Wednesday, September 27, 2017

संस्कृति से जुड़े सरोकारों की दृष्टि से हो पर्यटन का प्रभावी विपणन

आज विश्व पर्यटन दिवस है। संयुक्त राष्ट्रमहासभा ने वर्ष 2017 के लिए पर्यटन को विकास एक उपकरण का अन्र्तराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। माने पर्यटन को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास आदि का प्रमुख आधार मानते हुए कार्य करने पर विष्वभर एक साथ काम करे। ऐसा हुआ भी है और बहुत से देषों की अर्थव्यवस्था आज पूरी तरह से पर्यटन पर ही केन्द्रित है परन्तु मुझे लगता है, जरूरत इस बात की भी है कि पर्यटन आर्थिग गतिविधि बनने के साथ सांस्कृतिक रूप में भी राष्ट्रों के विकास का प्रमख्ुा आधार बने।
किसी स्थान पर पर्यटकों के आगमन का ग्राफ इस बात पर निर्भर करता है कि वहां का वातावरण और सांस्कृतिक परिवेष कैसा है। इस दृष्टि से पर्यटकों के लिए सभी स्तरों पर अनुकूलता है अथवा नहीं। पर वैष्वीकरण के इस दौर में जब इन्टरनेट टूरनेट बन रहा है तो संस्कृतियों की वैविध्यता का बहुत से स्तरों पर ह्ास भी हो रहा है। स्वाभाविक ही है कि इस ओर आज सर्वाधिक ध्यान देने की आज जरूरत है। राजस्थान की ही बात करें, जो कुछ पर्यटन नक्षे पर मौजूद है वह यहां उपलब्ध पर्यटन संभावनाओं का दस प्रतिषत भी नहीं है। इतने विविधतापूर्ण ऐतिहासिक, पुरातात्विक, वास्तुसंपन्न और सांस्कृतिक दृष्टि से भरे-पूरे स्थान यहा ंमौजूद है कि उनमें सनातन भारत की खोज की जा सकती है। मेरे एक मित्र हैं, राजस्थान प्रषासनिक सेवा के अधिकारी अजयसिंह राठौड़। संवेदनषील छायाकार और घुम्मकड़। देषाटन का कोई अवसर नहीं चूकते। उनके पास अपने कैमरे से लिए राजस्थान के अनछूए स्थलों के छायाचित्रों और उनके साथ के अनुभवों का नायाब खजाना है। पर्यटन विकास की बड़ी जरूरत आज यही है कि अनछूए स्थलों के साथ ही संस्कृति से जुड़े सरोकारों की दीठ से उनका विपणन किया जाए।
अभी कुछ समय पहले ही ग्वालियर स्थित भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान में आयोजित पर्यटन लेखन की एक कार्यषाला में बोलने के लिए जाना हुआ। वहां के निदेषक मित्र संदीप कुलश्रेष्ठ ने तभी ग्वालियर से कोई 40-50 किलोमीटर दूर मितावली, गढ़ी पढ़ावली और बटेष्वर मंदिर समूह के बारे में बताया। वहां गया तो पता चला हम जिसे भारतीय संसद को वास्तुकार लुटियन्स की रचना मान रहे हैं मूलतः वह मितालवी के चैंसठ योगिनी षिव मंदिर का हूबहू प्रतिरूप है जबकि इसे पुर्तगाली वास्तु से जोड़ा जा रहा है। विडम्बना यह भी है कि मितालवी आम पर्यटको ंकी पहुंच से अभी भी बहुत दूर है। राजस्थान में कांकवाड़ी दुर्ग, सिंहगढ़, मांडलगढ़, सिवाना, बयाना के किलों, झालावाड़ की बौद्ध गुफाएं, खजुराहो की मानिंद बने नीलकंठ मंदिर और वहां की पुरासंपदा, जालौर की परमारकालीन वास्तु समृद्ध संस्कृत पाठषाला, धौलपुर, बांसवाड़ा के मंदिर षिल्प और प्राकृतिक परिवेष आदि पर भी आम पर्यटक कहां पहुंच पाता है! पर्यटकीय दीठ से ऐसे और भी बहुत से अनएक्सप्लोर स्थलों पर विचारा जाए तो बहुत कुछ पर्यटन का नया राजस्थान उभरकर सामने आएगा। पर इसके लिए सांस्कृतिक सोच से कार्य करने की भी जरूरत है। मेरी चिंता यह भी है कि हम पर्यटन विकास का नारा तो देते हैं परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से पर्यटन को संपन्न करने का काम नही ंके बराबर कर रहे हैं। इसीलिए बहुत से अल्पज्ञात स्थानों के इतिहास, वहां की संस्कृति से हम निरंतर महरूम भी हो रहे हैं।
राजस्थान में जल स्वावलम्बन अभियान को इस दृष्टि से मैं महत्वपूर्ण मानता हूं। इस अभियान के तहत पुरानी बावड़ियों, तालाबों के जिर्णोद्धार का काम बहुत से स्तरों पर हो रहा है। इस अभियान से पुराने जलस्त्रोतों को नयापन मिला है। प्राचीन बावड़ियों के भी दिन फिरे हैं परन्तु उनके पुनर्निर्माण या फिर जिर्णोद्धार में भी हमारी संस्कृति से जुड़े वास्तु पर ध्यान देना जरूरी है। वास्तुकार मित्र संजीवसिंह ने कुछ दिनों पहले नागौर स्थित बावड़ियों पर इस दृष्टि से कार्य किया है। वह कहते हैं, मरम्मत या जिर्णोद्धार भर ही ध्येय नहीं हो जरूरी यह भी है कि स्थान विषेष की संस्कृति और वास्तुकला का इससे कहीं हनन नहीं हो। यह सच है, वास्तु से ही तो किसी स्थान के मूल सौंदर्य का भान होता है।
बहरहाल, राजस्थान में पर्यटन आकर्षण में विविधता सबसे बड़ी विषेषता है। पर ‘पधारो म्हारे देष...’ की संस्कृति और पर्यटन समृद्धता के अनछूए पहलुओं के विपणन का यहां अभी भी अभाव है। मुझे लगता है, प्रदेष में पर्यटन उद्योग के विकास की ऐसी नीति पर विचार किया जाना जरूरी है जिससे देष मे नहीं बल्कि विेदषों में भी यहां के पर्यटन आकर्षण और संस्कृति का समुचित प्रचार-प्रसार हो। यह सही है, स्वतंत्रता से कुछ समय पहले ही यहां के राजाओं ने पर्यटन को एक आर्थिक साधन के रूप में अपनाते हुए अपने किले महलों के द्वार विदेषी पर्यटकों के लिए खोलने प्रारंभ कर दिए थे। पर आजादी के बाद किले-महलों की सार संभाल के भी टोटे हो गए। यह तो भला हो तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत का जिन्होंने हैरिटेज होटल का विचार दिया। इसी से किले महलों की धरोहर बच पाई और पर्यटन संस्कृति से इसका फिर से जुड़ाव हुआ। पर इस समय जो सबसे बड़ी जरूरत है वह यह है कि हमारी समृद्ध कलाओं, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि के साथ ही ऐसे स्थल जो अभी पर्यटन मानचित्र पर अनदेखी के कारण नहीं आए हैं, उनके जरिए विकास के एक उपकरण के रूप में पर्यटन को अपनाया जाए।
यह गौर करने की बात है कि पर्यटन विपणन की कारगर रणनीति किसी प्रदेष ने अपनाई है तो वह केरल है। विष्व पर्यटन मानचित्र पर तेजी से उभरे केरल का पर्यटन उद्योग न केवल वहां की अर्थव्यवस्था का मूलाधार बन चुका है बल्कि वहां यह सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाले उद्योग के रूप में भी उभर कर सामने आया है। पर विचारें, क्या है ऐसा केरल मे जो राजस्थान में नहीं है? समुद्र और बर्फ के अलावा सब-कुछ तो है यहां। तो फिर क्यों नहीं राजस्थान भी विष्व पर्यटन मानचित्र पर केरल की तरह उभरे। केरल-हरियाला स्वर्ग के नारे के साथ ही केरल पर्यटन विभाग ने अपनी वेबसाईट के जर्मनी व फ्रेंच संस्करण जारी कर विदेषी सैलानियों की आवष्यकता की पूर्ति की है। खाड़ी देषों में तो केरल के मानसून व वहां के आर्युवेद का इस कदर प्रचार किया गया कि वहां के अधिकांष पर्यटकों के लिए अब केरल ही सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थल बन गया है। 
राजस्थान में भी पर्यटन विपणन के प्रयास हो रहे हैं परन्तु उन प्रयासों का दायरा केरल की तरह आक्रामक नहीं रहा है। सोचें, यह वह प्रदेष है जिसके बारे में कर्नल टाॅड ने कभी कहा था-‘राजस्थान की तुलना में युनान के ऐपो का सौन्दर्य भी हल्का हो जाता है।‘ इस परिप्रेक्ष्य में राज्य की समृद्ध पर्यटन विरासत के अनछूए पहलुओं और वैविध्यता का प्रभावी प्रसार किए जाने की जरूरत है।  प्रदेष मे पर्यटन व होटल उद्योग के प्रोत्साहन के लिए जो कदम उठाए जाते हैं, उनका भी कमजोर पहलू यह है कि उनके बारे में जानकारी जरूरतमंद उद्यमियों व निजी क्षेत्र के संस्थानों तक पहुंचती ही नहीं है। इस समग्र परिपे्रक्ष्य में जरूरी यह है कि सैद्धान्तिक रूप में ही नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप में पर्यटन की योजनाओं व नीतियाॅं का व्यापक स्तर पर क्रियान्वयन किया जाए। इसी से राजस्थान आने वाले वर्षों में पर्यटन समृद्ध राज्य होगा। निष्चित ही तब पर्यटन से यहां होने वाली आय और रोजगार अवसर भी बढ़ेंगे, जिनकी कि आज सर्वाधिक आवष्यकता है।

