'अमर उजाला' के रविवारीय, 14 जून 2020 अंक में
"...कलाओं
की वैदिक कालीन
संज्ञा शिल्प है। माने
संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु,
चित्रकला आदि तमाम
कलाएं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ‘चित्रसूत्र’
अध्याय में काव्य,
गान, नृत्य, नाट्य,
चित्र, मूर्ति आदि तमाम
कलाओं के अन्तःसम्बन्धों
पर जो विषद्
विवेचन है, उसका
मूल भी यही
है कि हरेक
कला दूसरी कला
में घूलकर ही
संपूर्णता को प्राप्त
करती है, शोभायमान
होती है। मुझे
लगता है, भारतीय
कला इस दृष्टि
से योग का
एक तरह से
रागबोध है। सभी
कलाओं के अंतर्निहित
में जाएंगे तो
पाएंगे वहां सर्वत्र
संधि है। रस
का संयोजन है।
...पुराणों में उषा-अनिरूद्ध आख्यान की
चित्रलेखा योगिनी निरूपित है।
शोणितपुर के राजा
बाणासुर की कन्या
उषा ने स्वप्न
में अनिरुद्ध को
देखा और उस
पर मोहित हो
गई। देखे स्वप्न
के आधार पर
उषा की सखी
चित्रलेखा अनिरुद्ध को तलाष
कर योगबल से
सुप्तावस्था में अपहरण
कर लाती है।
अनिरूद्ध का अपहरण
यद्यपि मायावी कृत्य है
परन्तु महर्षि वात्स्यायन के
कामसूत्र की यषोधर
कृत टीका-जयमंगला
में चैसठ कलाओं
के पांच विभक्त
वर्गों में तीसरे
वर्ग-औपनिषदिक कला
वर्ग में ऐसी
ही कलाओं को
रखा गया है।
वहां कला चारू
यानी मन को
रंजित करने वाली
है तो कारू
यानी उपयोगी भी
है।
छान्दोग्य उपनिषद् में आये
‘त्रिस्कन्ध धर्म’ में तप,
यज्ञ और दान
ही प्रमुख है।
हमारे यहां शिव,
बुद्ध, महावीर की जो
मूर्तियां हैं उनमें
तेजोमय-तप स्वरूप
की ही व्यंजना
हुई है। ‘तपोयोग
समाधि’ के अंतर्गत ‘योगीश्वर’
मूर्ति भी खासतौर
से हमारे यहां
निर्मित हुई है।
योग से कला
के अन्तःसम्बन्धों की
इससे बड़ी और
गवाही क्या होगी!
मोहन-जो-दड़ो
की खुदाई में
मिली ‘योगीश्वर’ की
प्रतिमा से अनुमान
लगाया जा सकता
है कि तप
और योग की
साधना वैदिक संस्कृति
से भी पूर्व
भारत में प्रचलित
थी। यह भी
कि योग ने
कलाओं के हमारे
संसार के एक
तरह से द्वार
खोले हैं। ..."