Monday, June 3, 2019

जीवनानुभूतियों का अर्थगर्भित छन्द

ऋतुराज जीवनानुभूतियों की दृष्य लय के इस दौर के अनूठे कवि हैं। उनकी कविताएं दैनिन्दिनी जीवन से जुड़ी घटनाओं का एक तरह से अर्थ कोलाज है। ऐसे समय में जब कविता निरंतर वक्तव्य बनती जा रही है, जब बहुत सारी मात्रा में लिखे जाने के बावजूद उसकी लय कहीं दूर जाती दिखाई दे रही है और जब वह समाज के केन्द्र से लगभग गायब सी हो रही है-ऋतुराज की कविताएं अपनी विरलता में उम्मीद की किरण है। ऊपर से सहज, सादगीपूर्ण उनका कविता का षिल्प अर्थगर्भित छन्द में इस कदर लुभाता है कि मन करता हैं, उन्हें पढ़ें और गुनें। गुनते ही रहें। इसलिए कि वहां बड़ी घटनाओ, प्रसंगों और दिखावे की कोई गंभीर मुद्राएं नहीं है पर पंक्ति दर पंक्ति जीवनानुभूतियों का राग-अनुराग हैं। भाषिक सरंचना और सवेदना के बृहत्तर फलक में उनकी कविताएं पाठक मन को पढ़ने वाली कविताएं है। मुझे लगता है, हिन्दी कविता में छन्द, लय और तान को अनुभूत करना हो तो ऋतुराज को पढ़ संपन्न हो सकते हैं। इसलिए कि सृजनात्मक अभिव्यंजना की गहराई और विस्तृतता में उनकी कविताएं हमारे युग की मुखर व्यंजना हैं। यह महत्वपूर्ण है कि सादाबयानी में वह सीधे-सीधे संवेदनाओ ंकी गहराई में ले जाते अपूर्व की व्यंजना करते हैं। ‘कोड’ कविता को ही लें। यह ऐसी ही है जिसमे देखी-सुनी को सर्वथा नए ढंग से पहचानवाने का कविकर्म है। कविता का उनका वितान देखें-
‘भाषा को उलट कर बरतना चाहिए
मैं उन्हें नही जानता
यानी मैं उन्हें बखूबी जानता हूं
...अगर अर्थ मंषा में छिपे होते
तो उल्टा बोलने का अभ्यास
खुद ब खुद अर्थ व्यक्त कर देगा
मुस्कराने मे घृणा प्रकट होगी
स्वागत में तिरस्कार’
कविता का यह वह वृहतर स्पेस है जिसमें देष-काल को देखने, परखने के नए ढंग में ऋतुराज चुपके से कविता के उस चर्म पर ले जाते है जहां कहन का उनका अर्थ हममें पूरी तरह से रूपान्तरित हो जाता हैं। यहां आनंद कुमार स्वामी का कहा औचक याद आता है, कलाएं रूपान्तरण हैं। मुझे लगता है, ऋतुराज की कविताएं भी पाठक को रूपान्तरित कर देती है। उन्हें पढ़ने के बाद पाठक वह नहीं रहता जो पहले था। माने वह पूरी तरह से कविता के रस में रूपान्तरित होता समय संवेदना के मर्म का साक्षी हो जाता है। शायद इसलिए कि उनकी कविता का षिल्प व्यक्त में निहित अर्थ संकेतों का विरल भव है। 
