Friday, December 27, 2013

साहित्य, कला और संस्कृति का लोकतंत्र

लोकतंत्र की परम्परा और उसकी विशिष्टता जनभागीदारी की सतत तलाश है। और यह केवल और केवल किसी भी समाज में कला, संस्कृति और साहित्य के स्वस्थ मूल्यों से ही हो सकती है। व्यापक अर्थ में संस्कृति परम्पराओं, साहित्य, ज्ञान, विचारधाराएं, सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं, कानून और क्षमताओं के साथ व्यक्ति की आदतों का मिला-जुला रूप ही तो है। वर्ष बीतने को है। सालभर का लेखा-जोखा संचार माध्यम कर ही रहे हैं, पर इससे परे साहित्य और संस्कृति के सनातन मूल्यों के लिहाज से आकलन करें तो पाएंगे बहुत कुछ ऐसा महत्वपूर्ण है जिससे हम धीरे-धीरे विलग हो रहे हैं। सृजन को जीवन की अभिव्यक्ति मान लिया गया है पर ऐसा नहीं है। सृजन स्वयं जीवन है। ऐसा जिसे कोई भी सत्ता, राजनीति चाहकर भी बाधित नहीं कर सकती। माने सृजन की स्वायत्ता पर कहीं कोई पहरा नहीं हो सकता। यह ऐसा लोकतंत्र है, जिसमें हर व्यक्ति अपना स्वयं शासक है। सोचिए! साहित्य और कलाएं ही तो है जिनमें कहीं कोई आरक्षण नहीं है। सबके लिए यह क्षेत्र समान रूप से खुला है। यहां कोई है भी तो वह अपनी योग्यता और अपनी क्षमता से ही है। साहित्य खेमों में बांटते दलित या इसी तरह के अन्य किसी लेखन की बात कोई करता है तो उससे बड़ी बौद्विक दरिद्रता हो नहीं सकती। कबीर, रैदास, गालिब के लिखे को फिर क्या कहेंगे! इसीलिए कहें, साहित्य में न जाति है, न धर्म। महत्वपूर्ण यदि लिखा गया है, कलाकृति में सिरजा गया है, संगीत में गुना गया है तो वह कालजयी ही होगा। 

सरकारें यह दावा कर सकती है कि कला, साहित्य और संस्कृति के लिए कला-संस्कृति विभाग बनाए हुए हैं। ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादमियां में प्रतिवर्ष करोड़ों का बजट इसीलिए दिया जाता है कि साहित्य-संस्कृति का पोषण हो सके। पर गंभीरता से विचारें, क्या वास्तव में इनसे संस्कृति, साहित्य और कलाओं का भला हुआ है!  होता प्रायः यह भी है कि अकामियों की स्वायत्ता के नाम पर अकादमी के लिए चुने गए व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों और अपनों का पोषण करने लग जाते हैं। बीतते जा रहे वर्ष में राजस्थान साहित्य अकादेमी ने तो इसकी मिशाल पेश की है। वर्तमान में जो अध्यक्ष हैं उन्होंने साहित्य के तमाम मूल्यों को ताक पर रखते हुए जैसे इतिहास ही रचा। पूरे कार्यकाल में सामंती सोच को धिक्कारते वाले अध्यक्ष महाशय साहित्य अकादेमी को मठ के रूप में स्थापित करते उसके जरिए सामंती सोच से पुरस्कार की रेवडि़यारं बांटते रहे। सता के समक्ष सामथ्र्य जताते जिसे जैसे चाहे नियमों को ताक पर रखकर दिया। स्वायत्ता के नाम पर उनका पूरा कार्यकाल बंजर विचारों की खेती ही करता रहा। सांस्कृतिक जागरण के नाम पर सस्कृति का चीर-हरण और साहित्य के नाम पर कृतार्थ की मंशा की परिणति अमृत सम्मान समारोह, कला मेले जैसे आयोजनों में उड़ाया सरकारी धन कहा जा सकता है। 

