Saturday, January 21, 2012

सुर चिंतन का अद्भुत गान

संगीत के सात स्वर षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं। सा रे ग म प ध और नि इन्हीं के पहले अक्षर से बने हैं। नाद से स्वर और स्वरों से सप्तक तैयार होता है। राग संस्कृत की धातु ‘रंज्’ से बना है। रंज माने रंगना। सात स्वरों से रंगना। उस्ताद अमीर खा़न को सुनते संगीत के सातों स्वरों में अर्न्तनिहित को गहरे से समझा जा सकता है। कहें सुर चिंतन है उनका गान। पहली बार सुनेंगे तो उनके गान की दुरूहता से कुछ झल्लाहट होगी। धीमी आलापकारी में उनकी बढ़त, स्वर विवर्धन की तान एकबारगी सुनने वाले के धैर्य की परीक्षा भी लेती है परन्तु जैसे-जैसे उनके स्वरों की गहराई से साक्षात् होता है, स्वर सम्मोहन से हम घिरने लगते हैं।
किराना घराने के अधिकांष संगीतकार इस बात पर सदा ही जोर देते रहे हैं कि खयाल गायकी में शब्दों का खास कोई महत्व नहीं होता परन्तु अमीर ख़ान ने कभी इससे इतेफाक नहीं रखा। उनकी गायकी शब्द का ओज है। अज्ञेय का कहा अनायास जेहन में कौंधता है, ‘षब्द ब्रह्म है।’ वह गाते नहीं संगीत की अनंतता के सागर की जैसे सैर कराते हैं। चौनदार खयाल गायकी की उनकी रागदारी भीतर के हमारे खालीपन को जैसे भरती है। द्रुत तीन ताल में उनका गाया ‘गुरू बिन ज्ञान...’ कानों में गूंजने लगा है। वह गा रहे हैं और शब्दों में निहित भावों की गहराई सुरों से जैसे दिल में उतरने लगी है। शब्दों में निहित संवेदना के सुरों से मन में अवर्णनीय सुकून होता है। रागों के निभाव में लयकारी और तानकारी की जो मौलिक सृष्टि अमीर ख़ान करते हैं, उसे बस अनुभूत भर किया जा सकता है। भिंडीबाजार घराने की खयाल गायकी की जिस धीमी गत को उनकी गायकी की मेरूखंड पद्धति कहा जाता है, मुझे लगता है वह पूरी तरह से संस्कारित अमीर ख़ान की गायकी से ही हुई। चौदहवीं शताब्दी के सारंगदेव लिखित संस्कृत ग्रंथ संगीत रत्नाकर में मेरूखंड पद्धति का उल्लेख मिलता है। खान साहब इसी पद्धति में आलाप की बढ़त करते। सधी हुई स्वर लहरी, तान और मींड की मिठास।
यह जब लिख रहा हूं बैरागी का उनका खयाल ‘मन सुमिरत निस दिन तुम्हारो नाम...’, ‘लाज रख लिज्यौ मोरी,...तू रहीम राम तेरी माया अपरम्पार...’ गान भी मन में घर करने लगा है। अद्भुत सुर दीठ। नवनिर्मिती की लगन और अनुपम कल्पनाषक्ति।
बहरहाल, यह वर्ष अमीर ख़ान का जन्मषती वर्ष है। उनके गान की सूक्ष्म कलात्मकता पर जाते गौर करता हूं, स्वर के सभी संभव क्रमचय और संचय वहां है। भावों का रस वहां है। शुद्ध रस। बगैर किसी मिलावट का रस। फिल्मांे में गाये उनके गान को ही लें। नौषाद साहब के लिये ‘बैजू बावरा’ में राग पुरिया धनश्री में ‘तोरी जय जय करतार...’, बंसत देसाई के संगीत निर्देषन में फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ (राग अदना) का उनका गाया शीर्षक गीत ‘झनक झनक पायल बाजे...’ सुनते हैं तो लगता है स्वर शुद्धता के साथ शब्दों में निहित भावों को वह अपने गान में गहरे से जीते थे। फिल्मों में उन्होंने गाया परन्तु संगीत की शुद्धता से वहां भी उन्होंने समझौता कहां किया! कभी उस्ताद अमीर खान के कहने पर ही स्वर कोकिला लता मंगेषकर ने एक वर्ष तक मौन व्रत धारण किया था। कहते हैं, ऊंचा सुर लगाते स्वर यंत्र में परेषानी के कारण लता को अपनी आवाज फटती हुइ महसूस हुई। अपनी यह परेषानी लेकर तब वह उस्ताद अमीर खान के पास पहुंची। अमीर खान साहब ने सलाह दी कि वह छह माह तक मौन रहे और एक साल तक कोई गाना न गाये। लता ने यही किया। मौन व्रत के बाद वर्ष 1962 में लता ने ‘बीस साल बाद’ में ‘कहीं दीप जले कहीं दिल..’ गीत गाया। इसके लिये उन्हें तब सर्वश्रेष्ठ पार्ष्वगायिका का सम्मान मिला।
अषोक वाजपेयी का लिखा जेहन में कौंध रहा है, ‘अपने समय से प्रायः उदासीन और निरपेक्ष लगते हुए भी संगीत काल से संवाद है, वह काल को संबोधित है।’ अमीर खान का गायन काल को संबोधित ही तो है।


