Friday, December 28, 2012

रेखाओं की ध्वनि

जीवन से जुड़ी विद्रूपताओं  के सूक्ष्म अंकन की कला है व्यंग्यचित्र। कहें, यह वह संकते लिपि है जिसमें रेखाओं की ध्वनि को सुना जा सकता है। चित्रकला की ऐसी शैली जिसमें आकृतियां गुदगुदाती है, करारा प्रहार करती है तो कभी सोच का नया आकाश भी अनायास ही दे देती हे। मुझे लगतां है, यह व्यंग्यचित्र ही है जिसमें न्युनतम  रेखाओं में कहन की विराटता देखी जा सकती है।
बहरहाल, व्यंग्यचित्रों में प्रायः किसी समाचार के बहाने या फिर घटना जन्य परिस्थिति से बनी रेखाएं बहुत से स्तरो ंपर मारक प्रहार करती है तो कभी हास्य की अवर्णनीय स्थिति भी उत्पन्न करती है। इसीलिए तो कहते हैं, हजारों हजार शब्द जो नहीं कह सकते वह न्युनतम रेखाएं व्यंग्यचित्रों में कह देती है। यही नहीं, सब कुछ कहने के बाद भी बहुत कुछ फिर से वहां सोचने के लिए जेहन में रख दिया जाता है। स्वाभाविक ही है, इसके लिए रेखाओं की समझ ही पर्याप्त नहीं है-वह दृष्टि भी होनी चाहिए जिससे घटना या समाचार के वर्तमान के साथ उसके भविष्य को भी पढ़ा जा सके।

कार्टून और कैरिकेचर में महीन भेद है। कार्टून घटनाओं की पड़ताल करते जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति करते हैं जबकि कैरिकेचर व्यक्ति विशेष को उघाड़ते हैं। माने व्यक्ति के बाहरी ही नहीं अंदर के जगत की भी वहां तलाश होती है। वहां संवाद नहीं होता परन्तु शालिनता में रेखाएं बहुत कुछ कहती है। शिष्ट में चुभन और हास्य देने वाली परिस्थितियां औचक ही वहां पैदा होती है। कैरिकेचर के अतीत में जाए तो लगेगा, यह कला आज की नहीं राजा-महाराजाओं के जमाने से चली आ रही है।

इतालवी भाषा में कैरिकेचर कैरेक्टर है और स्पेनिश में कारा। अर्थ है-चेहरे। वैसे  नहीं जो सामान्यतः दिखाई  देते हैं, वह जिनमें व्यक्ति पूरी तरह से रंगा होता है। यानी व्यक्ति का चरित्र जिससे बंया हो। आसान नहीं है यह। कम से कम रेखाओं में व्यक्ति का बाहरी ही नहीं भीतरी भी बंया करना। कहते हैं, लियोनार्दो द विंचि ने कैरिकेचर कला की तलाश की थी। तब सिक्कों पर शासकों के चेहरे बने होते थे। विंचि ने देखा, सिक्के जब घिस जाते हैं तो शासको की छवियां भी विदु्रप हो जाती। कभी किसी शासक की ठूड्डी अजीब हो जाती तो कभी किसी की नाक। बस फिर क्या था, लियोनार्दो ने सिक्कों से प्रेरणा लेते हुए ही तत्कालीन विशिष्ट व्यक्तियों के कुछेक कैरिकेचर बनाए। लोगों ने उन्हें बहुत पंसद किया। बाद में तो यह कला विश्वभर में खूब पनपी।

थामस रोलेण्ड ने 19 वंी सदी में बड़ी-बड़ी हस्तियों के ऐसे चित्र बनाकर अपार लोकप्रिय प्राप्त की। विलियम होकार्थ वह कलाकार है जिसने पहले पहल एडिटोरियल कार्टून और कॉमिक स्ट्रिप की शुरूआत की।  होगार्थ ने जब ब्रिटिश समाज के आडम्बरपूर्ण चरित्रों को देखा तो उनके मन में सहज ही उनके प्रति आक्रोश उत्पन्न हुआ। परिणति में ही उन्होंने कला में शाश्वत विषयों की बजाय तात्कालीन विषयों पर रेखाओं से मारक प्रहार किये।
भारत में कार्टून कला के भीष्म पितामह शंकर हैं। कार्टून में पहले पहल विचार शंकर ही लेकर आए। इधर प्रायः सभी समाचार पत्रो के मुख्यपृष्ठ का एक कोना कार्टून का ही होता है। याद करें, आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’, सामू का ‘बाबूजी’, कदम का ‘टोपीधारी’ और सुधीर तैलंग का जींस पहनने वाला झोलाधारी-सबके सब चरित्र हममें इस कदर बस गए हैं कि इनके बिना कोई घटना इन दिनांे अधूरी नहीं लगतीि!
बहरहाल, कुछ दिन पहले लोकेन्द्र नाहर के बनाए व्यंग्यचित्रों, कैरिकेचर की प्रदर्शनी देखी तो यह सब जैसे याद आया। कार्टून, कैरिकेचर की उसकी प्रदर्शनी देखते लगा, इसमें उसके अंदर का कलाकार उसकी मदद करता है। इसीलिए भी कि वह जो बनाता है उसमें रेखाओं का सुघड़पन और उनकी कोमलता देंखने का न भूलाने वाला प्रभाव पैदा करती हैं। कैरिकेचर ऐसी कला है जिसमें कंपोजिशन सेंस तो खैर जरूरी है ही, ब्रश-स्ट्रोक भी मारक होना जरूरी है। यह जब लिख रहा हूं, हुसैन का बनाया लोकेन्द्र का कैरिकेचर और लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ याद कर रहा हूं। याद करंेगे तो आपको भी बहुत कुछ याद आने लगेगा!


Thursday, December 20, 2012

परम्परा का कलानुराग


लोक कलाएं निर्बन्ध हैं। माने वहां किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं है। चित्र है तो वहां कथा भी है। नृत्य है तो गान भी है। कहें, हर कला से थोड़ा कुछ लेते ही लोककलाएं बढ़त करती है। कथोपकथनों को गेय में व्यक्त करती। जीवन की उत्सवधर्मिता का नाद लिए। मनोरंजन के साधन जब नहीं थे, तब लोकलाओं का यह उजास ही तो मानव मन के रीतेपन को हरता था। 
बहरहाल, पिछले दिनों शहर के एक पांच सितारा होटल में लोक परम्पराओं के उजास को अनुभूत कर अजीब सा सुकून मिला। होटल में आधुनिक चकाचौंध और तड़क-भड़क के बावजूद छत का एक कोना जयपुर की परम्परा का संवाहक बना हुआ था। आंग्ल भाषा में इस आयोजन को नाम दिया गया था, ‘जयपुर टेल्स’। माने जयपुर बता रहा है। आमंत्रित आस्वादक भी हिन्दी बोलने, समझने के बावजूद अंग्रेजी दां थे। सो बताने वालों के बारे में घोषणा अंग्रेजी में ही हुई। सुखद यह था कि विरासत को बांचने वाले या कहें सुनाने वाले हिन्दी में बोले। लोकानुरंजन के तब के दौर को याद करते हुए जयपुर की कलाओं और वस्त्र परम्परा पर डॉ. चन्द्रमणीसिंह ने कुछ अनछुए पहलू बताए तो वास्तुकला से संबंधित जानकारियां गोपालसिंह नंदीवाल ने साझा की। स्वाभाविक ही था, इस दौरान राजा-महाराजाओं के कलानुराग का गान भी हुआ। जयपुर की मूर्तिकला से जुड़े पहलू तो खैर परम्परा की बात में आए ही परन्तु खाने के बाद पान का शौक फरमाने और लोकनाट्य की तमाशा परम्परा की बात चली तो लगा कुछ और भी था जो बंया किया जाना चाहिए था। एक साथ विरासत से जुड़ी बहुत सी परम्पराओं के पोषण को एक साथ रखे जाने की बड़ी सीमा आखिर यह तो होती ही है कि वक्त कम पड़ जाता है। जब तक कहने वाले की भूमिका बनती है, तब तक उसका समय समाप्त हो जाता है। सो रोचक कहन को सुनते यह बात अखरी। 
खैर...। पान खाने की जयपुर की परम्परा पर विरासत से जुड़ी दुकान के जुगलकिशोर ने पान के शौक से जुड़े लागों के बहुत से रोचक किस्से सुनाए। उनके इस सुनाने में लोकानुरंजन तो था ही, वह किस्सागोई भी थी जो अब धीरे-धीरे लोप हो रही है। वह सुना रहे थे, पान लेने आने वाले के साथ यदि कोई बच्चा आता तो उनके वालिद माधो उसे भी अपनी ओर से पान खिलाते। और ऐसे कब वह बच्चों में ‘माधोबाबा’ बन गए पता ही नहीं चला। उनकी दुकान भी फिर इसी नाम से जानी जाने लगी। यह सब सुनते पान का पारम्परिक स्वाद भी सुनने वालों को माधोबाबा की दुकान से चखवाया गया। इस दौरान संयोजक विनोद जोशी ने भी जयपुर की परम्परा को शिद्दत से बंया किया।
आयोजन में किस्से, कहानियां और भी थी। परन्तु भट्ट परिवार की परम्परा को निभाते आ रहे दिलीप भट्ट जब तमाशा के बारे में बताने लगे तो लगा वक्त थम गया है। लोकनाट्य की तमाशा शैली को भट्ट परिवार ने सींचा है। गोपीजी और  उनके पुरखों की परम्परा को दिलीप भट्ट के मुंह से सुना और तमाशा की उनकी प्रस्तुति से उसे गुना भी। पारम्परिक वेशभूषा में हारमोनियम, सारंगी और तबले की थाप पर भट्ट ने तमाशा किया। उनका पद संचालन और बुलंद आवाज मन में गहरे से जैसे बस गई है। 
तमाशा मूलतः लौकिक नाट्य है। वहां लोककथाएं हैं, पौराणिक आख्यान है, प्रेमाख्यान है और वर्तमान हालात का सांगीतिक चितराम भी है। दिलीप भट्ट इस आधुनिक दौर में भी तमाशा का निर्वहन और उसमें रेखांकित की जाने वाली भाववस्तु को अपने तई जीते हैं। उन्हें सुनते, भावाभिव्यक्ति करते देखते और अपनी कला में खोते हुए पाते व्यक्ति और समूह के अंतःसंबंधों की पहचान होती है। सोचता हूं, लोकानुरंजन के अंतर्गत एक प्रकार से लोक का यह वह अनुष्ठान ही है जिसमें परम्पराओं का पोषण हेाता है। हमारी विरासत में बहुत कुछ अभी भी ऐसा है, जो हममें से बहुतों के लिए नया है। जिसे सुना जा सकता है। गुना जा सकता है। बशर्ते, वक्त हो!

Saturday, December 1, 2012

इक्कीसवीं सदी में कला


कलाओं को हमारे यहां रूप की सृष्टि कहा गया है। वहां दृश्य का ही नहीं जो कुछ अदृश्य है, उसका भी अनुकरण करते रूप को उभारा जाता है। पार्कर ने इसीलिए कभी कला को इच्छा के काल्पनिक व्यक्तिकरण की संज्ञा दी थी। और अब तो कला कैनवस तक ही सीमित नहीं रह गयी है, उसके अभिव्यक्ति सरोकार भी बदल गए हैं।  किसी स्थान विशेष की संवाहक होने की बजाय वह बाजार जनित मूल्यों में संवेदना से परे बहुत से स्तरों पर जीवन से दूर भी हुए जा रही है। कैनवस हासिए पर है। रंग और रेखाओं की सर्जना में ब्रश-प्लेट गायब है। डिजिटल तकनीक के साथ संस्थापन में जो चाहे किया जाने लगा है। संभवतः इसी से कला-अकला का द्वन्द भी इधर तेजी से उभरा है।
राजस्थान हिन्दी गं्रथ अकादमी के पुस्तक पर्व में  ‘इक्कीसवीं सदी में कला का अंत’ सत्र शायद यही सोचकर रखा गया था। कला में उभरी नवीनतम प्रवृतियों के एक प्रकार से निश्कर्षनुमा इस षीर्शक विमर्श में प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज के साथ इस नाचीज से संवाद किया गया था। ‘कला के अंत’ पर भला कोई सहमत होगा? सो इस बाबत जब ममता चतुर्वेदी ने सवाल किया तो आनंद कुमार स्वामी के कहे पर ही गया, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं नवीन होने में है।’ नवीन जो बनाया जा रहा है, उसमें कलाकार और हम स्वयं कितना नवीन होते हैं। असल मुद्दा यह है। यूं भी कला माने जिसका कलन होता हो। काल में जिसकी गणना की जा सके। काल से जुड़े का भी अंत हो सकता है! मुझे लगता है, यह कला ही तो है जो अपनी व्यापक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया के तहत समाज में तमाम अपनी स्मृतियां, विस्मृतियां, विशेषताओं और बेशक खामियों के साथ हर दौर में मौजूद रहती है। इसलिए उसमें नवीनता जब-जब होती है, पुराने को न छोड़ पाने के मोह के कारण ऐसे सवाल भी उठते रहते हैं।
विनोद भारद्वाज ने इसीलिए ‘कला के अंत’ की बजाय कैनवस के अंत के प्रश्न को मौजूं बताते कहा कि सत्र का शीर्षक कुछ ऐसा ही होना चाहिए था। इसके बहाने उन्होंने बदलते समय में कलाकार के जीवन मूल्यों में आए बदलाव की ओर ईषारा किया। उनका कहना था, पहले कलाकार के पास कैनवस था तो समय था अब जब माध्यम बदल गया है तो बाजार भी प्रमुख हो गया है। कैनवस छूटने के साथ ही कलाकार के पास अब समय ही नहीं है। वह बाजार की दौड़ में इस कदर भाग रहा है कि अपने और अपनोें से ही दूर हुए जा रहा है। हुसैन की हर अदा मीडिया में साया होती तो गायतोण्डे और अम्बादास जैसे महत्वपूर्ण कलाकारों के अंत से भी मीडिया अनजान बना रहा। प्रयाग शुक्ल ने कला में आए बदलावों के साथ छीजती संवेदनाओं पर गहराई से रोशनी डाली।
बहरहाल, ‘इक्कीसवीं सदी में कला का अंत’ पर विमर्श के बहाने कला में उभरती नवीनतम प्रवृतियां और बाजार मूल्यों की गहरे से पड़ताल हुई। संवाद में इन पंक्तियों के लेखक ने टाईम मैगजीन में 1923 में प्रकाशित मशहूर कला आलोचक क्रिस्टल के उस लेख की भी याद दिलाई जिसमें कलाकारों के पागल हुए जाने की बात कही गयी थी। अप्रत्यक्षतः कला के अंत का ही प्रश्न उसमें उठाया गया था। माने हर दौर में जब भी कुछ नया होता है, लीक से हटकर कुछ किया जाता है तो उसमें इसी तरह के प्रश्न शायद उठते हैं। ‘कला के अंत’ की बात बहुत से लोगों को भले अखरी होगी परन्तु यह वह सांस्कृतिक प्रतिक्रिया है जिसमें बदलते रूप माध्यमों में कला नए आयाम ले रही है। बेशक आयाम के इस सफर में बहुत कुछ खराब भी हो रहा है परन्तु खराब की डर से क्या कला अभिव्यक्ति की बेहतरीन संभावनाओं को नकारा जा सकता है! 

