Saturday, November 24, 2012

सुर की अद्भुत लय


ध्वनि माने नाद। संगीत की बात करें तो नाद वहां ध्वनि भर नहीं है। वहां लय है, ताल है और है जीवन का राग। सोचता हूं, संगीत की लय यदि जीवन मंे नहीं हो तो क्या यह संसार असार नहीं हो जाएगा! राग ही तो कराता है जीवन से अनुराग। 
बहरहाल, नाद से स्वर और स्वरों से है सप्तक। संस्कृत की धातु रंज् से बना है ‘राग’। माने रंगना। कल की ही बात है। पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर को सुना। लगा, उनके गाये में पूरी तरह से रंग गया हूं। मीराबाई का जो भजन उन्होंने गाया है, उसके बोल हैं, ‘मत जा मत जा रे जोगी, पांव पड़ुंगी मैं तेरे’। गाया इसे ओरों ने भी है पर मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में यह सुनंेगे तो लगेगा तन-मन झंकृत हो उठा है। शब्दों की कोरी ताल निबद्धता ही वहां नहीं है, एक-एक गाये शब्द का अर्थ जैसे स्वर दर स्वर खुलता है। राग भैरवी में इसे गाते पंडित जी मीरा की भावना के सारतत्व की गहन अनुभूति कराते हैं। आरोह, अवरोह में किसी एक स्थान पर ले जाकर औचक जब वह ‘मत जा मत जा’ शब्दों के स्वर छोड़ते हैं तो अद्भुत सौन्दर्य रचाव होता हैं। यह अध्यात्म का सौन्दर्य है। लगता है, उनकी अंवेरी लय सदा के लिए मन में बस गयी है। भैरवी प्रातःकाल का राग है परन्तु पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में ‘मत जा जोगी’ को किसी भी समय सुनेंगे, मन करेगा उसे गुनें। एक-एक शब्द की गहराई मंे ले जाते वह स्वरों की अद्भुत पकड़ करते हैं। 
मल्लिकार्जुन मंसूर के आलमप्रभु, चैन्नबसव, अक्कामहादेवी जैसे संतों के वचनों का गान भी अंतर अकथ से हुलसित करता है। बसवन्ना की विनय-पत्रिका ‘हे प्रभु,/देह की डंडी बनाओ/तुम्बा हो सर का/नाड़ियों की तंत्री बने/अंगुलियों का मिजराब/साधकर अपने दो और तीस राग/मेरे हृदय को छेड़ो...’ सुनेंगे तो लगेगा आप किसी ओर जहां में चले गए हैं। सच! यह मसंूर ही हैं जिनका गान अर्थनिरपेक्ष होता सूक्ष्म से सूक्ष्मतर समाधि भंगिमा की ओर बढ़ता है। वह अपना सारा गान भगवान शिव को समर्पित करते हैं। मुझे लगता है, अन्तः और बाह्य जगत के तमाम संदर्भ उनके गान में समाहित हैं। धुन लगते ही हम जैसे उसमें रमने लग जाएंगे। 
बीकानेर के ऊर्जावान और समझ वाले अपेक्षाकृत युवा प्रकाशक प्रशान्त बिस्सा ने इधर सूर्य प्रकाशन मंदिर के तहत पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की आत्मकथा ‘रसयात्रा’ का प्रकाशन किया है। मूल कन्नड़ में लिखी ‘रसयात्रा’ बकौल अशोक वाजपेयी ‘तीर्थगायक की रसयात्रा’ है। मंसूर इसमें लिखते हैं, ‘ताल और राग के सटीक मिलाप से ही धीरे-धीरे राग-पुष्पित होते हैं।’  उन्हें सुनते हुए इसे गहरे से अनुभूत भी किया जा सकता है। 
‘रसयात्रा’ में एक जगह वह संगीत की मौलिकता पर कहते हैं, ‘परम्परा के सारतत्व पर अधिकार के बाद ही मौलिकता को प्रवाहित होना चाहिए।’ स्वयं पंडितजी ने तमाम अपने गान में यही तो किया है! वहां परम्परा के सारत्व पर अधिकार है परन्तु स्वयं उनकी सिरजी मौलिकता भी है। उनके गुरू मांजी खान साहब कहते, ‘हर कुजे नियामत’। माने हर पात्र में कुछ न कुछ प्रसाद जरूर होता है। इसकी गांठ बांधते उन्होंने संगीत में सबसे कुछ न कुछ ग्रहण किया परन्तु उसमें अपना मिलाते सहज आलाप के अद्भुत सुरीलेपन की सौगात हमें दी। ‘रसयात्रा’ में अपने गायन के बारे में बताते वह लिखते हैं, ‘तानपुरे पर स्वर सुनते ही मैं इस सांसारिकता से दूर एक अलग दुनिया में प्रवेश करता हूं। भौतिक उपस्थिति को भुलाकर मेरे मन की आंखे केवल सुर की लय को देखती है....मेरे लिए तो जिन्दगी खुद सुरों से सजी एक महफिल है।’ उन्हें सुनते, ‘रसयात्रा’ को पढ़ते औचक मुंह से यही तो निकलेगा ‘सच ही तो है!’

