Tuesday, June 16, 2015

मुअनजोदड़ो



पुरातत्व के संदर्भ आमतौर पर बोझिलता लिए होते हैं। उदासीनता पसराते। पुरातत्व की खुदाई से निकले नतीजों की सभ्यता से जुड़े यात्रा के वर्णन भी  नहीं के बराबर ही हैं। शायद इसलिए कि पुरातत्व की खुदाई से निकले पत्थर, मिट्टी, हड्डियां, धातुएं, इंटे-टीले संभावनाओं की एकरस कहानियां के ‘हो सकता है’ सरीखे निष्कर्ष ही लिए होते हैं।  यह सही है, पुरातत्व की खुदाई भूमि के भीतर छुपी सभ्यता की परतें खोलती है परन्तु उसमें जीवन और संस्कृति का माधुर्य प्रायः नहीं होता है। मुर्दा हुए युग की कहानी से हर किसी को बहुत अधिक वास्ता भी तो नहीं होता! हां, पाकिस्तान में सिंध के लरकाना (शुद्ध रूप लाड़काणा) जिले में कराची से कोई 150 मील उत्तर-पूरब रेत में मोहनजोदड़ो की खुदाई से ही पहले पहल यह जाना गया कि भारत की सभ्यता उतनी ही पुरानी है जितनी की सुमेर-बाबुल और मिश्र की। इसी मोहनजोदड़ो सभ्यता की कहानी को अपनी यात्रा में बेहद रोचक अंदाज में जिया है, ओम थानवीजी ने अपनी यात्रावृतान्त पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ में। ‘मुअनजोदड़ों’ यात्रा संस्मरणो की बंधी-बंधाई लीक से हटकर है। 


इसलिए कि इसमें यात्रा से जुड़े अनुभव भर ही नहीं है। पुरातत्व से मिली खुदाई की दास्तां में अतीत के गलियारों में ले जाता लेखक आपको अपने संग ले चलता शब्द दर शब्द चलचित्र की मानिंद जैसे युग यात्रा कराता है। टाईम मषीन की मानिंद। आपने इस मषीन में पन्ने बांचने का बटन दबाया नहीं कि पूरा का पूरा अतीत आपकी आंखोें में जैसे तैरने लगेगा। अतीत ही क्यों, वर्तमान से जुड़ा वह समय भी जिसमें बीते समय की आहटें हैं और भविष्य से जुड़ा काल भी और उसके प्रष्न भी। ‘मुअनजोदड़ों’ में ओम थानवी ने व्यक्ति को भीतर की ओर मोड़ने वाले योग के पाठ के साथ खुदाई से मिली मुहरों के संदेष में बुद्ध और महावीर की ध्यान मुद्रा को अनुभूत करते लिखे में  अपने तई जिया है तो सिंधु घाटी की मुहरों में मनचाहे श्लोक ढूंढने की बजाय सभ्यता के दर्षन और उसकी उदात्त कला दृष्टि की पहचान करने का तार्किक आग्रह भी किया है। मुझे लगता है, यह यात्रा का वह दृष्यालेख है, जिसमें इतिहास, साहित्य और पुरातत्व विमर्ष में ध्वनित होता हममें जैसे बसता है। संस्कृति की जड़ों को तलाषने की मौलिक दृष्टि इसमें है तो स्थान, वस्तुओं और व्यक्तियों की दीठ का दार्षनिक भव भी है। 

यह सच है। पुरातत्व की खुदाई से भूमि के भीतर दबी सभ्यता की परतें तो खुलती है परन्तु वह पन्ने नहीं खुलते जिससे आप अपरिचित सभ्यता की सांस्कृतिक कहानी, उस जीवन की रोचकता से जुड़े अनुभवों को साझा कर सकें।  इस दृष्टि से भी ओम थानवी का यात्रावृतान्त विरल है। समय जो बीत गया है, उसके संज्ञान को ‘मुअनजोदड़ों’ में सूत्रबद्ध करते इसमें थानवीजी के यात्री मन ने पुरातन के देखे चिन्हों से आधुनिकता के अक्ष भी तलाषे हैं। 

