Saturday, April 13, 2019

साहित्य अकादेमी के सम्मान समारोह में सृजन के संदर्भ में दिया वक्तव्य

मेरे लिए आज का दिन अंतर्मन हर्ष के साथ उमंग लिये है। साहित्य अकादेमी के प्रति कृतज्ञ हूं कि मेरी कृति ‘कविता देवै दीठ’ को उसके निर्णायक मंडल ने सम्मान के योग्य समझा। मुझे लगता है, यह मेरी उस मायड़ भाषा राजस्थानी का सम्मान है जिसका अपना समृद्ध साहित्यिक इतिहास है, विरल शैली है और किसी भी अन्य भाषा से कहीं अधिक संपन्न शब्दावली है।
अनुभूत हो रहा है, अपनी लिखी कृति को जब सम्मान मिलता है तो मन में उत्साह जगता है, भविष्य में नया कुछ और बेहतरीन लिखने के लिये। मुझे गर्व है कि मातृभाषा में लेखन ने मुझे आज इस मुकाम पर पहुंचाया है। मेरे पिता स्व. श्री प्रेमस्वरूप व्यास को साहित्य का मेरा अर्जन सदा सुकून और सुख देता था। काश! वह आज जीवित होते। मैं उन्हें यह सुख सौंप पाता। ‘कविता देवै दीठ’ कृति मैंने अपनी माता, षिक्षाविद् श्रीमती शांति व्यास को समर्पित की हुई है। लिखने की प्रेरणा उनसे ही मुझे मिली। मुझे लगता है, इसी से यह सुअवसर मेरे जीवन में आया है। मेरे लिखे का मूल मेरी मायड़ भाषा है। इसके शब्दों के भीतर बसे संगीत की मिठास है। अनुभूतियों के अपने भव, संस्कृति की ओळख मैं अपनी मायड़ भाषा से ही पाता हूं। साहित्य की दूसरी विधाओं में भी निरंतर लिखता रहा हूं परन्तु कविता मुझे जीवन का अनहद नाद लगती है। जीवनानुभूतियों को अंवेरने (सहेजने) और हम-सब में मनुष्यता को बचाने की दृष्टि कविता देती है। मेरी एक कविता है-
‘काळ सुणावै/अणहद नाद,/कवि थूं गा-/मनड़ै रा गीत।/न्यारो-न्यारो/सब रो आभो/धरती सबरी अेक!/मिनख मानखो/मति गुमा थूं/कविता देवै-/दीठ!’
चित्र, संगीत, नृत्य, नाट्य, आदि कलाओं से सदा ही संपन्न होता रहा हूं। मुझे लगता है कलाओं की साक्षी कोई है तो वह कविता है। डिंगल और पिंगल की परम्परा वाली मेरी मायड़ भाषा राजस्थानी में इसलिए लिखता हूं कि वहां शब्द के भीतर बसे शब्दो का आलोक है। मुझे लगता है, विष्व की सबसे लयात्मक भाषा कोई है तो वह राजस्थानी है। इसीलिये यह काव्यमय है। 
रिल्के ने कभी कहा था, ‘कविता लिखना जीवंत होना है।’ मुझे भी लगता है अंतर्मन भावों की रूपाळी दीठ से उपजी कविताएं मुझे सदा जीवंत करती रही है। लिखने की शुरूआत कविताओं से ही हुई। बीकानेर, जहां मेरा जन्म हुआ वहां लोकनाट्य रम्मत की समृद्ध परम्परा है। होली के दिनों में चैक-मोहल्लों में कोई एक महिने तक हमारे यहां रम्मतें होती है। इनमें ऐतिहासिक, पौराणिक और सुनी-सुनायी गाथाओं पर आधारित लोक नाट्य रात-रात भर मंचित होते हैं। पात्रो का संवाद इनमें पद्य मे ही होता है। लोकभाषा की यह वाचिक परम्परा कब मेरे कविता सृजन का कारण हो गयी, पता ही नहीं चला। 