Friday, November 16, 2012

काशी और एलिस बोनर



काशी  मंदिरों की नगरी ही नहीं कला भूमि भी है। ललित कला अकादेमी और जे.कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन के आमंत्रण पर कुछ दिन पहले एक व्याख्यान देने वाराणसी जाना हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविध्यालय  स्थित कला भवन भी गया। लगा, संगीत, नृत्य, चित्रकला और संस्कृति की हमारी परम्पराएं अभी भी वहां जीवंत है। कलाविद् ‘एलिस बोनर’ के बारे में  काशी   जाने से पहले भी पढ़ा था परन्तु बनारस में उनकी दृष्टि से जैसे अपनापा हुआ। उनकी कला दीठ में काषी के घाटों से साक्षात् हुआ, एलोरा के गुफा चित्रों के बारे में जैसे नई समझ मिली और सुप्रसिद्ध नर्तक उदयशकर की नृत्य भंगिमाओं के बहाने संगीत, नृत्य, शिल्प, वास्तु और अध्यात्म के भारतीय सरोकारों को पश्चिम के किसी कलाकार की मौलिक दृष्टि से फिर से जाना।
अचरज भी हुआ। किसी भारतीय ने नहीं, पाष्चात्य कलाकार ने भारतीय कला और संस्कृति को अपनी कला में इस गहरे से जिया है! फिर सोचता हूं, कला का यही तो वह परम सत्य है जिसमें सर्जक जीवन की अपने तई तलाष करता है। एलिस ने यही किया। अपनी अनुभवी दृष्टि से भारतीय कला के रहस्यों में प्रवेश  करते उसने चित्रों में, मूर्ति में, नृत्य में अर्न्तनिहित को अपने तई समझा। कला की अपनी दीठ दी। उसने संसार की दृष्टिगत होने वाली वस्तुओं प्रकृति, मनुष्य, पषु तथा पेड़-पौधों को अपनी कला में मूर्त रूप ही नहीं दिया बल्कि भारतीय नृत्य की भंगिमाओं को आत्मसात करते रेखाओं, रंगों के साथ ही मूर्तियों में उन्हें जिया भी। 
विष्वास नहीं होता! भारतीय नृत्य के आस्वाद में कोई इतना खो जाए कि तमाम अपना जीवन ही उसके लिए समर्पित कर दे। पर सच यही है! एलिस इसी का उदाहरण है। ज्यूरिख में वर्ष 1926 में एलिस ने प्रख्यात नर्तक उदयषंकर का नृत्य देखा। नृत्य की उनकी भंगिमाएं और लालित्य की सुंदरता ने उसे जैसे मोहित कर दिया। एलिस को लगा, मंदिरों पर उत्कीर्ण होने वाली मूर्तियां उदयषंकर के नृत्य में जीवंत हो उठी है। बस, यहीं से एलिस का भारतीय कलाओं में रूझान बढ़ा और अगले पांच वर्षों तक वह उदयषंकर के कलाकर्म के साथ ही जीवन के उनके तमाम आयामों से जैसे एकाकार हो गयी। उनके नाट्य प्रदर्षन, पत्राचार, वेषभूषा के साथ ही योरोप और अमेरिका की उनकी यात्राओं की व्यवस्थाएं उसने की।एलिस के अनुसार, ‘यह वास्तव में भारत के बहुरंगीय जीवन का मेरे लिए एक सजीव चित्र था।’