‘नागार्जुन सराय’ कविता पढेंगे तो लगेगा वह कविता में जीवन रचते हैं। नागार्जुन के कवित्व पर, उनके व्यक्तित्व पर वृहद उपन्यास, संस्मरणनुमा भी कोई लिखे तो कम पड़े परन्तु ऋतुराज की उन पर लिखी यह कविता गद्य की तमाम विधाओं के रसों को अपने में समाए कविता की आधुनिकी में काव्य परम्परा का अनूठा छन्द है। ‘पूंछ-उठौनी नन्हीं चिड़िया’ के बहाने नागार्जुन का यह विरल शब्द चितराम है जिसमें ‘अरी, तू जानती है इन्हें?’ जैसी मधुर व्यंजना में भावनाओं का अनूठा भव रचा गया है। ऋतुराज की कविताओं की यही विषेषता है-वे शब्द-षब्द ओज में कहन के अपने माधुर्य में भावों का विरल पाठ बंचाते हैं। 
अपनी चुनी हुई कविताओं के संग्रह में ‘कवि ने कहा’ में ऋतुराज ने अपना आलोचक स्वयं बनते अरसा पहले भले यह लिखा है कि उनकी कविताएं क्रियात्मक कम प्रतिक्रियात्मक ज्यादा है। यह भी कि यथार्थ का बेहद सरलीकरण वहां है और यह भी कि समय का प्रत्युतर होने की बजाय फेटेंसी, रूपक, प्रतीक, बिम्ब आदि इतर साधनों का इस्तेमाल उन्होंने कविताओं में किया है परन्तु उनकी कविताओ का सच यही नहीं है। मुझे लगता है, उनकी कविताएं चीजों, व्यक्तियों और जीवन को सर्वथा नए ढंग से देखने को संस्कारित करने का एक तरह से पाठ है। नरेष सक्सेना के शब्द उधार लेकर कहूूं तो उनकी कविताएं लोकगीतों की तरह सरल और संगीत की तरह सहज ऐसी हैं जो पाठक के भावबोध का एक तरह से परिष्कार करती है। याद है, अरसा पहले उनके निवास पर ही उनसे कविता और इतर विषयांे पर लंबा सवाद हुआ था। तभी सद्य प्रकाषित सप्तक के बाद के प्रतिनिधि कवियों के संकलन ‘कवि एकादष’ की प्रति उन्होंने भेंट की थी। इसमें कविताओं के साथ दिए वक्तव्य में अपनी सृजन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘...मैंने अपनी सभी कविताएं घर के बाहर लिखी है, खुले में, किसी ऊंची चट्टान पर बैठे या किसी झील के किनारे, घने जंगल की निस्तब्धता में, पषु पक्षियों आदिवासियों की अपरिहार्य उपस्थिति में...इससे बड़ा अंतर्विरोध शायद दूसरा न हो कि कविता सबकुछ समेटना चाहती है, मुझे छोड़कर।’ 
यह सच है, उनकी कविताए दौर और दायरों का समग्र है। इसीलिए कविता के होने में पाठक वहां अपने होने की तलाष कर सकता है। ...और हां उनकी कविताएं सहज उपजी हैं इसलिए उनमें कृत्रिमता और ओढ़ी हुई बौद्धिकता नहीं है-इसीलिए वह पाठकों में सहज संप्रेषित होती भावों के अनूठे भव में अपनी प्रासंगिकता कभी समाप्त नही होने देती है।
बहरहाल, ‘मैं आंगरिस‘, ‘एक मरणधर्मा और अन्य’, ‘कितना थोड़ा वक्त’, ‘पुल पर पानी, ‘अबेकस’, ‘नही प्रबोधचन्द्रोदय’, ‘सुरत-निरत’, ‘लीला मुखारविन्द’, ‘आषा नाम नदी’ आदि उनके कविता संग्रहों की कविताओं में सहज पर कहन के विरल अंदाज में संवेदनाओं को संस्कारित करते वह शब्द-षब्द नाद ऐसे भावलोक की निर्मिती करते है, जहां अर्थ के मर्म उद्घाटित होते हैं। उनकी कविता देखे-सुने और अनुभूत