Sunday, January 11, 2015

रंग-रेखाओं में बसी अयोध्या

मनु की बसाई नगरी है अयोध्या। मंदिरों का शहर। सरयू नदी के दांए तट पर बसे इसी नगर में पिछले दिनों राष्ट्रीय कला शिविर  का आयोजन हुआ। अयोध्या शोध संस्थान द्वारा आयोजित इस षिविर की बड़ी विषेषता थी, रंग और रेखाओं में उभरा अयोध्या का  सौन्दर्य। अयोध्या ही नहीं, अयोध्या के राम, सीता, हनुमान, लक्ष्मण आदि भी कैनवस पर कलाकारों ने उकेरे। खास बात यह भी कि मूर्त-अमूर्त में अयोध्या की प्राचीनता के साथ आज के संदर्भों को भी कैनवस पर कलाकारों ने बुना। यह भी संयोग ही है कि अयोध्या शोध संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्रीय कला शिविर  में देष के प्रमुख स्थानों का प्रतिनिधित्व कलाकारों ने किया। आयोजन की बड़ी विशेषता  यह भी रही कि कलाकारों ने पहले अयोध्या के तमाम स्थलों का भ्रमण किया और फिर उसके आधार पर अपनी संवेदनाओं का ताना-बाना कैनवस पर बुना। षिविर संयोजक डाॅ. अवधेश  मिश्र स्वयं कलाकार हैं शायद इसीलिए कलाकारों की संवेदना और उनकी जरूरत से जुड़े प्रबंधन में वहां कहीं कोई बंधन नहीं था। माने कलाकार जो देखे, जो सोचे उसे अपने भीतर के भावों से उकेरे। षिविर के 15 सदस्यीय कलाकारों ने पहले रामजन्म भूमि स्थल, सरयू नदी, कनक भवन, हनुमान गढ़ी, गुप्तार घाट आदि स्थलों का भ्रमण जब किया तो अचंभित भी थे। इस रूप मंे कि अयोध्या का जो रूप उन्होंने यहां आने से पहले बसाया हुआ था उससे भी कहीं अधिक सुन्दर इसे पाया।

हां, कोहरे में लिपटी सरयू को देखना भी कोई कम अचरज की बात नहीं थी। कोहरा कहां नहीं था, हर ओर-हर छोर था। सर्द सुबह, सर्द दुपहरी और सर्द सांय के बाद हांड कंपाती रात! बावजूद इसके कलाकारों में अयोध्या के भांत भांत के दृष्य आयामों को उकेरने में अत्यधिक जोष था। षिविर जिस स्थल पर था, उस होटल का नाम था ‘षाने अवध’। माने अवध की शान। पर अवध की असल शान तो बाद में कलाकारों ने कैनवस पर उकेरी। महाराष्ट्र से आए सुहास बहुलकर, डगलस जाॅन, गोवा से आए हनुमान काम्बली, गुजरात के जयन्ती राबडि़या, दिल्ली के हेमराज और जय झरोटिया, राजस्थान के विनय शर्मा, भोपाल से आए लक्ष्मीनारायण भावसार, युसूफ, छत्तीसगढ़ से आए महेष चन्द्र शर्मा, बिहार के मिलन दास, प. बंगाल से आए अमिताभसेन गुप्ता, उत्तरप्रदेष के प्रणाम सिंह, राजेन्द्रप्रसाद और डाॅ. अवधेष मिश्र मूर्त-अमूर्त में अयोध्या के अतीत से जुड़े संदर्भों के साथ ही समय के साथ आए बदलाव और सामयिक संदर्भों को कैनवस पर उभारा।