यह महज संयोग नहीं है कि ‘मुअनजोदड़ो’ की उनकी दीठ देष के सर्वाधिक आधुनिक शहर चंडीगढ़ तक खींची चली आती है और वह अतीत की खुदाई से मिले अवषेषों को उससे जुड़ा पाते हैं। मुअनजोदड़ों में वाहनों से मिले साक्ष्यों का हवाला देते वह सड़क की चैड़ाई और सड़क की ओर सारे घरों की दिखती पीठ, उनके अंदर गलियों में खुलते प्रवेष द्वारों के चिन्ह देखकर लिखते हैं, ‘दिलचस्प संयोग है कि चंडीगढ़ में ठीक यही शैली साठ साल पहले ली कार्बूजिए ने इस्तेमाल की। वहां भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए पहले मुख्य सड़क से सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है, फिर घर की गली में, फिर घर में।’ देखे से मन के भीतर की उथलपूथल से ही जैसे उनके अंदर कौंघता है, ‘क्या ली कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजोदड़ो से ली?’ अंदर का प्रष्न यहीं नही रूकता बल्कि कविता से होता वास्तुकला के संदर्भों से जुड़ जाता है। इस जुड़े में प्रष्न नहीं स्वयं की स्थापना की जैसे अपने तई पड़ताल है, ‘कहते हैं, कविता में से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला में भी कोई प्रेरणा चेतन-अवचेतन में ऐसे ही सफर नहीं करती होगी?’

बहरहाल, ओम थानवी के पास कहन का अपना मौलिक अंदाज है। किस्सागोई भी। इस किस्सागोई में वह अपने सफर को रोचक अंदाज में बंया करते हैं। गंतव्य तक पहुंुचने से पहले के बस के सफर की उनका कहन देखें, ‘...यह बस या रेल के सफर में ही मुमकिन है कि बिना किसी परिचय के साथ का मुसाफिर बरसों के परिचित की तरह पेष आए। उन चिकने ‘परिचय-पत्रों’ का आदान-प्रदान किए बगैर, जो चतुर-सुजानों के बटुओं में नोटों के बीच ठुंसे होते हैं। विमान के मुसाफिर तो आंखों में भी नहीं मुस्कुराते, अगर सामने अजनबी खड़ा हो। हवा में उड़ने और जमीन पर चलने का यह बड़ा फर्क है।’ कराची के बाद बस में सिंधी भाषा के बोलबाले में ही वह सिंध से जुड़े बहुत से महत्वपूर्ण तथ्यों पर भी रोषनी डालते हैं। मसलन पूरे भारतीय उप महाद्वीप में मुस्लिम राज सबसे पहले सिंध में कायम हुआ, इस्लाम की स्थापना के थोड़े समय बाद। यही नहीं, अपनी इस यात्रा में वह जातीय अस्मिता से जुड़े ‘सिंधु देस’ के लिए ‘जिए सिंध’ आंदोलन की चर्चा करते हैं तो सफर में मिले सवालों की रोषनी में वह कराची के दंगों के साथ सामयिक संदर्भों की सूक्ष्म सूझ से भी पाठकों को साक्षात् कराते हैं।

बहुत से पाठकों का प्रष्न हो सकता है? मोहनजोदड़ो को ‘मुअनजोदड़ो’ क्यों कहें? यात्रा वृतान्त में इस संबंध में रोचक वर्णन है। बल्कि शब्दों की उनकी गहरी सूझ से भी पाठक औचक यहां रू-ब-रू होते हैं। वह संभावना जताते हैं, ‘कौन जाने मुअन से मोअन होते हुए कब मोहन हो गया हो! वैसे अंगरेजी में ‘मोअन’ ही लिखा जाता है। जैसे ‘उमर’ को वे ‘ओमर’ लिखते हैं, ‘उसामा’ को ‘ओसामा’।’ यह लिखते हुए वह यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि कोई नहीं जानता कि सिंधु घाटी सभ्यता में शहरों के नाम वास्तव में क्या रहे होंगे। 