Saturday, November 24, 2012

सुर की अद्भुत लय


ध्वनि माने नाद। संगीत की बात करें तो नाद वहां ध्वनि भर नहीं है। वहां लय है, ताल है और है जीवन का राग। सोचता हूं, संगीत की लय यदि जीवन मंे नहीं हो तो क्या यह संसार असार नहीं हो जाएगा! राग ही तो कराता है जीवन से अनुराग। 
बहरहाल, नाद से स्वर और स्वरों से है सप्तक। संस्कृत की धातु रंज् से बना है ‘राग’। माने रंगना। कल की ही बात है। पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर को सुना। लगा, उनके गाये में पूरी तरह से रंग गया हूं। मीराबाई का जो भजन उन्होंने गाया है, उसके बोल हैं, ‘मत जा मत जा रे जोगी, पांव पड़ुंगी मैं तेरे’। गाया इसे ओरों ने भी है पर मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में यह सुनंेगे तो लगेगा तन-मन झंकृत हो उठा है। शब्दों की कोरी ताल निबद्धता ही वहां नहीं है, एक-एक गाये शब्द का अर्थ जैसे स्वर दर स्वर खुलता है। राग भैरवी में इसे गाते पंडित जी मीरा की भावना के सारतत्व की गहन अनुभूति कराते हैं। आरोह, अवरोह में किसी एक स्थान पर ले जाकर औचक जब वह ‘मत जा मत जा’ शब्दों के स्वर छोड़ते हैं तो अद्भुत सौन्दर्य रचाव होता हैं। यह अध्यात्म का सौन्दर्य है। लगता है, उनकी अंवेरी लय सदा के लिए मन में बस गयी है। भैरवी प्रातःकाल का राग है परन्तु पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में ‘मत जा जोगी’ को किसी भी समय सुनेंगे, मन करेगा उसे गुनें। एक-एक शब्द की गहराई मंे ले जाते वह स्वरों की अद्भुत पकड़ करते हैं। 
मल्लिकार्जुन मंसूर के आलमप्रभु, चैन्नबसव, अक्कामहादेवी जैसे संतों के वचनों का गान भी अंतर अकथ से हुलसित करता है। बसवन्ना की विनय-पत्रिका ‘हे प्रभु,/देह की डंडी बनाओ/तुम्बा हो सर का/नाड़ियों की तंत्री बने/अंगुलियों का मिजराब/साधकर अपने दो और तीस राग/मेरे हृदय को छेड़ो...’ सुनेंगे तो लगेगा आप किसी ओर जहां में चले गए हैं। सच! यह मसंूर ही हैं जिनका गान अर्थनिरपेक्ष होता सूक्ष्म से सूक्ष्मतर समाधि भंगिमा की ओर बढ़ता है। वह अपना सारा गान भगवान शिव को समर्पित करते हैं। मुझे लगता है, अन्तः और बाह्य जगत के तमाम संदर्भ उनके गान में समाहित हैं। धुन लगते ही हम जैसे उसमें रमने लग जाएंगे। 
बीकानेर के ऊर्जावान और समझ वाले अपेक्षाकृत युवा प्रकाशक प्रशान्त बिस्सा ने इधर सूर्य प्रकाशन मंदिर के तहत पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की आत्मकथा ‘रसयात्रा’ का प्रकाशन किया है। मूल कन्नड़ में लिखी ‘रसयात्रा’ बकौल अशोक वाजपेयी ‘तीर्थगायक की रसयात्रा’ है। मंसूर इसमें लिखते हैं, ‘ताल और राग के सटीक मिलाप से ही धीरे-धीरे राग-पुष्पित होते हैं।’  उन्हें सुनते हुए इसे गहरे से अनुभूत भी किया जा सकता है। 
‘रसयात्रा’ में एक जगह वह संगीत की मौलिकता पर कहते हैं, ‘परम्परा के सारतत्व पर अधिकार के बाद ही मौलिकता को प्रवाहित होना चाहिए।’ स्वयं पंडितजी ने तमाम अपने गान में यही तो किया है! वहां परम्परा के सारत्व पर अधिकार है परन्तु स्वयं उनकी सिरजी मौलिकता भी है। उनके गुरू मांजी खान साहब कहते, ‘हर कुजे नियामत’। माने हर पात्र में कुछ न कुछ प्रसाद जरूर होता है। इसकी गांठ बांधते उन्होंने संगीत में सबसे कुछ न कुछ ग्रहण किया परन्तु उसमें अपना मिलाते सहज आलाप के अद्भुत सुरीलेपन की सौगात हमें दी। ‘रसयात्रा’ में अपने गायन के बारे में बताते वह लिखते हैं, ‘तानपुरे पर स्वर सुनते ही मैं इस सांसारिकता से दूर एक अलग दुनिया में प्रवेश करता हूं। भौतिक उपस्थिति को भुलाकर मेरे मन की आंखे केवल सुर की लय को देखती है....मेरे लिए तो जिन्दगी खुद सुरों से सजी एक महफिल है।’ उन्हें सुनते, ‘रसयात्रा’ को पढ़ते औचक मुंह से यही तो निकलेगा ‘सच ही तो है!’

Friday, November 16, 2012

काशी और एलिस बोनर



काशी  मंदिरों की नगरी ही नहीं कला भूमि भी है। ललित कला अकादेमी और जे.कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन के आमंत्रण पर कुछ दिन पहले एक व्याख्यान देने वाराणसी जाना हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविध्यालय  स्थित कला भवन भी गया। लगा, संगीत, नृत्य, चित्रकला और संस्कृति की हमारी परम्पराएं अभी भी वहां जीवंत है। कलाविद् ‘एलिस बोनर’ के बारे में  काशी   जाने से पहले भी पढ़ा था परन्तु बनारस में उनकी दृष्टि से जैसे अपनापा हुआ। उनकी कला दीठ में काषी के घाटों से साक्षात् हुआ, एलोरा के गुफा चित्रों के बारे में जैसे नई समझ मिली और सुप्रसिद्ध नर्तक उदयशकर की नृत्य भंगिमाओं के बहाने संगीत, नृत्य, शिल्प, वास्तु और अध्यात्म के भारतीय सरोकारों को पश्चिम के किसी कलाकार की मौलिक दृष्टि से फिर से जाना।
अचरज भी हुआ। किसी भारतीय ने नहीं, पाष्चात्य कलाकार ने भारतीय कला और संस्कृति को अपनी कला में इस गहरे से जिया है! फिर सोचता हूं, कला का यही तो वह परम सत्य है जिसमें सर्जक जीवन की अपने तई तलाष करता है। एलिस ने यही किया। अपनी अनुभवी दृष्टि से भारतीय कला के रहस्यों में प्रवेश  करते उसने चित्रों में, मूर्ति में, नृत्य में अर्न्तनिहित को अपने तई समझा। कला की अपनी दीठ दी। उसने संसार की दृष्टिगत होने वाली वस्तुओं प्रकृति, मनुष्य, पषु तथा पेड़-पौधों को अपनी कला में मूर्त रूप ही नहीं दिया बल्कि भारतीय नृत्य की भंगिमाओं को आत्मसात करते रेखाओं, रंगों के साथ ही मूर्तियों में उन्हें जिया भी। 
विष्वास नहीं होता! भारतीय नृत्य के आस्वाद में कोई इतना खो जाए कि तमाम अपना जीवन ही उसके लिए समर्पित कर दे। पर सच यही है! एलिस इसी का उदाहरण है। ज्यूरिख में वर्ष 1926 में एलिस ने प्रख्यात नर्तक उदयषंकर का नृत्य देखा। नृत्य की उनकी भंगिमाएं और लालित्य की सुंदरता ने उसे जैसे मोहित कर दिया। एलिस को लगा, मंदिरों पर उत्कीर्ण होने वाली मूर्तियां उदयषंकर के नृत्य में जीवंत हो उठी है। बस, यहीं से एलिस का भारतीय कलाओं में रूझान बढ़ा और अगले पांच वर्षों तक वह उदयषंकर के कलाकर्म के साथ ही जीवन के उनके तमाम आयामों से जैसे एकाकार हो गयी। उनके नाट्य प्रदर्षन, पत्राचार, वेषभूषा के साथ ही योरोप और अमेरिका की उनकी यात्राओं की व्यवस्थाएं उसने की।एलिस के अनुसार, ‘यह वास्तव में भारत के बहुरंगीय जीवन का मेरे लिए एक सजीव चित्र था।’
बहरहाल, बाद में वाराणसी को एलिस ने अपना घर भी बनाया। वह बनारस के अस्सी घाट में रही। यहां रहते उसने काषी की महिमा को गुना और और उसे अपने चित्रकर्म, मूर्तिषिल्प में गुना भी। यहीं से बाद में वह उत्कल भूमि भी गयी। उड़िसा  में बिखरे षिल्प की तलाष करते ही उसने  ताड़पत्रों की अप्रकाषित पाण्डुलिपियां खोज निकाली। पण्डितों और षिल्पियों का सहयोग लिया और 12 वीं सदी में लिखे गये उड़िसा के तंत्र युग ग्रंथ ‘षिल्प प्रकाष’ का अनुवाद भी किया। प्रतिमा के सिद्धान्त का विधिवत एवं प्रतिकात्मक ज्ञान जैसे इससे उन्हें मिला। एलिस ने कहा भी, ‘कलाएं सौन्दर्य आस्वाद के लिए ही नहीं है, उनके जरिए आत्मा को एकाग्रचित किया जा सकता है। इसलिए कि वे सत्य हैं।’
 एलोरा पर एलिस ने जो लिखा है, वह विरल है। गुफा षिल्प पर लिखी उनकी सूक्ष्म कला दृष्टि पर जाता हूं तो यह भी लगता है कि यह एलिस ही थी जिसने एलोरा की गुफाओं के अर्थ संकेतों को पकड़ते प्रतिमाओं के अर्न्तनिहित को अपनी दीठ दी। इस दीठ मंे बाह्य सौन्दर्य के आकर्षण से प्रभावित होना ही कला की समझ की संपूर्णता नहीं है बल्कि जीवन के आंतरिक भाव को व्यक्त करना भी है। कहें, उसने कला और जीवन की गतिषीलता की आत्मा को पहचाना। इसीलिए बाद में जब एलिस  ने नर्तक, संगीतकारों के चित्र, मूर्तियां बनायी तो उनमें भारतीय संस्कृति जीवंत हो उठी। 
काषी से लौटे इतने दिन हो गये परन्तु एलिस की कला, उसकी भारतीय कला दृष्टि का प्रकाष अभी भी जेहन में रह-रह कर कौंध रहा है। एलिस ही क्यों, काषी की दूसरी कला अनुभूतियां भी तो इतनी है कि उन पर लिखूं तो कई सौ पृष्ठ भी कम नहीं पड़ जाएंगे! यही सब सोच रहा हूं कि मन में विचार आ रहा है, काषी का अर्थ भी तो प्रकाष ही है। काष् धातु है। अर्थ है-ज्योतित करना।  दृष्टि में जो ज्योतित है, उन्हें क्या शब्दांे में व्यक्त किया जा सकता है!  