बहरहाल, बाद में वाराणसी को एलिस ने अपना घर भी बनाया। वह बनारस के अस्सी घाट में रही। यहां रहते उसने काषी की महिमा को गुना और और उसे अपने चित्रकर्म, मूर्तिषिल्प में गुना भी। यहीं से बाद में वह उत्कल भूमि भी गयी। उड़िसा  में बिखरे षिल्प की तलाष करते ही उसने  ताड़पत्रों की अप्रकाषित पाण्डुलिपियां खोज निकाली। पण्डितों और षिल्पियों का सहयोग लिया और 12 वीं सदी में लिखे गये उड़िसा के तंत्र युग ग्रंथ ‘षिल्प प्रकाष’ का अनुवाद भी किया। प्रतिमा के सिद्धान्त का विधिवत एवं प्रतिकात्मक ज्ञान जैसे इससे उन्हें मिला। एलिस ने कहा भी, ‘कलाएं सौन्दर्य आस्वाद के लिए ही नहीं है, उनके जरिए आत्मा को एकाग्रचित किया जा सकता है। इसलिए कि वे सत्य हैं।’
 एलोरा पर एलिस ने जो लिखा है, वह विरल है। गुफा षिल्प पर लिखी उनकी सूक्ष्म कला दृष्टि पर जाता हूं तो यह भी लगता है कि यह एलिस ही थी जिसने एलोरा की गुफाओं के अर्थ संकेतों को पकड़ते प्रतिमाओं के अर्न्तनिहित को अपनी दीठ दी। इस दीठ मंे बाह्य सौन्दर्य के आकर्षण से प्रभावित होना ही कला की समझ की संपूर्णता नहीं है बल्कि जीवन के आंतरिक भाव को व्यक्त करना भी है। कहें, उसने कला और जीवन की गतिषीलता की आत्मा को पहचाना। इसीलिए बाद में जब एलिस  ने नर्तक, संगीतकारों के चित्र, मूर्तियां बनायी तो उनमें भारतीय संस्कृति जीवंत हो उठी। 
काषी से लौटे इतने दिन हो गये परन्तु एलिस की कला, उसकी भारतीय कला दृष्टि का प्रकाष अभी भी जेहन में रह-रह कर कौंध रहा है। एलिस ही क्यों, काषी की दूसरी कला अनुभूतियां भी तो इतनी है कि उन पर लिखूं तो कई सौ पृष्ठ भी कम नहीं पड़ जाएंगे! यही सब सोच रहा हूं कि मन में विचार आ रहा है, काषी का अर्थ भी तो प्रकाष ही है। काष् धातु है। अर्थ है-ज्योतित करना।  दृष्टि में जो ज्योतित है, उन्हें क्या शब्दांे में व्यक्त किया जा सकता है!  


