Friday, September 27, 2013

प्रौद्योगिकी, छायांकन एवं कला

छायांकन स्मृतियों का सौन्दर्य अंकन हैं। कहें, यह वह दृश्य कला है जिससे आप अतीत को बांच सकते है। सच! गुजरे हुए कल के पल की स्मृति के सुनहरे लेख ही तो है छायाचित्र। तमाम हमारी कलाएं व्यक्ति और वस्तु की अंतःविषयक प्रकृति को प्रतिबिम्बित करती है। ऐसे दौर में जबकि हमारा जीवन पूरी तरह से विज्ञान और तकनीक से ही आबद्ध होता जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि प्रौद्योगिकी से जुड़े होने के बावजूद छायाकंन में संवेदनाओं की सीर बची हुई है। माने वहां रोबटनुमा होने की बजाय व्यक्ति भीतर के अपने द्वन्द, भावनाओं, सर्जन संभावनाओं से जुड़ा रहता है। 
बहरहाल, मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तुकला एवं नियोजन विभाग ने कुछ समय पहले डच वास्तुकला के अंतर्गत जल प्रबंधन, शहरी फैलाव और बड़ी तादाद में भवन निर्माण की आवष्यकता से संबद्ध छायाचित्रों की एक प्रदर्षनी का आयोजन किया था। इसमें प्रदर्षित छायाचित्रों का आस्वाद करते ही यह सब ज़हन में कौंधने लगा है। मुझे लगता है, विज्ञान और तकनीक में संवेदनाओं की खेती छायांकन से ही की जा सकती है। और विडम्बना देखिए, देषभर के प्रौद्योगिकी संस्थानों में तकनीकी यंत्र के रूप कैमरे के भरपूर इस्तेमाल के बावजूद छायाकंन के कला महत्व को दरकिनार किया हुआ है। तकनीकी षिक्षा में कला सरोकारों का माध्यम कैमरा बनता है और छायांकन के कला पहलुओं पर भी वहां अगर शिक्षण की पहल होती है तो प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में आने वाली तकनीकी युवा पौध संवेदना के मानवीय गुणों से सर्जना के नए आयाम गढ़ सकती है। उनके किए कार्य, चाहे वह वास्तुकला या अन्य प्रौद्योगिकी निर्माण के हों, वहां का तमाम सर्जन सौन्दर्य का संवाहक भी नहीं हो जाएगा! कांकरिट के जंगल उगाते मन के इस युग की बड़ी आवष्यकता आज यही तो है। और नहीं तो प्रौद्योगिकी संस्थानों के वास्तु और नियोजन विभाग तो यह कर ही सकते हैं। आखिर वहां भवन विन्यास, आकल्पन के कार्य में कैमरे रूपी यंत्र का ही तो सहारा प्रमुख होता है।
इस दीठ से मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तु और नियोजन विभाग के विभागाध्यक्ष रामनिवास शर्मा की पहल बहुत से स्तरों पर प्रभावित करती है। उनकी लगाई ‘नीदरलैण्ड आर्किटेक्चर इन्स्टीट्यूट’ के छायांकनों की प्रदर्षनी में वास्तुकला में छायाकंन की अहमियत तो है ही, प्रदर्शनी के सुव्यवस्थितकरण की उनकी सूझ भी लूंठी हैं। विभाग के बारादरी गलियारे को ही छायांकन दीर्घा बनाते उन्होंने छायाकला के वास्तुकला रूपान्तरण की दीठ का सुअवसर जो दिया! छायाकार मित्र महेष स्वामी आग्रह कर प्रदर्षनी दिखाने जब ले गए थे, तब तकनीकी संस्थान के इस प्रदर्षन की बेरूखी भी ज़हन में थी। परन्तु वास्तुकला और छयाकन के रिश्तों की संवेदना  में जाते यह भी लगा कि प्रदर्शनी यदि नहीं देखता तो एक बड़ा अवसर गंवाता ही। मुझे लगता है, छायांकन विज्ञान और तकनीक में कलात्मक सौन्दर्य का रस घोलती कला है। कभी बिनाॅय बहल ने अजंता की गुफाओं, उनकी छतों और भित्तिचित्रों को विस्तृत रूप में फोटो रूप में ही प्रलेखित किया था। वास्तुकला और मूर्तिकला के अंतर्गत उनका यह संग्रह आज भी इन्दिरा गाॅंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के ‘कलानिधि’ संकाय में संग्रहित है। ललित कला की एक शाखा के रूप में उपयोगिता की दृष्टि से भले ही वास्तुकला भवन निर्माण तक ही सीमित हो गई हो परन्तु सामाजिक बदलाव और विकास के परिप्रेक्ष्य में इसके कला से जुड़े महत्व पर भी हमें गौर करना होगा। आखिर तमाम कलाओ की जननी कभी यही वास्तुकला ही तो रही है। यही वह कला है जिसके तहत तकनीकी ज्ञान संपन्न संवेदनाओं से उपजे सर्जक मन की सुविकसित रचनाओं का आकाष गहरे से रचा जा सकता है। बल्कि कहें, आधुनिक सभ्यता का सांचा वास्तुकला से ही निर्मित है। इसमें छायांकन से जुड़ी कला संवेदना का वास हो जाए तो सोने में सुहागा नहीं हो जाएगा!