Friday, November 9, 2012

दीपक ज्योति नमोस्तुते


पर्व-त्योंहार आखिर किसलिए मनते हैं! इसीलिए ना कि जीवन का उजास, उत्सवधर्मिता का नाद उनमें है। और दीपावली तो है ही उजाले की प्रतीक। सोचिए! अमावस्या के अंधकार को हरने ही तो जलता है, नन्हा सा एक दीप। 
दीप पर्व दीपावली अंतर्मन उजास का संवाहक है। मुझे लगता है भारतीय संस्कृति का यह अनूठा कला पर्व है। इस पर्व पर भीतर का हमारा सर्जक जाग उठता है। दीपावली इसीलिए तो हरेक के मन को भाती है कि इस एक पर्व में कलात्मक सृजन के भांत-भांत आयामों को हम अनायास छू लेते हैं। रंग-रोगन कराते कलाकार नहीं होते हुए भी घर के किसी कोने को अपने भीतर के कलामन से संवारने की दीठ आप मंे अनायास जगती है। गांवों मंे तो दीप पर्व से पहले ही घरों को गोबर से लिपने-पोतने का कला कर्म शुरू हो जाता है। मिट्टी और गोबर का मेल। उसमें हिरमिच और हल्दी का घोल। घर-आंगन में मंडते कलात्मक मांडणे।...और यही क्यों लक्ष्मी पूजा स्थल तक कुकुंम से लक्ष्मी के अलंकारिक पगलियों भी तो मांडे जाते हैं।...दीपकों की जो रोशनी घर-परिवार में होती है वह भी तो मिट्टी के आकर्षक दियों से ही होती है। कुम्हार की चाक से ढले मिट्टी के दीपक पानी से धोकर साफ करते हैं और फिर उनकी खूशबू के साथ यत्र-तत्र सर्वत्र उजास फैलता है।
दीप पर्व में जीवन को आलोकित करने का मंतव्य गहरे से निहित है। आज से नहीं। युग-युगों से। मुअन-जो-दड़ो की खुदाई से इंटो के घरों में दीपक जलाने की परम्परा ज्ञात हुई है और अंधेरी गुफाओं में निर्मित बारीक चित्रों को देखकर भी सहज यह अनुमान होता है कि दीपक तब भी थे। मुझे लगता है, सभ्यता और संस्कृति के अनहद नाद हैं दीपक। पंचतत्वों से एक अग्नि का प्रतीक दीपक। जन्म से लेकर मृत्य के बाद तक की रश्में निभाता दीपक। अंधकार से मुक्ति का आह्वान करता। मर्त्य में अमर्त्य दीपक। 
दीपक अंतर्मन प्रकाश की खिड़की खोलने का संदेश देते हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए, वाराणसी जाना हुआ था। काशी की एक सांझ गंगा में नाव में विचरते दीपमालिकाओं से साक्षात् हुआ। लगा, एक साथ पंक्तिबद्ध जलते दीपकों में जीवन की लय को गहरे से अंवेरा गया है। तभी मन में खयाल यह भी आया...अंधेरा नहीं हो तो इस रोशनी को क्या हम इस रूप मंे देख पाते! माने अंधकार में ही प्रकाश की शोभा है।...तो सृजन के लिए जरूरी है अंधकार। दिन के बाद रात न हो तो! यह दीपक ही है जो रात्रि के अंधेरे में अपने होने को जताता जैसे हमें अपने भीतर झांकने का यूं अवसर देता है। बनारस में गंगा आरती के अद्भुत दृश्य में रमते जैसे हम अपने होने की ही तलाश कर रहे थे। नाव पर बैठे गंगा आरती की दिव्यता और भव्यता में ही डूबे थे कि पास ही आ लगी एक और छोटी सी नाव। हाथ में मिट्टी के दीपक और घी से सनी बाती के साथ छोटे-छोटे बच्चे उन्हें खरीद गंगा मंे प्रवाहित करने का आग्रह कर रहे थे। हमने दीपक ले, बाती को प्रकाशित किया। जगमग दीपकों को जब गंगा में प्रवाहित किया तो लगा कुछ अनूठा अनायास ही हो गया है। पंक्तिबद्ध रोशनी बिखरते दीपक थोड़ी देर में ही पानी की एक लहर के साथ हमसे दूर चले गये।...परन्तु उनका उजास!  मन में जैसे अभी भी बसा हुआ है। 
कहीं पढ़ा हुआ, औचक जेहन में कौंध रहा है। निर्वाण समय बुद्ध शांत लेटे हुए हैं। उनका शिष्य आनंद विलाप कर रहा है, ‘हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं! अब कौन करेगा हमारा पथ प्रशस्त?’ बुद्ध के मुंह से निकलता है, ‘अप्प दीपो भव’ माने स्वयं अपना प्रकाश बनो। जलो ताकि आलोकित हो रूप। दीपावली में हम सब यही संकल्प लें। अपनी ज्योति आप बनें। ‘दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ 


Saturday, November 3, 2012

...और चले गए साखलकर जी



कला मर्मज्ञ रत्नाकर विनायक साखलकरजी नहीं रहे! यह सूचना आहत करने वाली थी। ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर कला के एक व्याखान कार्यक्रम के अंतर्गत तब वाराणसी में था। सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ। कल की ही तो बात है, इसी स्तम्भ में उनके कला चिंतन पर लिखा था। लगा, कलाओं में रमने, उन्हीं में बसने वाला हमसे यूं दूर कैसे जा सकता है! देह से भले वह चले गये परन्तु उनका कलाकर्म, चिन्तन तो सदा हमारे साथ रहेगा ही।
बहरहाल, भारतीय कला के अर्न्तनिहित में जाते यह साखलकरजी ही थे जिन्होंने कला चिन्तन में सदा ही बढ़त की। भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला और तमाम हमारी लोककलाओं को समझ की अपनी दृष्टि दी। पाठ्यपुस्तकों के जरिए शिक्षार्थियों तक कला के सरोकार पहुंचाने का भी बड़ा  उपक्रम किया। हिन्दी में कला की पाठ्यपुस्तकों की बड़ी सीमा यह है कि उनमें अधिकतर पाश्चात्य कला दर्शन का ही रूपान्तरण है। ऐसे में यह साखकरजी ही थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला को हिन्दी में मौलिक दृष्टि से लिखा परन्तु इस लिखे की कूंत कभी शायद हो ही नहीं पायी। साखलकरजी के साथ तो विडम्बना यह भी रही कि उनका चित्रकार और पाठ्यपुस्तक लेखक उनके कला आलोचक पर सदा भारी रहा। राज्य ललित कला अकादेमी ने चित्रकार के रूप में उन्हें कलाविद् की उपाधि से सम्मानित किया परन्तु कला आलोचना की उनकी दृष्टि का मूल्यांकन शायद सही ढंग से किसी स्तर पर नहीं हुआ। 
याद पड़ता है, हुसैन की भारतीय देवी-देवताओं को लेकर बनायी गयी कुछ आपत्तिजनक कलाकृतियांे को लेकर जब पूरे देश में बवाल मचा हुआ था, साखलकरजी ने उनकी कलाकृतियों के निहितार्थ में जाते तर्क सहित प्रचार की उनकी भूख को पाठकों के समक्ष रखा था। यही नहीं उन्हें पढंेगे तो पाठकों को बार-बार यह अहसास भी होता है कि जो उन्होंने लिखा उसमें कला के भारतीय दर्शन को गहरे से छुआ है। मसलन अजन्ता के कला वैभव, खजुराहो की नग्न प्रतिमाओं पर लिखते हुए उन्होंने शास्त्र, पुराणों के शिल्प मंतव्य भी गहरे से उद्घाटित किए हैं। मंदिरों पर यौन प्रतिमाओं को लेकर उनके भारतीय दर्शन पर जब भी जाता हूं, आनंदकुमार स्वामी का कला चिन्तन भी गहरे से मन में कौंधता है। मंदिरों में नग्न प्रतिमाओं, मिथुन आकृतियों को भारतीय कला में कभी गलत नहीं माना गया, इसलिये कि यह व्यक्ति को कुंठाओं से मुक्त करता है, पवित्रता से पहले कुंठाओं से मुक्ति जरूरी है। साखलकरजी कला के भारतीय दर्शन में जाते विष्णुधर्मोत्तर पुराण, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के साथ ही शिल्पशास्त्र और तमाम दूसरे कला आख्यानों की गहराई को अपने लिखे में जीते। इसी से उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय कला का अपने तई सांगोपांग मूल्यांकन किया और भारतीय कलाकारों पर जो लिखा उसमें रंग और रेखाओं की गहराई में जाते कला की सोच को व्यापक परिप्रेक्ष्य में हमारे समक्ष रखा। 
अज्ञेय के कला चिन्तन पर कभी प्रभात प्रकाशन ने वत्सल निधि के तहत हुए व्याख्यानों को संजोते एक पुस्तक का प्रकाशन किया था। परन्तु हाल ही सस्ता साहित्य मंडल ने सुप्रसिद्ध आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल के संपादन मंे कला पर समय-समय पर लिखी अज्ञेय की टिप्पणियों को प्रकाशित किया है। उससे पता चलता है कि भारतीय कला पर अज्ञेय कितनी गहराई से सोचते थे। निर्मल वर्मा को पढते हैं तो उनके बरते शब्दों में कला ही कला बिखरी दिखाई देती है। क्या ही अच्छा हो, रत्नाकर विनायक साखलकरजी के कला चिन्तन पर एक संपादित पुस्तक ही कोई बड़ा प्रकाशक प्रकाशित करे। हिन्दी में कला आलोचना नहीं होने का रोना रोने वाले आखिर जाने तो सही कि हिन्दी कला आलोचना किस मुकाम पर है! 


Thursday, November 1, 2012

नया कुछ रचने की कला दीठ


कलाओं का आस्वाद मन को भीतर से भरता है। लगता है, कहीं कुछ रीता हरेक के भीतर होता है। कलाएं उसकी पूर्ति करती मन को उल्लसित करती है। पिछले सप्ताह जवाहर कला केन्द्र में बहुतेरी कला प्रदर्शनियांे का आस्वाद करते एक कलादीर्घा में पांव औचक ठिठक से गये। जयपुर के साथ हैदराबाद, भोपाल, इन्दौर, मुम्बई, दिल्ली, अजमेर आदि स्थानों के उभरते हुए कलाकारों की प्रदर्शित चित्रकृतियां में बहुत कुछ खास था। एक चित्र में वीणा पर विराजते गणेश की भंगिमा या कहूं उसका आभाष मन में घर कर गया। 
यह एब्सट्रेक्ट गणेश थे। पार्श्व के ग्रे रंग में उभरती यंत्र मानिंद सधी रेखाएं। सिंदूरी, काला, भूरा, सफेद और दूसरे बहुतेरे रगों के मिश्रण से उभरी रंग आभाओं में गणेश की कलम और कागज पर उभरी रचनाओं का उजास। सब कुछ वही नहीं जो लिखा गया है, कहूं उस सरीखा ही कुछ जेहन में उभरा। कैनवस के इस एब्सट्रेक्ट पर न जाने कितनी ही देर आंखे ठहरी  रही। पता चला, कला अध्ययन से जुड़ी जयपुर की पूजा शर्मा का बनाया है यह चित्र। रंग-रेखाओं के उजास में माइकल एंजेलो, पिकासो, राफेल और हुसैन सरीखे कलाकारों की कला को बांचते नया कुछ रचने की आधुनिक दीठ से जैसे साक्षात्कार हुआ। वह दीठ जिसमें कलाकार भीतर की अपनी आस्था को गहरे से स्वर देते हुए अपने समय से भी कहीं कटा नहीं है।
बहरहाल, राजधानी दिल्ली की ऑनलाईन आर्ट गैलरी ‘आर्टइन्फो’ के तहत लगी हुई थी यह महत्ती कला प्रदर्शनी-‘बोनहुमी’। बोनहुमी! माने? ‘आर्टइन्फो’ के सतेन्द्र गुप्ता से संवाद हुआ तो कहने लगे, यह फ्रंेच शब्द है। अर्थ है, साथ-साथ। मुझे लगता है, किसी शब्द का यही कला संस्कार है। विभिन्न देशों में और बल्कि भारत के बहुत से प्रांतों की भाषाओं में बहुतेरे ऐसे शब्द हैं जिनमें अद्भुत कला बोध है। इन्हें बरतते हुए सांगीतिक लय की अनुभूति की जा सकती है। अज्ञेयजी के डायरी लेखन में बरते ‘तितली’ शब्द और भिन्न भाषाओं में इसके कहन की याद ताजा हो रही है। इस्पानी में तितली को मारिपोजा और ग्रीक में पेतालूदिस कहा जाता है। शब्द को सुनकर जो कला बोध होता है, उसी में रमते अज्ञेय लिखते हैं, ‘...मानो अभी पंखुरी झरी।...और झरते-झरते हाइकू बन गयी।’ सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो तमाम भाषाओं में लय अंवेरते ऐसे शब्दों को एकत्र कर कलाभिव्यक्ति का कोई अन्तर्राष्ट्रीय कोश तैयार किया जाए। अभी कल ही की तो बात है। राजस्थानी रचनाकार मित्र राज बिजारणिया ने फेशबुक में ‘चाळ भतूळिया रेत रमां’ अभिव्यक्ति की। शब्द की अद्भुत लय दीठ यहां नहीं है! यही तो है कला! आप कुछ पढें, सुनें, देखें तो भीतर की आपकी संवेदना जगे। मन को पंख लगे। कहीं और क्यों जाएं। हमारे आस-पास बहुत कुछ ऐसा है जिसमें कलात्मक बोध है। बस उसे पहचानें। उसमें रमें। पाएंगे, कुछ अद्भुत अनुभूत हुआ है। जो उसे गुनेगा, वही तो कुछ बुनेगा!
‘बोनहुमी’ कला प्रदर्शनी से गुजरते मैं भी जैसे यह सब गुन गया हूं। बहुतेरी बार यह होता है कि आप कुछ देखने जाते हैं और वहां और भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण मिल जाता है। ‘आर्टइन्फो’ की कला प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रांे के साथ उसकी ऑनलाईन कलादीर्घा की भी आभाषी यात्रा वहीं करने को मिल गयी। सुखद लगा, यह जानकर भी कि कोई ऑनलाईन गैलरी भिन्न माध्यमों मंे काम करने वाले 5 हजार के करीब कलाकारों की कला की वर्चुअल सैर करा रही है। कला में संवाद के साथ कला आयोजनों के श्रव्य-दृश्य चितराम भी वहां उपलब्ध है और भविष्य की योजना में संचार की इस तकनीक के जरिये हिन्दी में भी इसी तरह से कलाओं को आम जन से साझा करने की योजना है। 

