Friday, April 29, 2011

अनुभूतियों की सघनता का उजब़क न्यास

अवधेष मिश्र के चित्र भीतर की हमारी संवेदना को जगाते हैं। उनके चित्र अंतर्मन अनुभवों और परिवेष की सच्चाई को जीते हैं और आत्म-अनात्म के साथ कला के तमाम आनुषांगिक तत्वों को बेहद खूबसूरती से हमारे समक्ष रखते हैं। समय की संवेदना गहरे से जीते इधर उन्होंने चित्रों की जो श्रृंखला तैयार की है, उसमें खेतों में खड़े रहने वाले बिजूके को माध्यम बनाया है।
अवधेष ने बिजूके के उजब़क न्यास में समय और समाज की तीव्रतम अनुभूतियों की सघनता को अनुभूत किया जा सकता है। वैसे भी बिजूका खेत-खलिहानों में खड़ा हमारी आंखों से ओझल हुआ भी कहां है! दिन में वह खेत की रक्षा करने वाले रक्षक के रूप में दिखाई देता है तो सुनसान जंगल में पेड़ों के बीच से झांकने पर वह जंगली जानवर सरीखा प्रतीत होता है। दोनों हाथ फैलाए कभी लगता है, वह हमें अपने पास बुला रहा है तो कभी अंधेरी रातों में उसकी आकृति भयावह, डरावनी लगती है। अजीबोगरीब शक्ल अख्तियार करता वह कभी विदूषक की भूमिका के रूप मंे हमारे सामने आता है। कभी सच तो कभी धोखा लगता है परन्तु खेत में उसका होना हमारी संतुष्टि है। भले वह कुछ कर नहीं सकता परन्तु कुछ कर सकने की साक्षी जरूर देता है और इस साक्षी से ही कईं बार पषु पक्षी भ्रम में पड़ खेत से दूर रूख कर लेते हैं।...बिजूका निरीह है परन्तु दीठ से भयावह भी, सभ्य भी और खेत की रक्षा कर सकने वाला संस्कारी भी। शायद इसीलिए अवधेष ने बिजूके को माध्यम बनाते हुए उसके जरिए जीवन की उथल-पुथल, विषमताओं, विद्रुपताओं, विडम्बनाओं और तिरोहित होते मूल्यों को रूपायित किया है। भले बिजूके के रूप में उन्होंने कैनवस पर यह सब जिया है परन्तु रंग और रेखाओं की लय में उनका बिजूका मनुष्य की सोच और बदलते समय की धारणाओं का प्रतिनिधित्व करता है। विद्रुपताओं और विडम्बनाओं का निरूपण करते हुए भी अवधेष ने बिजूका को कैनवस पर सर्वथा नया परिवेष दिया है। एक बार नहीं। बार-बार। उनके बिजूके को देखना नयेपन में जाना है।
अवधेष का बिजूका और साथ की आकृतियों, पार्ष्व के रंगों, रेखाओं के अर्थ और अभिप्राय धीरे-धीरे प्रकट होते है। भले अवधेष ने खेत में खड़े बिजूका के उजब़क आकार को अपने अवचेतन मन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है परन्तु इसमें रंगों की संपन्नता भी अलग से ध्यान खींचती है। उनके बरते रंग, रेखाओं की कोमलता, सहजता और यथार्थ ऐन्द्रियबोध की उनकी समग्र सृजनात्मकता को भी अलग से प्रतिबिम्बित करती है। किसी एक रंग की बजाय अवधेष का कैनवस बहुत से ऐसे चटख रंगों से भी सज्जित हैं, जिन्हें आम तौर पर बरता नहीं जाता है। गाढ़े चटख बैंगनी, गहरे हरे, नीले, लाल, पीले रंगों के जरिए विषम परिस्थितियों में भी रहने वाली ग्रामीण उत्सवधर्मिता को जैसे कैनवस पर जीते हैं। उनका बिजूका प्रतीक है उस सभ्यता का जिसमें हम जी रहे हैं और जो कईं स्तरों पर हमें जी रही है।
बिजूका चित्र श्रंखला में अवधेष का टेक्सचर बेहद समृद्ध है। बारीक रेखाएं टैक्सचर की पूरक है। शायद इसका कारण यह भी है कि वह रेखांकन और चित्रण दोनों ही एक साथ करते हैं। उनके बिजूका के साथ के दृष्यों की गतिमयता की सूक्ष्म से सूक्ष्म सचलता को भी पकड़ा जा सकता है। मसलन उजब़क आकार के बिजूका के पास मंडरा रही चिड़िया, साथ खड़ा कोई जानवर, दूर झांकता चांद या सूरज, लहलहाती फसलें, पास, बहती नदी, दूर तक जाती कच्ची सड़क और भी बहुत सारी चीजें। मुझे लगता है अंतरंग की अविच्छिन्नता के स्थायित्व के अंतर्गत अवधेष के बिजूका की उपस्थिति से बड़ा कला का और मानवीय प्रमाण भला और क्या होगा!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 29-4-2011

