Tuesday, August 30, 2016

छायाचित्रों की कलाधर्मिता में रचा प्रकृति का रंगाकाश


कलाएं मन को रंजित करती है। शायद इसलिए कि वे हमारी संवेदना को चक्षु देती है। यथार्थ को सर्वथा नई दीठ से देने का एक प्रकार से संस्कार भी कलाएं ही देती है। छायांकन की ही बात करें। ब्रितानी सैरा चित्रकार टर्नर ने कैमरे के आविष्कार के समय कहा था कि फोटोग्राफी के आगमन का अर्थ है, कला का अंत। पर कला स्वरूपों की सृजन प्रक्रिया का आज छायांकन प्रमुख आधार है। न्यु मीडिया का तो प्रमुख आधार ही आज फोटोग्राफी ही है।
मुझे लगता है, छायांकन दृष्य संवेदना में अनुभव का सर्वथा नवीन भव निर्मित करती है। संवेदना से उपजी यह वह सर्जना है जिसमें देखने का हमारा ढंग बदल जाता है। दृष्य में निहित बाहरी ही नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य की भी दीठ इसमें निहित है। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में छायाकार महेश स्वामी की छायाचित्र कला की एक सर्वथा भिन्न दृष्टि की प्रदर्षनी  का आस्वाद किया। लगा, दृष्य के साफ-सुथरेपन के साथ प्रकृति में घुले रंगो का उन्होंने बजरिए तकनीक सर्वथा नया आकाष रचा। कोई कह रहा था, खींचे गए छायाचित्रों से छेड़-छाड़ कर छायाकार ने दृष्यों को अपना निजत्व देते अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है। पर इसमें बुरा भी क्या है? तकनीक साधन है, साध्य नहीं। 
कैमरे से लिए गए छायाचित्रों को कलाकृतियो मेें रूपान्तरित करते यदि प्रयोगधर्मिता का ताना-बाना बुना जाए तो इसमें बुरा भी क्या है। और फिर कैमरे से लिए गए चित्रों में यदि हूबहू जो कुछ दिख रहा है वही दर्षकों का सच बनता है तो इसमे ंफिर कला क्या है? कला तो संवेदना की वह आंख ही है जिसमें छायाकार अपने तई दृष्यों को अंवेरता, उसे अपनी सूक्ष्म सूझ से रूपान्तरित करता है। एक समय में पिकासो, मातीस, सेजां, साल्वो आदि ने फोटोग्राफी से निरंतर प्रभावित होते स्वयं की कला के संप्रेषण माध्यम में इसका उपयोग किया भी तो है। और फिर यह भी तो सच है, छायाकंन मे ंयदि यथार्थ का ही अंकन होता है तो उसमे फिर कला कहां है? छायाकार यदि कलाकार है तो वह दृष्य में निहित उस सौन्दर्य से भी हमारा साक्षात् करा देता है, जो नंगी आंखों से चाहकर भी हम देख नहीं पाते। इसमें यदि प्रयोगधर्मिता का सहारा कलाकार लेता है तो यह तो जड़त्व को तोड़ने की सृजनधर्मिता ही हुई ना। इसी की तो कला में दरकार है।
छायाकार महेश स्वामी 
बहरहाल, महेष स्वामी की छायाचित्र प्रदर्षनी ‘दर्पण’ पर लौटता हूं। इस बार के उनके छायाचित्र देखने के हमारे चले आ रहे ढंग की लीक को तोड़ने वाले हैं। कहूं, एक खास तरह की एकांतिका उनके इस बार के छायाचित्रों में व्याप्त है। लॉन में पड़ी कुर्सियॉं, साईकिल और कूलर, गमले और यहां तक की दरवाजों तक के अकेलेपन के बावजूद उनमें रमी फूल-पत्तियों की गुनगुनाहट की सूक्ष्म अंर्तदृष्टि में इन छायाचित्रों में समय के अवकाष को गहरे से पकड़ा गया है। यह भी महज संयोग नहीं है कि प्रयोगधर्मिता लिए उनके छायाचित्रों में पेड़ों के हरेपन के बहाने दैनिन्दिनी उपयोग की वस्तुओं की छवियों को एक खास तरह का अर्थ दिया गया है। यह सही है, तकनीक के प्रयोग से महेष ने अपने इन छायाचित्रों को कैनवस पर सृजित कलाकृतियों सरीखा रूपाकार दिया है परन्तु महत्वपूर्ण इस सृजन का वह पक्ष है कि जिसमें प्रकृति से जुड़ी उनकी संवेदना को पंख लगे हैं।