Friday, November 9, 2012

दीपक ज्योति नमोस्तुते


पर्व-त्योंहार आखिर किसलिए मनते हैं! इसीलिए ना कि जीवन का उजास, उत्सवधर्मिता का नाद उनमें है। और दीपावली तो है ही उजाले की प्रतीक। सोचिए! अमावस्या के अंधकार को हरने ही तो जलता है, नन्हा सा एक दीप। 
दीप पर्व दीपावली अंतर्मन उजास का संवाहक है। मुझे लगता है भारतीय संस्कृति का यह अनूठा कला पर्व है। इस पर्व पर भीतर का हमारा सर्जक जाग उठता है। दीपावली इसीलिए तो हरेक के मन को भाती है कि इस एक पर्व में कलात्मक सृजन के भांत-भांत आयामों को हम अनायास छू लेते हैं। रंग-रोगन कराते कलाकार नहीं होते हुए भी घर के किसी कोने को अपने भीतर के कलामन से संवारने की दीठ आप मंे अनायास जगती है। गांवों मंे तो दीप पर्व से पहले ही घरों को गोबर से लिपने-पोतने का कला कर्म शुरू हो जाता है। मिट्टी और गोबर का मेल। उसमें हिरमिच और हल्दी का घोल। घर-आंगन में मंडते कलात्मक मांडणे।...और यही क्यों लक्ष्मी पूजा स्थल तक कुकुंम से लक्ष्मी के अलंकारिक पगलियों भी तो मांडे जाते हैं।...दीपकों की जो रोशनी घर-परिवार में होती है वह भी तो मिट्टी के आकर्षक दियों से ही होती है। कुम्हार की चाक से ढले मिट्टी के दीपक पानी से धोकर साफ करते हैं और फिर उनकी खूशबू के साथ यत्र-तत्र सर्वत्र उजास फैलता है।
दीप पर्व में जीवन को आलोकित करने का मंतव्य गहरे से निहित है। आज से नहीं। युग-युगों से। मुअन-जो-दड़ो की खुदाई से इंटो के घरों में दीपक जलाने की परम्परा ज्ञात हुई है और अंधेरी गुफाओं में निर्मित बारीक चित्रों को देखकर भी सहज यह अनुमान होता है कि दीपक तब भी थे। मुझे लगता है, सभ्यता और संस्कृति के अनहद नाद हैं दीपक। पंचतत्वों से एक अग्नि का प्रतीक दीपक। जन्म से लेकर मृत्य के बाद तक की रश्में निभाता दीपक। अंधकार से मुक्ति का आह्वान करता। मर्त्य में अमर्त्य दीपक। 
दीपक अंतर्मन प्रकाश की खिड़की खोलने का संदेश देते हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए, वाराणसी जाना हुआ था। काशी की एक सांझ गंगा में नाव में विचरते दीपमालिकाओं से साक्षात् हुआ। लगा, एक साथ पंक्तिबद्ध जलते दीपकों में जीवन की लय को गहरे से अंवेरा गया है। तभी मन में खयाल यह भी आया...अंधेरा नहीं हो तो इस रोशनी को क्या हम इस रूप मंे देख पाते! माने अंधकार में ही प्रकाश की शोभा है।...तो सृजन के लिए जरूरी है अंधकार। दिन के बाद रात न हो तो! यह दीपक ही है जो रात्रि के अंधेरे में अपने होने को जताता जैसे हमें अपने भीतर झांकने का यूं अवसर देता है। बनारस में गंगा आरती के अद्भुत दृश्य में रमते जैसे हम अपने होने की ही तलाश कर रहे थे। नाव पर बैठे गंगा आरती की दिव्यता और भव्यता में ही डूबे थे कि पास ही आ लगी एक और छोटी सी नाव। हाथ में मिट्टी के दीपक और घी से सनी बाती के साथ छोटे-छोटे बच्चे उन्हें खरीद गंगा मंे प्रवाहित करने का आग्रह कर रहे थे। हमने दीपक ले, बाती को प्रकाशित किया। जगमग दीपकों को जब गंगा में प्रवाहित किया तो लगा कुछ अनूठा अनायास ही हो गया है। पंक्तिबद्ध रोशनी बिखरते दीपक थोड़ी देर में ही पानी की एक लहर के साथ हमसे दूर चले गये।...परन्तु उनका उजास!  मन में जैसे अभी भी बसा हुआ है। 
कहीं पढ़ा हुआ, औचक जेहन में कौंध रहा है। निर्वाण समय बुद्ध शांत लेटे हुए हैं। उनका शिष्य आनंद विलाप कर रहा है, ‘हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं! अब कौन करेगा हमारा पथ प्रशस्त?’ बुद्ध के मुंह से निकलता है, ‘अप्प दीपो भव’ माने स्वयं अपना प्रकाश बनो। जलो ताकि आलोकित हो रूप। दीपावली में हम सब यही संकल्प लें। अपनी ज्योति आप बनें। ‘दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ 