किए की शब्द व्यंजना या समय की साक्षी भर ही नहीं है बल्कि ठहरे पानी में हलचल मचाते उस कंकड की भांति है जो अपने होने में जल को पूरी तरह से हिलाकर रख देता है। कविताओं में गूंथी उनकी दृष्य गाथाओं में देखे, अनुभूत किए के चिंतन में घूली कवि मन की आत्मीयता का अपनापा है। मनुष्य जीवन और प्रकृति के विविध रूपों, छवियों और कथन के नए ढंग मे हम उन्हें शब्दों के सहारे सुन सकते है, सदा के लिए गुन सकते हैं। मुझे यह भी लगता है, सभ्यता के बदले रूपों मे वह मानव मन की थाह के कवि हैं। और हां, कविताओ की उनकी खास रंगत में परिवेष के आर-पार देखने की अद्भुत क्षमता से भी पाठक अनायास साक्षात् होते हैं। 
‘कन्यादान’ कविता को ही लें। भारतीय स्त्री जीवन का जैसे मर्म इसमे उद्घाटित हुआ  है। पूरी कविता जितनी व्यक्त है उतना ही उसमें निहित वह अव्यक्त भी है जिसमें अर्थ के बहुत सारे आयाम खुलते पाठक को अंदर तक झकझोर देते हैं। कविता में माता के ‘प्रामाणिक दुख’, ‘अंतिम पूंजी’ के बहाने कन्यादान की भारतीय परम्परा का विरल आख्यान यहां हैं तो भावों के उनके अनूठे भव में स्त्री के संघर्ष और बंधनो में जकड़े जीवन की मार्मिक व्यंजना है। भाषा की उनकी शक्ति और अभिव्यक्ति की यह क्षमता अद्भुत है,
 ‘लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास होता था
लेकिन दुख बांचना नहीं आता था।’
कविता की इन पंक्तियां में कवि ही नहीं पाठक मन भी संस्कारित होता जीवन और उससे जुड़े सरोकारों से साझा होने, अनुभव करने के सर्वथा नवीन ढग से साक्षात् होता है। ....यही नहीं अपनी दूसरी कविताओं की ही तरह वह कविता के अंतिम पाठ में अर्थ के चरमोत्कर्ष पर ले जाते कहन का जैसे मर्म छूआते है,
‘...मां ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी मत दिखाई देना।’
मुझे लगता है, ऋतुराज की कविताएं संगीत में किसी राग की मानिंद बढ़त करती है। बहुतेरी बार पाठक को पढ़ने के आनंद के चरमोत्कर्ष पर ले जाती अपनी पूर्णता को प्राप्त करती वह अपूर्व की अनुभूति कराती है। यह महज संयोग नहीं है कि उनकी कविताओं में संगीत की भांति धीमे आलाप में स्वरों के नये नये बनाव, नई उपज, नये विस्तार के अनूठे चित्रों से हम साक्षात् होते हैं।
किषोरी अमोनकर पर लिखी उनकी एक कविता संगीत के उनके सरोकारों मे जीवन के मूलभूत प्रष्नों पर ऐसी टिप्पणी है जिसमें भाषा के अभिव्यंजनात्मक प्रयोग में समय की वेदना को जैसे गहरे से जिया गया है। कविता में ‘प्रेक्षागृह खचाखच भरा था/जनसंख्या बहुल देष मे/यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी।’ जैसी पंक्तियां में निहित व्यंग्य और फिर ‘लो वे आ ही गई/हल्की सी खांसी और/तुनकमिजाजी जुकाम है/डांट कर बोली/यह क्या हंसने का समय है?’ पर गौर करेंगे तो पाएंगे सहज बयानी का यह ऐसा मुहावरा है जिसमें कहन की अनेक तहें खुलती नजर आती है। इस कविता में संगीत की उनकी सूक्ष्म सूझ से तो पाठक साक्षात् होते ही हैं इसके बहाने विसंगतियों भरे जीवन की जैसे थाह भी उन्होंनंे सहज ली है। वह षिल्प और रचना-प्रक्रिया की मौलिकता में कविता को इसी तरह पठनीय बनाते उसमें संवेदना के अनगिनत अर्थ पिरोते हैं। 
ऋतुराज लोक संवेदना के कवि हैं। आदिवासी और जनजाजीय जीव से उनका गहरा लगाव रहा है। उन्हांेने निरंतर यात्राएं की है। गांव, खेत-खलिहान और सुदूर आदिवासी जीवन को नजदीक से उन्होंने देखा है। यह है तभी तो उनका संवेदन मन जंगल में बसे आदिवासी जीवन और वहां रहने वाले लोगो के मन की बारीक पड़ताल करता है-
‘उन्हें घर नहीं चाहिए
घर मंे अंधेरा होता है
अकेले व्यक्तियों का
वे घर की बजाय पेड़ चाहते हैं
जिस पर तरह-तरह की चिड़ियाएं बैठेगी
और उड़ जाएगी।’
उनके इस कविता कैनवस में शब्द भीतर बसे शब्द के स्वरों का नाद है। उन्हें पढ़ते हुए शब्द दृष्य में जैसे रूपान्तरित हो जाते हैं। मुझे लगता है, उनकी कविताएं एक तरह से चीजों, व्यक्तियों और जीवन को नई तरह से देखने का संस्कार प्रदान करती है। 
अरसा पहले उनकी एक कविता पढ़ी थी, ‘हसरूद्दीन’ं। जहन मे अभी भी वह जस की तस बसी है। कविता नहीं रूपक। जीवन में जो कुछ है, उसे अंवेरते तमाम अभावों को भुला देते रहने की ‘समझ’ का जैसे अनूठा आलोक इस कविता में है। आम आदमी को केन्द्र मे रखते उसके दर्द-अभावों पर बहुतेरी कविताएं लिखी जा रही है परन्तु ऋतुराज का कविता मुहावरा जुदा है। कविता के अपने पात्रों के संबोधन की लय और शब्द-गुम्फन में निहित विचार इस कदर अर्थगर्भित है कि कविता पढ़ने के बाद भी जहन में निरतर ध्वनित होती हममें सदा के लिए बस जाती है। सीधे-सरल वह शब्दों की अनूठी लय से साक्षात् कराते कविता के अपने विषिष्ट मुहावरे में ’ पाठक को बांध लेते है। ‘हसरूद्दीन’ कविता का वह विन्यास है जिसमें रोजमर्रा के जीवन का का मार्मिक वर्णन है। व्यक्तियों, चीजों और जीवन का सच वही नहीं है जो दिखता या कहने से बंया किया जाता है बल्कि वह है जो दिखने के बाद मन में घटता है...और ऋतुराज संवेदनषील और ऐसे सषक्त कवि हैं इसलिए परतों के पार भी झांकते कविता को जीवन का नाद बना देते हैं। कविता की उनकी पंक्तियां देखें, 
‘...वह अपने दर्द में भी
एक कहकहा पिरोता है
उसकी भी एक ‘समझ’ है
और उस समझ से उसका ‘समझौता’ है
...हसरूद्दीन!! तुम्हारे लिए 
घर एक झूठा रिष्ता है...’