उनके छायाचित्रों में गमलों में उगे पौधों, फूलों में निहित सौन्दर्य को असल में रूपक की तरह इस्तेमाल किया गया है। इसलिए कि कैमरे से जो कुछ आंख ने देखा, वही भर यहां सत्य नहीं है-उससे परे वह संवेदना भी है जिसमें प्रकृति को अपने तई गुना और बुना जाता है। छायांकन-कला की यह वह नवीन प्रयोगधर्मिता है जिसमें छाया-प्रकाष की कलात्मक सूझ के साथ रंग और रूप के मनः स्केच एक तरह से उकेरे गए हैं। मसलन पेड़ों से छाई हरियाली के हरेपन को, पतझड़ के पीलेपन को और सूर्ख गुलाब और दूसरे फूलों के रंगो को चुराते महेष ने अपने कैमरे की छवि की दृष्यात्मकता को सर्वथा नया आयाम दिया है। यह है तभी तो उनकी कैमरे से उकेरी छवियां यहां रंग-रूप का नया आकाष रचती देखने वालों में बसती है।
उनकी छायाचित्र प्रदर्षनी में प्रकृति एक तरह से वह दर्पण ही तो है जिसमें जीवन से जुड़े बिम्ब झिलमिलाते हैं। इनमें उभरे हल्के हरे, नीले, लाल, भूरे, काले रंगों का और रूप का अद्भुत उजास है। यह अनायास ही नहीं है कि उनकी इस श्रृंखला के छायाचित्रों को देखते हुए औचक वॉन गॉग की कलाकृतियों की याद आती है तो पिकासो के कला प्रयोग भी ज़हन में कौंधते हैं। कुछ इस तरह से कि प्रदर्षनी में देखने के बाद भी उनकी छाया-छवियां मन में सदा के लिए बसी रहती है। मुझे लगता है, महेष ने अपने इन छायाचित्रो ंमें अनुभूतियों को स्केचेज की अपनी प्रयोगधर्मिता में इस कदर सरल, सहज कैमरे से रूपान्तरित किया गया है कि कोने में पड़ी साईकिल, कार, सन्नाटे में पसरी कोई बेल, करीने से रखे हुए गमलों का लाल रंग और पक्षियों के लिए रखा पानी सदा के लिए हममें बस जाता है। इस छायाचित्र श्रृंखला का वह फोटोग्राफ तो अद्भुत है जिसमें खाली पड़ी कुर्सियों की के मौन को पीले उगे फूल स्वर दे रहे हैं। ऐसे ही एक फोटोग्राफ में बेल में उगे फूल जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं तो दूसरे एक में हरे पत्ते और बारिष से नहाया आंगन जैसे मुस्करा रहा है। उड़ते पक्षियों की परछाई, एक स्थान पर एकत्र हरे तोते, पानी का रखा पात्र पर उसमें झांकती पेड़ की शाखाएं आदि की बिम्ब-प्रतीक व्यंजना के इन फोटोग्राफ्स में छायांकन कला के जरिए महेष स्वामी ने जैसे प्रकृति का रंगाकाष रचा है। जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मन की अनुभूतियों को सहेजती, छाया-कला प्रदर्षनी के फोटोग्राफ दरअसल मौन में प्रकृति की गुनगुनाट सुनाती कलाकृतियां ही तो है।

Sunday, August 14, 2016

खुली किताब : यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'


यादवेंद्र शर्मा चंद्र से संवाद (1989)

यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' राजस्थान के ऐसे साहित्यकार थे जिनके जीवन का कर्म और मर्म लिखना और बस लिखना ही था। लिखते बहुत से लोग हैं परन्तु चन्द्रजी जैसे विरले हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन या यूं कहें आजीविका मात्र लेखन के सहारे ही गुजारी। हिंदी और राजस्थानी में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, संस्मरण आदि सभी विधाओं में उन्होंने विपुल सृजन किया। 