Saturday, November 3, 2012

...और चले गए साखलकर जी



कला मर्मज्ञ रत्नाकर विनायक साखलकरजी नहीं रहे! यह सूचना आहत करने वाली थी। ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर कला के एक व्याखान कार्यक्रम के अंतर्गत तब वाराणसी में था। सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ। कल की ही तो बात है, इसी स्तम्भ में उनके कला चिंतन पर लिखा था। लगा, कलाओं में रमने, उन्हीं में बसने वाला हमसे यूं दूर कैसे जा सकता है! देह से भले वह चले गये परन्तु उनका कलाकर्म, चिन्तन तो सदा हमारे साथ रहेगा ही।
बहरहाल, भारतीय कला के अर्न्तनिहित में जाते यह साखलकरजी ही थे जिन्होंने कला चिन्तन में सदा ही बढ़त की। भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला और तमाम हमारी लोककलाओं को समझ की अपनी दृष्टि दी। पाठ्यपुस्तकों के जरिए शिक्षार्थियों तक कला के सरोकार पहुंचाने का भी बड़ा  उपक्रम किया। हिन्दी में कला की पाठ्यपुस्तकों की बड़ी सीमा यह है कि उनमें अधिकतर पाश्चात्य कला दर्शन का ही रूपान्तरण है। ऐसे में यह साखकरजी ही थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला को हिन्दी में मौलिक दृष्टि से लिखा परन्तु इस लिखे की कूंत कभी शायद हो ही नहीं पायी। साखलकरजी के साथ तो विडम्बना यह भी रही कि उनका चित्रकार और पाठ्यपुस्तक लेखक उनके कला आलोचक पर सदा भारी रहा। राज्य ललित कला अकादेमी ने चित्रकार के रूप में उन्हें कलाविद् की उपाधि से सम्मानित किया परन्तु कला आलोचना की उनकी दृष्टि का मूल्यांकन शायद सही ढंग से किसी स्तर पर नहीं हुआ। 
याद पड़ता है, हुसैन की भारतीय देवी-देवताओं को लेकर बनायी गयी कुछ आपत्तिजनक कलाकृतियांे को लेकर जब पूरे देश में बवाल मचा हुआ था, साखलकरजी ने उनकी कलाकृतियों के निहितार्थ में जाते तर्क सहित प्रचार की उनकी भूख को पाठकों के समक्ष रखा था। यही नहीं उन्हें पढंेगे तो पाठकों को बार-बार यह अहसास भी होता है कि जो उन्होंने लिखा उसमें कला के भारतीय दर्शन को गहरे से छुआ है। मसलन अजन्ता के कला वैभव, खजुराहो की नग्न प्रतिमाओं पर लिखते हुए उन्होंने शास्त्र, पुराणों के शिल्प मंतव्य भी गहरे से उद्घाटित किए हैं। मंदिरों पर यौन प्रतिमाओं को लेकर उनके भारतीय दर्शन पर जब भी जाता हूं, आनंदकुमार स्वामी का कला चिन्तन भी गहरे से मन में कौंधता है। मंदिरों में नग्न प्रतिमाओं, मिथुन आकृतियों को भारतीय कला में कभी गलत नहीं माना गया, इसलिये कि यह व्यक्ति को कुंठाओं से मुक्त करता है, पवित्रता से पहले कुंठाओं से मुक्ति जरूरी है। साखलकरजी कला के भारतीय दर्शन में जाते विष्णुधर्मोत्तर पुराण, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के साथ ही शिल्पशास्त्र और तमाम दूसरे कला आख्यानों की गहराई को अपने लिखे में जीते। इसी से उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय कला का अपने तई सांगोपांग मूल्यांकन किया और भारतीय कलाकारों पर जो लिखा उसमें रंग और रेखाओं की गहराई में जाते कला की सोच को व्यापक परिप्रेक्ष्य में हमारे समक्ष रखा। 
अज्ञेय के कला चिन्तन पर कभी प्रभात प्रकाशन ने वत्सल निधि के तहत हुए व्याख्यानों को संजोते एक पुस्तक का प्रकाशन किया था। परन्तु हाल ही सस्ता साहित्य मंडल ने सुप्रसिद्ध आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल के संपादन मंे कला पर समय-समय पर लिखी अज्ञेय की टिप्पणियों को प्रकाशित किया है। उससे पता चलता है कि भारतीय कला पर अज्ञेय कितनी गहराई से सोचते थे। निर्मल वर्मा को पढते हैं तो उनके बरते शब्दों में कला ही कला बिखरी दिखाई देती है। क्या ही अच्छा हो, रत्नाकर विनायक साखलकरजी के कला चिन्तन पर एक संपादित पुस्तक ही कोई बड़ा प्रकाशक प्रकाशित करे। हिन्दी में कला आलोचना नहीं होने का रोना रोने वाले आखिर जाने तो सही कि हिन्दी कला आलोचना किस मुकाम पर है! 