कलाओं की दृष्टि से बीतते जा रहे वर्ष में राजस्थान में बहुत कुछ नया हुआ भी। मसलन जयपुर में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कला उत्सव प्रोगे्रसिव आर्ट ग्रूप के जरिए हुआ। ललित कला अकादेमी ने साल बीतते बीतते छायांकन की एक प्रदर्शनी अपने यहां आयोजित कर छायाचित्र कला को कुछ तो मान्यता दी ही। हां, नर्मदा के अनथक यात्री और प्रसिद्ध कलाकार अमृतलाल वेगड़जी के एक व्याखान के लिए अकादेमी को अपना स्थान उपलब्ध कराने के लिए आग्रह किया तो उसकी लाज रखते हुए तुरता-फुरत में आयोजन अकादेमी परिसर में हुआ भी परन्तु उसके लिए भी अकादेमी की कोई गंभीरता नहीं दिखी। यानी विचारों के लिए वहां भी पूरे बरस शून्यता ही पसरी रही। हां, इस वर्ष कलाविद् सम्मान बरसों बाद फिर से प्रारंभ होन सुखद है।

नाट्य की दृष्टि से यह स्वर्णिम वर्ष रहा है। रवीन्द्र रंगमंच और जवाहरकला केन्द्र में वर्षपर्यन्त महत्वपूर्ण नाटकों का मंचन हुआ। नाट्य से जुड़े विचारों पर मंथन भी हुआ और बड़ी उपलब्धि यह भी रही है कि पणिक्कर नाट्य समारोह के जरिए संस्कृत नाटकों की समृद्ध परम्परा का आस्वाद जयपुर ने किया। जयरंगम और कथारंग जैसे आयोजन बदलते समय के साथ नाट्यकला में आए परिवर्तनों के संवाहक रूप में भी कम याद नहीं किए जाएंगे।

राजस्थानी भाषा अकादेमी ने आयोजनों की अच्छी पहल की। सुदूर स्थानों तक राजस्थानी भाषा के आयोजन हुए। बल्कि पुरस्कार बांटे जाने की बंधी-बंधायी दलीय परिपाटी में ही आबद्ध रहने की छवि को बहुत से स्तरों पर अकादेमी ने तोड़ा भी पर अंत बुरा रहा। राजस्थान साहित्य अकादेमी अध्यक्ष के चकारिये में विवादों के घेरे में इस कदर घिरी कि बाहर निकल ही नहीं पाई। और हां, बीतते वर्ष के आरंभ में हर बार की तरह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी चर्चा का विषय रहा। साहित्य के नाम पर उपभोक्तावाद के चरम रूप में संस्कृति की जड़ों को भले ही वह हिलाता आ रहा है परन्तु मीडिया प्रायोजकों के रूप में तमाम प्रचार तंत्र को अपने साथ मिलाकर उसने आयोजन के नए सूत्रों का बीजारोपण तो जयपुर में किया ही है। 

बहरहाल, बीतता जा रहा यह वर्ष साहित्य, संगीत और कलाओं के लिहाज से सोशल मीडिया के नाम भी कम नहीं रहा है। सृजन के जरिए जो कभी नहीं पहचाने गए, उन्होंने इस मीडिया का जमकर इस्तेमाल अपने को स्थापित करने में किया। इससे गढ़ी छवि दीर्घकाल तक भले ही न भी रहे परन्तु साहित्य और कलाओं से जुड़े तथाकथित मठाधिशों ने इससे भ्रम फैलाकर बहुत कुछ हासिल तो किया ही है! विडम्बना बीतते वर्ष की यह भी है कि हिन्दी से कमाने खाने वाले लोगों ने अंग्रेजी में लिखे को जमकर पोषित किया। एक कारण यह भी है कि वर्ष 2013 में उस साहित्य की अधिक चर्चा हुई जो हिन्दी, राजस्थानी में नहीं लिखा जाकर अंग्रेजी या दूसरी योरोपीय भाषाओं में लिखा गया। जो हो आईए साहित्य और संस्कृति के लोकतंत्र को नमन करें! यहां कोई आरक्षण नहीं है। यहां कोई है, रह रहा है या भविष्य में भी रहेगा तो केवल और केवल अपने बूते। कोई यहां अपनी पीठ आप ठोकता भी है तो उसे स्वयं के अधिकारों की लड़ाई चाहकर भी बना नहीं सकता। आखिर, यही तो है सच्चा लोकतंत्र!