उनके सान्निध्य और दिए गए स्नेह की बहुत सी यादें हैं। याद करूंगा तो न जाने कितने पन्ने भर जाएंगे! यह १९८९ की बात है, जब उनका एक बड़ा साक्षात्कार मेंने किया और वह प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' में छपा था। बाद में उनके साथ 'राजस्थानी की कालजयी कहानियां' के संपादन का सुयोग भी मिला। नई धारा, इण्डिया टूडे, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति आदि के लिए निरंतर मैंने उनके साक्षात्कार किए। 'जागती जोत' के लिए मित्र नीरज दईया के आग्रह पर कभी मैंने राजस्थानी में उनका बड़ा साक्षात्कार किया। इतना कुछ उनके बारे में सहेजा, संजोया है कि पूरी एक किताब प्रकाशित हो जाए। याद पड़ता है, उनकी साक्षात्कार की एक किताब का शीर्षक ही है, 'खुली किताब'। मुझे लगता है, चन्द्रजी भी सबके लिए खुली किताब थे।
उनसे पहली भेंट का किस्सा भी उनके बड़पन्न को बंया करने वाला है। याद है, तब कॉलेज में पढ़ता था और 'ब्लिट्ज' के लिए पत्रकारिता करता था। उनके उपन्यास की समीक्षा मैंने इसमें एक दफा की। शायद वह उनका लिखा राजस्थानी परिवेश का'रक्तकथा' उपन्यास ही था। समीक्षा में अपने होने को गहरे से जताते मैंने अनावश्यक अश्लील शब्दों, कथा विस्तार और शब्दावली आदि जुमलों से जैसे उसकी भरपूर खिंचाई की थी। सच में तो यह आसमान पर पत्थर फेंकने जैसा ही था। तय था, चन्द्रजी कभी मिलेंगे तो खबर लेंगे पर हुआ बिल्कुल उलट। एक रोज़ चन्द्रजी घर के बाहर से आवाज लगा रहे थे, 'यह राजेशजी का ही घर है?' मैं लपककर पहुंचा। वह शायद चेहरे से मुझे नहीं जानते थे पर जब मिले तो तुरंत कहा, 'तुम्हारे यहां चाय पीने आया हूं।' बातों ही बातों में वह मेरी लिखी समीक्षा पर आ गए परन्तु स्वर बिल्कुल संयत। बोले, 'अच्छी लिखी है पर अतिशयोक्ति से की है तुमने समीक्षा।' मैं जानता था, वह सही कह रहे हैं परन्तु बाद में उन्होंने इस बात को भी हवा में उड़ा दिया। यह तो बहुत बाद में पता चला सम्पादक उनके निकट के मित्र थे। चाहते तो वह सदा के लिए मेरा लिखना "ब्लिट्ज" से छुड़वा सकते थे। पर यह उनका बड़पन्न था कि उन्होंने संपादक श्री नौटियालजी से मेरी तारीफ की।....ऐसे बहुत से और भी किस्से हैं, जो उनकी उदात्तता के हैं। वह साफ मन के थे। बहुत प्यार देने वाले। 
जब भी बीकानेर जाता हूं, लौटता हूं तो चन्द्रजी के नहीं होने के खालीपन को लेकर ही लौटता हूं। इतना प्यार अब कौन दे? और शायद उन्होंने बिगाड़ भी दिया था कि जितना नेह वह देते थे, उतने से कम में अब पार नहीं पड़ती। नमन, चन्द्रजी। नमन!

Saturday, August 13, 2016

जब कलाएं पास आती है...'



कलाएं समय, समाज और परिवेश की एक तरह से सुघड़ व्यंजना है। सृजन के स्त्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परम्परा, इतिहास को वहां ध्वनित पाएंगे। अतीत और वर्तमान वहां साथ-साथ झिलमिलाता है। मुझे लगता है, बहुत से स्तरों पर कलाएं अतीत के जरिए भविष्य का किवाड़ भी खोलती हैं। कलाओं में अतीत यदि ध्वनित होता है तो इसका कारण शायद यह भी है कि अतीत का जो भी सुदंर है-मनभावन है, वह बचाया जा सके। अतीत से जुड़ी वस्तुएं सीढ़ी है-कला के सौन्दर्य तक पहुंचने की। इस सीढ़ी के जरिए ही पाई जा सकती है, नव्यतम दीठ। सोचता हूं, अपने अंतरतम तक पहुंचने का मार्ग भी तो है अतीत! 