Monday, April 25, 2011

संस्कृति और इतिहास का दृष्य-श्रव्य आख्यान



इतिहास की अविरल धारा में संस्कृति और कलाएं हमें ज्ञानोन्मुख करती भविष्य की नवीन दीठ देती है। चिरंतन और लौकिक है हमारा इतिहास। मात्र तथ्यों का संकलन भर नहीं है इतिहास बल्कि साक्ष्य, दस्तावेज और अवषेषों की उपलब्धता में यह हमसे हर समय जैसे संवाद करता है। हमारी जो संस्कृति, परम्पराएं, और कलाएं हैं, उनके अतीत से ही तो सृजित हुआ है यह वर्तमान। माने वर्तमान की नींव हमारा अतीत है, बीता हुआ कल है।

बहरहाल, बात करें राजस्थान के इतिहास की। यह रंग-बिरंगी धोरां धरती की उत्सवधर्मी संस्कृति और गौरवमयी परम्पराओं का जैसे अनूठा गान है। पिछले दिनों दूरदर्षन, जयपुर द्वारा प्रसारित वृत्तचित्र ‘मैं राजस्थान हूं’ का आस्वाद करते लगा, इतिहास तथ्यों का संकलन भर नहीं है बल्कि गुजरे हुए कल का कला की दीठ से व्याख्यात्मक पुनर्निमाण है। शैलेन्द्र उपाध्याय ने अपनी कला संपन्न दृष्टि से राजस्थान के इतिहास को गहरे से संजोया है। शब्दों से उसे जीते दृष्य-श्रव्य में धोरां धरती की संस्कृति और समृद्ध कलाओं का रोचक आख्यान ही एक प्रकार से उन्होंने इस वृत्तचित्र में प्रस्तुत किया है। इतिहास के प्रसंगों, घटनाओं के ब्योरों मंे ले जाते वृत्तचित्र की खास बात यह है कि इसमें शब्दों की दृष्यचित्रात्मकता में अतीत से वर्तमान की कदमताल है। राणा प्रताप की आन-बान और शान के साथ ही ‘इला न देणी, आपणी हालरियो हुलराय’ का दृष्य-श्रव्य चितराम हो या फिर आजादी के लिए आऊवा के बलिदान के बहाने खुलते अतीत के वातायन में इतिहास के साथ संस्कृति के बहुतेरे अछूते प्रसंग। सब में हमारी संस्कृति की जीवंतता है। डाक्यूमंेट्री 1857 की क्रांति में राजस्थान की भूमिका का रोचक डॉक्यूड्रामा भी है तो इसमें मानगढ़ का सिंहनाद, ऊपरमाल की अनुगूंज, एकी का अनुष्ठान, नवयुग के नव अवतार, स्वाधीनता का सूर्योदय, पंचायतीराज की शुरूआत जैसे रोचक दृष्य खंड राजस्थान के अतीत की मनोरम झांकी है। शैलेन्द्र उपाध्याय स्वयं कवि, साहित्यकार हैं सो उन्होंने अपने तई वृत्तचित्र में रेत के धोरों के कहन को कलात्मक सौन्दर्य भी अनायास ही दिया है। इस सौन्दर्य में ऋग्वेद की ऋचाओं में आए मरूप्रदेष का जिक्र है तो यहां के लोगों की उत्सवधर्मी संस्कृति का अनूठा शब्द कैनवस भी है। वृत्तचित्र के जरिए ऐतिहासिक आख्यान को लोकनृत्य, लोक संगीत और चित्रकला से हर ओर, हर छोर से संवारा गया है। मसलन घटनाओं की राजस्थानी चित्रषैलियों की साक्षी और रेखाचित्रों, कविताओं से दृष्यों का पुनर्सजन। ऐसा करते वृत्तचित्र की पारम्परिक बुनावट की जड़ होती परम्परा को तोड़ा भी गया है। सम्पूर्ण डाक्यूमेंट्री गत्यात्मक प्रवाह की सृजनषीलता में इतिहास के ब्योरों, सूचनाओं, घटनाओं और प्रसंगों का रोचक आस्वाद कराती है। खंडहर महलों से झांकते इतिहास के गलियारों से वर्तमान में हुए राजस्थान के विकास वातायन में राजस्थान के कलामय जीवन की सांगीतिक अनुगूंज भी इस वृत्तचित्र की वह बड़ी विषेषता है जो हमें बांधे रखती है।