Saturday, October 20, 2012

साखलकर की सूक्ष्म कला दीठ


कलाएं किसी भी समाज या सभ्यता की परख की एक प्रकार से दीठ देती है। यह कलाएं ही हैं जिनसे समाज में सृजन की अनंत संभावनाए सदा बनी रहती है। इसलिये कि कला और कलाकार समाज व्यवस्था के कर्मचारी नहीं निर्माता होते हैं। रत्नायक विनायक साखलकर ऐसे ही समाज निर्माता हैं, जिन्होंने कलाओं के जरिए समाज को समझने की दृष्टि हमें दी है। यह बात अलग है कि उनकी कला और कलाओं की परख की पैनी दीठ के प्रति एक प्रकार से हम-सबकी नुगराई ही रही है।
बहरहाल, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी की ओर से इस सोमवार उन्हें प्रज्ञा पुरस्कार दिया गया है। प्रज्ञा पुरस्कार किसी भी उस लेखक को दिया जाता है, जिसकी पुस्तकों के 15 संस्करण राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने प्रकाशित कर बेचे हों परन्तु इस दीठ से तो साखलकरजी वैसे भी बहुत आगे निकल गये थे। उनकी कला पर लिखी बेहतरीन पुस्तक ‘आधुनिक चित्रकला का इतिहास’ के तो 23 संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि कला पर मौलिक चिन्तन रखने वाले किसी लेखक की प्रज्ञा का सम्मान किया गया है। और वैसे भी रत्नायक विनायक साखलकर चित्रकार होने के साथ ही कलाओं पर मौलिक समझ से लिखने वाले उन भारतीय लेखकों में से है जिन्होंने कलाओं पर लिखे के अनुसरण की बजाय अपने तई कला मंे चिन्तन की सदा ही नई स्थापनाएं की है। पाश्चात्य और भारतीय कलाकारों और कलादृष्टि पर उन्होंने जो लिखा है, उसमें स्वयं उनकी मौलिक सोच हर ओर, हर छोर है।
ऐसे दौर मंे जब उच्च शिक्षा पाठ्यपुस्तकों के अंतर्गत पांच-दस पुस्तकें एकत्र कर उनसे कोई नई पुस्तक निर्माण की परिपाटी ही चल निकली हो, यह सोच कर संतोष होता है कि कला की शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों के पास साखलकरजी जैसे लेखकों की पुस्तकें भी हैं। उनके कला लेखन की बड़ी विशेषता है कलाओं की स्वयं उनकी समझ और उस पर उनकी सूक्ष्म अंतःप्रवृति। उनकी लगभग सभी प्रकाशित कला पुस्तकों का आस्वाद किया है। पाश्चात्य और भारतीय कलाकारों की कला पर, कला में सौन्दर्य पर, कला के अन्तःअनुशासन पर, रूपांकन के अर्न्तनिहित पर, बिम्ब और रूपकों के साथ ही परम्परा और आधुनिकता पर तमाम उनके लिखे में भारतीयता का अपनापन गहरे से मन में पैठता है। माने योरोपीय कलाकारों और उनकी कला पर लिखते हुए भी वह भारतीय दृष्टि से उन पर अपनी सूक्ष्म समझ से पाठक को एक प्रकार से संस्कारित करते हैं।  हिन्दी में कलाओं पर पर यूं भी बहुत अधिक लिखा नहीं गया है और जो थोड़ा बहुत लिखा गया है, उसमें प्रायः अंग्रेजी की बू आती है। परन्तु साखलकरजी हिन्दी के अनन्य कला लेखक है। कला संबंधी लिखे में अंग्रेजी शब्दों की बहुतायत के घोर विरोधी भी। इसीलिये अपने कला शब्दकोश में उन्होंने भारतीय जीवनदर्शन के अनुरूप ड्राइंग, कम्पोजिशन, प्रपोर्शन, टोन, बैलन्स जैसे आंगल शब्दों के लिए हिन्दी में उपयुक्त शब्द भी दिये।  कला के अपने तमाम लिखे में स्वनिर्मित भाषिक परनिर्भरता से मुक्त होने की राह सुझाते यह साखलकरजी ही हैं जिन्होंने हिन्दी में कला शब्दावली को संपन्न किया। कलाओं पर चिन्तन की नयी दीठ दी है और भारतीयता में रची-बसी बेहद सुन्दर कलाकृतियां भी सृजित की। उनकी कलाकृतियों से रू-ब-रू होते रंगों की मिठास, रेखाओं का उजास और भावों की गहराई भीतर से जैसे हमें भरती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियों की मानिंद उनकी कलाकृतियों में भावों की गहरी अर्थ अभिव्यंजनाए हैं।
बहरहाल, कलाओं में रमते, उनमें बसते रत्नायक विनायक साखलकर ने अपने तई हिन्दी कला आलोचना को निरंतर समृद्ध किया है। क्या ही अच्छा हो, उनके नाम पर ललित कला अकादमी या कला-संस्कृति विभाग उनके जीतेजी कला आलोचना पुरस्कार की शुरूआत करे। कलाकारों, कलाओं की चर्चा समाज में आखिर उन पर सूक्ष्म अंर्तदृष्टि से लिखने वालों से ही क्या नहीं होती!

Friday, October 12, 2012

सम्मान चिन्तन के साथ संगीत का


संगीत नाटक अकादमी ने कलाओं के विशिष्ट प्रदर्शन, कला गुरू और कलाओं का बेहतर ज्ञान रखने वाले जिन विद्वानों को इस बार संगीत नाटक फैलोशिप सम्मान दिया है, उनमें जयपुर के मुकुन्द लाठ भी सम्मिलित हैं। पढ़कर सुखद लगा। इसलिये कि कलाओं के प्रदर्शन के साथ कला चिन्तन पर अकादमी ने किसी ऐसे शख्स को फैलाशिप प्रदान की जिसके संगीत के साथ तमाम दूसरी कलाअेां के गहरे सरोकार हैं।
मुकुन्द लाठ से बतियाना संगीत और दूसरी कलाओं से अपने को संपन्न करना है। राग-रागिनियों और गान की प्रचलित धारणाओं से परे सदा ही चिन्तन में वह नया कुछ देते रहे हैं। कहूं, उन्हें सुनना पारम्परिक दृष्टि के नवोन्मेष का अनुभव करना है। पिछले दिनों अज्ञेय की भागवतभूमि यात्रा पर पढ़ रहा था तो वहां भी मुकुन्दजी को पाया। गायक मुकुन्दजी को। भागवतभूमि यात्रा में मुकुन्दजी ने जो गाया, उसके धु्रपद आलाप बोल थे ‘आयो कुंवर कान्ह, मुरलीधर नाम’। मुकुन्दजी के चूंकि शब्द से भी गहन सरोकार है सो वह शब्दातीत को राग की डोर से बांध मूर्त करते हैं। यह इसलिये कि कुछ दिन पहले उनके निवास स्थान पर ही उस्ताद अमीर खां और उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन खां के गायन पर घंटो जब चर्चा हुई तो बहुत कुछ उन्होंने गाकर भी समझाया था। धु्रपद की बारीकियों से यह अलग ढंग से मेरा साक्षात्कार था।
बहरहाल, मुकुन्दजी प्रचार से सदा ही दूर रहे हैं। सौम्य और कहन में अद्भुत धैर्य अंवेरने की उनका मुद्रा मन में गहरे से बसती है। बहुतेरी बार यह भी अनुभूत किया है कि उचित प्रशंसा में भी वह बेहद संकोच का अनुभव करते हैं। कलाओं के तो खैर वह मौन साधक हैं ही। याद पड़ता है, पंडित जसराज का विद्याश्रम में कार्यक्रम था। उससे एक दिन पहले मुकुन्दजी के निवास स्थान पर ही उनसे संवाद करने पहुंचा था। मुकुन्दजी पंडित जसराज के शिष्य हैं। सो जब पहुंचते तो देखा मुकुन्दजी पंडितजी के साथ ही रियाज कर रहे थे। छायाकार महेश स्वामी जसराज के चित्र लिये जा रहे थे और मैं और पंडितजी संगीत पर घंटो बातें करते रहे। मुकुन्दजी शांत बस हमें सुन रहे थे। संकोच नये शिष्य की मानिंद ही। उनके व्यक्तित्व की यही खासियत है, अपने को कभी किसी स्तर पर स्थापित करने का प्रयास वह कभी नहीं करते। कभी विजयदान देथा का एक संग्रह आया था ‘रूंख’। उसमें भी मुकुन्दजी की अनुवादित कविताओं से रू-ब-रू होते लगा वह शब्दों में निहित सांगीतिक लय को गहरे से पकड़ते हैं। वत्सल निधि द्वारा आयोजित डॉ. हीरानंद शास्त्री स्मारक व्याख्यान माला की बारहवीं कड़ी में उन्होंने ‘संगीत एवं चिन्तन’ पर व्याख्यान दिया था। इस व्याख्यान को ही ‘संगीत एचं चिन्तन’ पुस्तक में पढ़ते औचक संगीत और धुनों की मन में बनी प्रचलित बहुत सी धारणाएं जैसे टूटी। दर्शन और संस्कृति के संगीतपरक विमर्श में राग और धुनों को केन्द्र में रखते हुए उन्होंने जो मौलिक स्थापनाएं की हैं, वे ऐसी हैं जिनमें संगीत स्वयमेव हमारे चिन्तन से जुड़ा अनुभूत होता है।  
मुकुन्दजी शास्त्रीय संगीत की तमाम हमारी परम्पराओं, रागों और नृत्य की गहरी समझ रखते हैं। संगीत को दर्शन से जोड़ते वह जब किसी खास राग और धुन पर संवाद करते हैं तो लगता है आप संगीत पर अब तक जो जानते थे, वह कुछ भी नहीं था। संगीत को मन के विचारो से जोड़ते वह अद्भुत लय अवंेरते हैं। कहते हैं, ‘...मान भी लें कि चिन्तन के साथ संगीत बज नहीं सकता लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी तरह की जुगलबंदी हो ही नहीं सकती।’ इसमें मैं यह भी जोड़ देता हूं-यह जुगलबन्दी आपको देखनी हो तो संवाद करे मुकुन्द लाठ से। कशम से, निराशा तो नहीं ही होगी।

Friday, October 5, 2012

चीन में भारतीय कला की अनुगूंज


कलाएं व्यक्ति की दृष्टि का विस्तार करती है। अरूप का रूप दिखाती हुई। अतीत की राह से भविष्य की वास्तविकताओं से हमें रू-ब-रू कराती हुई। कहें एक व्यापक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया के भीतर कलाओं के जरिये ही हमारा समाज अपनी तमाम स्मृतियों, विस्मृतियों, खामियों और बेशक विशेषताओं के साथ मौजूद रहता है। शायद इसीलिये कलाओं के जो अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन होते हैं उनमें देशों की दूरियां समाप्त होती विश्व को सृजनात्मकता के क्षितिज पर एक करती है। चीन की राजधानी बीजिंग में समकालीन भारतीय कला सरोकारों से जोड़ती भारतीय कलाकारों की विशेष प्रदर्शनी इसी की संवाहक है। इसलिये कि इसमें देशज विशेषताओं के साथ कला में विश्व स्तर पर हो रहे बदलावों और रूप परिवर्तनों को भारतीय कलाकारों ने अपनी कला में गहरे से संजोया है।
 सितम्बर माह की 28 तारीख से प्रारंभ हआ पांचवा बिजिंग अन्तर्राष्ट्रीय आर्ट बिनाले 22 अक्टूबर तक चलेगा। केन्द्रीय ललित कला अकादमी द्वारा इस बिनाले में ग्यारह भारतीय कलाकारों की 26 कलाकृतियां प्रदर्शित की गयी है। इनमें कैनवस पर रंग और रेखाओं के सरोकार हैं, फाईबर, ग्लास, बोंज और मार्बल से रचित शिल्प है, कैलिग्राफी में गूंथा सृजन है और इसके साथ ही संस्थापन के जरिये दृश्यों आधुनिक सरोकार भी हैं।  ललित कला अकादमी के सचिव सुधाकर शर्मा ने इस कला प्रदर्शनी को अपने तई किये प्रयासों से संभव बनाया। बाकायदा इसके लिये देशभर के कलाकारों और उनकी कलाकृतियों में से वह खास ढूंढा गया जिससे अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर भारतीय कला अपनी विशिष्टता का प्रतिनिधित्व कर सके। कलाकृतियों में निहित संवेदना और आधुनिकता के अपनापे की ही वजह कहें कि भारतीय कला को स्वयं चीन ने अपने इस प्रतिष्ठित बेनाले आयोजन के लिये मेजबानी दी। 
बहरहाल, पिछले दिनों जब दिल्ली जाना हुआ तो सुधाकर शर्मा से इस बारे में संवाद हुआ। उद्घाटन समारोह में शिरकत कर लौटे सुधाकर कहने लगे, ‘इस बार प्रदर्शित कलाकृतियां में भारतीय संस्कृति की अनुगूंज देखने वालांे के लिये विशेष आकर्षण लिये है।’ यह कहते बीजिंग में प्रदर्शित भारतीय कलाकृतिया का छायाचित्र आस्वाद भी उन्होंने कराया। आस्वाद करते लगा, कोई एक दीठ नहीं बल्कि सृजन की दृष्टि बहुलता उन कलाकृतियों में है। यह भी लगा कि देश की सभ्यता और संस्कृति के ताने-बाने को विश्व कला परिवर्तनों से जोड़ते भारतीय कलाकार इधर बहुत कुछ महत्वपूर्ण रच रहे हैं। मसलन सीमा कोहली की कलाकृति देखते लगता है, वह अपने बोंज स्कल्पचर में कुण्डलिनी जागृति के जरिये भारतीय ध्यान और योग परम्परा को उद्घाटित कर रही है तो परमेश्वर राजू केलिग्राफी की देश की शानदार कला के जरिये पौराणिक चरित्रों और उनमें निहित विश्वास को स्वर दे रहे हैं। के.एस. राधाकृष्णन के स्कल्पचर में टैक्सचर की सघनता में स्ट्रक्चर का खास पहलू, के.के. मुहम्मद, सुमन गुप्ता विजय बागोरी के ग्राफिक और पंेटिंग में भारतीय परम्परा में आधुनिकता की छोंक है। अंजू डोडिया, दीपक शिन्दे के कैनवस पर रंग-रेखा सरोकार गहरे से उद्घाटित होते हैं तो रियाज कोमू और चित्रांकन मजूमदार के विडियो संस्थापनों में दृश्य की संवेदना को गहरे से जिया गया है। मुझे लगता है ललित कला अकादमी ने इस बार बीजिंग के अन्तर्राष्ट्रीय कला मेले के लिये कलाकृतियां का चयन करते हुए इस बात का भी विशेष ध्यान रखा है कि सांस्कृतिक विविधता में वहां कला के वर्तमान भारतीय सरोकारों के तमाम आयाम सम्मिलत हों। बीजिंग बेनाले की थीम भी ‘भविष्य और वास्तविकता’ है। इस दीठ से भी कला के बदलते रूपों में सृजनात्मकता का सांगोपांग प्रवाह कराती लगती है प्रदर्शित भारतीय कलाकृतियां। 
कभी मार्को पोलो ने चीन शब्द को विश्वभर में प्रसारित किया था और आज विश्व के शक्तिशाल देशांे में यह सुमार है। इस शक्तिशाली राष्ट्र में ललित कला अकादमी के प्रयासों से समकालीन भारतीय कला की संपन्नता की अनुगूंज हो रही है तो यह हमारे लिये गौरव की ही बात है। 

डेली न्यूज़ में प्रति सप्ताह एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 5-10-2012