विनय शर्मा मूलतः चित्रकार है परन्तु इधर अपनी कला में अतीत को सर्वथा नवीन दीठ से संजोया है। उनका कैनवस संगीत से जुड़ गया है, नृत्य की थिरकन उसमें समा गयी है और नाट्य की भंगिमाओं से उनकी कलाकृतियां जैसे दृष्य के अद्भुत आख्यान हमारे समक्ष रखती है। उनके स्टूडियो में बीते हुए कल को जीवंत करता अतीत ठौड़-ठौड़ जैसे बिखरा पड़ा है। पुराने जमाने की रोजमर्रा से जुड़ी भांत-भांत की चीजें उनकी कला का हिस्सा हैं। पुराने जमाने का ग्रामोफोन, टाईपराईटर, बड़ी सी दवात, झूले, झाड़ फानुस, ईरानी आईना, सूत कातते चरखे और गुजरे जमाने की याद दिलाते ढेर सारे रेडियो का अद्भुत संग्रह उन्होंने पिछले कुछ वर्षों के दौरान किया है। उनकी कलादीर्घा (स्टूतडियो) में प्रवेष करेंगे तो पाएंगे, एक कोने में बहुत सारे पुराने टेलीफोन यंत्र हैं। पुराना टेलीफोन बूथ और उसके बाहर लटकते ढेर सारे अलग-अलग समय के दूरभाष यंत्र। यही नहीं, बीते कल की फिल्मों के पोस्टर! अतीत से जुड़े ढेरों दस्तावेज। हर ओर, हर छोर। और हां, इन सबसे ही यहां अतीत जैसे रागायमान है। भले पुराने जमाने की चीजें यहां स्थिर हैं परन्तु उनमें लययुक्त गतियां हैं। गुम हुई आवाजें हैं और हैं स्मृतियां। 
चीजें स्थिर रहें, मौन रहें तो उदासी, सन्नाटा पसरता है पर कलाकर्म से उनमें ध्वनित होने की अनुभूतियां पैदा की जाए वह राग बन जाता है। ‘अतीत राग’। विनय शर्मा की स्टूडियो इस दीठ से मुझे ‘अतीत राग’ ही लगता है। इसलिए कि अतीत को अपनी कला में उनने गहरे से संजोया है। बीते हुए कल को अपने तई संवारते कैनवस पर ही नहीं संस्थापन की अपनी सूझ में भी उसे गहरे से जीया है। कैनवस पर रंग-रेखाओं के संग का पाष्र्व कुछ और नहीं पुरानी बहियां, स्टाम्प पेपर, जन्मपत्रियां, पुराने भोजपत्र और तमाम वह दस्तावेज जो कल की बात हो चुके हैं। सोचता हूं, अतीत से यह कैसा अनुराग है। नया काम पर अतीत से जुड़ा। कला की आधुनिक दीठ पर परम्परा का सांगोपांग मेल। संस्थापन की विनय की नव्यतम प्रस्तुति में चित्रकला के साथ संगीत, नृत्य, नाट्य में ध्वनित होते इतिहास में परम्परा का राग है तो आधुनिकता का अनुराग भी।
हाल ही में जयपुर आर्ट समिट में इस बार विनय शर्मा का संस्थापन विषेष आकर्षण का केन्द्र रहा। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में एक कोना विनय के संस्थापन का था जिसमें अतीत से जुड़ी चीजों का विनय का कला संग्रह ही नहीं था बल्कि वहां अतीत दृष्य के साथ ध्वनित भी हो रहा था। वह सांझ सचमुच खास थी। विनय ने अपनी नव्यतम संस्थापन प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया था। पहुंचा तो देखा कलर पेलेट लिए ब्रष से ईजल पर रखे कुछ बनाते विनय दिख रहा था पर बहुत प्रयास के बाद भी कुछ शायद बन नहीं पा रहा था। कुछ न बना पा सकने की झुंझलाहट भी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी। औचक, विनय ने कैनवस पर ब्रष से कुछ बनाया पर फिर शायद उसे लगा, जो कुद वह सृजित करना चाहता है कैनवस उसके लिए पर्याप्त नहीं है। हमने देखा, अपनी पुरानी चीजों में से वह कुछ तलाष करने लगा। अपनी संग्रहित अतीत से जुड़ी वस्तुओं में से एक पुरानी लालटेन को अंततः उसने ढूंढ निकाला। लालटेन को रोषन कर वह फिर से ईजल के पास आया। रोषनी ईजल पर रखे कैनवस पर पड़ती दिखाई दी पर उसने कैनवस पर कुछ उकेरने की बजाय उसे हटा दिया। लालटेन की रोषनी ईजल पर फिर से थी, उजास में दिखाई दी कैनवस के पीछे छीपी वह मूर्तिनुमा मानवाकृति जो अब तक स्थिर, खामोष थी। 