कलाकारों के साथ कला समीक्षक के रूप में इन पंक्तियों के लेखक को भी विरल अनुभव शिविर के दौरान हुए। यह सच है! कैनवस पर कलाकारों की कला को देखना और उस पर लिखने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह भी है कि कलाकारों को कैनवस पर काम करते देखा जाए। उनसे निरंतर बतियाया जाए। कला के उनके सरोकारों के चिंतन पक्ष को अंवेरा जाए। और कलाकार की स्वयं की कला के बारे में जो कुछ धारणाएं हैं, उसमें अपनी धारण मिलाते हुए फिर कुछ लिखने को जुटा जाए। इस दीठ से कला शिविर  में कला समीक्षक की उपस्थिति की अपनी भूमिका है। मुझे यह भी लगता है कि कलाकार और कला पर लिखने वालों के मध्य संवाद की कमी की बड़ी पूर्ति इस तरह के षिािवर ही कर सकते हैं। 
कलाकार जब कैनवस पर रोज कुछ उकेर रहे थे, उनके सृजन सरोकारों पर नाचीज बतिया भी रहा था। लगा, अयोध्या से जुड़े धार्मिक, पौराणिक स्थलों के साथ ही वहां से जुड़ी रही घटनाओं, इतिहास और मिथकों की कहानियां कैनवस दर कैनवस उतर रही है। कोई धर्म और आस्था को इनमें जी रहा था तो कोई रूढि़यों से परे इनमें वर्तमान की जीवंतता को तलाश  रहा था। हां, प्रकृति दृष्यों में जिन-जिन स्थानों को कलाकारों ने देखा था, वहां के सदंर्भों के साथ कैनवस पर उसकी छवियां भी कैनवस पर निरंतर उभरी। मसलन शिविर  में गोवा से आए कलाकार हनुमान काम्बली ने रावण वध का मोहक रेखांकन किया है। राम का धनुष और रावण के दस शिर ।
कैनवस पर प्रतीकों में और भी बहुत कुछ था। ऐसे ही महाराष्ट्र के सुहास बहुलकर ने कोप भवन में कैकयी के साथ ही हनुमान गढ़ी और रामजन्म भूमि से जुड़े संदर्भों के साथ पुराणों को समसामयिक संदर्भ दिए। महाराष्ट्र के ही जाॅन डगलस ने अयोध्या में इन दिनों छायी धुंध के संदर्भों में पौराणिक चरित्रों के साथ आम आदमी की मोहक व्यंजना की।  राजस्थान के विनय शर्मा ने सरयू नदी और वहां के घाटों को जेहन में रखते हुए अतीत और वर्तमान को अपने कैनवस पर जिया। उन्होंने शुरवंशियों की नगरी के प्रतीक रूप में अयोध्या को उभारा तो लव कुष द्वारा अष्वमेघ यज्ञ के घोड़ों को पकड़े जाने को भी बिम्ब प्रतिकों में उभारा। बनारस के प्रणामसिंह ने अयोध्या के मंदिरों में साधु-संतों की उपस्थिति और यहां के पौराणिक स्थलों की जीवंतता को कैनवस पर रंगों का छंद बनाते हुए उकेरा। 
डाॅ. अवधेष मिश्र ने गाढ़े रंगों की मूर्त-अमूर्त छवियों में गुप्तार घाट में राम की पादुकाओं की मोहक व्यंजना की तो एक दूसरे चित्र में उन्होंने अयोध्या के महात्म्य को उभारा। अयोध्या की पावनता को उकेरते हुए मंदिरों के परिवेष और श्री राम की खड़ाऊ को प्रतीक रूप मंे रखते हुए लखनउ के राजेन्द्र प्रसाद ने कैनवस पर मोहक छवियां रची। भोपाल से आए कलाकार युसूफ ने रेखाओं की महीनता में एब्सट्रेक्ट के जरिए मारीच की जो व्यंजना की उसमें जैसे सीता के हरण और स्वर्ण मृग का दृष्य आंखों के समक्ष जीवंत हो उठा। युसूफ रंग पट्टिकाओं में स्थान विषेष ही नहीं वहां के संदर्भों को बेहद संवेदनषीलता से अपनी कला में जीते हैं। ऐसा ही बिहार के मिलनदास के साथ भी है। वह हल्के रंगों में घुले पत्रों की इबारत में अयोध्या के संदर्भ जब उकेरे रहे थे तो एकटक उनके कैनवस को ही निहार रहा था। उन्होंने अयोध्या की प्राचीनता को जैसे हिन्दी, अंग्रेजी और उडि़या भाषा में कैनवस पर ढूंढ निकाला। कैनवस पर उनके हनुमान भी थे पर उनके रामायण से जुड़े तमाम संदर्भ भी। पशिम बंगाल से आए अमिताभ सेनगुप्ता की कला भी अद्भुत है। वह लिपियों में संवेदना के मर्म जैसे उद्घाटित करते हैं। एक कैनवस पर उन्होंने मर्यादा पुरूषोतम राम को केन्द्र में रखते हुए नीचे मिनिएचर, लोक कला के भी संदर्भ दिए। मध्यप्रदेष से आए प्रो. लक्ष्मीनारायण भावसार ने सरयू नदी में केवट और साधु संतों की मोहक व्यंजना की तो खैरागढ़ से आए महेषचन्द्र शर्मा ने परत दर परत रंगों में अयोध्या की मिट्टी, यहां के घरों और जन-जीवन में व्याप्त रंगों को कैनवस पर फिर से जिया। उन्होंने जटायु के संदर्भ में रामायण की कथा की दृष्य संवेदना को जिया। 
देशभर से आए कलाकारेां ने पांच दिन तक प्रवास कर अयोध्या के जो रूपाकार गढ़े हैं, वह भविष्य में कला की धरोहर के रूप मंे जाने जाएंगे, बषर्ते अयोध्या शोध संस्थान उनकी सार संभाल भी जतन से करें। इसलिए भी कि देश  के ख्यातिनाम कलाकारों ने इस षिविर में शिरकत  करते हुए अपने तई अयोध्या को कैनवस पर एक तरह से व्याख्यायित ही किया। ऐसे दौर में जब सब कुछ विवादों में डालने का रिवाज सा हो गया हो, यह सुखद है कि कलाओं के जरिए अयोध्या में संवेदना के राग और रंग कैनवस पर कलाकारों ने उकेरे।