Saturday, September 29, 2012

कहन की दृष्यकला


समाचारों की मूक भाषा है फोटो पत्रकारिता। कहें, कहन की दृष्य कला। इस कला में तकनीक ही महत्वपूर्ण नहीं है, छायाकार की छायांकन दीठ भी खास महत्व रखती है। कल्पनाषीलता के साथ घटना, दृष्य का वहां दर्षाव जो होता है। मुझे लगता है, दृष्य को पकड़ते बहुतेरी बार फोटो पत्रकार उस निःसंग को भी पकड़ता है जिसमें मौन भी बोलने लगता है और तब हजारों-हजार शब्दों में जो नहीं कह सकते, वह एक छायाचित्र कह देता है। 
पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र की  कला दीर्घा में फोटो जर्नलिस्ट सोसायटी की सामुहिक प्रदर्षनी ‘इमेजिन’ में प्रदर्शित छाया चित्रों  का आस्वाद करते यही सब अनुभूत हो रहा था। खास बात यह थी कि कलादीर्घा में छायाचित्र टंगे हुए नहीं थे, बल्कि ईजल पर रखे अपनी ओर जैसे आमंत्रित कर रहे थे। प्रदर्षन के साथ छायाचित्रों के कला सरोकारों पर जाते औचक यह भी लगा कि यह फोटो पत्रकार ही हैं जो क्षण के अपूर्व को पकड़ उसे सदा के लिये स्मरणीय बना देता है। समाचारों को पत्र-पत्रिका में पढ़ना नहीं, देखना संभव आखिर फोटो पत्रकार ही तो कराता है।
बहरहाल, ‘इमेजिन’ के छायाचित्र आंखों में बसने वाले थे। कल्पना और संवेदना की गहरी दीठ लिये। मसलन वहां प्रदर्शित रावण हत्था बजाते एक वृद्ध ग्रामीण की तस्वीर। छायाकार राजदीप का यह पोट्र्रेट पूरी दीर्घा में जैसे आपसे संवाद करता है। तस्वीर में बुजुर्ग की आंखे, उसकी भंगिमा, चेहरे की झुर्रियां और संगीत सृजन में निहित उसकी संवेदना की रागात्कता-सभी कुछ इस कदर भावपूर्ण है कि इस देखे हुए को गहरे से जिया जा सकता है। कहना गलत नहीं होगा कि छायाकार या चित्रकार जब कभी किसी पोट्र्रेट पर कार्य करता है तो उसमें वह चेहरे की एनाटोमी के साथ व्यक्ति के अन्र्तनिहित चरित्र को भी अपनी तई प्रस्फुटित करता है। सृजन का सर्वाधिक सुअवसर वहीं छिपा जो होता है! रोंदा का बालजाक का बनाया पोट्र्रेट, हुकुषाह का बनाया महात्मा गाँधी  का रेखांकन, एप्सराईन का बनाया बर्नाड शाॅ का चित्र और षिल्पकार-चित्रकार रामकिंकर बैज के बनाए बहुतेरे पोट्र्रेट ऐसे ही तो हैं जिनमें चेहरे के बहाने व्यक्ति के चरित्र का सांगोपांग चितराम है। वहां देखे हुए को आसानी से पढ़ा जा सकता है।
फोटो पत्रकार भी तो यही करता है, वह बहुतेरी बार किसी व्यक्ति विषेष के चेहरे की भंगिमाओं के बहाने उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को हमारे समक्ष उद्घाटित कर देता है। इसीलिये शब्दों की बजाय तस्वीर आंकने का उसका कर्म वहां अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। छायाचित्र प्रदर्षनी में एक छायाचित्र है जिसमें पुरूषोतम दिवाकर ने हिरणों के षिकार के दौरान पकड़े गये सिने अभिनेता सलमान के तनाव भरे चेहरे को अपनी छाया दृष्टि दी है। स्थिति-परिस्थिति के साथ कैसे मानवीय संवेदनाओं के सरोकार बदलते हैं, इसे इसमें गहरे से व्यंजित किया गया है। ऐसा ही एक छायाचित्र पदम सैनी का है, जिसमें शेर की शांत मुद्रा के समक्ष चील की ललकार के तेवराना अंदाज है। कोई एक क्षण होता है, जब इस तरह के दृष्य से हम रू-ब-रू होते हैं और उस क्षण के महत्व को छायाकार की संवेदन कला से ऐसे ही समझा जा सकता है। रामजी व्यास के एक छायाचित्र में महिला बच्चे के साथ हिरण के बच्चे को भी अपने स्तन से दूध पिलाती दिखाई दे रही है तो  समुद्र, नाव और मछुआरों के जीवन से सरोकार कराता लीला दिवाकर का चित्र भी आंखों में बसता है। छायाचित्र और भी हैं, जिनमें दीपक शर्मा, दिनेष गुप्ता, सलीम शेरी, राकेष ने हिंसा, प्रदर्षन के दौरान पानी की छोड़ी बोछार का क्षणांस, ग्रामीण जीवन के चितराम, ग्लेमर से जुडे जीवनानुभव, सूर्यग्रहण, आदिवासी नृत्य, वन एवं वन्यजीव और रोजमर्रा की घटनाओं के साथ एब्स्ट्रेक्ट में कोई अनूठा, अद्भुत पल अपनी अंतर्मन संवेदना से संजोया गया है। 
छायांकन बीते हुए को याद कराने की अद्भुत कला है। ऐसी जिसमें जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उससे परे के अदृष्य को भी हम देख सकते हैं। पढ़ सकते हैं। आखिर ऐसे ही तो नहीं कहा गया है, एक छायाचित्र हजारों-हजार शब्दों से भी कहीं अधिक मुखर होता है!

Sunday, September 23, 2012

छायाचित्रों का समय प्रवाह


फोटोग्राफी अतीत से अपनापा कराती कला हैं। क्षण जो बीत गया है, उससे प्रभावी संवाद आखिर छायाचित्र ही तो कराते हैं। कहूं, अतीत वहां विगत नहीं बल्कि समय के प्रवाह के रूप में हमारे समक्ष उद्घाटित होता है। बहुतेरी बार यूं भी लगता है कि छायाचित्र भिन्न भिन्न कालखंडो की रूप-गोठ है। माने समय के कोलाज। ऐसा कोलाज जहां स्मृतियां स्पन्दित होती है, पुराने दृष्य जीवित होते हैं। 
बहरहाल, कुछ दिन पहले एम.एन.आई.टी. स्थापना दिवस पर बहुत सारे आयोजन हुए। उनमें एक बीते दिनों की स्मृतियों को हरा करने वाली छायाचित्र प्रदर्षनी भी थी।
 छायाचित्र कला में रमते, उसी में अपना आपा तलाषने वाले छाया चित्रकार महेष स्वामी ने आग्रह कर प्रदर्षनी अवलोकन की नूंत दी तब मन में कुछ पूर्वाग्रह थे। इस बात को लेकर कि वहां नया क्या होगा! वही इन्स्टीट्यूट स्थापना और बाद के कुछ आयोजनो के फोटो ही तो होंगें। परन्तु जब छायाचित्रांे का आस्वाद किया तो प्रदर्षित छायाचित्रों की समय संवेदन दृष्टि ने सोच की नयी दीठ भी दी। लगा, छायाचित्र स्मृतियों के साथ अपने भीतर की भूलभुल्लैयों में भटकने का लूंठा-अलूंठा लेखा है। वहां दूसरों का अतीत आपको अपने अतीत में झांकने का अवसर भी देता है। भले छायाचित्रों में चीजें, स्थान और घटनाएं स्थिर हों परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को वे चलायमान करती है। एम.एन.आई.टी स्थापना, बाद के आयोजनों और वहां पढ़ने वालों की गतिविधियों से जुड़े बहुतेरे चित्रों में औचक एक उस चित्र पर नजर ठहर जाती है जिसमें दूर तक विराने के बीच बिखरी पड़ी इंटे पड़ी है। उजाड़ में निर्माण की आहट सुनाती। ऐसे ही एक में मदनमोहन मालवीय दिखाई दे रहे हैं, जिनकी स्मृति मंे इस संस्थान की स्थापना का आगाज हुआ है तो कुछ में किसी एक बैच का समूह चित्र और उसमें झांकते चेहरों का उजास दिख रहा है। संस्थान की खेल, षिक्षण गतिविधियों के साथ समय प्रवाह में बैच मिलन के वह चित्र भी हैं जिनमें समय के धूंधलेपन को हटाता अचरज और बरसों बिछोह के बाद मिलन के सुख को संजोया गया है।
बीते कल के साथ आज के भी कुछ चित्र हैं-संगीत की सुरमयी सांझ के, पेड़ की छांव तले सुस्ताते छात्रों के और फोटोग्राफी क्लब से जुड़ी छायाचित्र कला के। सभी में छायाचित्र कला की सूक्ष्म संवेदात्मक दृष्टि है। इन्हें देखते यह अहसास भी बार-बार हुआ कि यह फोटोग्राफी ही है जो माध्यम, चीजों, तथ्यों, घटनाओं और प्राकृतिक आभाष को दिखाते इन सबकी अनुभूतियों से भी हमें सराबोर करती है। यह भी कि कैमरानुमी यंत्र समय का अपने तई सृजन की दीठ से पुनराविष्कार करता है तो प्रकृति, घटनाएं, तथ्य और चीजें एक खास ढंग में रूपान्तरित होकर हमारे समक्ष उद्घाटित होती है। हमारे अवचेतन मन को झिंझोडती है और दिख रहे दृष्य के साथ देखने वाले की स्मृतियों का वातायन भी खोल देती है। महेष स्वामी छायाकला की गहरी संवेदन दीठ लिये रचनाकार हैं। छायाचित्र प्रदर्षनी अवलोकन करते ही पता चला कि यह उनकी ही परिकल्पना थी कि एमएनआईटी गोल्डन जुबली समारोह में पृथक से एक फोटो प्रदर्षनी भी हो। उनकी सूझ ही कहूंगा कि प्रदर्षित छायाचित्रों में अतीत से जुड़ी यादों के श्वेत-ष्याम चित्रों का भी डिजिटिलाईजेषन कर उन्हें इस खूबसूरती से फ्रेमिंग कर प्रस्तुत किया गया था कि समय संवेदना से जुड़ विगत वर्तमान में जीवन्त हो गया था।
निर्मल वर्मा का लिखा याद आ रहा है, ‘स्मृति की यह विषेषता ही है कि वह अपने पीछे कोई पदचिन्ह नहीं छोड़ जाती-वह स्वयं पद चिन्ह बन जाती है, परम्परा का मतलब इन पदचिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को परिभाषित करना है जहां मनुष्य आज जीवित है।’ उनके कहे में यह मिलाने की धृष्टता कर देता हूं कि छायाचित्र स्मृति के वह पद चिन्ह हैं जो समय प्रवाह को रेखांकित करते हमारी स्मृतियों को अलंकृत कर उसे वर्तमान से जोड़ते हैं। आप क्या कहेंगे!


"डेली न्यूज़" में प्रति सप्ताह शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक 21.9.2012

Saturday, September 15, 2012

मांड में संस्कृति का उजास


मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड। आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग। समय का कहीं कोई बंधन नहीं। जब चाहे, तब गायें। संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा। स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस...’ तो का पर्याय ही हो गया है। उनके स्वर माधुर्य में न जाने कितनी बार इसे सुना और हर बार सुनने का सर्वथा नया आनंद मिला। 
मांड को यहां याद करने की वजह है, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में संगीत नाटक अकादेमी द्वारा आयोजित मांड समारोह। इसमें मांड गायकी पर व्याख्यान भी हुए और कलाकारों ने मांड के भिन्न रूप भी प्रस्तुत किये। मांड सुनने का हाल यह था कि लगातार तीन दिन प्रेक्षागृह श्रोताओं से खचाखच भरा रहा। माने लोक संगीत की जड़ें अभी भी हरी है। आखिर यह लोक संगीत ही है जो सहज मानवीय संवेदना से जोड़ता हमें अपने आपे से रू-ब-रू कराता है। और मांड तो राजस्थान के लोक का आलोक है। 
लोकगीत की स्वर लहरियों में निषाद का प्रयोग भी मांड में गजब का होता है। अल्लाह जिलाई बाई, गवरी देवी, मांगी बाई की निषाद प्रयोग की मांड सुनते गले का उनका कंपन मन में गहरे से बस जाता है। जवाहर कला केन्द्र में ‘महला री खिड़की खोलो..., ‘जला रे...’छप्पड़ पुराणा पड़ग्या, तिड़कन लाग्या बांस...’ मांड सुनते मन में यह खयाल भी बार-बार आ रहा था कि यही वह लोक संगीत है जिसमें बिछोह, श्रृंगार, सौन्दर्य के भाव गहरे से सजते हैं। सुनने के बाद भी गान से हम उबर ही कहां पाते हैं!
बहरहाल, यह मांड ही है जिसमें राजस्थान के विभिन्न अंचल अपनी संस्कृति में ध्वनित होते है। माने बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर, उदयपुर, जोधपुर की मांड गायकी में स्थान-विषेष के लोगों के रीत-रिवाज और संस्कृति के साथ ही वहां की बोली की झलक भी अलग से ध्यान खींचती है। मांड के माधुर्य में रमते ही कभी राजा-महाराजाओं ने रियासतों में गुणीजन खानों की स्थापना कर वहां बाकायदा मांड के प्रषिक्षण की भी पहल की। बीकानेर और जोधपुर के गुणीजनखानों से ही अल्लाहजिलाई बाई और गवरी देवी सरीखी स्वर कोकिलाएं हमें मिली। मारवाड़-मेवाड़ की मांड गायकी का अपना अंदाज है। अरसा पहले उदयपुर की ख्यात मांड गायिका मांगीबाई से जयपुर में ही लम्बा संवाद हुआ था तब उन्हें सुना भी था। याद पड़ता है, अस्सी पार मांगीबाई ने ‘बायरियो’ सुनाया था। उनके कंठ माधुर्य में मेवाड़ी संस्कृति का उजास भी जैसे दिखाई दे रहा था। अल्लाहजिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस...’गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृष्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घुमने लगते हैं। ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ’ओळ्यू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेगी। यही तो है लोक का वह माधुर्य जिसमें सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है। 
यूं शब्द व्याख्या करेंगे तो मांड का सामान्य अर्थ होगा-मांडना, अंकित करना। मांड सुनते हैं तो गान के सुर मन में कहीं गहरे से अंकित ही तो होते हैं। आखिर ऐसे ही तो अंकित नहीं है मन में लोक गायिका धीरा सेन की वह मधुर गायकी। याद पड़ता है, वह काॅलेज के दिन हुआ करते थे। तब आकाषवाणी बीकानेर में अस्थायी उद्घोषक का कार्य भी करता था। राजस्थानी लोकगीतों का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुंजे गांव गुवाड़’ प्रस्तुत करते हर सप्ताह उसकी शुरूआत धीरा सेन के ‘काळो जी काळो, कईं करो सहेल्या ए...’ से ही करता। इस लोकगीत में ‘उभण तो उजास बरण्यो, गांया रा गुवाड़ चाल्या, पंछिड़ा महाराज चाल्या..’ बोल सुन सब कुछ भूल जाता। आंखों के सामने गांव के गोबर लीपे घरों की ओर लौटती धूल उड़ाती गायों के दृष्य और एक अजीब सा अपनापा तैर जाता। बनावटी रहित परिवेष का अपनापा।... असल संगीत यही तो है। अपने आपे से साक्षात् आखिर इस सगीत के उजास से ही तो हो सकता है! 