लालटेन की रोषनी जैसे ही मानवाकृति पर पड़ी जैसे अब तक सोई उस मूर्ति में जान आई। रोषनी से पूरी तरह नहाते रंगपूति मानवीय आकृति जैसे जीवंत हो उठी। विनय ने कलर पेलेट से रंग उठाए और ब्रष से उस आकृति में और कुछ रंग पोत दिए। गणेष की सूंड। गजानन जैसे रंग-रेखाओं में जी उठे। गणेष वंदना के ध्वनित संगीत पर तभी नृत्यांगना झंकृति जैन की नृत्य भंगिमाएं भी जैसे परिवेष को जीवंत करने लगी। पुरानी चीजों के संग्रह में एक ओर नटेष के अभिनय में रंग-रेखाओं पूते अषोक बांठिया थे तो दूसरी ओर 51 लघु कैनवस पर उकेरी गणेष की भांत-भांत की मुद्राओं की विनय की कलाकृतियां थी। चित्रकला, नृत्य, संगीत और अभिनय का यह अद्भुत मेल था। इधर झंकृति का नृत्य थमा कि छत से लटके पुराने टेलिफोन के चोगों की घंटियां एक साथ बज उठी। विनय की कलाकृति बने अषोक बांठिया हैलो....हैलो...हैलो करते हैरान-परेषान फोन सुनते भांत-भांत के टेलिफोन यंत्रों की ओर लपकते हैं। उधर ध्वनियों का आकाष है। एक टेलिफोन पर प्रसन्न्ता का समाचार दिया जा रहा है तो दूसरे किसी में शोक समाचार का रूदन है, तीसरे किसी में प्यार और रोमांष की बातें हैं तो चैथे किसी में दैनिन्दिनी जीवन से जुड़ी कोई बात।...तब-जब मोबाईल नहीं थे, टेलिफोननुमा यंत्र जीवन को ऐसे ही तो स्पन्दित किया करता था। 
प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक अशोक बांठिया 
नाटक जारी आहे! एक टेलिफोन पर गाना बनजे लगा है, ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलिफोन, तुम्हारी याद सताती है...।’ यह टेलिफोन में गूंजरित रेडियो ध्वनि है। विनय के एकत्र रेडियो सैट जैसे इसी की याद दिलाते हैं। गीत पूरा होता है कि टन...टन...टन के घंटे बजते हैं। अभिनय कर रहे अषोक बांठिया हैरान होकर इधर-उधर देखते हैं। रंगपूती विनय की कलाकृति की बैचेनी साफ दिखाई देती है। इधर-उधर अतीत को जीवंत करती वस्तुओं पर लाईट घूमती है। औचक बड़ी सी दिवार घड़ी पर नजर जाती है। जीवित कलाकृति गौर से इस घड़ी को देखती है। घड़ी में रात के 9 बजने के साथ ही टन-टन-टन करते नौ घंटे भी बज जाते हैं। टिक...टिक...टिक करती एक नहीं अनेक घडि़यां दिखती है। अलग-अलग रूपाकारों में। पुराना समय जैसे इन घडि़यों में जीवित हो उठा है कि फिर से रेडियो से गीत बजता है, ‘सुनो गजर क्या गाए...समय गुजरता जाए।’ विनय की कलाकृति (अषोक बांठिया) इस गीत पर थिरकने लगती है। भावाभिनय  की अद्भुत व्यंजना! बांठिया के अभिनय में बीता हुआ समय जैसे ध्वनित होते देखने वालों को भी अतीत के किसी गलियारे में ले जाता है। लगता है, देखने वाले टाईम मषीन में बैठ गये हैं, समय पीछे लौट गया है। ...धीरे...धीरे कलाकृति पुराने जमाने की संग्रहित चीजों में जैसे अपनी ही तलाष करती है कि खर...