परन्तु स्मृतियों में इनमें से बहुत थोड़ी ही क्यों बसती है? शायद इसलिए कि वहां क्यूरेटर कलाओं के प्रदर्शन की व्यावहारिक सोच से नहीं जुड़ा होता।  अलका की भूमिका इस संबंध में महत्वपूर्ण है। वह देश की पहली प्रशिक्षित महिला कला क्यूरेटर है। गोल्डस्मिथ काॅलेज, लंदन और आॅक्सफोर्ड के म्यूजियम आॅफ मोर्डन आर्ट से दक्ष अलका ने इसीलिए भारतीय कलाओं को भिन्न आयामों में प्रदर्शित करने की भी अपने तई पहल की है। स्वयं भी वह कलाकार है। रंगो और रेखाओं की अद्भुत लय अवंेरती कलाकार। इसीलिए क्यूरेटर के रूप में उनके किए कार्य को खासतौर से याद किया जाता है। कलादीर्घाओं में कलाकृतियों के  प्रदर्शन को वह चुनौतीपूर्ण कार्य मानती है। कहती है, ‘कला प्रदर्शनी में क्यूरेटर की भूमिका का अर्थ यही थोड़े ना है कि आप कलाकार से कलाकृतियां ले लें और उनका प्रदर्शन कर दें। क्यूरेट करने का अर्थ है दृश्यात्मकता को क्रिएट करना। कलाकृतियों में ंजो दिख रहा है, उसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए कलाकृतियां का मेल करना। उनकी संबद्धता करना। इसी से शो में नूतनता आती है। यह जरूरी नहीं है कि एस्थेटिक सेंस हर लेखक में हो ही। है भी तो यह जरूरी नहीं है कि आप दृश्य को देखने वालों के अनुरूप नूतन करते हुए कलाकृतियां को हर आम और खास से साझा कर सकें। करना और सोचना अलग है।’ 
अलका के इस कहे में जाते हुए ही याद करता हूं, कलादीर्घाओं में प्रदर्शित वह कला प्रदर्शनियां भी जिनमें असंबद्ध दृश्यों की कलाकृतियां एक साथ मिली बहुत से सवाल पैदा करती है। सच ही है! किसी कलाकार की कला प्रदर्शनी क्यूरेट करने का अर्थ है, कलाकृतियों की प्रासंगिकता में जाना। उनकी परस्पर संबद्धता और कलाकार के समय सरोकारों से देखने वालों का नाता कराना। विरोधाभाषी चीजें भी साथ रहकर कैसे अलग होती है-इस चुनौती से कोई कला क्यूरेटर जूझता है और फिर कलाओं के सौन्दर्य की दर्शकीय दीठ पर जाता है-तभी ना उसकी सार्थकता है! आखिर कला मात्र दीवार पर टांगने की चीज ही तो नहीं है, जिदंगी का अहम हिस्सा है। 