Friday, September 7, 2012

दृष्य यथार्थ में अंतर्मन संवेदना के बिम्ब


कलाकारों से बिछोह का यह दुखद काल है। कुछेक वर्षों के अंतराल में ही कृपालसिंह शेखावत, द्वारकाप्रसाद शर्मा, ज्योतिस्वरूप, डॉ. प्रेमचन्द गोस्वामी, सुमहेन्द्र और कुछ दिन पहले पी.एन. चोयल जैसे कला स्तम्भ हमें छोड़कर चले गये। मुझे लगता है, इनके साथ ही राजस्थान की कला के जैसे एक युग का अवसान हो गया है। पी.एन. चोयल राजस्थान के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपने दौर में चित्रकला में नवीनता का सूत्रपात किया। यह नवीनता कैनवस पर फॉर्म को लेकर ही नहीं थी बल्कि इतिहास, संस्कृति और सभ्यता के नए सृजन संदर्भ लिये थी। कभी अपने चित्रों को उन्होंने ‘फोटो रियलिज्म’ की संज्ञा दी थी। शायद इसलिये कि अपने उकेरे चित्रों में वह दृष्य यथार्थ के साथ अंतर्मन संवेदनाओं के गहरे बिम्ब रखते थे। खैर, यह उनके कार्य के आरंभ के दिनों की बात है। बाद के उनके काम को देखंे तो यह सहसा ही यह अहसास होता है कि चोयल के चित्र संरचना और रूपाकारों में देष की कला धारा से सर्वथा पृथक अपनी मौलिक पहचान लिये थे। उनके चित्रों में वाष और टेम्परा की एप्रोच भले रही हो परन्तु जड़त्व से मुक्त उन्होंने अपने तई चित्रों की नई शैली ही एक प्रकार से विकसित की। यह शैली ऐसी थी जिसमें रेखीय न्यूवता में धुमिल होते रंगो में स्मृतियों, भीतर की सोच और अनुभवों का अनूठ ताना-बाना कैनवस को समृद्ध करता था।
पी.एन. चोयल की कलाकृतियां देखता हूं तो औचक यह विचार भी जेहन में कौंधता है कि रूप-अरूप, अंतरंग-बहिरंग से परे वह जो बनाते थे उसमें देखे हुए यथार्थ के साथ कहन का वह मुहावरा था जिसमें चित्र धुंआ-धुंआ होते परिवेष में देखने वाले की सोच में रच-बस जाता। भैंसो की उनकी चित्र श्रृंखला को ही लें। भैंसों की शरीर संरचना के साथ उनकी गति, मस्ती और विचरण की आवारगी के कोलाज मन में इस कदर बस जाते है ंकि एक बार नहीं, बार-बार उन्हें देखने का मन करता है। भैसों के चित्र ही क्यों, आकृतिमूलक उनके तमाम जो दूसरे चित्र हैं उनमें अनुभव और स्मृतियों का अपनापा गहरे से ध्वनित होता है। इसीलिये कि वहां दृष्य यथार्थ की बजाय सौन्दर्य की कला दीठ सर्जक बनी है। उनके चित्रों में स्वयं उनकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट के साथ ही समय से उपजे तनावों को भी स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। कभी उन्होंने अपनी एक कलाकृति में नारी देह से निकलती आग की लपटों को नियंत्रित करते घोड़े को रूपाकार दिया तो ऐसे ही ‘घुंघट’ श्रृंखला के अपने चित्रों में नारी की भोग्या स्थिति के जरिए स्त्री के देह के दर्शन को जैसे उभारा है। पौराणिक प्रसंगों के उनके चित्रों में, चाहे वह कृष्ण एवं अर्जुन संवाद हो या फिर रावण वध हो-इनके पार्श्व में नारी की दयनीय स्थिति भी अलग से उभारी दिखाई देती है।  
बहरहाल, पी.एन. चोयल ने नारी संवेदनाओं को ही अपने कैनवस पर सांगोपांग ढंग से नहीं उभारा है बल्कि उनके कैनवस में उभरी इतिहास प्रसिद्ध इमारतें भी अलग से आकृष्ट करती है। याद पड़ता है अर्सा पहले उनकी ‘परसेप्शन ऑफ चित्तौड़’ श्रृंखला चित्रों को देखते हुए मन उनमें जैसे रम सा गया था। धुंध के आवरण से धीरे-धीरे स्पष्ट होती चित्तौड़ के किले, वहां के महलों की आकृतियांे के भग्नावशेष के यथार्थ चित्रण के बावजूद उनमें कला के लोक का आलोक ऐसा है, कि मन उन आकृतियों पर ही भटकने लगता है। यह उनकी कला का वह सौन्दर्य ही तो है जो जिर्ण-शीर्ण और खंडहर होती आकृतियो में भी जैसे जान डालता है। चाक्षुस यथार्थ की उनकी कलाकृतियां में एन्द्रिक बोध होता है। रेखांकन इतना सधा हुआ कि उकेरी आकृतियां और उनका अहसास मस्तिष्क पर छा जाता है। सादगी भरे रंगों के अंतर्गत काले, भूरे, मटमैले रंगों के साथ ही उन्होंने चटख रंगों का जैसा प्रयोग किया है, उससे उनकी संवेदनाएं पूरी तरह से दर्शक के सामने उभरकर सामने आती है। यह जब लिख रहा हूं, रंगो को ब्रश से कैनवस पर लगाने की बजाय बहाकर लगाने की उनकी तकनीक से सृजित उनके बहुतेरे चित्र ही जेहन में कौंध रहे हैं। 

Friday, August 31, 2012

सभ्यता-संस्कृति की छाया कला दीठ



विश्व की प्राचीनतम और अब तक निरंतरता रखने वाली सभ्यता और संस्कृति में भारत के साथ चीन भी शुमार है। यह चीन ही है जिसका  लिखित इतिहास चार हजार वर्ष से भी पुराना है। माने अधुनातन विकास से ही नहीं अतीत की कला, साहित्य और संस्कृति से भी चीन अत्यधिक समृद्ध है। संस्कृति की उसकी निरंतरता को वहां के जन-जीवन, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और तमाम दूसरी कलाओ में गहरे से अनुभत किया जा सकता है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों चीन की सभ्यता एवं सस्कृति से साक्षात् कराते नारायणी गुप्ता के छायाचित्रों की प्रदर्षनी लगी थी। सुखद यह था कि इसमें चीन के कलात्मक जीवन के किसी एक पहलू की बजाय तमाम आयामों को नारायणी ने अपने कैमरे की अपनी आंख से पकड़ते उसे सार्वजनीन किया है। 
मुझे लगता है, छायाकला रूपों की मौन मुखराभिव्यक्ति है। इसमें देखना ही महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि दृष्य के भीतर निहित सौन्दर्य की दीठ भी बेहद महत्वपूर्ण होती है। यह छायाकला ही है जिसमें अंतर्मन संवेदना के जरिये छायाकार बहुतेरी बार दृष्य मंे निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक सघनता से मुखरित कर देता है। तब यथार्थ दृष्य की बजाय उसका कैमरे की आंख का संवेदन रूपान्तरण अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। नारायणी के छायाचित्रों के साथ यही है। वह देखे हुए दृष्यों की विषय-वस्तु के साथ घटना की संवेदना, क्षण की अपूर्वता और उसमंे निहित गति को अपने कैमरे में भीतर की अपनी संवेदना से पकड़ती है। इसीलिये बहुतेरी बार साधारण दृष्य भी उसके छायाचित्रों में संवेदना की छाया-कला दीठ से असाधरण प्रतीत होने लगते हैं। मसलन उसकी इस छायाचित्र प्रदर्षनी में एक दृष्य है सुन्दर से एक पूल का। चाईना के इस ब्रिज का नारायणी का कैमरा फ्रेम दृष्य में निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक उद्घाटित करता है। इस तस्वीर में छाया-प्रकाष प्रभाव, कोण, दृष्य माप और गति का संतुलन अद्भुत है। पानी में उभरती ब्रिज की छाया और ठीक ब्रिज के नीचे चलती नाव और ऊपर पर्यटकों की रेलमपेल। देखता हूं तो, दृष्य संयोजन की यह दीठ मुग्ध करती है। आकाष की निलाई के साथ दृष्य संयोजन में नारायणी की छाया-कला सूझ को इस चित्र में गहरे से पहचाना जा सकता है। 
बहरहाल, दृष्य संवेदन के ऐसे ही छायाचित्र और भी हैं। संघई के सुप्रसिद्ध बौद्ध मंदिर में बुध की लेटी हुई प्रतिमा के चित्र को ही लें। इसमें नारायणी ने लेटे हुए बुद्ध के मौन और निर्वाण को गहरे से मुखरित किया है। खास बात यह कि प्रतिमा के साथ आस-पास का शांत परिवेष भी यहां उद्घाटित है। एक छायाचित्र में सिंघई के पुराने घरों का दृष्य है तो एक में कला संग्रहालय के संस्थापन का दर्षाव अतीत के साथ अधुनातन संस्कृति से रू-ब-रू कराता है। सिंघई के एंटिक बाजार में इमारतों का वास्तु षिल्प भी मन मोहता है। यह नारायणी के कैमरे की आंख की वह संवेदना ही है जिसमें बाजार की इमारतों से निकले छज्जों को परस्पर मिलाते वहां के वास्तु सौन्दर्य की सूक्ष्म अभिव्यंजना की गयी है। मुझे लगता है, वह छाया चित्रों में दृष्य के साथ तमाम उसकी दूसरी संभावनाओं को भी अपने कैमरे से पकड़ती है। ऐसा ही एक चित्र है छोटे से एक बच्चे का। चाईना के भविष्य से अभिहित इस छायाचित्र में सीढ़ियां, बच्चे की मासूमियत और भयमुक्तता के बहाने दृष्य के गहरे संवेदन आयाम हैं। दृष्य संवेदना की दीठ ही तो है छायाकला! टाईनामेन स्कवायर, चीन की दीवार, संगीत, नृत्य और चित्रकलाओं के साथ ही आधुनिक चीन के विष्व सरोकारों को भी बहुत से चित्रों में अभिव्यंजित किया गया है। कोई संस्कृति कैसे बरसों-बरस अपनी निरंतरता बनाये रखती है, कैसे वह संस्कारित होती है और कैसे उसमें कलाओं की अनुगूंज को सुना जा सकता है, नारायणी के छायाचित्रों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सोचता हूं, चीन की सभ्यता और संस्कृति के साथ ही नारायणी की छाया कला दीठ की भी तो संवाहक है यह छायाचित्र प्रदर्षनी। आप क्या कहंेगे!