जब कोई नहीं जानता तो कयास क्यों? कयास की बजाय वह अपनी इस यात्रा के मेजबान गुलाम पीरजादा के कहे, ‘हम ‘मुअनजोदड़ो’ बोलते हैं।’ की गहराई में ले जाते हैं। पर संभावना के शब्द तर्क भी यहां हैं। इन तर्कों में शब्दों की उनकी व्याख्या लुभाती है, जरा देखें, ‘मुआ यानी मृत, जैसे कि कोसते हुए हिन्दी में कहा जाता है-मुए ने जीना मुहाल कर दिया। बहुवचन में मुअन, मुआ का सिंधी प्रयोग है। दड़ा माने टीला। मुअन-जो-दड़ो: मुर्दों का टीला।’ अपने इस तर्क में रांगेय राघव के ‘मुर्दों का टीला’ उपन्यास को भी वह याद करते हैं। उनके इस शब्द विवेचना के आधार पर खुदाई का बहुधा प्रयोग में लाया जाने वाला मोहनजोदड़ो अपने आप ही स्मृति से लोप होने लगता है और ‘मुअनजोदड़ो’ संज्ञा ठीक लगती है। पर इस सब विवेचन में औचक मन में यह भी कौंधता है कि बहुत बार ‘नाम में क्या रखा है।’ की सोच से अर्थ का अनर्थ नहीं हो जाता! 

‘मुअनजोदड़ो’ में ओम थानवी बहुत से स्थानों पर मामूली संदर्भों में भी अंतर्मन संवेदना की गहराई का बोध कराते हैं। मसलन यात्रा के लिए वह जब रवाना हुए तब की स्मृति संजोते लिखा गया है, ‘..रवाना हुआ तब माॅं पाकिस्तान के नाम से चैंकी थी। दफ्तर का जरूरी काम होगा, उसने पूछा। स्वर में दबी आषंकाओं की छाया छूपी न थी। मेरे यह कहने पर कि नहीं, घूमने जा रहा हूं, उसने फिर पूछा-जाना जरूरी होगा?’ यहां तक तो ठीक है परन्तु इसके आगे के वाक्यों में निहित संवेदना से जैसे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, ‘...बुजुर्गों के मन मे जो इलाका इतना दूर चला गया, अभी करीब लौटा नहीं है। भरोसा कभी आसानी ने नहीं लौटता।’ भरोसा नहीं लौटने के इसी संदर्भ का मर्म लाड़काना जा रही बस में स्टीरियो की बढ़ी आवाज से नींद मंे हुए खलल से भी जुड़ा है। वह लिखते हैं, ‘...लेकिन एक दफा इस तरह उड़ी नींद वापस कब आती है। नींद भी भरोसे की तरह है, लौटने के मामले में।’

‘मुअनजोदड़ो’ का यात्रावृत्त ओम थानवी की सूक्ष्म कला दीठ की भी एक तरह से बानगी है। बस में सफर के दौरान आगे चलते ट्रकों की पीठ पर मंडे बेल बुटों, चिप्पियों से की गई पच्चीकारी, उकेरे हुए गौरेया-तोतों के साथ नदी और महुाने के पेड़ों पर पंछी के चित्रों को देखते वह पाठकों को चिंतन की गहराई में ले जाते हैं। यह लिखते, ‘ट्रक-चित्रों की एक और खूबी है: आपको आंखे ही नहीं खुद के वाहन की हैडलाइट खोलनी पड़ती है। इस रोषनी में ही वे चिप्पियां खिलती है। चित्र उनके, रोषनी आपकी! ओवरटेक करने की जल्दबाजी में होंगे तो रोषनी हटते ही चित्र गायब। किसी फन की तरह हुनर में भी यह संप्रेषण की दुतरफा कार्रवाई है। भले सड़क-छाप क्यों न हो!’ 