Friday, September 20, 2013

अतीत का सौन्दर्यान्वेषण

तमाम हमारी कलाएं सौन्दर्य का अन्वेषण है। कहें, मन के भीतर नया कुछ रचने, गढ़ने के लिए चलने वाली अकुलाहट। दैनिन्दिनी जीवन में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, क्षण-क्षण में उसमें परिवर्तन होता है। तेजी से बदलते इस समय की गति को पकड़ते नया जो रचा, वही तो कला है। पुराने पते झड़ते हैं, नए उगते हैं। प्रकृति का यही नियम है। सर्जन का सच भी तो यही है।

बहरहाल, यह जब लिख  रहा हूं, जीर्ण-शीर्ण स्टेम्प पेपर पर ठुकी रियासतों के अतीत से जुड़े राजस्थान की राजमुद्राएं दिखाई दे रही है। जयपुर, भोपाल, बूंदी, टोंक, अलवर, बीकानेर, उदयपुर राज्यों के एक आने, दो आने के स्टेम्प पेपर और उन पर ब्लाॅक्स की छपाई। स्याही के पैन से संस्कृत, फारसी, उर्दू, अरबी, के साथ साथ खास बीकानेरी ‘बाणिका’, मुरडि़या लिपि  और उस पर अंगूठे, अंगूलियों के लिए निशान। पर यह सब कैनवस का पाश्र्व है। इस पाश्र्व पर आम आदमी भी है। उसके जीवन से जुड़े सरोकार भी और इन्हें अंतर्मन संवेदना से भांत-भांत के रूपों मंे जिया है कलाकार मालचन्द पारीक ने। गणपति प्लाजा स्थित ‘समन्वय’ कलादीर्घा में पारीक की कला प्रदर्शनी ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ के अंतर्गत इस सबका आस्वाद करते यह भी लगा कि अंतःप्रक्रियाओं में यह कलाकार ही है जो कालातीत को समय के सर्वथा नूतन संदर्भ देने की क्षमता रखता है। 

मालचन्द पारीक ने पुराने जमाने में कोट-कचहरी के कार्यों, लेन-देन में प्रयुक्त होने वाले स्टेम्प पेपर को केन्द्र में रखते कैनवस पर आम आदमी के सपनों, उसके संघर्ष के साथ ही अदम्य जिजीविशा को प्रदर्शनी में अपने तई सांगोपांग रूपायित किया है। एक अदद घर का सपना यहां है। उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, ठेला ठेलने वाला, रिक्शा चलाने वाला या फिर मजदूरी करता श्रमिक-सबका सपना अपने घर का है। पुराना स्टेम्प पेपर आज की मुद्रा का प्रतीक है, और उस पर उकेरा व्यक्ति घर की चाह में भटकता आम आदमी।