रेतघड़ी में इतिहास की करवटों को इसमंे बखूबी संजोया गया है। इसीलिए वृत्तचित्र दरअसल चलचित्र दृष्य कोलाज के अनूठे बिम्ब और प्रतीक लिए देखने वाले से बतियाता है। अर्सा पहले राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी हुसैन की फिल्म ‘थ्रू द आईज ऑफ एक पंेटर’ देखी थी। इसमें कोई कहानी नहीं थी बस इम्प्रेषंस हैं। कुछ शक्लें, सूरतें, छतरी, लालटेन, महलों के साथ कला के सुर और लय। ‘मैं राजस्थान हूं’ देखते न जाने क्यों वह फिल्म याद आ गयी! शायद इसलिए कि इसमें दृष्य-श्रव्य कोलाज के अंतर्गत इतिहास के कला-संस्कृति प्रभावों की अनूठी कला दीठ जो है। प्रसारण में व्यावसायिकता के इस चरम दौर में दूरदर्षन जैसे सार्वजनिक प्रसारण माध्यम से ही अब इस प्रकार के सृजनात्मक वृत्तचित्रों के प्रसारण की उम्मीद की जा सकती है वरना इतिहास और संस्कृति की सूझ की ऐसी बूझ ओर कहां!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास
 का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 22-4-2011


Friday, April 15, 2011

अनुभव और विचार का छायाकला रूपान्तरण

हिगेल के सौन्दर्यानुभूति आकाश में चीजों को, देखे हुए दृश्यों को फिर से देखने की चाह जगती है। शायद इसलिए कि वह भीतर के हमारे चिंतन को झकझोरते हैं। जो कुछ हमारे समक्ष है, उसके बारे में पूरी की पूरी हमारी धारणा को बदलते हुए। कल हिगेल को पढ़ते इन पंक्तियों पर ठीठक गया, ‘व्यक्ति की संपूर्ण चेतना विचार में ही है। कलाकार की जिन मानसिक क्रियाओं में विचार की प्रक्रिया निहित होती है, वे ही कलात्मक संवेदन क्रियाएं अस्पष्ट रूप से उसकी चेतना में कार्यशील होती है। विचार प्रक्रिया के बगैर कलाकार किसी भी कला सर्जना को जन्म नहीं दे सकता।’

सच ही तो है। यह विचार प्रक्रिया ही है जिसमें कलाकार देखी हुई वास्तविक वस्तुओं की अपने तई नई सौन्दर्यसृष्टि करता है। छायाकारी में इसे गहरे से समझा जा सकता है। कैमरा जो दिखाई देता है, उसे ही तो पकड़ता है परन्तु बहुतेरी बार उसे परोटने वाला कलाकार भीतर की अपनी विचार प्रक्रिया से यथार्थ का जो कला रूपान्तरण करता है, उसमें देखे हुए के मायने बदल जाते हैं। यह जब लिख रहा हूं, छायाकार के.के अग्रवाल की छायाकृतियां जेहन में हलचल मचा रही है। अग्रवाल ने अपने होम गार्डन में अफ्रिकी पौधों, फूलों की बहुत सी प्रजातियों का संग्रह किया है। पौधों का उनका संग्रह तो खूबसूरत है ही परन्तु इनका जो उन्होंने छायांकन किया है, उसका लोक सर्वथा अनूठा है। छाया रूपान्तरण की उनकी सौन्दर्यदीठ में आकृतियों पर पड़ती रोशनाई में लहराती पत्तियों, फूलों की पंखुरियों, टहनियों, तने की वह तमाम बारीक संरचनाएं हैं, जिनमें पौधों की जीवंतता को अनुभूत किया जा सकता है। अफ्रिकी पौधों के उनके संसार के यथार्थ को भी बहुतेरी बार निहारा है परन्तु वास्तविकता से उनका छाया रूपान्तरण हर स्तर पर कहीं अधिक मोहक है। इस मायने में कि इसमें फूल, पत्तियों, टहनियों को देखने की अनंत संभावनाओं में उनके छायाकार मन ने जिया है। पौधों के यथार्थ के साथ सूरज की रोशनी है, शाम की लालिमा है और सोच की गत्यात्मकता का प्रवाह भी। मसलन एक पौधे की एक दूसरे से लिपटी टहनियां और धुंआ-धुंआ होती बारीक पत्तियों के गुुंफन के बाद ऊपर खिले फूल का रूपाकार। एक कंटिले पौधे से निकल रहे फूलों की लड़ियां और बहुत से पौधों के खिले फूलों की लय। पौधों के छाया रूपों में निहित अग्रवाल के अनुभव संवेदन में यंत्र रूपी कैमरा कला का माध्यम भर है, मूल बात उनके वह विचार हैं जिनके अंतर्गत यथार्थ का एक प्रकार से पुनराविष्कार किया गया है।