Saturday, January 3, 2015

सुर जो सजे



धन्यवाद यतीन्द्र ! 

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिस्ट में कवि,संगीत आलोचक यतीन्द्र मिश्र ने "सुर जो सजे" की समीक्षा की है.
यतीन्द्र ने लिखा है - 

" पुस्तक के बारे में यह भी काबिले गौर है कि संगीत के तमाम सारे तकनिकी पक्षों, तथ्यों एवं उसके बनने के इतिहास को लिखते समय लेखक ने अपने आस्वादक को प्रमुख भूमिका में रखा है, जिससे किताब बोझिल बनने की बजाय एक सहज गति से बढ़ती हुई अपनी सांगीतिक अनुगूंजें पैदा करती चलती है. "

एनबीटी से प्रकाशित इस पुस्तक का  ब्लर्ब है -
'सुर जो सजे' में डॉ राजेश कुमार व्यास ने हिन्दी फिल्म संगीत के बहुत से स्तरों पर अब तक के अकहे इतिहास को संस्मरण-संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में संजोया है। इसमें लोकप्रिय फिल्मी गीतों की धुन, उसके लिखे जाने और उसे संगीतबद्ध किए जाने के पीछे की कोई कथा, कोई व्यथा या अन्य कोई घटना-प्रसंग का रोचक वर्णन है। पढते लगेगा, संगीत सर्जना के क्षण आपके समक्ष जीवंत हो उठे हैं। यही इस पुस्तक की बडी विशेषता है। पुस्तक की शुरूआत लता मंगेशकर, मन्ना डे, गीतकार प्रदीप, गुलजार संगीतकार खैयाम, रवि, ओपी नैय्यर के साथ डॉ राजेश कुमार व्यास के हुए संवाद से होती है। फिर शुरू होती है, फिल्मी गीतों से जुडी 'सरगम' की रोचक दास्तां लेखक की संगीत रूचि और पत्रकारिता सफर की 'सुर जो सजे' एक प्रकार से अर्न्तरयात्रा है। पढते लगेगा, आप भी इस पुस्तक का हिस्सा' हैं। यही इसकी विशेषता है।