सोचता हूं, मालचन्द कैनवस पर जीवन का रूपक गढ़ता कलाकार है!  इस रूपक में सौन्दर्य सर्जना के अंतंर्गत कला की हमारी लोक परम्परा को भी गहरे से संजोया गया है। मसलन ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ की एक कलाकृति में जलरंगों की प्रक्रिया में आदि जैन पुराण का मोहक चितराम है। पड़ की मानींद। पुराण कथा से जुड़े चित्रों का कोलाज। दूसरी और कलाकृतियां में स्टेम्प पेपर पर रिक्शे पर, ठेले पर, तांगे, बैलगाड़ी, टैम्पो पर बहुमंजिला इमारते ढोता आम आदमी है तो चाक से घर गढ़ता किसान भी है, बैण्ड वादक भी है और हां, सांप की पिटारी से सांप नहीं बीन बजाकर बहुमंजिला इमारत निकालता सपेरा भी है। कहीं स्टेम्प पेपपर को पाश्र्व में रखते तारों का जाल बुना गया है और उसमें उलझे पक्षियों का कलरव सुनाया गया है तो खण्डहर होता अतीत भी यहां गा रहा है। हवेलियों के ध्वस्त होते झरोखों में बीता अतीत कलाकृतियो में जैसे ध्वनित हो रहा है। माने रंग-रूप के साथ उनमें निहित संवेदना के अंतर्गत संगीत की अंर्तध्वनियां भी है।

मालचन्द बहुआयामी चित्रकार है। चित्रो की इस प्रदर्शनी में उसके मूर्तिशिल्प और एक बड़ा सा घूमता हुआ इन्स्टालेशन ‘मिरर-कर्टेन’ भी समय संदर्भों को अंवेरता देखने वालों को स्पन्दित करता है। तमाम मूर्तिशिल्पों के केन्द्र में टीवी डिश है। यह पेड़ के तने पर लगी है, झोपड़ी पर भी और सांची के स्तूप, पीरामीड और बैठने की कुर्सी तक में। माने कहीं कोई जगह नहीं बची है, जहां बुद्धुबक्शा की पहुंच नहीं हुई है।

कला के इन भांत-भांत के रूपों को देखते औचक ही यह भी अनुभूत होता है कि भिन्न माध्यमों में समय को रूपायित करते कलाकार अजीब सी अकुलाहट में जीता है। इस अकुलाहट में ही शायद वह माध्यम के साथ संदर्भों के अन्वेषण में कला की बढ़त भी करता है। कला में माध्यम के साथ संदर्भ की तलाश जरूरी भी है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को रूपायित करते निरंतर उत्कृष्टता की ओर उन्मुख होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। किसी कलाकार के भविष्य की राह आखिर इसी से तो तय होती है! मालचन्द इसी राह पर आगे बढ़ रहा है। आप क्या कहंगें!