Sunday, September 24, 2017

'दीठ रै पार' (दृष्टि से भी आगे)




कविताएं अंतस का आलाप है। बहुतेरी बार शब्द के भीतर बसे शब्द के पास भी वे ले जाती हैं। राजस्थानी मेरी मायड़ भाषा है। हाल ही में 'बोधि प्रकाशन' से राजस्थानी का नया कविता संग्रह 'दीठ रै पार' (दृष्टि से भी आगे) प्रकाशित हुआ है। 

इसमें पिछले एक दशक में लिखी कविताएं संग्रहित है। इससे पहले वर्ष 1994 में 'जी रैयो मिनख'  (जी रहा है मनुष्य)  और वर्ष 2012 में 'कविता देवै दीठ' (कविता दृष्टि देती है)  प्रकाशित हुए हैं।  

'दीठ रै पार' संग्रह का आवरण ख्यात कलाकार विनय शर्मा ने तैयार किया है। इस संग्रह की दो कविताएं—
मून
आतम है
मून।
मनगत
दीठ।
कदास
थूं-
बसतो रूं-रूं
मारग
पूग जावती आंख।



अंवेरी नीं छांट

आभो जोवै
बैंवती नदी
गड्डा कैवै
पाणी री कहाणी
रूंख झाड़ै पान
मगसो हुयोड़ो हरो खोलै
मांयरा पोत-
बिरखा हुई
पण
अंवेरी नीं ही छांट।