खर की आवाज से उसका ध्यान भंग होता है। फिर से हैरानी...विस्मय के भाव कलाकृति के चेहरे पर दिखाई देते हैं। वह इधर-उधर नजर दौड़ाती है कि नजर पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो सैटों पर पड़ जाती है। रेडियो के वाॅलियम और बैंड को मिलाने पर आकाषवाणी के समाचार सुनाई देने लगते हैं। रेडियो की आवाज समाचारों से होती हुई बहुत सी और रेडियो प्रस्तुतियां सुनाती है। इन प्रस्तुतियों में आजादी की लड़ाई के समाचार हैं, विचार हैं और लोकतांत्रिक राष्ट्र से जुड़े आख्यान-व्याख्यान की पुरानी रिकाॅर्ड ध्वनियां दर ध्वनियां हैं। इन ध्वनियां पर कलाकृति बने अषोक बांठिया का सहज, आवाज में निहित भावों को जीवंत करता अभिनय इस कदर प्रभावी है कि आंखे उनकी भंगिंमाओं पर ही केन्द्रित हो जाती है। ...पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो की आवाजें धीरे-धीरे शांत होती है कि लाईट फिर से पुराने झाड़फानुस, टाईपराईटर, दवात, कलमों और दूसरी अतीत से जुड़ी जीचों पर केन्द्रित हो जाती है। इन्हें ही विनय ने इधर अपने कलाकर्म का माध्यम बनाया है। कलाकृति बने अषोक बांठिया इन चीजों में अपने होने की तलाष करते इधर-उधर हो रहे हैं कि फिर से कलाकार विनय पाष्र्व से लालटेन लिए आ जाते हैं। कलाकृति लालटेन के उजास को पाते ही फिर से ईजल की ओर लौटती उसपर कैनवस बनती थिर हो जाती है। शायद यह जताते हुए कि हरेक कला दूसरी कला से मिलकर ही पूर्ण होती है।
बहरहाल, विनय शर्मा के कलाकर्म पर विदूषी और अजय जैन की इस आधा घंटे की भावपूर्ण प्रस्तुति में कलाओं के अन्तःसबंधो को जैसे मुझ अंकिंचन ने गहरे से जीया। इस प्रस्तुति को देखकर कहीं पढ़ा हुआ ज्याॅं सेराॅ का वह कथन भी जेहन में फिर से कौंधता है जिसमें वह कहते हैं कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही नहीं तमाम कलाएं अनुभव का अनूठा लिए ही तो होती है। कलाएं इसीलिए शरण्य है कि वहां कोई एक अर्थ नहीं अर्थ की अनंत संभावनाओं का आकाष होता है। बगैर उनमें रमे-बसे इस आकाष की थाह कहां कोई पा सकता है!
मौलिक दीठ के विनय के इस ड्रामा-इंस्टालेषन में रंग-रेखाओं को मानव शरीर पर जीवंत करते अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की गहरी सूझ है। नाट्य अभिनेता, निर्देषक अषोक बांठिया के साथ मिलकर विनय ने संस्थापन के अपने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया है। 
अशोक बांठिया और  विनय शर्मा  
बहरहाल, कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा षिल्प है। षिल्प माने नृत्य, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, स्थापत्य और यहां तक कि हस्तकलाएं तक। विष्णुधमोत्तरपुराण का तीसरा खंड चित्रसूत्र है पर वहां चित्रकला ही नहीं है, प्रतिमाशास्त्र और मंदिर वास्तु पर भी विषद् विवरण है। नृत्य और संगीत के साथ नाट्य की मुद्राओं, भाव एवं रस आदि सहित समस्त कलाओं के पारस्परिक अंतरसंबंधों को अंवेरते यह बताया गया है कि एक कला को समझे बगैर दूसरी कला को समझा नहीं जा सकता। वैसे भी संगीत का उद्देश्य स्वरों की