Friday, June 14, 2013

ग्राम्य संस्कृति की दृश्य लय


छायाचित्र क्षण को पकड़ने की अद्भुत कला है। कैमरेनुमा यंत्र को बरतने वाले में यदि कलात्मक बोध हो तो वह क्षण को अपने तई सौन्दर्य में रूपान्तरित कर सदा के लिए उसे जीवंत कर सकता है। किसी घटना, अवसर के छायाचित्रों की कलानिहितता इस बात में ही तो है कि वहां किसी खास क्षण में निहित संवेदना के मर्म को छुआ जाता है।
अभी बहुत समय नहीं हुआ। छायाकार ओम मिश्रा के छायाचित्रों की प्रदर्षनी का आस्वाद किया था। लगा, ग्राम्य जीवन, प्रकृति, घटनाओं और बीते अतीत को कैमरे से जीवंत करते वह रेत, रेत से जुड़े सरोकार और ग्रामीण परिवेश का सच उद्घाटित करते। यह ऐसा है जिसे देखकर भी प्रायः हम अनदेखा कर देते हैं। वही दृश्य जो पहले देखा हुआ है परन्तु उसे कैमरे से बरतते ओम औचक ही विशिष्ट बना देते हैं। मुझे लगता है, इधर के छायाकारों में वह ऐसे हैं जिन्होंने राजस्थान के ग्राम्य जीवन को गहराई से अपने कैमरे और संवेदना की समझ से उकेरा है। इसलिए कि उनके ग्राम्य छायाचित्रां में उभरे दृश्य कला का सर्वथा नव्य सौन्दर्यबोध हमें देते हैं।
उनका एक छायाचित्र है गांव के गोबर लीपे घर का। घर का आंगन और गोबर लीपी सीढि़यों पर बच्चे बैठे हुए हैं। सहज मुस्कान के साथ। इन बच्चों को छायाचित्र के लिए बाकायदा तैयार कर बिठाया गया है परन्तु इसमें ग्रामीण परिवेश को जिस खूबसूरती से बंया किया गया है, वह चाहकर भी कोई भुला नहीं सकता। बावजूद बहुत से दृश्यों की निर्मिती में संलग्नता के ओम मिश्रा के छायाचित्रों की कलात्मकता इस बात से है कि उनमें दृश्य की बजाय उसमें निहित परिवेश की संवेदना को गहरे से जिया गया है। वह दृश्य को अपने तई बहुतेतरी बार अपने चित्रों में निर्मित कराते मिलते हैं परन्तु वहां तब विषय में बच्चे, स्त्रियां गौण होकर उनके पाश्र्व का परिवेश होता है। एक छायाचित्र में दूर तक पसरी रेत पर एक युवती पारम्परिक राजस्थानी लंहगे-चुनी में नृत्य कर रही है। नृत्य करते उसके पैर रेत के धोरों में धंस रहे हैं। ओम मिश्रा ने धोरों में धंसते उसके पैरों के बहाने रेत पर उभरी स्वयं रेत की नृत्य भंगिमाओं को बेहद खूबसूरती से कैद किया है। लगता है युवती के साथ रेत भी थिरक रही है। होले-होले। पवन के झोंको के साथ रेत मंडे पगलिए। छायाचित्र को देखते मन उसी में अटक जाता है। एक छायाचित्र देखते कबीर की साखी जेहन में कौंधने लगी है, ‘माटी एक रूप धरी नाना’। चाक पर घड़ा घड़ते कुम्हार के मिट्टी सने हाथ दिखाई दे रहे हैं। पोर-पोर अंगुलियां। माटी सनी। माटी मूरत उकेरती। ओम सर्जन के इस दृश्य की बारीकी में गए हैं। कैमरे से दृश्य मंे निहित संवेदन को गहरे से छुआ है और उसे छवि में सदा के लिए अंकित कर दिया है।  
ओम मिश्रा दृश्य नहीं दृश्य की अंतरंगता को पकड़ते उसे हमारे समक्ष खास ढंग से उद्घाटित करते हैं। छायाकला की समझ के साथ प्रयोगधर्मिता का कलात्मक संयोजन अपने छायाचित्रों में वह करते हैं। ग्रामीण जीवन के उनके छायाचित्रों में रोशनी के साथ अपरचर तथा स्पीड संयोजन की विशेषता भी आकृष्ट करती है। उनकी छाया-छवियों में दृश्य बहुतेरी बार चलायमान होता प्रतीत होता है तो कईं बार अंधेरे से उभरती रोशनी संवेदना की नई आंख देती है। छायाचित्रों में यथार्थ के साथ दृश्य प्रभाव भी महत्वपूर्ण होता है। दृश्य तो वही होते हैं जिनसे बहुतेरी बार हमारा सामाना हुआ होता है परन्तु उस दृश्य में निहित वह महत्वूर्ण ही तो छायाकार तलाशता है जिसमें स्वयं उसकी कलात्मक सोच छुपी होती है। ओम मिश्रा यही करते हैं। वह छायांकन की अपनी कला में संवेदना की सीर के छायाचित्रकार हैं।