मुझे लगता है, अनुभव तो घटित का होता है परन्तु अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात करती है जो वास्तविकता में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। बहुतेरी बार वही आत्मा के समक्ष ज्वलंत प्रकाश में आ जाता है और तब वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है। अग्रवाल के छायांकन में यही हुआ है। उन्होंने पौधों को सहेजते लगोलग उनके सौन्दर्य का पान करते उनमें देखने की अनंत संभावनाओं को एक प्रकार से पकड़ा और कैमरे से उसका कला रूपान्तरण किया है। अनुभव से गहरी उनकी यह अनुभूति है। एक खास तरह की विजुअल सेंसेबिलिटी उनमें है। इसी से वह जो कुछ दिखाई देता है, उससे परे भी बहुत कुछ नया निकाल लेते हैं। पेड़, पौधों, उनकी टहनियां, लहराती पत्तियों को खास अंदाज में फोकस करते वह उनके कला रूपों पर गए हैं। उनमंे निहित अनंत संभावनाआंे को उभारा है और ऐसा करते छाया-प्रकाश के अंतर्गत समय संरचना को कैमरे की भाषा देते वह काल बोध भी कराते हैं। छायांकन में अनुभव और विचार प्रक्रिया का यही क्या कला रूपान्तरण नहीं है! आप ही बताईए।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 15-4-2011



Friday, April 8, 2011

लोक संस्कृति का सांगीतिक चितराम


 पारम्परिक लोक वाद्यों के साथ लोक कलाकारों के हर्षित चेहरे। हरितिमा से आच्छादित वातावरण और प्रेक्षागृह की मानिंद खुले आसमान के नीचे बना मंच। ऐसा जिसमें सैंकड़ों कलाकार सहज नृत्य, गायन और वादन कर सके।...अभी कार्यक्रम आगाज में पौन घंटे का समय था, मुझे लगा क्यों नहीं इस समय का उपयोग लोक मन को टटोलने में ही किया जाए सो कुछेक लोक कलाकारों से बतिया भी लिया। लोक कलाकारों के कहन में गजब का उत्साह, उमंग।...अंतराल बाद ही नगाड़े बजने के साथ ही कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियों के लिए तैयार हो मंच के पार्ष्व में एकत्र होने लगे थे। आंखों के सामने मंच पर वह माहौल जैसे जीवंत होने लगा जिसमें हिल-मिल रहते हैं हम सब। अजान होने के साथ ही बज उठे ढोल और नगाड़े। संस्कृति की सौरम चहुं ओर फेलने लगी। यह हमारी समृद्ध लोक संस्कृति ही है जिसकी लय में सहज हम सब बंध जाते हैं...कभी मुक्त न होने की चाह रखते।