ऋतुराज ंकविता मेें शब्दों का इसी तरह से नवोन्मेष करते अर्थ की भांत-भांत की भंंिगमाओं से साक्षात् कराते हैं। ‘हसरूद्दीन’ शीर्षक ही नहीं पूरी कविता में सवाक् चलचित्र की मानिंद ध्वनियों और शब्दों का अर्थान्वेषण है। दैनिन्दिनी जीवन के घटना प्रसंगों का यह विरल कविता छन्द है। यहां उनके बरते ‘समझ’ और ‘समझौता’ शब्दो में ही इतनी गहराई है कि पढ़ने वाला अंदर तक कविता के पूरे पाठ को आत्मसात कर लेता है। अर्थ मीमांसा में कथाओं के कविता घेरे मेें आधुनिक जीवन की विद्रुपताओं और विसंगतियों के वह उद्घाटक हैं। ऐसे जिनके कहन में जीवन की बहुत सी तहें झिलमिलाती है। ‘हसरूद्दीन’ हर उस पात्र की आम कथा है जो स्थितियों-परिस्थितियों को अपनी नियति मान बैठा है। यहां पात्र कोरी कल्पना नहीं होकर उसके खोल में समय का सामाजिक यथार्थ है। मुझे लगता है, ऋतुराज सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के इस दौर के ऐसे कवि हैं जो परोक्ष कथा रूपों में युगीन जीवन की अदृष्य-अव्यक्त की सूक्ष्म संवेदनात्मक काव्य व्यंजनां करते हैं। उनकी कविताओं मे साहित्य और संस्कृति की दार्षनिक अनुगूंजे सुनी जा सकती है।
 अनावष्यक शब्दाडम्बरों की उनकी कविताओं में दर्षन की गहराईया हैं। जीवन से जुड़े द्वन्द हैं तो रूपकों में रचित वह आत्मस्वीकृतियां भी है जो लगभग हम सभी का सच भी है। ‘लौटना’ कविता को ही लें। ंयहां जीवन दर्षन के साथ अनुभवगत सौंदर्य के अनूठे आख्यान कवि ने जैसे रचे हैं। शीर्षक शब्द ‘लौटना’ के बहाने वह कविता का विरल  भव रचते हैं। ऐसी जिसकी अनुगूंजे अर्थ की अलग-अलग छटाओं में हममें सदा के लिए बस जाती है। जरा कविता के उनके बिम्ब देखें-
‘...मनुष्य कोई परिन्दे नहीं है
न है समुद्र का ज्वार
न सूर्य न चन्द्रमा है
बुढ़ापे में बसंत तो बिल्कुल नहीं है
भले ही सुन्दर पतझर लौटता हो
पर है तो पतझर ही’
यहा पतझर के सुन्दरपन का जो आख्यान है, वह भूलाए नहीं भुलता। इसके बहाने जैसे नष्वर जीवन में भी निहित सौंदर्य की लय को गहरे से अंवेरा गया है।...और फिर यहां आगे कविता में ऋतुराज पाठक को सदा की तरह अपने विषिष्ट कविता मुहावरे में चरमोत्कर्ष पर ले जाते हैं। प्रष्नों में निहित प्रष्नों में विचार का आलोक देते वह कविता के अद्भुत वितान से रू-ब-रू कराते हैं,
‘क्या कहीं गया हुआ मनुष्य
लौटने पर वही होता है?
क्या जाने और लौटने का समय
एक जैसा होता है?
फिर भी कसी हुई बैल्ट
और जूते और पसीने से तरबतर
बनियान उतारते समय
कहता हूं-
आखिर लौट ही आया।’
मुझे लगता है, यह ऋतुराज ही हैं जिनका कविता घर अनुभूतियों के रचाव के बने-बनाए ढर्रे को तोड़ता हुआ भाव और अनुभाव की अपूर्व सुन्दरता लिए है। चाक्षुस और अर्थगर्भित बिम्बों के साथ औचक सीधे-सपाट सब कुछ कहने की उनकी कविता अदा इसीलिए मन को मथती है कि वहां कौतुक नहीं रचा जाता। इसलिए कि वहां भावनाओं और जीवन से जुड़े द्वन्दों का सम्यक और वस्तुपरक आकलन है।ं इसलिए भी कि उनकी कविताएं विविध अनुभवों और संवेगो के रंगो से हमें दीप्त करती है। 