Friday, June 7, 2013

भोपाल में जनजातीय संग्रहालय


इतिहास, परम्पराओं और संस्कृति की जड़ोें से जुड़ी है तमाम हमारी कलाएं। इनके मूल में ही सभ्यताओं का नाद है। इधर आधुनिकता में पनप रही एकीकृत विष्व-संस्कृति की विडम्बना यह है कि विरासत से जुड़ी जनजातीय कलाओं की हमारी थाती से हम निरंतर दूर भी होते जा रहे हैं। इसी से समूहों की सांस्कृतिक अस्मिता और समृद्ध जनजातीय परम्पराओं में निहित कलाओं का लोक निरंतर क्षीण भी होता जा रहा है। जरा सोचें, कलाओं का उद्भव लोक भावनाओं से ही तो हुआ है। चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाट्य आदि तमाम कला-रूपों में जनजातीय समुदाय की सहभागिता का जो योगदान है, उससे क्या हम मुंह मोड़ सकते हैं! रूपंकर कलाएं आखिर व्यक्ति विषेष की रचना नहीं होकर अनेक अर्थों में सामुहिक ही तो रही है। इस दीठ से परम्पराओं की हमारी समृद्ध धरोहर को सहेजना ही आज सबसे बड़ी जरूरत है। यह सच है कि देश में स्थापित संग्रहालयों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी भी है परन्तु बेशकीमती कलाओं को संजोने वाले यह आलय भी आज पुरा वस्तुओं के आगार भर बन कर रह गए हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में श्यामला हिल्स पर स्थापित जनजातीय संग्रहालय से कुछ आश जरूर जगती है। इसलिए कि वहां वस्तुओं की बजाय मानवीय अस्मिता को रेखांकित करने पर अधिक ध्यान दिया गया है।
इसलिए भी कि संग्रहालय की स्थापना के साथ उससे संस्कृतिकर्मियों, लेखकों को भी जोड़ा जा रहा है। संग्रहालय सांस्कृतिक चेतना के संवाहक है परन्तु संस्कृति बिगसाव के संदर्भ भी यदि उनसे जुड़ते हैं तो उनकी और अधिक सार्थकता है। संग्रहालय स्थापना आयोजन से जुड़े अषोक मिश्र बताते हैं, ‘दो वर्षों के सृजनात्मक परिश्रम से स्थापित संग्रहालय में आंचलिकता की जगह मानवीय अस्मिता को केन्द्र में रखा गया है।’ संग्रहालय की बड़ी विषेषता यह भी है कि इसमें आदिवासी कलाओं से जुड़े कलाकारों ने काम किया है। बाकायदा आदिवासी सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक जीवन्त माॅडल यहां प्रदर्षित किए गए हैं। देष के ख्यात कलाकार अनिलकुमार से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘जनजातीय संस्कृति के साथ समृद्ध कलाओं का यह देषभर का अनूठा संग्रहालय है।’ वह जब यह कहते हैं तो औचक संग्रहालयों की उस भूमिका पर भी मन जाता है जिसमें संस्कृति संपन्न समाज की नींव निहित होती है। जनजातीय संस्कृति, इतिहास और परम्पराओं को जीवंत किए जाने की ही तो आज अधिक जरूरत है। बाकायदा इसके लिए कलाधर्मिता के आयोजनों की भी वहां दरकार है। इतिहास, अतीत और वर्तमान की दूरियों को कम करने का बड़ा कार्य जब संग्रहालय करते हैं तो क्यों नहीं उनके जरिए वर्तमान पीढ़ी में सांस्कृतिक बोध का भी संचार हो। 
बहरहाल, जनजातीय परम्पराओं, उनकी संस्कृति और विरासत पर देष में ब्रिटिष उपनिवेष और राजा-रजवाड़ों के दौर में तो फिर भी कुछ काम हुआ था परन्तु आदिवासियों के समूह पर समग्रता से विस्तारपूर्वक कहीं कोई विष्लेषण, विवरण अभी भी नहीं मिलता। इस दृष्टि से समाज की जीवन शैली, परंपरा और विरासत को व्यष्टि और समष्टि रूप से समझने और अध्ययन करने में जनजातीय संग्रहालय की विशिष्ट भूमिका आने वाले समय में रहेगी। इसलिए कि उसके प्रकल्प में देश के जनजातीय इतिहास, संस्कृति और परम्पराओं पर प्रकाशन के साथ ही वृत्तचित्रों के निर्माण आदि के उद्देश्य भी रखे गए हैं। इसी से सांस्कृतिक बोध को हम बचाए रख पाएंगें। संस्कृतिमूलक बीज प्रष्नों का समाधान भी आदिवासी और लोक कलाओं, परम्पराओ ंको सहेजने में ही निहित है। इसी से हमारी समृद्ध संस्कृति में जनजातीय कला की पहुंच सुनिष्चित होगी और संस्कृति का सृजन और उपयोग मानवीय अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित होगा। आधुनिकता जरूरी है परन्तु इतनी ही जरूरत इस बात की भी है कि हम हमारी जातीय स्मृतियों से वंचित नहीं रहें। सांस्कृतिक चेतना परम्परा को विस्मृत नहीं होने दें।