बहरहाल, यह राजस्थान दिवस का आयोजन था। उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का सांगीतिक चितराम। ढलती सांझ में अजान से जैसे सुबह हुई। खड़ताल के साथ समवेत गायन, वादन और नृत्य। जातीय संस्कारों, परम्पराओं का अनुठा भव। सच! लोक संस्कृति की सुबह...एक-एक कर घुमर, गैर, तेरहताली, चरी, कालबेलिया, कछी घोड़ी, मांगणियार लोक गीतों, मयुर नृत्य, गींदड़, चकरी...आदिवासी कलाओं के उजास से नहा उठे तमाम उपस्थित लोग। दृष्य-श्रव्य में राजस्थान का अतीत, परम्पराएं जीवंत हो उठी। खालिस लोक ही नहीं था वहां बल्कि बहुत से स्तरों पर शास्त्रीयता का मेल भी था। मसलन कथक में निबंध लोक राग, लोक नृत्य। लंगा, मांगणियार कलाओं में निहित सूफी कलाम। लोक कलाकार नाच रहे थे, गा रहे थे परन्तु उनमें ठेठ शास्त्रीय संगीत, सिनेमाई गीतों की इधर प्रचलित धुनों का भी समावेष था।

मुझे लगता है, लोक कलाकार इधर अपनी पारम्परिक कलाओं के साथ आम जन की रूचियों पर भी जाने लगे हैं। शायद इसका बड़ा कारण उनके समक्ष मौजुदा रोजी-रोटी संकट भी है। परम्परा से उनका मोह तो है परन्तु आधुनिकता और जन रूचियों में हो रहे परिवर्तनों को स्वीकार करने की मजबूरी भी। फिर लंगा, मांगणियार तो देष की सरहद लांघते विदेषों में भी अपनी कला ले जा चुके हैं, स्वाभाविक ही है व्यावसायिक सफलता की समझ का उनका आकाष बड़ा हो गया है। यही कारण है, यह लोक गायक अपनी पारम्परिक धुनो में शास्त्रीय और लोकप्रिय सिनेमाई धुनों का तड़का लगाने लगे हैं। हालांकि कालबेलिया जैसी नृत्य विधाएं अभी भी इससे अछूती अपने मूल को बचाए हुए भी है परन्तु बहुत से दूसरे लोकगीतों, लोकनृत्यों में सूफी कलामों में पारम्परिक लोकगींतो का राग निबंधन और वह आलाप, आरोह-अवरोह है जिसमें ध्वनियों का तीव्रतम उतार-चढाव उत्तेजकता के माहौल की निर्मिति करता है। कहीं सिनेमाई धुनों को उधार लेते भी परम्परा के मूल में रूप परिवर्तन किया गया है। उनका आस्वाद करते मन में कहीं यह खटका भी हुआ कि भविष्य में उन असल लोक धुनों का क्या होगा, जिसमें रचा-बसा रहा है हमारा तन और यह मन।

जैसे-जैसे लोक व्यवहार में परिवर्तन हुआ है, वैसे-वैसे ही हमारे यहां संगीत में भी निरंतर परिवर्तन हुआ ही है। जीवन की एकांगिता को तोड़ते लोक संगीत में निहित शास्त्रीयता का लोकोन्मुखीकरण उचित ही है परन्तु सोचने की बात क्या यह नहीं है कि संगीत का यह नया रूपान्तरण लोक लय को रौंदने वाला है। भविष्य में खतरे की घंटी क्या यह नहीं है कि इससे असल लोक धुनें फिर हम चाहकर भी नहीं पा सकेंगें। आखिर गांवों में बसे हमारे यह पारम्परिक लोक कलाकार ही तो हैं, जिन्होंने अब तक लोक के हमारे उजास को हमारे लिए बचा कर रखा हुआ है!

राजस्थान पत्रिका  समूह के "डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 8-4-2011

Saturday, April 2, 2011

उत्सवधर्मी संस्कृति का चाक्षुष लोक


हमारे यहां कहा गया है, ‘कलयति स्वरूपं आवेषयति वस्तुनि वा’ माने जो वस्तु के रूप को संवारे वह कला है। चित्रकला की बात करें तो वहां मनोरम दृष्य, उल्लास और उमंग के भावों का सृजन ही बहुतेरी बार चाक्षुष सौन्दर्य की परिणति होता है। कला का यही तो वह लालित्य है जो हमें रस देता है।

