Sunday, September 11, 2022

"अमर उजाला" के रविवारीय में "कला—मन"

सुखद लगता है जब आपकी लिखी किसी किताब में गहरे से उतरते उसकी परख होती है। "अमर उजाला" के रविवारीय में साप्ताहिक किताब के अंतर्गत  सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री डॉ. सी.पी. देवल ने "कला—मन" की यह समीक्षा की है—

अमर उजाला, 11 सितम्बर 2022

कलाओं पर हिन्दी में स्तरीय प्रकाशनों की अभी भी बहुत कमी है। डॉ. राजेश कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित वैचारिक निबंधों की पुस्तक ‘कला-मन’ इस कमी को कम करने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। पुस्तक के ‘पुरोवाक’ में ही लेखक भारतीय कला दृष्टि का वैचारिक गान करता हुआ पाश्चात्य जगत की कला समीक्षा को एक कोण विशेष से देखने वाली बताते हुए भारतीय कला दृष्टि की गहराई में ले जाता है। इसीलिए  उदाहरणार्थ वह भारतीय कला में उकेरे श्री कृष्ण की चर्चा करता है। व्यास पुस्तक में लिखते हैं कि भारतीय कला दृृष्टि में कृृष्ण की एक पक्षीय छवि नहीं उकेरकर उसके साथ धेनु, बांसूरी, गोपी, मोर मुकुट कदम्ब के पेड़ के साथ और क्या-क्या और नहीं उकेरा गया है! कला  की इस भारतीय दृष्टि से देखने की ही आज आवश्यकता है। लेखक इसे चुनौती रूप में स्वीकार कर पुस्तक में अपने विचार और अनुभवों को पाठकों से साझा करता है।

यह महत्वपूर्ण है कि कला के विस्तृत जगत में लेखक डा. व्यास की दृष्टि जहां भी गयी है वह वहीं से देखता कम, पर दिखाता ज्यादा है।   लेखक का पूरा जोर कला वस्तु को कैसे देखा जाना चाहिए, इस पर है। वह बहुत बारीकी से देखने की भारतीय ढब को परिभाषित करते हुए छवि को कैसे पढा जाए अर्थात देखा जाए उस ओर भी निरंतर संकेत करता है। एक कलात्मक आत्मबल के सहारे लेखक चुपचाप भारतीय कला समीक्षा की एक सैद्धान्तिकी भी गढता चला जाता है, जिसकी कि समकालीन समय में बहुत जरूरत है।

‘कला-मन’ पुस्तक हमें कला की उस पगडंडी पर लिए चलती है जहां हम पाठकों का कभी प्रवेश नहीं हुआ है। लेखक हमें कला के सहारे भारतीय सौंदर्यबोध का अहसास कराता हुआ एक तरह से ‘संस्कृति का कला-नाद’ सुनवाता है। लेखक ने ‘लोकतंत्र और कला’, ‘राष्ट्र और संस्कृति’ जैसे बहुत से वैचारिक लेखों में भारतीय कला के सामयिक सवाल उठाए हैं, उनका सहज जवाब भी दिया है।

हमारी कलाओं में लय—ताल और रूप-स्वरूप की भाव व्यंजना के साथ संवेदनाओं पर जोर है। कोई कलाकृति भारतीय आंख से देखने के समय में ही नहीं देखने के बाद भी मन में निरंतर रस की सृष्टि करती है। रस निष्पत्ति की यह अबाध परम्परा ही भारतीय कला का सच है, यह बात भी हमें  ‘कला-मन’ पुस्तक समझाती है।  

इसे पढ़ने के बाद लेखक व्यास से अपेक्षा करता हूं कि वह भारतीय कला को इसी तरह भारतीय कला शब्दावली में उजागर करने का प्रयास करते रहेंगे। इसी से हमारा भारतीय मन असल में कला गंगा के तीर पर नहाकर अपने को ‘कला-मन’ करने में सक्षम होगा।"


Saturday, September 10, 2022

सभ्यता के अध्ययन से जुड़ी कला प्रदर्शनी

 सभ्यता का इतिहास मनुष्य की कल्पनाओं से गढ़ी रचनाओं से अधिक यथार्थ की रूपान्तरणात्मक खोजों में सदा जीवंत हुआ है। पुरातत्व खोजों और उत्खनन में प्राप्त मूर्तियों, चित्र, वास्तुकला आदि से जुड़े तथ्यों ने ही अतीत के विस्मृत अध्यायों से पर्दा उठाया है। सुप्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक दया कृष्ण की महत्वपूर्ण अंग्रेजी पुस्तक है, ' प्रोलोजेमेना टू एनी फ्यूचर हिस्टोरियोग्राफी ऑफ कल्चरर्स एण्ड सिविलाइजेशन्स' इसमें उन्होंने मानव इतिहास को देखने के लिए शिल्प, शास्त्र और पुरूषार्थ के साथ संस्कार को भी जोड़ा है। उनके लिखे के आलोक में यह पाता हूं कि सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गहरी दृष्टि असल में जीवन से जुड़े संस्कारों में ही बहुत से स्तरों पर समाई हुई है। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में इस समय एक माह के लिए 'तुतेनखामुन सिक्रेट्स एण्ड ट्रेजर्स' प्रदर्शनी लगी  हुई है। इसे देखा तो लगा, गुम हुई प्राचीन मिस्र की नाइल नदी सभ्यता संस्थापन में यहां जीवंत हुई है।