Friday, January 13, 2012

संस्कृति का संस्थापन नाद

मकर राशि में सूर्य का संक्रमण यानी मकर सक्रान्ति। इससे पहले दक्षिणायन होता है। माने देवताओं के शयन का समय। सक्रान्ति के बाद होता है उत्तरायण। बसन्त आगमन का आभाष। देव जागने का समय। प्रकृति इसी समय सुनाती है जीवन का संदेश। शुरू होता है शुभ और मंगल का उल्लास।
पतंगबाजी का कला पर्व भी तो है मकर सक्रान्ति। हर ओर, हर छोर उड़ती पतंगे आसमान के कैनवस पर इस दिन अनूठे रंगों की जैसे सर्जना करती है। कहीं डोर संग लटकती कन्नी तो कहीं लहराती कटी पतंग। फर्र फर्र उड़ती भांत-भांत की पतंगे। जयपुर के महाराजा रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में सिटी पैलेस में देश-विदेश के पतंगों के संग्रह के लिये बाकायदा कभी पतंगखाना भी बनवाया गया। पतंग उड़ाने का इतिहास हकीम लुकमान से भी जुड़ा है तो नवाबों की पतंगबाजी के किस्से भी कम मशहूर नहीं है। पतंग उड़ाई में वाजिद अली शाह भी कम निष्णात न थे। हर साल पतंगबाजी के लिये वह अपनी टोली के साथ दिल्ली आते और आसमान पतंगों से भरते। पतंग उड़ाने के आशिक अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर भी रहे हैं। जयपुर मकर सक्रान्ति पर पतंगमय होता है तो मेरे अपने शहर बीकानेर में अक्षय तृतीया पर आसमान में किन्नों के पेच भिड़ते हैं। राव बीका ने बीकानेर की जब स्थापना की तो खुशी में एक बड़ा सा चिन्दा उड़ाया। चिन्दा माने बड़ी पतंग। बस तभी से मकर सक्रान्ति की बजाय वहां मई-जून की भीषण गर्मी में पतंगे उड़ाने का रिवाज हो गया जो आज भी चल रहा है।
बहरहाल, मकर सक्रान्ति से पहले ही इस बार जवाहर कला केन्द्र की एक कला दीर्घा पूरी की पूरी पतंग के अनूठे कला उत्सव से सराबोर थी। प्रदेश के प्रयोगधर्मी कलाकार गौरीशंकर सोनी ने संस्थापन में उत्सवधर्मिता की अद्भुत सौन्दर्य सृष्टि की। कला की उसकी इस दीठ में अनुभव और विचार का कैनवस पर ही नहंी बल्कि चर्खी, पतंगों पर भी गजब का रूपान्तरण हुआ। कलादीर्घा में भांत-भांत की छोटी-बड़ी पतंगे। एक बड़ी सी और बहुत सी छोटी टंगी चर्खियां। चर्खियों पर मंडा रेखाओं, रंगो का उजास। कैनवस की अमूर्त-मूर्त आकृतियों पर करीने से टंगा मांझा। मांझे की लछियां और लछियों की जैकेट। मांझे की रंग-बिरंगी गंेदे। गौरीशंकर ने मन मंे उड़ती उमंग, उल्लास के प्रतीक रूप में पतंगों को संस्थापन कला के बहुविध आयाम दिये तो चर्खी पर उकेरी सामयिक-एतिहासिक प्रसंगो से जुड़ी आकृतियों के भी अनूठे बिम्ब दिये।
हमारे यहां संस्थापन यानी इन्स्टालेशन का बेहद पुराना इतिहास रहा है। दुर्गा और गणेश विसर्जन के साथ ही जनमाष्टमी पर सजने वाली झांकियां आदि सभी में संस्थापन ही तो है। अतुल डोडिया, विवान सुन्दरम, सुबोध गुप्ता, अर्पणा कौर सरीखे कलाकारों ने संस्थापन को सामयिक संदर्भ दिये हैं। विडम्बना यह भी है कि इधर अधिकांश हमारा संस्थापन पश्चिम से ही प्रेरित हो रहा है। तकनीक का ही वहां बोलबाला जो है। ऐसे में आधुनिकता के साथ परम्परा के संस्कारों की गौरीशंकर सोनी की कला को देखकर बेहद सुखद भी लगा। गौरीशंकर ने पतंग, डोर, चर्खी को भिन्न आयामों में एक छत के नीचे एक अवकाश में रखते संस्थापन की अद्भुत दीठ दी। विषय-वस्तु और फॉर्म का सोनी का संयोजन विचार में रूपान्तरित होता जिस परिवेश की सृष्टि करता है उसमें उत्सवधर्मिता के अनूठे रंगों का औचक अहसास होता है।
संस्थापन स्थापत्य से जुड़ी कला है। कलानुभव के स्थापत्य से जुड़ी कला। बहुत सारी चीजों को तकनीक के जरिये बेतरतीब बिखरा देना, उनसे चमत्कारिक परिवेश की तलाश करना संस्थापन हो सकता है कला नहीं। कला माने कोई दीठ। ऐसी जो सोचने पर विवश करे। इस दृष्टि से गौरीशंकर का यह संस्थापन कला का अनूठा सौन्दर्य भव लिये है। इसलिये कि वहां पहले से आ रही उत्सवधर्मी हमारी परम्परा का सामयिक कला पोषण है। संस्कृति से जुड़े सरोकार वहां हैं। पश्चिम से प्रेरित संस्थापन नहीं बल्कि उत्सवधर्मी संस्कृति का देशज नाद। गौरीशंकर सोनी का भव्य रंग, रेखा संस्थापन नाद।