मुझे लगता है, तमाम जो मेरा लिखा है-यात्रा वृतान्त, डायरी, कहानियां या कुछ और वह कलाओं में रमे मेरे मन के अन्वेषण की परिणति है। लिखे का मेरा कोई राग है तो वह कलाओं का अनुराग है। साहित्य की सभी विधाओं में लिखता हूं पर ंलिखने का आधार कलाओं का रसिक मेरा कवि मन ही है। मै यह मानता हूं कि कविता अंतर्मन सघनता को साधने का अनूठा अनुषासन, श्रेष्ठतम माध्यम है। गहराई के साथ बहुत कम शब्दों में बगैर किसी औपचारिकता के ढे़र सारा उसमें हम कह सकते हैं। मुझे तो यह भी लगता है, कविता मे कथन की लयात्मक परम्परा कहीं से आयी है तो वह राजस्थानी भाषा से ही आयी है।
लिखना मेरे लिए जीवन की एक जरूरी क्रिया है। जब भी कईं दिनों तक कुछ नहीं लिख पाता हूं, एक अजीब सी उदासी से घिर जाता हूं। मायड़ भाषा राजस्थानी के शब्द मुझे लिखने का आलोक देते हैं। संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य आदि कलाओं और जीवन से जुड़ी सवेदनाओं, दृष्य-श्रव्य अनुभूतियों से घटे मन के भावों से ही ‘कविता देवै दीठ’ यानी ‘कविता दृष्टि देती है’ कृति सृजित हुई है।
घुम्मकड़ी का भी जुनून रहा है। मुझे लगता है, बाहरी यात्राए ही इन कविताओं की मेरी भीतर की यात्रा को प्रेरित करती रही है। ‘कविता देवै दीठ’ दरअसल मेरे अंतर का संसार है। इनमें कविताओं के जरिये मैंने अखिल संसार को एक तरह से देखा और अपने तई परखा है। प्रकृति और मौन में बसे संगीत को सुना है। भोर के उजास की सुनहरी आभा को सदा के लिए अंवेरा है तो शब्द के भीतर बसे शब्द के पास भी इनके जरिए ही मैं पहुंचा हूं। जब कभी अपने पास विसंगतियों और विदु्रपताओं के साथ भय से घिरे बादल पाए हैं, उनसे उबरने की उम्मीद की किरण इन कविताओं के रचाव ने ही प्रदान है। दृष्य-अदृष्य को शब्द लय के जरिए इनसे ही मैंने जीवनानुभूतियों को व्यंजित किया है। 
मुझे लगता है, प्रकृति स्वयमेव एक चित्राकाष है।  इसमें रच-बस कर ही शब्द, रंग और राग के नए थान  थरपे जा सकते हैं। मेरे इस सग्रह की कविताओ में तारे सवाल करते हैं, आसमान जवाब बन जाता है। समय के अनहद नाद को सुनते इन कविताओं मे मैंने जीवन और उससे जुड़े सरोकारों के साथ अपने परिवेष, अपनी मायड़ भाषा के प्रेम को शब्द चित्रों में उकेरने का प्रयास किया है। मैं यह मानता हूं, कविता लिखी नहीं जाती, स्वयमेव उपजती है। जीवनगत अनुभूतियों से जो उपजता है, वही फिर शब्दों में झरता है। इसीलिए कविता मुझे जीवन के सुख-दुख और तमाम दूसरे अनुभवों को अंवेरने की सुरों की एक तरह से सौरम लगती है।
मैं यह मानता हूं कि मूल से जुड़कर ही मौलिक लिखा जा सकता है। राजस्थानी भाषा ही मेरा मूल है। मुझे याद है वर्ष 2000 में प्रख्यात कथाकार कमलेष्वर पर मैने राजस्थानी भाषा अकादेमी की पत्रिका ‘जागती जोत’ में एक संस्मरण लिखा था। वह मैंने उन्हें पढ़ने के लिये भेजा। उन्होंने तुरंत जवाब में पत्र भेजा। लिखा ‘पढ़ता हूं तो राजस्थानी समझ मे आती है। आखिर हिन्दी को अपना रक्त संस्कार राजस्थानी, शौरसेनी और ब्रज ने ही दिया है। ...अपनी मातृभाषाओं के विसर्जन से हिन्दी प्रगाढ़ और शक्तिषाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिन्दी की शब्द सम्पदा संपन्न होगी।’