भाव सृष्टि से होता है और चित्र का उसमें निहित रूप-रेखाओं से। वास्तु या मूर्ति में पत्थर, काष्ठ या धातुओं में उसी रूप की प्रतिष्ठा होती है। और फिर वास्तुकला की तो सागीतिक भाषा तक बताई गयी है। इसीलिए कहें तमाम हमारी कलाएं कारू (उपयोगी) भी है और चारू (कलात्मक) भी हैं। सभी कलाओ को एक समान मानने का उद्देश्य सत्य का संधान तथा मानव जीवन को सौंदर्य एवं माधूर्य से परिपूर्ण बनाना ही तो रहा है। इस दीठ से विनय शर्मा का संस्थापन ‘अतीत राग’ मन को मथता है,  कलाओं के अन्तःसंबंधों की गवाही देता हुआ।                         

Sunday, August 7, 2016

मौन हो गया, कलाओं के अंतःसंबंधों का वह रंगाकाश

कालिदास ने रंगमंच को चाक्षुष यज्ञ की संज्ञा दी है और भरतमूनि ने इसे सामुदायिक अनुष्ठान बताया है। मुझे लगता है, कावलम नारायण पणिक्कर के नाटक इन कथनों को अपने तई जीवंतता प्रदान करते हममें बसते है। भावों की समग्रता में उनके नाटक रागबन्ध है। रागबन्ध माने रस के रूप में भावों की सुमधुर व्यंजना वहां है। उनकी नाटय प्रस्तुतियों पर विचारता हूं तो सहज कलाओं के अंतःसंबंधों के दृश्य माधुर्य को भी वहां पाता रहा हूं। इसलिए कि वहां नृत्य, भावभिनय है, गान और चित्रमय दीठ का सांगोपांग है। 
बहरहाल, भारतीय रंगमंच में पणिक्करजी का नहीं होना सदैव खलता रहेगा। उनके देहांत की सूचना जब मिली, तब श्रीनगर में था। विष्वास नहीं हुआ। भारतीय रंगकर्म में किए उनके प्रयोगों में ही मन बसा रहा। यह सच है, उनके नाटक कलाओं के अंतःसंबंधों की एक तरह से व्याख्या ही है। उनके कुछेक नाटकों का आस्वाद तो पहले भी किया था परन्तु जयपुर के रवीन्द्र रंगंमंच पर वर्ष 2013 में ‘रंग पणिक्कर समारोह’ के अन्तर्गत मंचित उनके नाटकों में मन अभी भी रचा-बसा है। कोई सप्ताह भर तक पणिक्कर जी का प्रवास भी इस दौरान जयपुर ही रहा, सो एक बार निरंतर दो घंटे और फिर टुकडों-टुकडों में नाटय और कलाओं पर महती संवाद का सुयोग भी हुआ। नाटय प्रदर्शन से पहले वह कलाकारों से संवाद करते, मंच के पार्श्व परिवेश में भी क्या कुछ पहले से नया हो सकता है, इसके लिए भी वह अपने तई जुटे रहते। तभी गौर किया, प्रकाश, ध्वनि और तमाम दूसरे नाटय उपादानों से भी वह निरंतर अपने को जोड़े रखते। मुझे लगता है, यह था तभी तो उनके निर्देशित नाटक रंगमंच की परम्परा के जडत्व से मुक्त होते संस्कृति के लोक सरोकार लिए जहन में सदा के लिए दर्षकों के मन में बसते रहे हैं। 
कावलम नारायण पणिक्कर छाया-चित्र  : महेश स्वामी
कावलम नारायण पणिक्कर निर्देशित नाटकों की अर्थ अभिव्यंजना ही नही उनमें निहित परिवेश भी समय की अधुनातन संवेदना से जुडा देखने वालो का मोहता रहा है। साधारीकरण में वह सौन्दर्य की वस्तु सत्ता से साक्षात कराते रहे है। उनका एक नाटक है, अवन वन कडिम्बा। सुप्रसिद्ध फिल्मकार जी. अरविन्दन ने इसे कभी उनके सहयोग से मंचित किया था। खुले रंगमंच पर वृक्षों की पृष्ठभूमि पर जब यह हुआ तो भारतीय रंगकर्म के लिए यह सर्वथा नवीन पहल थी। जयपुर में हुए संवाद में उन्होने इसका उल्लेख भी किया  और कहा भी कि प्रकृति से जुडी चीजों की