बहरहाल, राजस्थान दिवस पर इस बार कला के इस लालित्य को गहरे से अनुभूत करते लगा, बच्चों में अपने परिवेष और दृष्य को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता है। यथार्थ को हुबहु की बजाय अपने तई नई सौन्दर्य सृष्टि देते उनका संवेदनषील मस्तिष्क एन्द्रिकता को रूपायित करते सोच में सर्वथा स्पष्ट है। जवाहर कला केन्द्र में बच्चों की तत्स्थलीय चित्र प्रतियोगिता में राजस्थान की उत्सवधर्मी संस्कृति, चित्ताकर्षक पर्यटन स्थल, विरासत के साथ ही यहां के सुरम्य परिवेष के उकेरे चित्रों में निहित उस दीठ पर औचक अनायास ध्यान जा रहा था जिसमें मरूभूमि की भूली बिसरी परम्पराओं की एक प्रकार से पुर्नसंरचना थी। पहले दिन सामान्य बच्चों की प्रतियोगिता में एक बच्चे ने केवल धोरे पर ऊंट सवार को दिखाते आगे का स्थान पूरी तरह से खाली छोड़ स्पेस की अद्भुत सर्जना की तो एक ने मेले के उल्लास में आकृतियों के अद्भुत कोलाज रचे थे। कुछ चित्र ऐसे थे जिनमें राजस्थान के ऐतिहासिक स्थलों के साथ संस्कृति के भिन्न सरोकारों के पार्ष्व में राजस्थानी वाद्य यंत्र बजाते कलाकार थे। लगभग सभी चित्रों में किसी एक विषय की बजाय राजस्थान को समग्रता से जैसे अभिव्यक्ति दी गयी थी। दृष्य चलचित्र की मानिंद नजरों के सामने आ रहे थे। रंग, रेखाएं, आकृतियां और संवेदनषील भावों का बहुत सारा अमूर्तन भी। माध्यम से अधिक आषय की अर्थवत्ता। सृजन का अद्भुत लोक।

दूसरा दिन विषेष बच्चों के चित्रों से रू-ब-रू होने का था। हमसे अलग दुनिया के यह वह बच्चें हैं जो न सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं परन्तु कला अभिव्यक्ति के उनके उजास में ध्वनि का अद्भुत लोक है। मुझे लगता है, भीतर का उनका भव बोलता, गाता, झुमता और उत्सव मनाता हम सबसे कहीं अधिक मुखर है। मसलन एक चित्र में छोटी सी एक बच्ची ने रंगों को उड़ेलते अपने सपनों के आकाष के अद्भुत रूपाकार बनाए थे तो एक ने गहरा नीला रंग और उसमें उभरती सोन मछली, तैरते दूसरे जीवों का जो स्वप्न लोक गढ़ा, उसे छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। एक बच्चे ने रंगों के पार्ष्व में दो हाथी निकाले। ऐसे, जैसे बाहर निकलकर हमसे अभी बतियायेंगे। फूल, पत्तियां, कठपुतलियां, मेले-उत्सव और झुमता-गाता मन वहां था। कहीं कोई उदासी, नीरवता नहीं। हर ओर अंतर की उत्सवधर्मिता। अपने को व्यक्त करने की अद्भुत सामर्थ्य वहां है। अपने परिवेष से विमुख नहीं बल्कि हमसे कहीं अधिक मुखर हैं यह विषेष बच्चे। शायद इसीलिए उनके बनाए चित्रों को देखकर पर्यटन, कला एवं सस्कृति विभाग की प्रमुख शासन सचिव उषा शर्मा के मुंह से औचक निकल ही पड़ा, ‘राजस्थान दिवस आयोजनों में भाग लेने का यह अनूठा अनुभव है। हम इन चित्रों को प्रिंट करा सार्वजनिक करेंगे। लोग देखे तो सही अद्भुत यह कला।’

बहरहाल, पर्यटन विभाग के सहयोग से ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिता में निर्णायक मंडल सदस्यों डॉ. नाथुलाल वर्मा, डॉ. अर्चना जोषी के साथ यह खाकसार दो दिन बेहद मुस्किल में भी रहा। यह तय कर पाना बेहद कठिन था कि पुरस्कार के लिए कौनसे चित्र चुने जाए परन्तु धर्म का निर्वहन तो करना ही था सो किया ही। हां, बच्चों के मनोलोक के अंतर्गत सृजन के स्वाभाविक रचनात्मक प्रवाह से साक्षात् का यह ऐसा अनुभव रहा है, जिसे कभी बिसरा नहीं पाऊंगा। चाक्षुष सौन्दर्य देखते शब्द गूंगे जो हो गए थे वहां!

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 1-4-2011