उनके लिखे को यहां दोहराने की यही वजह है कि मेरी मातृभाषा अभी भी संवैधानिक मान्यता की बाट जो रही है। यह वह भाषा है जिसके शब्द-शब्द ओज में अखाणे है, गीत है, लोरियां हैं, वार-त्योहंार से जुड़ी परम्पराओं का संगीत है, मूमल, जसमा ओढ़ण, ढोला-मरवण, रूंख, डूंगर, तळाब अर कीड़ी-मकोड़ी जैसे जीव जंतुओ तक के लिये लिखे के न्यारे-निरवाळे रूपो की जूुनी परम्परा है। राजस्थानी भाषा नहीं भाषा मंडल है।

दूसरी भाषाओं की ही तरह राजस्थानी की भी मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, वागड़ी आदि बोलियां हैं। सभी बोलियां एक-दूसरे से इतनी भिन्न नहीं है कि आपस में समझी नहीं जा सके। यह बोलियां ही इसका श्रृंगार है। ‘बारां कोसा बोली बदळे, पांच कोस पर पाणी’ का सिद्धान्त राजस्थानी ही नहीं सभी भाषाओ पर लागू होता है। इसलिये मुझे लगता है, मायड़ भाषा राजस्थानी को आठवी अनुसूची में सम्मिलित नहीं करने का यह कुतर्क बेमानी है कि किसे राजस्थानी माना जाए। सभी जानते हैं, हिन्दी भी एक बोली के रूप में ही बतौर भाषा विकसित हुई है। 

यह याद रखे जाने की जरूरत है कि लोकभाषाओं ने ही लोकतंत्र की नींव को सदा हरा रखा है। हिन्दी का भी आलोक राजस्थानी, भोजपुरी जैसी भाषाओं से ही है। साहित्य अकादेमी का अवार्ड मिलने पर मुझे प्रसन्न्ता है परन्तु इस बात की अंतर्मन पीड़ भी है कि विषाल भू-भाग वाले राजस्थान की सामुहिक विरासत वाली मेरी मायड़ भाषा राजस्थानी को राजीतिक कारणों से अभी तक मान्यता नहीं मिल पायी है। लोकतंत्र का एक दायित्व देष की हमारी विविधताओं, भाषाओं का संरक्षण भी है। इस दृष्टि से राजस्थानी को मान्यता नही मिलना हमारी संस्कृति और समृद्ध परम्पराओं से नई पीढ़ी को सदा के लिए वंचित कर देने के मानवीय अधिकारों का उल्लंघन है। 
साहित्य अकादेमी के प्रति हम राजस्थानी कृतज्ञ हैं कि उसने हमारी भाषा को स्वीकृति दी हुई है।  आज अपने सम्मान के अवसर पर राजस्थान में रहने वाली और राजस्थानी समझने वाली लगभग 8 करोड़ की आबादी और इस भाषा को व्यवहार मे बरतने वाले राजस्थान और उससे बाहर रहने वाले 6 करोड़ से अधिक के जन-समुदाय की ओर से अपनी मायड़ भाषा को संविधान की आठवी सूची में सम्मिलित किए जाने की अरदास करता हूं। भाषा की मान्यता ही असली आजादी है। हमें इस आजादी के हक से महरूम नही किया जाना चाहिए। 
साहित्य अकादेमी का पुनः आभार कि उन्होंने ‘कविता देवै दीठ’ को सम्मान के योग्य समझा और साहित्य के मेरे सरोकारों को सामाजिक स्वीकृति प्रदान की और मुझे यहां अपनी बात रखने का अवसर दिया। जय भारत। जय राजस्थानी।
(मूल राजस्थानी से अनुदित)