Thursday, November 1, 2012

नया कुछ रचने की कला दीठ


कलाओं का आस्वाद मन को भीतर से भरता है। लगता है, कहीं कुछ रीता हरेक के भीतर होता है। कलाएं उसकी पूर्ति करती मन को उल्लसित करती है। पिछले सप्ताह जवाहर कला केन्द्र में बहुतेरी कला प्रदर्शनियांे का आस्वाद करते एक कलादीर्घा में पांव औचक ठिठक से गये। जयपुर के साथ हैदराबाद, भोपाल, इन्दौर, मुम्बई, दिल्ली, अजमेर आदि स्थानों के उभरते हुए कलाकारों की प्रदर्शित चित्रकृतियां में बहुत कुछ खास था। एक चित्र में वीणा पर विराजते गणेश की भंगिमा या कहूं उसका आभाष मन में घर कर गया। 
यह एब्सट्रेक्ट गणेश थे। पार्श्व के ग्रे रंग में उभरती यंत्र मानिंद सधी रेखाएं। सिंदूरी, काला, भूरा, सफेद और दूसरे बहुतेरे रगों के मिश्रण से उभरी रंग आभाओं में गणेश की कलम और कागज पर उभरी रचनाओं का उजास। सब कुछ वही नहीं जो लिखा गया है, कहूं उस सरीखा ही कुछ जेहन में उभरा। कैनवस के इस एब्सट्रेक्ट पर न जाने कितनी ही देर आंखे ठहरी  रही। पता चला, कला अध्ययन से जुड़ी जयपुर की पूजा शर्मा का बनाया है यह चित्र। रंग-रेखाओं के उजास में माइकल एंजेलो, पिकासो, राफेल और हुसैन सरीखे कलाकारों की कला को बांचते नया कुछ रचने की आधुनिक दीठ से जैसे साक्षात्कार हुआ। वह दीठ जिसमें कलाकार भीतर की अपनी आस्था को गहरे से स्वर देते हुए अपने समय से भी कहीं कटा नहीं है।
बहरहाल, राजधानी दिल्ली की ऑनलाईन आर्ट गैलरी ‘आर्टइन्फो’ के तहत लगी हुई थी यह महत्ती कला प्रदर्शनी-‘बोनहुमी’। बोनहुमी! माने? ‘आर्टइन्फो’ के सतेन्द्र गुप्ता से संवाद हुआ तो कहने लगे, यह फ्रंेच शब्द है। अर्थ है, साथ-साथ। मुझे लगता है, किसी शब्द का यही कला संस्कार है। विभिन्न देशों में और बल्कि भारत के बहुत से प्रांतों की भाषाओं में बहुतेरे ऐसे शब्द हैं जिनमें अद्भुत कला बोध है। इन्हें बरतते हुए सांगीतिक लय की अनुभूति की जा सकती है। अज्ञेयजी के डायरी लेखन में बरते ‘तितली’ शब्द और भिन्न भाषाओं में इसके कहन की याद ताजा हो रही है। इस्पानी में तितली को मारिपोजा और ग्रीक में पेतालूदिस कहा जाता है। शब्द को सुनकर जो कला बोध होता है, उसी में रमते अज्ञेय लिखते हैं, ‘...मानो अभी पंखुरी झरी।...और झरते-झरते हाइकू बन गयी।’ सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो तमाम भाषाओं में लय अंवेरते ऐसे शब्दों को एकत्र कर कलाभिव्यक्ति का कोई अन्तर्राष्ट्रीय कोश तैयार किया जाए। अभी कल ही की तो बात है। राजस्थानी रचनाकार मित्र राज बिजारणिया ने फेशबुक में ‘चाळ भतूळिया रेत रमां’ अभिव्यक्ति की। शब्द की अद्भुत लय दीठ यहां नहीं है! यही तो है कला! आप कुछ पढें, सुनें, देखें तो भीतर की आपकी संवेदना जगे। मन को पंख लगे। कहीं और क्यों जाएं। हमारे आस-पास बहुत कुछ ऐसा है जिसमें कलात्मक बोध है। बस उसे पहचानें। उसमें रमें। पाएंगे, कुछ अद्भुत अनुभूत हुआ है। जो उसे गुनेगा, वही तो कुछ बुनेगा!
‘बोनहुमी’ कला प्रदर्शनी से गुजरते मैं भी जैसे यह सब गुन गया हूं। बहुतेरी बार यह होता है कि आप कुछ देखने जाते हैं और वहां और भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण मिल जाता है। ‘आर्टइन्फो’ की कला प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रांे के साथ उसकी ऑनलाईन कलादीर्घा की भी आभाषी यात्रा वहीं करने को मिल गयी। सुखद लगा, यह जानकर भी कि कोई ऑनलाईन गैलरी भिन्न माध्यमों मंे काम करने वाले 5 हजार के करीब कलाकारों की कला की वर्चुअल सैर करा रही है। कला में संवाद के साथ कला आयोजनों के श्रव्य-दृश्य चितराम भी वहां उपलब्ध है और भविष्य की योजना में संचार की इस तकनीक के जरिये हिन्दी में भी इसी तरह से कलाओं को आम जन से साझा करने की योजना है।