मंच पर प्रयोग की सीख उन्हे जी. अरविन्दन से ही मिली। रवीन्द्र रंगमंच पर मालविकाग्निमित्र के मंचन में अशोक वृक्ष का जो चितराम उनके निर्देशन में हुआ, वह भी अदभूत था। अशोक वृक्ष, उसकी पत्तियां, शाखाओं के विरल दृश्य रूपान्तरण अभी भी जहन में बसे है। मुझे लगता है, मंचीय परिवेश की जीवन्तता की उनकी अनूठी सूझ है। नाटयकुलम की और से रंग पणिक्क्र समारोह में मध्यमव्यायोम कर्णभारम मालविकाग्निमित्र उत्तरामचरितम, थैया थैयम कलिवेशम नाटकों का मंचन हुआ। इनका आस्वाद करते लगा, वह भारत के विरल नाट्य निर्देशक है। ऐसे जो संस्कृत और दूसरे परम्परागत नाटकों के रूप में विधान से किसी प्रकार की छेडछाड नही करते। परन्तु उन्हें हुबहु वैसा ही नही रखकर उसमें अपनी सूक्ष्म दीठ से समय के संदर्भ पिरोते रहे है। बतौर नाटय निर्देशक रंगकर्म में उन्होने जोखिम भरे प्रयोग भी कम नही किए है। मसलन उनके बहुतेरे नाटकों में पात्र के साथ उसके छाया पात्र से दर्शकों का बार बार सामना होता हे। अंतर्मन संवेदनाओं, मन मंें घुमडते विचारों, खुद के खुद से होने वाले प्रश्नों और द्वन्द का मंचन आसान नही है। बल्कि कहे, इन सबके नाटय रूपान्तरण की जोखिम नाटक में कोई ले भी नही सकता। परन्तु यह जोखिम ही पणिक्कर जी के नाटकों की बडी विशेषता है। उनके नाटको में नह केवल  इस जोखिम को उठाया गया है बल्कि चरित्र का आत्म संवाद गहरे से अभिव्यंजित भी हुआ है।
छाया-चित्र महेश स्वामी
पणिक्कर जी के नाटकों में संकेतो के जरिये संवेदना का संम्प्रेषण तो है साथ ही नाटय दृश्य में पात्रों की भंगिमाओं से गढे गये अदृश्य का भी भावनात्मक रूपान्तरण है। इसीलिए उनके नाटक देखते हुए हमारे भीतर घटने लगते है।  भास रचित ‘मध्यम व्यायोम’ को ही ले। घटोत्कच जब वहां पहाड उठाने का अभिनय करता है तो लगता है, सच में उसने विशाल काय पहाड को अपनी भुजाओं में उठा लिया है। भले ही पहाड़ वहां विचार है। परन्तु पहाड़ उठाए पात्र को देखने लगता है, वह हमारे भीतर घटने लगा है। ऐसे ही इस नाटक में घटोत्कच और हिडिम्बा के उनके रण प्रयोगो में लोक अनुष्ठान्न है। भवभूति रचित ‘उत्तर रामचरित्रम’ की उनकी नाटय प्रस्तुति भी विरल है। यह राम के राज्य या अभिषेक के बाद सीता निर्वसन और फिर से मिलन की कथा है। रामायण की मूल कथा दुखान्त है। परन्तु भवभूति  की सुखान्त। पणिक्करजी के रंग निर्देशन में नाटक और नाटक के भीतर एक और नाटक जीवंत हो जैसे देखने वालो से संवाद करता है। 
बहरहाल, पणिक्कर जी ने अपने तई देष में नवीन रंग संस्कृति का विकास किया। ऐसी नवीन संस्कृति का जिसमे रंग कर्म संस्कृति से जुडी हमारी एक अनिवार्यता लगता है। नाट्यकर्म पर उनसे दीर्घ संवाद में नाटय शास्त्र की प्रासंगिकता के साथ ही आधुनिक रंगकर्म पर ढेरो बाते हुई है। वह नहीं है पर नाट्य में लोकधर्मिता के प्रयोगो पर और भारतीय रंगकर्म की स्थापनाओं पर उनसे हुए संवाद मन को निरंतर मथता रहा है। अनुभव संचित रंगाकाश में कलाओं के अंतःसंबंधों का अदभूत उजास संवाद में उनसे मिला। भारतीय रंगकर्म की चर्चा जब भी की जाएगी, पणिक्करजी की रंगधर्मिता के समय को भी याद किया जाएगा।