Friday, January 6, 2012

कैनवस पर सौन्दर्य संवेदना का गान


चित्र माने आकार की भाषा। सोचिए! सूक्ष्म और स्थूल आकार पर यदि किसी रंग का नाम लिख दें तो क्या वह आकार उस रंग में दिखाई देगा! नहीं ही दिखाई देगा क्योंकि चित्र की भाषा शब्द नहंी आकृति और रंग है। चित्रकला दृष्यकला इसीलिये तो है कि यह पढ़ने या सुनने की चीज नहीं देखने की चीज है। अर्थ नहीं अर्थ संकेत वहां सौन्दर्य के संवाहक जो होते हैं।

बहरहाल, कलादीर्घाओं में मूर्त-अमूर्त चित्रों से रू-ब-रू होते सौन्दर्य को इतने आयामों में अनुभूत किया है कि लिखूंगा तो न जाने कितने पन्ने भर जाए। अभी बहुत समय नहीं हुआ, कलानेरी कला दीर्घा में डॉ. सुमन एस. खरे की कलाकृतियां का आस्वाद करते लगा यथार्थ का कैनवस में वह अपने तई रंग और रेखाओं से पुनराविष्कार करती हैं। जल, जंगल और जमीन के साथ ही पषु-पक्षी, लोक कलााओं का उजास और उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति में निहित संवेदना को भी समझ के गहरे रंग, रेखाएं खरे ने दी है। आकृतिमूलकता में सौन्दर्य की अद्भुत सृष्टि। रंगों का अनूठा लोक। बिंबो की सघन श्रृंखला में लोक कलाओं का उजास। संवेदनाओं के अनुभव का यही तो है भव।