विश्व के सात अजूबों में मिस्र के पिरामिड भी है। शुष्क जलवायु के कारण मिस्र में शव जल्दी नष्ट नहीं होते इसलिए वहां जीवन की निरंतरता में आस्था रही है। राजा चूंकि वहां देवत्व रूप में शासन करते रहे हैं, उन्हें आभूषणों से सज्जित स्वर्णिम सिंहासन, रथ, घोड़ों, पलंग, मुद्राओं और तमाम अपने ऐश्वर्य के साथ कब्र में दफनाने की परम्परा रही है। सुनेसुनाए इतिहास, पाषाण पर, मिट्टी और पपाईरस यानी रेशे जैसे कागज पर मिली मिस्र की चित्र लिपियों के अध्ययन में जाएंगे तो यह भी पाएंगे कि एक समय में मिस्र की सभ्यता बेहद समृद्धसंपन्न और कलात्मक रही है। इजिप्ट के कलाकार डॉ.मुस्तफा अलजैबी ने वहां के शासक तुतेनखामुन के जीवनआलोक में इसी सभ्यता को जवाहर कला केन्द्र में मूर्तिकला, चित्रकला और संस्थापन में जैसे जीवंत किया है।

राजस्थान पत्रिका, 10 सितम्बर 2022

कहते हैं, तुतेनखामुन की बहुत कम उम्र में हत्या हो गयी थी। ब्रिटिश पुरातत्वविद् हावर्ड कार्टर ने 1922 में उनकी खोई हुई संरक्षित कब्र की खोज की थी। इस खोज ने ही वहां की प्राचीन कलात्मक परम्पराओं, चित्रलिपि और मूर्तिकला से जुड़े सौंदर्य संसार के भी द्वार नए रूपों में हमारे सामने खोले। जवाहर कला केन्द्र में मिस्र की सभ्यता से जुड़ी कलाप्रदर्शनी इस मायने में भी महती है कि इसमें स्वर्ण और दूसरी धातुओं की रंगधर्मिता, मूर्तियों के अनुपातसमानुपात के साथ रेखीय अंकन की गहराई है। सम्राट और उसकी जीवनचर्या, पशुपक्षियों, प्रकृति और जीवन से जुड़े संदर्भों की कलाप्रस्तुति में रमते यह भी लगता है कि मिस्र का सोया हुआ प्राचीन इतिहास जैसे हमारी आंखो के समक्ष जाग उठा है। प्राचीन मकबरे को लकड़ी, रेजिन और सोने की ढलाई जैसी विभिन्न तकनीकों का उपयोग करके यहां पुनर्नवा किया गया है।

मिस्र को सोने के गहने पहनने वाली पहली सभ्यताओं में से भी एक माना जाता है। शासक तुतेनखामुन का नाम भी चन्द्रमा की कला से जुड़ा है। तुतेनखामुन माने अमुन की परछाई। अमुन मिस्र के देवता का नाम है। यही अमुन हमारा चन्द्रमा है।     यह महज संयोग ही नहीं है कि वास्तुकार चार्ल्स कोरिया ने जवाहर कला केन्द्र का निर्माण नवग्रहों से जुड़ी कलाकृतियों के संदर्भ सहेजते किया था। यहां कॉफी हाउस में जब भी जाना होता है, टेबल्स में चंद्रमा की घटतीबढ़ती कलाओं को रूपायित पाता हूं। उसी जवाहर कला केन्द्र में तुतेनखामुन यानी चन्द्रमा की परछाई के आलोक में मिस्र की सभ्यता से जुड़ी कला प्रदर्शनी देखना विरल अनुभव है। इसलिए भी कि ग्रीक, फ़ारसी और असीरियन आक्रमणों ने कभी इस प्राचीन सभ्यता को कभी पूरी तरह से ख़त्म कर दिया था। सोचता हूं, यह कलाएं ही तो हैं, जो इस तरह से किसी सभ्यता और संस्कृति को हममें पुनर्नवा करती है।

Sunday, September 4, 2022

'द प्रिंट' के साथ 'कला—मन' पुस्तक के संदर्भ में संवाद

 प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'कला—मन' के संदर्भ में 'द प्रिंट' के सुधि पत्रकार श्री शिव पाण्डेय से आज कला लेखन, भारतीय कला दृष्टि, कला समीक्षा से जुड़ी भाषा आदि प्रश्नों के आलोक में संवाद हुआ। कलाओं पर लिखे मेरे वैचारिक निबंधों और पुस्तक 'कला—मन' से जुड़ी इस बातचीत को चाहें तो आप इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=gy9pA8VGlrs पर जाकर यूट्यूब पर देख सकते हैं...