Friday, September 13, 2013

रमणीयता बोध कराते चित्र

कलाएं भीतर के हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती है। रस की तन्मयता जो वहां है! माने यह कलाएं ही हैं जो सब कुछ भुलाकर हमें रस विलीन करती 'भावो भावं नुदति विषयाद इसीलिए तो कहा गया है। यानी भावों की प्रेरणा के पीछे जो भाव रह जाए। रागबन्ध। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में सुधीर वर्मा के चित्रों को देखना संगीत को सुनना, नृत्य से सराबोर हो जाना ही है।
रेखाओं की अदभुत लय अंवेरते वह मन को रससिक्त करते हैं। उनके चित्र सुन्दर नहीं रमणीय हैं। माधुर्य का आस्वाद कराते। मुझे लगता है, रंगों में घुली उनकी रेखाएं संगीत में आलाप लेने सरीखी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। भले ही चित्रों का उनका मूल आधार नायिका भेद है परन्तु इसमें सब कुछ सादृश्य है। माने रेखाएं आकृतियों को जीवन्त करती मोहक छटाओं का छन्द रचती है। 
कुछेक चित्रों पर जाएंगे तो पाएंगे उनमें घोड़ों के साथ नायिका है। अलग से भी वह है परन्तु घोड़ों के साथ का लावण्य मन को मोहता है। नारी शुलभ चंचलता मंडी रेखाओं में यथार्थ की बजाय भाव-भंगिमाएं ही वहां प्रधान है। कहें, नारी नहीं उसके आत्मीय गुणों को रेखा दर रेखा वह रंगों में घोलते आप-हम से साक्षात कराते हैं। बिहारी सतसर्इ का आधार लेते कुछेक नारी चित्रों में पाश्र्व में उभरे पन्ने और उसमें मंडी लिपियां भी वहां है। सर्जना की अनवरत प्यास का संयोग निर्मित करती। रूप को अलंकृत करती।
सुधीर के नायिका चित्र दरअसल परकीया प्रेम की गंध में मानिनीरूप लिए हैं। बकौल बिहारी सतसर्इ वह धीर है, अधीर है ओर धीराधीर भी है। और अचरज! सुधीर नायिका भेद के इस वण्र्य को अपने तर्इ आविष्कृत करते रमणीयता का बोध जगाते हैं। उनकी नायिका की कमर, अधर, भाल, नेत्र आदि सभी कुछ इस कदर मधुर हैं कि वहां रेखाओं के पीछे अर्थ दौड़ता है। माने वहां आकृतियां है परन्तु उनमें निहित लय में रात, चांदनी, धूप, बरसात और ऋतु संबंधी तमाम अनुभूतियों भी हैं। मुझे लगतां है, ऋतुओं को यदि देखना हो तो सुधीर वर्मा के चित्र हमारी मदद करते हैं। यही क्यों? नृत्य, संगीत की सहोदरा भी है उनकी यह कला। प्रारंभिक रंग मूलत: पांच हैं। श्वेत, पीला, काला, नीला और लाल। इनकी संगति से ही दूसरे रंग उपजते हैं। सुधीर की रेखाओं में प्रारंभिक इन पांच रंगों के सुव्यवसिथत संयोजन में कलाकृतियां संगीत और नृत्य का आस्वाद ही तो कराती है। इसलिए कि सूर्य के सात घोड़ों, मयूर के साथ ही तमाम दूसरे बिम्ब, प्रतीकों के साथ रेखाओं में घूले रंगों में सुधीर के नायिका भेद चित्रों से संगीत निकलता है। लय का अनुसरण करती रेखाएं नृत्य को जीवंत करती देखने वालों में बसती भी है। 
सुधीर के उकेरे घोड़ों पर ही जाएं। घोड़ों का उनका वेग रेखाओं की चंचलता लिए है। माने घोड़े हैं परन्तु उनमें निहित ऊर्जा माधुर्य से उपजी है। शकित की बजाय वह मन की उत्सवधर्मिता से जुड़ी है। सोचें, सूर्य नही हो तो सब कुछ निस्तेज नहीं हो जाएगा! इसीलिए कहूं, सुधीर की आकृतियां भीतर के हमारे रिक्तपन या कहें निस्तेजपन को दूर करती है। हुसैन ने कभी 'बूंदी की नायिका शीर्षक से एक चित्र उकेरा था। सुधीर के नायिका चित्रों का आस्वाद करते न जाने क्यों वह औचक ही ज़हन में उभरा है। माने सुधीर की रेखाओं में हुसैन की एप्रोच भी है और हां, पिकासो की रेखाओं के वेग का संवेग भी। सादृश्य में रंग घूली रेखाओं में लावण्य के चितेरे तो वह हैं ही। इसीलिए तो सौन्दर्य नहीं रमणीयता का बोध कराते वह मन को रमाते हें। क्षण क्षण में रेखाओं का नव रूप दिखाते।