Saturday, August 25, 2012

कुमारस्वामी व्याख्यान में रवीन्द्र का चित्रकर्म


भारतीय कला का सूक्ष्म मूल्यांकन कर उसे विश्वभर में प्रतिष्ठित करने का श्रेय किसी कला अध्येता को जाता है तो वह डॉ. आनन्द के. कुमारस्वामी हैं। पढ़ते हैं तो हमारे यहां की चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, नृत्य, संगीत आदि का उनका चिंतन गहरे से मन में घर करता है। शायद इसलिये कि यह कुमारस्वामी ही हैं जो कला के इतिहास के साथ उसकी निर्माण-प्रक्रिया की गहराई में भी जाते हैं। 
बुधवार को जवाहर कला केन्द्र में आनन्दकुमार स्वामी स्मृति व्याख्यान रखा गया था। केन्द्रीय ललित कला अकादमी प्रतिवर्ष यह आयोजन करती है। इस बार सुखद यह रहा कि यह आयोजन राजधानी दिल्ली में नहीं होकर जयपुर में हुआ। शांतिनिकेतन विश्वभारती से आए प्रो. आर.शिवाकुमार ने कुमारस्वामी व्याख्यान के अंतर्गत रवीन्द्रनाथ टैगोर की चित्रकला में आधुनिकता को चुनते हुए बहुत सी पहले प्रकाश में नहीं आयी बातों को साझा किया। उन्हे सुनते हुए आनन्दकुमार स्वामी के कला आलोचना कर्म की उन विशेषताओं पर भी औचक ध्यान गया जिसमें चित्रकला में जो दिख रहा है, वही नहीं बल्कि चित्र के भीतर निहित में भी वह गहरे से जाते उसकी अपने तई खोज करते रहे हैं। 
बहरहाल, प्रो. आर.शिवाकुमार अपने व्याखान में जब यह बता रहे थे कि रवीन्द्रनाथ ने चित्रकला की विधिवत शिक्षा नहीं ली बल्कि अपने अग्रजों और घर-परिवार के परिवेश, घटनाओं से उन्होंने सीखा तो लगा यही तो वह कारण थे जिससे अपने तई प्रयोगधर्मिता के साथ उम्र के आखरी पड़ाव में भी उन्होंने चित्रकला में संवेदना का सर्वथा नया मुहावरा दिया। मुझे लगता है, यही वह मुहावरा है जिसके अंतर्गत उनकी कलाकृतियों मे उभरे बिम्ब, प्रतीक और कालेपन में औचक उभरती रेखाओं की धवलता अपनी मौलिकता में आज भी हमें आकृष्ट करती हैं। 
प्रो. आर.शिवाकुमार ने रवीन्द्र की कला पर चर्चा के साथ ही जापान और योरोप में कला मंे आधुनिकता के प्रयोगों से रवीन्द्र की कला को जोड़ा भी। मसलन जापान की कलाओं के अर्न्तनिहित उस चुप्पी पर भी वह गये जिसमें भीड़ के बावजूद सन्नाटे का छंद हैं। जहां चाय की केतली में उभरी आकृतियांे में समुद्र की लहरें, बहती नदियों के गान के साथ ही कैलिग्राफी में सौन्दर्य की सर्जना है। जापान ही क्यों चीन की कलाओं में उभरी मानव संरचनाओं, भांत-भांत की मुखाकृतियों और वहां की वास्तु कला में उभरी आधुनिकता भी तो किसी न किसी रूप में विश्व में कला सर्जन का हेतु रही ही है।
रवीन्द्र के चित्रांे पर गौर करता हूं तो न जाने क्यों वहां एक खास तरह की एकान्तिका को अनुभूत करता हूं। माने वहां सब कुछ हैं, रेखाएं-सघन टैक्सचर और रंगों की आभा परन्तु इस सबके बावजूद जो निरवता और शांति वहां है वह अपने आपमें देखने वाले से जैसे बतियाती है। और रवीन्द्र ने तो अपने समय के आधुनिकतावाद को गहरे से चित्रों में जिया है। यह ऐसा है जिसमें भीड़ के बावजूद खालीपन ध्वनित होता है और शोर के बीच भी पसरे सन्नाटे का कहन है। कभी रवीन्द्र ने कहा भी था, ‘मैं अकेला हूं परन्तु मेरे आस-पास बहुत से लोग हैं और  उनसे मेरी संवेदनशीलता बहुत से स्तरों पर प्रभावित होती है।’ उनके चित्रों को देखंेगे तो लगेगा अपनी एकान्तिका में आस-पास की घटनाओं, लोगों की संवेदनशीलता को भी वह ध्वनित करते हैं। यह उनके चित्रों के सन्नाटे का मधुर छंद हैं। स्याह से धवलता की ओर उन्मुख होती उनके चित्रों की रेखाएं, और रंगों की आभा इसीलिये सौन्दर्य का सर्वथा नया मुहावरा लिये है। आधुनिकता में रचे-बसे उनके चित्रों को देखते हुए इसीलिये राफेल की याद आती है, जापानी कला की निरवता को हम अनुभूत करते हैं, पिकासो की मुखाकृतियां औचक जेहन में कौंधती है तो माइकल एन्जेलो की शरीर संरचना वाली कलाकृतियां भी न जाने क्यों मन में घर करने लगती है। कला में आधुनिकतावाद के इस सामने से ही तो सिरजा उन्होंने कला का अपना जग! आनन्दकुमार स्वामी व्याख्यानमाला में प्रो. आर.शिवाकुमार को सुनना सुखद था, इसलिये भी कि इसमें उन्होंने रवीन्द्र की वह दुर्लभ कलाकृतियां भी दिखायी, जिनमें आधुनिकता बोध के साथ भीतर की उनकी कला संवेदनशीलता का गहरा आकाश है। 

Saturday, August 18, 2012

माटी एक भेष धरि नाना


बरसात की बूंदे धरती के लिये जीवन है। बारिष होती है तभी तो ओढ़ती है धरती हरियाली की चादर। मिट्टी में घूला बीज प्रस्फुटित होता है। धरती से उठती है सौंधी सी महक। यह ऐसी है जिसे हर कोई महसूस करता है। ऐसे ही तो षिल्प में ढ़ल मिट्टी सर्जन की संपूर्णता का हेतु बनती है। यह मिट्टी का ही गुण है कि उसे किसी भी आकार और सांचे में ढाला जा सकता है। कैसे भी इसे बरत षिल्प की सुन्दर परिणति की जा सकती है। माटी है ही सर्जन की प्रतीक। सर्जन से गहरा अंतःसंबंध जो है इसका।  
माटी माने मिट्टी। मनुष्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिये उपयोगी वस्तुओं के निर्माण का प्राचीनतम साधन। कुम्हार मिट्टी से ही तो करता है सर्जन। सोचिए! पृथ्वी, सूर्य, पवन, अग्नि और जल से ही तो यह संसार है और कुम्हार जब नया घड़ा ढालता है तो इन सबसे ही अपने सर्जन को संपूर्णता देता है। पंचभूत तत्वों से बनता है शरीर और माटी का सर्जन भी इन्हीं तत्वों से होता है। कुम्हार को आखिर यू ंतो प्रजापति नहंी कहा जाता! 
हमारे यहां तो मिट्टी के ही हैं तमाम हमारे सर्जन सरोकार। तमाम हमारी परम्पराओं का निर्वाह। दुर्गा पूजा, गणगौर, गणपति आदि की प्रतिमाएं मिट्टी से ही तो बनती है। बाकायदा इनमें प्राण प्रतिष्ठा होती है। माना जाता है, पर्वोत्वस पर दुर्गा, गौरी, गणति जगते हैं और जब उनसे आत्मा अलग होती है तो फिर से ये भूमि और जल में विसर्जित कर दिये जाते हैं। माने जहां से ये आए, वहीं फिर से लौट जाते हैं। मिट्टी इसीलिये तो जीवन का प्रतीक मानी जाती है। कहें, मनुष्य को उसके समग्रपन में अवस्थित करने का कार्य किसी के जरिये होता है तो वह माटी ही है।
राजस्थान की मोलेला की मृण मूर्तियांे जग प्रसिद्ध है। मोलेला में कलाकारों को माटी मूर्तियों गढ़ते बहुतेरी बार देखा है। हर बार लगा, धरती पुत्र षिल्पकार सहज सरल तरीके से सर्जनात्मकता का निर्वहन करते हैं। पीढ़ी-दर पीढ़ी सर्जन की यह विरासत वह ऐसे ही छोड़ते जाते हैं। परम्परा और आस्था से निरंतर आगे बढ़ता जाता है सर्जन का यह सफर। षिल्पकार मिट्टी में रूप-अरूप, अदृष्य-प्रत्यक्ष, खंडता-असंलग्नता के बहुविध वैचित्र्य का एक ऐक्य सुर का गान करते हैं। कुम्हार जो मूर्तियां गढ़ते हैं, उनमें भीतर और बाहर के तमाम संघर्षों की बानगी है परन्तु अनूठी संगति भी है। सर्जन की संगति। जो दिखता है, वह इस जगत से है भी और नहीं भी। माने चिन्मय वास्तव। 
कहते हैं, मानवीय-सम्बन्धों में भाषा से भी अधिक व्याप्त होने वाला तत्व कोई है तो वह षिल्प ही है। इसमें संप्रेषण के सामान्य अवरोधों को समाप्त करने की क्षमता जो है। शायद इसीलिये आदि मानव ने अपने दैनिक उपयोग की वस्तुओं और भावनाओं का षिल्प संसार सर्वप्रथम रचा। सिन्धुघाटी काल के उपलब्ध षिल्पकारिता अवषेषों पर जाएं तो सहज यह कहा जा सकता है कि वहां सामान्य व्यवहार की वस्तुएं भी सौन्दर्यबोधक कृतियों में रूपान्तरित हो गई। कला के हमारे इतिहास में उपयोगिता में सौन्दर्य का समावेष कर षिल्प के अंतर्गत अंतरंग जीवन में भी सुन्दरता के महत्व को सदा प्रतिपादित किया गया है। यूं भी षिल्पकारिता जीवन के सहज स्पन्दन से उत्पन्न पूर्णता के गर्भ में ही प्रस्फुटित हुई है। यह माटी ही तो है, जिसमें विराट् से व्यष्टि के संबंध रूपायित होते हैं। कबीर इसीलिये तो एक मिट्टी में अनेक रूपधारी अखंड ब्रह्म का नाद करते हैं, ‘माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।’ ...तो बारिष के इस दौर में भूमि पर पड़ती टप-टप बूंदों को निहारें। अनुभूत करें माटी के सर्जन की सौंधी महक। 


Friday, August 10, 2012

कृष्णम वन्दे जगदगुरुम

भगवान श्रीकृष्ण! बंसी बजईया, कृष्ण कन्हैया। वह जिसमें सम्मोहन है। आकर्षण है। तमाम हमारी कलाओं के संदर्भ अंतत: इस श्रीकृष्ण से ही तो जुड़े हैं। वे रसेश्वर हैं। वेणुवादक हैं। नर्तक हैं। शंखनाद करने वाले हैं। कलाओं के युग्म। ईश्वर! चौसठ कलाओं की समग्रता लिए पुरूषोत्तम। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिनका चरित्र मोर पंखों की मानिंद मनभावन रंगों से रंगा है। सब ओर से विरक्त। स्वयं अनासक्त। पर कर्षयति इति कृष्ण।" माने श्रीकृष्ण का अर्थ ही है, वह जो आकर्षित करे। इसीलिए तो उन पर हर कोई आसक्त हुआ जाता है। कोई उनकी बांसुरी की तान पर। तो कोई उनकी मधुर मुस्कान पर। कल्पना करता हूं...वे बसी बजाते होंगे, तो वन मे सभी भाव विभोर हो नर्तन ही तो करते होंगे। स्वयं श्रीकृष्ण नर्तक हैं। नृत्य सम्राट। आनंद, उमंग और उत्सवधर्मिता है उनका नाच। सबको रिझाते। हंसते-गाते। कहते हैं कृष्ण जब बंसी बजाते तो आठ राग और सोलह हजार उप राग बजाते। उनके रास अंतर्गत ब्रज में ही तो जन्मी थी सोलह हजार राग-रागिनियां। सच! श्रीकृष्ण हैं ही रागानुरागी। उनका रास सृजन है और जो बंसी वे बजाते हैं, उसकी धुन उस सृजन का गीत। उनका मनोहरी रूप हमें सदा मोहता है। उनकी मुस्कान मन में बसती है।
मीरा का यह गान सुनें- "थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ, मैं हाजिर-नाजिर कद री खड़ी।" स्मरण करें श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप को। कौस्तुभादि आभूषण। गले में पुष्पहार। पीताम्बरादि वस्त्र। किरीट में मयूर पंख। अधरों पर मुरली। कला का समग्र बोध लिए हैं श्रीकृष्ण का यह रूप। इसीलिए तो यह मन में घर करता है। चाहकर भी इस मनोहारी छवि से हम कहां मुक्त हो पाते हैं! श्रीकृष्ण की छवि में प्रेम झर-झर झरता है। नेह में भीगता है मन। उन्हें पूजने का नहीं प्रेम करने का करता है मन। बस प्रेम करने का। शायद इसलिए कि श्रीकृष्ण न भूत, न भविष्य, न वर्तमान है। वे तो बस हैं। काल का अविरल प्रवाह है उनका होना। मेघ वर्ण। सांवले। सलोने। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्ृंगार का रंग भी सांवला है। और श्रीकृष्ण तो श्ृंगार के ही पर्याय हैं।

श्रीकृष्ण का जीवन कला के गहरे मर्म लिए हैं। कलाएं हमें मुक्त करती हंै, तमाम बंधनों से। जीवन जीना भी कला है और यह कला कोई श्रीकृष्ण से सीखे। विषमताओं में भी वे बंसी बजाते मिलते हैं। किसी भी परिस्थिति में अरूचिकर गंभीरता को उन्होंने कभी न ओढ़ा। पाने-खोने का गम वहां नहीं है। एक बार जहां से वे चले गए, फिर पीछे मुड़कर कहां देखा! गोकुल छोड़ दिया तो छोड़ दिया। मथुरा छोड़ दी तो बस छोड़ दी। मुझे लगता है, उनका समग्र जीवन निरंतरता का संदेश है। आगे बढ़ने का संदेश। उनका कर्म उपदेश वह है जिसमें आपके होने का मर्म हो। कर्म। चरम नहीं परम। गीता के श्रीकृष्ण कर्मयोग का संदेश देते हैं तो भागवत के मुरारी जीवन जीने का धर्म और कला सिखाते हैं। ऎसी कला जिसमें हंसते, मुस्कुराते कठिनाइयों झेलते हुए भी निर्णय लेने की प्रतिज्ञा है।

यह श्रीकृष्ण के जीवन की विडंबना ही है कि जन्म के समय उन्हें विष दिया, तो एक स्त्री ने और मृत्यु का कारण भी स्त्री ही बनी। जन्म लेते ही पूतना ने विष दिया। गांधारी ने उनके सपूर्ण परिजनों के सत्यानाश का शाप दिया। फिर भी स्त्री सम्मान के लिए ही ता उम्र वे लड़ते रहे। द्रोपदी का चीर बढ़ाया। आदिवासी कन्या जाम्बवती से विवाह किया। नारकासुर की नारकीय कैद से छुड़ाकर उन çस्त्रयों को अपनी पत्नी बनने का अधिकार दिया, जिन्हें समाज ने कुलटा, पतिता कहा। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजसूय यज्ञ में आमंत्रितो के झूठे पात्र उठाए। सारथि दारूक, निर्धन सुदामा को मित्र का मान दिया। श्रीकृष्ण! माने युगंधर। युग प्रवर्तक। आखिर यूं ही तो नहीं कहा गया है, श्रीकृष्ण यदि भारतीय जीवन दर्शन में न रहे तो फिर बचेगा ही क्या! न साहित्य, न संगीत और न जीवन की उत्सवधर्मिता। जीवन जीने की कला के उत्तम पुरूष हंै भगवान श्रीकृष्ण! 

