Thursday, October 27, 2016

अनुभूतियों का ‘रंग अध्यात्म’


अनिल गायकवाड़ की कलाकृति 

तमाम हमारी कलाएं सौन्दर्य का अन्वेषण हैं। दृष्य की संवेदना और अदृष्य के मर्म की तलाष। कहें, मन के भीतर नया कुछ रचने, गढ़ने की अकुलाहट। पर सौंदर्य का प्रकाष तभी है जब अंतर में उजास हो।...और अंतर का उजास भी तभी है जब, कलाओं का हममें वास हो। इसीलिए तो कहें, कलाओं से ही है यह जीवन। कलाकृतियां अपने रूप सौन्दर्य से आकृष्ट ही नहीं करती, सहज मन में अवर्णनीय उमंग भी अनुभूत कराती है।

 चित्रकला की ही बात करूं तो वहां रंग, रंखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर बिंब और रूपक रचते हैं। अंतर्मन की वेदना, द्वन्द और त्रासदियों से मुक्त करने का मार्ग ही कलाएं नहीं है बल्कि बहुत से स्तरों पर मन के रीतेपन को हर हमें संपन्न भी करती है।

बहरहाल, यह महज संयोग ही नहीं है कि ‘रंग अध्यात्म’ में सम्मिलित कलाकृतियों में रंगो में बरती भाषा, कहन और रेखाओं से सृजित आकाष में एक खास तरह की सांगीतिक संगत है। यहां अनुभूतियों स्मृतियों की संवेदना दीठ है तो सौन्दर्य की अर्थ बहुल ध्वनियां भी हैं। चित्रों की बहुरंगी कलादृष्टि में किसी एक शैली विषेष का जड़त्व नहीं होकर परम्परा में समकालीनता का एक तरह से घोल है। 

श्याम सुन्दर शर्मा की कलाकृतियां अतीत और वर्तमान को पुनर्नवा करती रेखाओं का ‘रंग-अध्यात्म’ है। परम्परा में रंगो का विचार स्थापत्य यहां है तो सामयिकता के अर्थगर्भित संदर्भ भी इनमें हैं। रेखाओ की जकड़न से मुक्त, फलक पर विलग होते हल्के-गहरे रंगों में अंतर्मन अनुभूतियों का आकाष उनके चित्रो में हैं। कैलीग्राफी में वह पुराण ग्रंथों, चीजों को अपने तई परोटते रंगो का एक तरह से छन्द रचते हैं। इन चित्रो में कहीं अंधेरे-उजाले में उभरती छायाओं के बहाने दृष्य का अदृष्य और अदृष्य का दृष्य रूपान्तरण भी हैं। आंतरिक जगत की व्यंजना में रंगो के उजास, एक खास तरह की लय में उनकी कलाकृतियां दार्षनिक गहराईयों में ले जाती गहरे ध्यान के लिए प्रेरित करती है। मुझे लगता है, यही इन कलाकृतियों की बड़ी विषेषता है कि इन्हें देखते मन संस्कारित होता है।
श्याम शर्मा की कलाकृति 

अनील गायकवाड़ प्रकृति को अपने तई रंगो में रूपान्तरित करते हैं। उनकी कलाकृतियां का अपना मुहावरा है। इस मुहावरे में रंगो का जैसे ‘स्मृति छंद’ रचा गया है। फलक पर विलग होते रंगाकार और उनमें व्यंजित खेत-खलिहान की उर्वरता। परिवेष का मर्म। रंग दर रंग परतें। कहीं कोई ठहराव नहीं...रंगो की शास्त्रीय व्यंजना। देखते औचक यह भी लगता है, जो कुछ प्रत्यक्ष दिखता है, वही पूर्ण नहीं है। उससे परे भी चिंतन और अनुभूतियों से जुड़ा बहुत कुछ वहां है। रंगो का द्वैत। कहूं, एकान्त का रंग प्रवाह। अन्तध्र्वनियों में अनुभूतियों का आकाष यहां है। दृष्यालेख सरीखी उनकी कलाकृतियों को देखते औचक यह भी खयाल आता है कि रंगों के बहाने आत्मान्वेषण की उनकी उत्सुकता इनमें व्यंजित हुई है।
सुप्रिया की कलाकृति 