कैनवस पर बरते डॉ. सुमन एस. खरे के रंग बहुत से स्तरों पर भले यथार्थ से परे हैं परन्तु उनमें जीवंतता है। मयूर आकृतियों को ही लें। असल रंगों की बजाय मोर को बहुतेरे दूसरे रंगों में नृत्य करते दिखाया गया है परन्तु यह ऐसे हैं जिनसे हमारी दीठ का विस्तार होता है। माने रेत नहाता, रेत पर लोटता रेत रंग लिये मोर। पंख फैलाता और औचक घुमाकर अपने को ही देखता मयूर। मेघ मल्हार में नृत्य करते से भिन्न है यह मोर। मयूर की भिन्न स्थितियों को परोटते कैनवस पर खरे जैसे रंग सृष्टि करती है। प्रकृति के सौन्दर्य की रेखाओं और रंगों में यह गत्यात्मक लय है। इसलिये कि उनमें ध्वनित मयूर संस्कृति के अनगिनत चितराम औचक हमारी स्मृति का हिस्सा बनने लगते हैं। चित्रकला, संगीत, षिल्प, स्थापत्य की हमारी संस्कृति में मयूर यत्र तत्र सर्वत्र है। राजस्थान में तो लोकगीतों की मिठास मोर महिमा से ही है। आबू के पहाड़ों पर बोलते मोर की सुरमयी अभिव्यंजना हो या फिर ढलती रात में कलेजे में फांस की तरह फंसती मोर की आवाज।...और मोर पखों के सौन्दर्य की तो बात ही कुछ ओर है। भगवान श्री कृष्ण का तो एक नाम ही मोर मुकुट बंषीवाला है। नाद, स्पर्ष, रूप, रस और गंध के पर्याय मोर के पांच रंग ही तो है। तलाष करें तो पाएंगे सौन्दर्य के तमाम भाव यहां है। षड्ज स्वर भी मयूर नाद ही है। षिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर है।...मोर की महिमा अपरम्पार। जितना कहें उतना ही कम।

बहरहाल, खरे की मयूर कलाकृतियों ही नहीं बल्कि प्रकृति से जुड़ी तमाम कैनवस आकृतियांे के सधे हुए स्ट्रोक भीतर की हमारी संवेदना को गहरे से जगाते हैं। लोक अभिप्राय के रूपांकन में वह मिट्टी, गोबर और तमाम दूसरे रंगों की ठेठ देसजता को भी कैनवस पर अपने तई परोटती है। सहज आकर्षित करते हैं उनके यह चित्र। सलेटी, धूसर रंगों का मोर यहां भले यथार्थ से परे भी है परन्तु वह हमें भाता है। ऐसे ही मणिपुरी, असमी, मराठी लोकनृत्यों के भांत-भांत के चितराम भी लुभाते हैं। मसलन बिहू नृत्य में लड़कियों के पार्ष्व में परिवेष की सघनता, जंगल की आग में हरियाली की दहक, पलाष के फूलों के चटखपन के जीवंत दृष्य।

स्वस्फूर्त गतिषील प्रकाष पुंज में खरे के चित्र हमसे जैसे संवाद करते हैं। भीतर की हमारी सौन्दर्य संवेदना का गान यहां है। प्रकृति का सांगीतिक आस्वाद। रेखाओं और रंगों की गत्यात्मक लय। कैनवस पर सहज ग्राम्य जीवन, प्रकृति के पल-पल बदलते रूपों, जंगल की वनस्पतियों की भांत-भांत दीठ। मुझे लगता है, रेखाओं की अन्विति में वह दृष्य के उस सौन्दर्य को गहरे से रूपायित करती हैं जिसमें प्रकृति का सहज गान है। मेघों की छटाएं यहां है तो दूर तक पसरी धरित्रि की हरियाली है। आकृति का बाह्य रूप ही यहां नहंी है बल्कि प्रकृति की सौरम की ताने-बाने में बुनावट है। प्रकृति सौन्दर्य के अपार का उनका यह चाक्षुष स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़त ही तो है। आप क्या कहेंगे!