Monday, August 6, 2012

मोहन वीणा की सौन्दर्य रस सृष्टि



वीणा भारतीय संस्कृति का संवाहक वाद्य है। बाहर और भीतर सौन्दर्य से परिपूर्ण। वीणा का अर्थ ही है कल्याणी, शुभता, उत्कृष्टता और उदात्तता। नटराज षिव के विष्व नृत्य में सरस्वती वीणा बजाती है। भोले स्वयं भी तो वीणाधर है। दक्षिणामूर्ति। वैणिकों के राजा। षिव जब तांडव करते हैं तो पार्वती लास्य करती है। वह श्रेष्ठ नर्तकी ही नहीं वीणा वादिनी भी है। रामायण के सुंदर कांड में नौ तारों की विपंची वीणा का उल्लेख है। यह वीणा ही है जिसमें सूक्ष्म और जटिल ध्वनियों के जरिये स्वर का परिस्कार होता है। वादन में अध्यात्म के साथ सौन्दर्य रस की अनुभूति करनी हो तो वीणा सुनें। सुनेंगे तो लगेगा मन भी तरंगायित हो मौन में गाने लगा है।
बहरहाल, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में पंडित विष्वमोहन भट्ट की वीणा को सुना। सुना पहले भी है परन्तु इस बार न जाने क्यों सुना तो लगा उसे गुनूं। सो गुना। लगा सप्तकों में वह सुनने के जिस रस का सर्जन करते हैं, उसमें मन उल्लसित होता है। विष्वमोहन जो वीणा बजाते हैं उसका उल्लेख वीणा के इतिहास में कहीं नहीं मिलता। उसे उन्होंने अपने तई आविष्कृत किया है। हवाईयन गिटार में कुछ और तार जोड़ वीणा में उसे रूपान्तरित कर उन्होंने उसमें भारतीय रस की सृष्टि की। नाम दिया मोहन वीणा। अपने नाम के साथ मिला उन्होंने इस वाद्य को पारम्परिक भारतीय शास्त्रीय रागों के माधुर्य से जोड़ विष्वजनीन किया। मोहन वीणा गिटार का संषोधित शास्त्रीय रूप है। 
विष्वमोहन भट्ट ने संगीत की षिक्षा पं. रविषंकर से ग्रहण की। इसीलिये शास्त्रीय रागों की उनकी समझ गहरी है। रागों के मूल को बचाते वह समयानुरूप उनमें सुनने के तमाम रसों को मिलाते रहे हैं। जवाहर कला केन्द्र में मोहन वीणा के तारों पर उनकी उंगलियां मिंया मल्हार पर बज रही थी परन्तु झाला, विलम्बित में वह सुनने के अदभुत रस की ही जैसे वृष्टि कर रहे थे। मिंया मल्हार वर्षा ऋ़तु की राग है। वर्षा के मौसम में यह सर्वकालिक हो जाती है। पं. विष्वमोहन भट्ट ने अपनी वीणा में इस राग में बंद सभागार में वर्षा बूंदों से भिगने की अनुभूति करायी तो वर्षा जल के साथ बहती हवा में पत्तों की सरसराहट, कोयल, मोर, पपैये बोलने की अनुगूंज भी अनायास करायी। उनके वादन की बड़ी विषेषता यह भी है कि वह वीणा के तारों पर माधुर्य की बढ़त करते हैं। माने राग के तीव्रतम स्वरों में वह तारों को छेड़ उनके नैरन्तर्य का गजब का निभाव करते हैं। यही कारण है कि उनकी वीणा जब माधुर्य के चर्म पर होती है तो उसका असर वह तारों के दबाव से देर तक कराते हैं। उनके साथ बनारस के पंडित रामकुमार मिश्र ने तबले की भी अद्भुत संगत की। वीणा के तार जहां मंद पड़ते वहां तबले की उनकी थाप राग की समग्रता में अपने होने को गहरे से अनुभूत कराती। मुझे लगता है, पंडित विष्वमोहन भट्ट ने पाष्चात्य वाद्य गिटार का मोहन वीणा में रूपान्तरण कर उसे शास्त्रीय वाद्य जरूर बना दिया है परन्तु इसमंे शास्त्रीय रागों के माधुर्य में बहुतेरी बार खटका भी होता है। गिटार के तारों की बोझिल झनझनाहट राग माधुर्य में बाधा जो उत्पन्न करती है। 
बहरहाल, यह वाद्य संगीत ही है जो शब्दों के परे नाद की शुद्धता के जग में ले जाता है। वस्तु और व्यक्ति के बीच की संधी को विलिन करते हुए। सच! वीणा आंतरिक भावों, मन के उल्लास, उमंग की अनुभूतियों को संगीतात्मक ध्वनि लय तथा बोलों से प्रकट करने वाला उपकरण है। मोहन वीणा विष्वमोहन भट्ट का वह सर्जन है जिसे सुनते शास्त्रों में उल्लेखित विचित्र वीणा की अनुभूति भी अनायास होती है। जवाहर कला केन्द्र में हालंाकि पंडितजी ने उस्ताद गाजीखां मांगणियार और साथी कलाकारों के साथ अपनी वीणा से लोक सुर भी बिखेरे, सस्ते संगीत का भी कथित रस बिखेरा परन्तु उसमें वह बात कहां जो राग मिंया मल्हार में थी!


Saturday, July 28, 2012

रेखाओं में गूंथे जीवन बिम्ब

नई दिल्ली की गैलरी आर्ट शास्त्र ने कुछ समय पहले हिम्मतषाह के रेखांकनों की एक प्रदर्षनी का आयोजन किया था। प्रदर्शनी का शीर्षक रखा गया, ‘अवलोकिता’। झेन दर्षन में बुद्ध के एक नाम से अभिहित करते उनकी ड्राइंग का अंतरंग वहां था। प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रों का आस्वाद करते मुझे लगा, यह हिम्मत शाह  ही हैं जो रेखांकनों में वस्तुओं और जीवों के सादृष्य का विचार किए बगैर शुद्ध आत्मिक अभिव्यक्ति करते है। भले इसे किसी दर्शन से जोड़ दिया गया हो परन्तु मूलतः वहां कोई विचार या दर्षन का आग्रह नहीं होकर रूपांकन की सहज स्फूर्त क्रियाषीलता है। 
वैसे भी कलाकृतियां अनुभूतियों से ही तो जुड़ी होती है। देखने की भी और उसे रचने की भी। किसी एक अर्थ से जोड़कर उन्हें चाहकर भी कहां व्याख्यायित किया जा सकतो है! यह इसलिए है कि बहुत सी दूसरी संभावनाएं वहां बार-बार जग रही होती है। कोई उसके बारे में कहे कि वह कैसी है तो शायद ठीक वैसे ही उसे व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। वह उसी को होती है जो अनुभूत करता है।
बहरहाल, हिम्मत शाह के शिल्प पर तो बहुत कुछ लिखा गया है परन्तु न जाने क्यों उनके  रेखांकनों पर आलोचकों का ध्यान खास गया ही नही। मुझे लगता है, देश के वह उन विरले कलाकारों मंे से हैं जो अपने तई विचार संपन्न आकृतियों का सर्जन करते रेखाओं की अलौकिक सामर्थ्यता की अनुभूति कराते हैं। भले उनके रेखांकनों में स्वयं उनके बनाए स्कल्पचर देखे जाने का अहसास भी है वहां टैक्सचर की तमाम संभावनाएं भी हैं। उनके रेखांकन ऐसे भव में हमे ले जाते हैं जहां मानवाकृतियां जीव-जंतुआंे की प्रकृति में समाहित होती प्रतीत होती है तो बहुतेरी बार विभिन्न जीव-जंतुओं की मूल प्रकृति मानव आकृतियों में समाहित होती दृष्य का सर्वथा नया बोध कराती हैै। व्यक्ति के भीतर चल रहे द्वन्द, उससे संबद्ध तमाम विसंगतियां, आधुनिकता के बनावटीपन और यांत्रिकता में जकड़ते जा रहे विचारों के केन्द्र में हिम्मत शाह कला की जो दुनिया रचते हैं, उसमें भावपूर्ण रूपांकन यत्र-तत्र-सर्वत्र है। मसलन जापानीज इंक ऑन पेपर को ही लें। वहां रूप की स्पष्टता तो है परन्तु विचारों का सघन जंगल है। रेखाओं का अनूठा उजास है तो रेखांकनों में खंड-खंड रचित कोलाज में विस्मय के साथ गति का अनूठा प्रवाह है। लाईनों से उभारे टेढे-मेढे चार पैरों के साथ ऊपर उभरती ऊंट, घोड़े जैसी आकृतियों में पीछे पूंछ की बजाय दिखाई देते व्यक्ति के जरिए वह जैसे भीतर की अपनी संवेदनाओं का सब कुछ बाहर निकाल देना चाहते हैं। 
ऐसी ही ड्राइंग की उनकी एक आकृति में रेखाओं, रेखाओ के गोलों, बिन्दुओं के जरिए रोबोटनुमा आकृति का सर्जन किया गया है। एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था होती ऐसी आकृति में आकृति के भीतर से निकलती और आकृतियां मनुष्य की जटिलता, यांत्रिकता के बंधनों के साथ ही सभ्यता से उपजे तमाम विषादों को भी जैसे हमारे सामने रखती है। इसे देखते लगता है, हिम्मत शाह किसी एक आकृति में भी विचार की तमाम संभावनाओं को गहरे से जताने का सामर्थ्य रखते हैं। 
मुझे लगता है यह हिम्मतषाह ही हैं जिनकी ड्राइंग देखने का पूरा एक वातावरण निर्मित करती है। इस वातावरण के अंतर्गत देखे हुए दृष्यों की बहुत सारी  स्मृतियां औचक कौंधती है। इसीलिये उनकी ड्राइंग में बहुतेरी बार जॅक्सन पोलाक के बनाये चित्रों के व्यापक प्रभाव चित्रण की तरह वस्तुनिरपेक्षता और व्याकुलता का आभाष भी होता है तो रेखाओ में गंूथी शारीरिक बल्ष्ठिता से माइकिलेन्जलो का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। उनके चित्रों को देखते हुए दर्षक स्वयं को अनोखे वातावरण में परिवेष्टित अनुभव करता है और इसी से कलाकृति को चित्रकार की दृष्टि से नहीं बल्कि दर्षकीय दीठ से नया अर्थ अनायास ही मिल जाता है। 


Friday, July 20, 2012

कला का सिनेमाई रूपान्तरण


विद्यासागर उपाध्याय के रंग कोलाज 

विद्यासागर उपाध्याय रंगों के उत्सवधर्मी कलाकार हैं। कैनवस पर वह जो बनाते हैं, उनमें सीधे सपाट दृष्य नहीं मिलेंगे। मिलेंगे तो बिम्ब कोलाज। संकेतों में रंगों का अद्भुत रचाव। आरंभ के उनके रेखांकन और बाद के चित्रफलक पर विचारता हूं तो अनुभूत होता है कि उनकी कलाकृतियों में एक अजीब सी व्याकुलता रंगों के सांगीतिक आस्वाद के साथ देखने वाले में सदा ही जिज्ञासा जगाती रही है। कहें, अपने दौर से अलग कुछ करने के उनके कला चिंतन से उपजी कलाकृतियां रंगों का मनभावन रूपान्तरण है। भले अमूर्तन की उनकी रंग दृष्टि समकालीनता का अतिक्रमण करती रही है परन्तु संप्रेषण के नये आयामों में उसका आस्वाद लुभाता भी है। उनके रंग लोक में तैरती अनुभूतियों, स्मृतियां भीतर के हमारे रितेपन को जैसे भरती भी है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले उपाध्याय के रंग सरोकारों पर ‘कलानेरी’ आर्ट गैलरी ने विनोद भारद्वाज और रोहित सूरी निर्मित फिल्म ‘कलर सिम्फनी’ के प्रदर्षन की पहल की। फिल्म के शीर्षक को देखकर जिज्ञासा हुई सो देखने जाना ही था परन्तु फिल्म देखकर निराषा हुई। इसलिये कि विद्यासागर उपाध्याय की कला में रंगों का अद्भुत रचाव है। रंगों के उनके सरोकार भी किस एक मुकाम की बजाय निरंतर बदलते रहे हैं। बंधी-बंधायी लीक की बजाय वहा समय का अपनापा हैं। माने वहां परम्परा भी है तो आधुनिकता के गहन सरोकार भी। चटख रंगों में झिलमिलाते उनके रंग कैनवस का पारदर्षीपन भी अलग से ध्यान खींचता है। बल्कि मुझे तो उनकी रंगधर्मिता में चलचित्रनुमा जो एप्रोच है, वह भी सदा से आकर्षित करती रही है। लगता है, उनके कैनवस का अर्मूतन पानी में तैरता है। उसमें गत्यात्मक प्रवाह जो है। कैनवस स्थिर है परन्तु रंग दृष्यों का चलायमान भाव वहां है। कलाकृतियां देखते हुए लगेगा कैनवस नहीं किसी फिल्म को हम देख रहे हैं। और इस पर सच में यदि फिल्म बने तो उसमें कुछ खास की गुजांईष तो रहती ही है परन्तु ‘कलर सिम्फनी’ से वह ‘खास’ गायब है। शायद इसलिये भी कि फिल्म अभिकल्पन में तात्कालिकता की प्रबलता है। लगता है, कुछेक पंेटिंग के इर्दगिर्द ही फिल्म का ताना-बाना बुन, दृष्य शूट कर लिये गये और बगैर किसी सोच, शोध के उन दृष्यों को रख दिया गया है। 
पूरी फिल्म में विद्यासागर उपाध्याय की कलाकृतियों के रंग सरोकारों की शास्त्रीयता को विनोद कहीं भी पकड़ नहीं पाये। इसीलिये फिल्म देखते समय जो अधुरेपन की शुरूआत होती है, वही इसके समाप्त होने के बाद भी बनी रहती है। कलाकार की बजाय कुछेक कलाकृतियों का चलचित्र बनकर रह गयी है,  बीस मिनट की यह पूरी फिल्म। आरंभ में कैनवस पर कलाकृति रचते, रंग बिखेरते कलाकार के कुछेक शाॅट इसमें है, अंतराल पश्चात चुनिन्दा कलाकृतियां पर कैमरा फोकस होता है। बीच में स्क्रिन पर उपाध्याय के जन्म और कलाधर्मिता पर कुछेक पंक्तियां उभरती है और फिर से पहले जो कलाकृतियां दिखाई गयी थी, उन्हीं पर कैमरा फोकस होता है। उनके स्टूडियों के पुराने दरवाजे की सांकल के पास खुद उनके खड़े होने के शाॅट की मुग्धता में कलाकार की कला यहां जैसे गौण हो गयी है। 
बहरहाल, सिनेमा चलायमान दृष्यों की विधा है और कैमरा उसकी भाषा है। यह इतनी शसक्त है कि थोड़े में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है, बषर्ते कि आप उसमें रमें, उसे जियें। इस दीठ से ‘कलर सिम्फनी’ लगता है पूरी तरह से चूक गयी है। हाॅं, विद्यासागर उपाध्याय की कलाकृतियों के दृष्यों के पाष्र्व मंे राग बिहाग में पंडित विद्याधर व्यास का शास्त्रीयगान जरूर रंगों की उत्सवधर्मिता को बंया करता कुछ सुकून देता है।