सुप्रिया की कलाकृतियों के केन्द्र में स्त्री आकृतियां हैं पर इनको रूपायित करते वह सामाजिक अवधारणाओं को एक तरह से व्याख्यायित करती है। पाष्र्व रंग छटाओं, अभिप्रायों में रोजमर्रा के जीवन से संवाद सुप्रिया के चित्रों में है तो स्त्री जीवंतता, उसकी अखूट ऊर्जा का सुमधुर अंकन भी। अपने होने के उत्सव का गान इन कलाकृतियो में है तो स्त्री स्वतंत्रता और उसकी अंतर्मन प्रकृति का वैचारिक द्वन्द भी इनमें है। कलाकृतियों में बरते रंग परिवेष से संवाद करते अपने समय के सच को जैसे गहरे से व्यंजित करते हैं। यहां परम्परा का पुनर्निमाण या कहूं पुनर्ननवीकरण है।

गजराज चानन की कलाकृतियां में पारम्परिक मिनिएचर की एप्रोच है। स्त्री-पुरूषों की आकृतियों में रेखाओं की लय और निहित गत्यात्मक प्रवाह है पर आधुनिकता की आहट भी इनमें है। ग्रामीण जीवन की समकालीनता में उनकी कलाकृतियां लोक का उजास लिए है। रेखाओं की सांगीतिक लय यहां है पर मोबाईल से संवाद के बहाने इन कलाकृतियों में समय संवेदना को भी गहरे से जीया गया है।  उनके उकेरे चरित्रों के पाष्र्व परिवेष में मांडणों और दूसरे अलंकारों के साथ लोक कलाओं का एक तरह से उजास है। छवियों की मोहक व्यंजना है उनके चित्र, परिवेष में परिवर्तन की अनुगूंज लिए।

कलाकृति : उत्तम चापते 
उत्तम चापटे की कलाकृतियां से रू-ब-रू होते लगता है, कैनवस पर वह रंग पोतते नहीं बल्कि फैलाते हैं। इसीलिए किसी एक रंग को भी उन्होंने कैनवस पर बरता है तो उसकी बहुलता में अंतर्मन संवेदनाओं का अनूठा भव निर्मित होता वहां प्रतीत होता है। कहूं, अंतराल पर उठती रंग सतहों में दृष्य और मनःस्थितियों का सूक्ष्म अंकन वहां है।  रंगो की सुनहरी दीठ और अनूठा लालित्य यहां है। किसी एक रंग में अपने को व्यंजित करते वह उसके बहुआयामों को उद्घाटित करते हैं। देखने वालो ंको अनुभूतियों का वह जैसे दृष्य पाठ बंचाते हैं। यह करते औचक वह कैनवस पर जैसे कुछ उघाड़ते हैं।
गजराज की कलाकृति 
इस उघड़ेपन में उभरता रंग और उससे जुड़ी संवेदना देखने की हमारी एकरसता को तोड़ती उस क्षण का गुणगान करती है। मुझे लगता है, तमाम कलाकृतियां मूर्त-अमूर्त में शुद्ध रंगो का एक तरह से सांगीतिक गठन है। अनगढ़ भावों की जीवंतता इनमें है। रंगो की चमक इनमें है, पर हरेक कलाकृति की अपनी वह लय भी है जिसे अनुभूत करने के बाद भी मन उसे फिर से देखने-गुनने को संस्कारित होता है। 

सभी में एक खास तरह की गीतात्मकता है, इसीलिए यह तमाम चित्र देखने के समय का ही सच भर नहीं है बल्कि उसके बाद भी अर्थ बहुलता की तलाष को प्रेरित करते कलाओं से हमारा नाता और सघन करते हैं।