और यही क्यों पुरावस्तुओं के उल्लेख में भी ‘मुअनजोदड़ो’ देखने का जैसे नया संस्कार देती है। ओम थानवीजी खुदाई से प्राप्त वस्तुओं का उल्लेख उनके वहां होने को अपनी आंखों से देखने के अनुभव भर से नहीं कराते। वह पुरा वस्तुओं से जुड़े संदर्भों के सूक्ष्म विवेचन में स्मृति और इतिहास को सर्वथा नया संदर्भ भी देते हैं। यह सही है, प्राचीन भारत के ही नहीं दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहरों में मुअनजोदड़ो और हड़प्पा को माना गया है। बकौल थानवी, ‘लेकिन मुअनजोदड़ो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियां, चाक पर बने चित्रित भाण्डे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव हुआ। उधर हड़प्पा के ज्यादात साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान ‘विकास’ की भेंट चढ गए। खुदाई से पहले हड़प्पा को ठेकेदारों और इंट-चोरों ने खोद डाला था।’ उनके इस लिखे में ही आगे टीलों पर आबाद रहे अतीत के इस शहर की रोचक दास्तां को गहरे से जिया है। पुरातत्व की बोझिलता को परे धकेलते चल-चित्र की मानिंद वह मुअनजोदड़ो की सभ्यता को आज के संदर्भों से अपने यात्रावृत्त मे निरंतर जोड़ते पुरातत्व को एक तरह से सुरूचि संपन्न करने का कार्य भी अनायास ही कर देते हैं। 

मुझे लगता है, अपने लिखे में उन्होंने यात्रा की अनुभूतियों में इतिहास को नहीं, उसके पार झांकने की दीठ भी एक तरह से दी है। कैसे? जरा गौर करें, इन पंक्तियां पर, ‘षहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी को रून-झुन भी सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व की तस्वीरों में मिट्टी के रंग में देखा है। यह सच है कि किसी आंगन की टूटी-फूटी सीढ़ियां अब आपको कहीं ले नहीं जाती, वे आकाष की तरफ जाकर अधूरी ही रह जाती है। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े हाकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर खड़े हैं, वहां से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झांक रहे हैं।’