यह ऋतुराज ही हैं जो कविताओं में आख्यानों की आधुनिकता रचते हैं। ‘राजधानी’ कविता में ‘अष्वमेध’ और ‘रसोई में महायुद्धों की चटपट’ जैसी व्यंजना में वह कुछ नहीं कहते हुए भी जैसे समय संवदना में शहराते जीवन के निर्मम सच को उघाड़कर रख देते हैं। उनकी बहुतेरी कविताओं में मिथकों के विरल षिल्प हैं। आख्यानों के संदर्भ में वह यथार्थ और वर्तमान जीवन का मार्मिक शब्द चित्र उकेरते हैं। ‘दर्षन’ कविता अपनी व्यंजकता में आधुनिकता से उपजी स्थितियों की चिंताओं का अद्भुत पाठ है तो ‘सामान’ जैसी उनकी कविताएं‘ परिवेष की व्यंजना में स्थितियों-परिस्थितियों का तटस्थ मूल्यांकन है। रोजमर्रा की जिन्दगी के अछूते बिम्बों में वह ‘फूटने दो फलियाॅं फैलने दो बीज’, ‘जो इंजीनियर है/इस विराट वास्तुषिल्प का/दलित की दृष्टि में वह कौतुक है’, ‘अदृष्य मनुष्यों के पांव छपे हैं/कंक्रिट की सड़क पर’ जैसी पंक्तियों के अर्थ संकेतोें में भाषा का वह अनूठा पाठ बंचाते हैं।

‘लहर’, ‘षरीर’, ‘कोड’, ‘दर्षन’, ‘जब हम नहीं रहेंगे, ‘रास्ता’, ‘पावों के निषान’ आदि बहुतेरी उनकी कविताएं पढ़ने के बाद भी निरंतर जहन में कौंधती रहती है। इसलिए कि इनके रूप-विन्यास में जितना शब्द का बाह्य है उतना ही आंतरिक भी उद्घाटित हुआ है। कहें, उनकी कविताओं में बरते शब्द, रंग-रेखाए और कहन का सहज पर शब्द लय रचते स्वर अतीत, परम्परा और वर्तमान को जीवंत बनाते पाठक को नए अर्थ देते हैं। शब्द वही, जो सभी बरतते हैं परन्तु उनकी संवेदनाएं और परिकल्पनाए इतनी नई और जीवंत है कि कविता पाठक को पुनर्नवा करती मन में सदा के लिए घर करती है। महत्वपूर्ण यह भी है ऋतुराज की कविताएं एकरसता से मुक्त है। उनके संपूर्ण कवि कर्म पर जाएंगे तो पाएंगे भारतीय आख्यानों, मिथकों और हमारी शास्त्रीय परम्पराओं का राग तो वहां बहुत से स्तरों पर है परन्तु वह जड़ता लिए कविता का सहारा नही है। बल्कि कहें उन्होंने परम्परा की पढ़त को अपने यात्री मन के विचार वैषिष्ट्य से संवारा है। 
मुझे ऋतुराज का कवि मन सुहाता है। इसलिए कि वह शब्दों का अनावष्यक बोझ पाठक पर नहीं लादते। इसलिए भी कि संप्रेषण का बगैर कोई आग्रह-पूर्वाग्रह वह सहज-सरल कहन के वैषिष्ट्य में कविता की लय अंवेरते हैं। उनकी कविताओं में घटनाओं के कोलाज है पर स्थूल घटनात्मकता का ध्यानाकर्षण नही है। मुझे लगता है, वह घटनाओं से उपजी मनःस्थितियों में यथार्थ के निर्मम सच की अनूठी काव्यभाषा रचते हैं। यह महज संयोग ही नहीं है कि कविता में वह राजनीति, धर्म, इतिहास, संस्कृति और परम्परा पर गहन चिंतन करते हैं पर कविता में इनका ओढ़ा हुआ बौद्धिक लबादा कहीं नजर नहीं आता। स्वतंत्र दृष्टि में वहां पाठक से संवाद है, अपनापा है। कहें वह शब्द-सजग ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं की अपनी व्याप्ति और विषिष्ट मुहावरा हैं। 

-मधुमती, अप्रैल 2019