Friday, September 6, 2013

रेत राग रमा कमायचा

सरोद और सांरगी से कुछ-कुछ मिलता हुआ वाद्य है कमायचा। सुनेंगे तो मन करेगा गुनें। गुनते ही रहें। बहती हवा में रेत के धोरों में खड़ताल, ढोलक अलगोजा के साथ कमायचा बजे तो थार जैसे सजे। और थार के सौन्दर्य को अपने कमायचे में समाते धुनों का जो लोक साकर खां रचते, उसे चाहकर भी कहां कोई बिसरा सकता है।
सोचता हूं, अब जबकि साकर खां नहीं रहे, थार क्या वैसे ही सजेगा! यह साकर खां ही थे जिन्होंने कमायचे में रेत का हेत संजोया था। वह कमायचा बजाते और लगता रेत धोरों के भांत-भांत के रंगों को गाने लगी है। लोक संस्कृति में व्याप्त संस्कारों का संवाहक ही तो था उनका कमायचा। यह जब लिख रहा हूं, साकर खां के कमायचे से निकली मूमल, हालरिया, बनड़ा, घूमर, बायरो और भी न जाने कितनी-कितनी लोक धुनें ज़हन में बसने लगी है। लग रहा है, होले बहती हवा में उड़ती रेत के कणों से झरता उनका कमायचा मरूस्थल की प्यास का गान कर रहा है।...रेत की अनगिनत छवियां उकेरता। उनका कमायचा बजता तो पेपे खां की सुरनई भी मन के तार झंकृत करती। उनका कमायचा कभी विरह का रूदन करता तो कभी उत्सवधर्मी रंगों की छटा बिखेरता मन में अवर्णनीय उमंग, उत्साह का संचार करता। लगता यही कि कमायचा नहीं धोरे गा रहे हैं। मिट्टी की सौंधी महक में जो रचा-बसा था उनका कमायचा! 
बहरहाल, साकर खां पाकिस्तानी सरहद के पास बसे गांव हमीरा के थे। वह जब ग्यारह वर्ष के थे तभी पिता का देहान्त हो गया। पिता से विरासत में और तो कुछ मिला नहीं, कमायचा मिला। इस विरासत में लोक धुनों को उन्होंने अपने तई साधा। उसमें बढ़त की। उन्होंने जो धुने निकाली लोक में सजी वह शास्त्रीयता की धुने थी। यही कारण था कि देश-विदेश में राजस्थान के पारम्परिक लोक वाद्य कमायचा को बाद में उन्हीें के कारण अपार लोकप्रियता भी मिली। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया तो केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी, राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी आदि से भी उनकी कला को निरंतर सम्मान मिलता रहा। अभी कुछ दिन पहले देश के सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित रामनारायणजी जब जयपुर में थे तो उनसे साकर खां के कमायचे पर भी संवाद हुआ। कहने  लगे, ‘साकर खां को सुना है। उसके कमायचे में लोक धुनों की आत्मीयता में खोने का मन करता था। राजस्थान के लोक संगीत को तो लंगा, मंागणियारो नें ही तो सहेजा है।’ 
कमायचा सारंगी की तरह गज से बजने वाला वितत् वाद्य है। आम शीशम की लकड़ी से गोलाकार तबली का इसका ऊपरी भाग खाल से मढ़ा होता है। मुझे लगता है, साकर खां ने राजस्थान के इस पारम्परिक वाद्य को सुदूर देशों तक पहंुचाया ही नहीं बल्कि रेत की धुनों से हर आम और खास का नाता भी कराया। याद पड़ता है, मरू महोत्सव में कभी उनके कमायचे से निकली मांड सुनी थी। लगा, धोरे विभोर हो अपने पास बुला रहे हैं। राजस्थान की जगचावी धुन ‘पधारो म्हारे देस...’ बज रही थी और लग रहा था कि राजस्थान के तमाम रंग सुनने वालों को भीगो रहे हैं।  रेत जैसे अपने हेत से रंगने की नूंत दे रही थी। होले-होले गज से छिड़े कमायचा के सुर मन में घर कर रहे थे। मुझे लगता है, यह साकर खां का कमायचा ही था जिनकी धुनें लोक से अपनापा कराती मन में यूं घर करती थी। रेत राग रमा ही तो था उनका कमायचा!