प्राचीन सभ्यताओं के खुदाई वाले स्थानों की यात्रा पर जाने पर प्रायः खण्डहर, अवषेषों और इंटों के ढेर के अलावा वहां का उजाड़ मन में अजीब सी उदासी पसरा देता है। इसीलिए जिनकी इतिहास में रूचि है या फिर पुरातत्व से जुड़ाव है, उनको और प्राचीन से जुड़े किसी संदर्भ की आस्था के अतिरेक को छोड़ दे ंतो ऐसे स्थानों पर जाने की यात्रा का मन किसका होगा! पर ‘मुअनजोदड़ो’ के वृतान्त में निहित संवेदना और संदर्भों के जरिए खुलते किस्से-कहानियों को पढ़ते बार-बार यह भी मन में आता है कि यात्रा अतीत को अवंेरती है। बषर्ते आपके पास सभ्यता को अपने तई समझने की दीठ हो। सभ्यता माने संस्कृति से जुड़े संदर्भों की अनुभूति की दीठ। इससे ही शायद गद्य में भी काव्य की संवेदना औचक उपजती है, ‘...न आकाष बदलता है, न धरती। पर कितनी सभ्यताएं, इतिहास और कहानियां बदल गई।...इसे देखकर सुना जा सकता है।... देखना अपनी आंख से देखना है। बाकी सब आंख का झपकना है। जैसे यात्रा अपने पांव चलना है। बाकी सब कदम-ताल है।’ अपने पांव चली इस यात्रा में ओम थानवी अपने राजस्थान को भी ठौड़-ठौड़ याद करते हैं। राजस्थान की रेत के अपनापे को वह इसमें संजोते हैं तो बबूल, ज्यादा ठंड, ज्यादा गर्मी और धूप के मिजाज तक से नाता कराते चले जाते हैं। वह राजस्थान की धूप को पारदर्षी और सिंध की धूप को चैंधियाती अनुभूत करते जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, पोकरण, फलौदी से जुड़े बहुत से संदर्भ भी अंवेरते हैं। जैसलमेर के कुलधरा गांव और उस पर लिखी प्रख्यात चिंतक, कवि नंदकिषोर आचार्य की कविताओं की भी स्मृति भी वह अपने लिखे में दिलाते हैं। 
‘मुअनजोदड़ो’ यात्रावृत्त भर ही नहीं है बल्कि इतिहास, संस्कृति और साहित्य के रिष्तों की एक तरह से पड़ताल है। यह सही है, सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्यता पर पुरातत्व या इतिहास के लोगो की बजाय साहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा है। पर इस लिखे में कितनी वास्तविकता और कितनी कल्पना है, इसे थानवीजी ने अपने तई गहरे से इसमें व्याख्यायित किया है। मसलन वह डाॅ. वासुदेवषरण अग्रवाल के संस्कृति बोध का कायल होने के बावजूद ‘भारतीय कला’ पुस्तक में दिए मुअनजोदड़ो के उनके ब्योरों को नकारते हैं। भाषा की दृष्टि से डाॅ. अग्रवाल की पुस्तक को वह अनुपम बताते हैं पर उनकी स्थापनाओं के संदर्भ में स्पष्ट कहते हैं कि वह पुरातत्व से पुष्ट नहीं होती। इसी तरह इतिहासकार रामविलास शर्मा की हड़प्पा सभ्यता की स्थापनाओं को भी वह काल्पनिक बताते है। इस संदर्भ में वह पाकिस्तान में बलूचिस्तान और सूबा सरहद की खुदाई में नौ हजार साल पहले की सिंधु या हड़प्पा सभ्यता के शुरूआती दौर के प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट करते हैं कि खुदाई प्रमाणों में कहीं भी लोहा और आरेदार पहिया नहीं है। और पालतू घोड़ा तो दूर, वहां जगली घोड़े तक के निषान नहीं है। जबकि ये तीनों चीजें ऋग्वेद में अहम है। वह प्रष्न करते हैं, जब तीनों चीजें बाद में विकसित हुई तो इनकी सभ्यता का काल हड़प्पा काल से पुराना कैसे हो सकता है। इसी तरह पुरातत्व से जुड़े संदर्भों को अपने तई दूर तक ले जाते, कल्पनाओं का ताना-बाना कैसे बुना जाता है, इसकी रोचक दास्तां में वह राहुल सांकृत्याययन की उस मजेदार स्थापना की भी चर्चा करते हैं जिसमें वेद के ‘दिव्य सोम’ को ‘भांग’ बताया गया है।

बहरहाल, ओम थानवी ने ‘मुअनजोदड़ो’ को संस्कृति का तीर्थ, कला का आदि-पर्व कहा है। मुअनजोदड़ो के इतिहास, संस्कृति, पुरातत्व और लोक से जुड़ी संवेदना और स्थानों की अस्मिता को अपने तई सूत्रबद्ध कर पुनर्नवा करते। सूफी फकीर शाहबाज कलंदर के सेवण धाम से गुजरते नुसरत फतह अली खां की कव्वाली ‘झूले झूलेलाल, दम मस्त कलन्दर’ के जरिए पारम्परिक बंदिष को दी गई अलग भंगिमा की अनुभूति में औचक उनके लिखे में शब्द जैसे झरते हैं, ‘मैंने सिर उठाया। शाहबाज कलन्दर की दरगाह की ओर देखा। आंखे बन्द की। पूरी अकीदत के साथ। बस आगे चल दी। मेरा एक मन वहीं छूट गया।’ 
‘मुअनजोदड़ो’ में संवेदना के ऐसे ही दृष्यालेख पन्ने दर पन्ने भरे पड़े हैं। पढ़ंेगे तो पाएंगे, आप भी उनके साथ यात्रा पर हैं।