साहित्य, संस्कृति और कला विश्लेषण 2013, 
"डेली न्यूज़" सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित, दिनांक 27-12-2013 
  http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/2125727 

Friday, December 20, 2013

लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत

यह जानना सुखद है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में होने वाली परेड में प्रदेश के ख्यातनाम कलाकार हरशिव शर्मा निर्मित कावड़ कला की झांकी प्रदर्शित  होगी। कावड़ कला राजस्थान की समृद्ध लोक धरोहर है। ऐसे दौर में जब हम अपनी परम्पराओं को विस्मृत करते जा रहे हैं, राष्ट्रीय पर्व लुप्त होती कलाओं को सहेजने का जैसे संदेष ही देता है। 
बहरहाल, कावड़ लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत है। कावड़ माने धार्मिक, ऐतिहासिक और लोक कथाओं में गुंफित शिल्प का चित्रघर। डिब्बेनुमा काष्ठ आकृति जिसकी दरो-दिवारों पर कथाओं का मनोरम चित्रण। कावड़ में गाथाओं को बुना जाता है और फिर जब यह तैयार हो जाती है तो बुने को बांचते हुए गुना भी जाता है। काष्ठ निर्मित कलात्मक रूपाकारों में ईसर, तोरण, बाजोट, मुखौटे और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी होती है। कविता के छंद की भांति क्रमबध मंडे चित्र और चमकदार रंगों का सौन्दर्य वहां प्रधान होता है। एक रंग दूसरे का पूरक बनता इसीलिए मन को वहां भाता है। कावड़ में षिल्प की गढ़न के साथ चित्रांकन की सूक्ष्म दीठ होती है।  कहें,  वास्तु और शिल्प का मेल है कावड़। परत दर परत कपाटों से खुलता है चित्रों का कथा कोलाज। कावड़ बांचने वाले कपाट खोलते इसे ही बांचते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप किसी कलादीर्घा की वर्चुअल सैर कर रहे हैं। विविध कपाटों में परत दर परत मनोरम चित्रों के जरिए प्रभु की झांकी के पाट खुलते बंद होते धार्मिक कथा को यहां जीवंत करते हैं। इसीलिए कहें, कावड़ चलता फिरता देवघर है। 
कहते हैं, कावड़ कला की शुरूआत घर पर तीर्थ पुण्य प्रदान करने की सोच से कभी हुआ। ऐसे लोग जो तीर्थ नहीं जा पाते, प्रभु स्वयं पहुंचकर कावड़ के जरिए उन्हें तीर्थ लाभ देते। कावड़ के पाट खुलने का अर्थ ही है, पुण्य की प्राप्ति। उसे भी जो कावड़ चित्र कोलाज देखता है और उसे भी जो कावड़ बांचता है। पड़ की तरह कावड़ बांचते भाट मोर पंख का स्पर्श  कराके कावड़ के पाट खोलते-बंद करते ही कथा पूरी करता है। सभी प्रकार के कपाट खुलने पर अंत में राम-सीता के दर्शन होते हैं। कथा की इस पूर्णता के साथ ही आरती के साथ कावड़ पूरी हो जाती है। बैलगाडि़यों पर सजी-संवरी कावड़ कभी गांव-गांव, शहर-शहर  घूमती। 
बहरहाल, कावड़ डेढ़ से दो इंच की भी होती है और बीस फीट की बड़ी भी होती है। प्रायः यह अरडू, धाक, धोरनी, खिरनी, आम की लकड़ी से बनती है। पर इधर घरों में सजावट के लिहाज से सागवान से भी निर्मित होने लगी है। गोपीचंद-भरतरी, रामायण, महाभारत, लोक देवी-देवताओं ऐतिहासिक कथाओं के साथ ही इधर प्रयोगधर्मिता के चलते सम-सामयिक संदर्भो के चित्र भी कावड़ में बनने लगे हैं। रंग जो प्रयुक्त होते हैं उनमें लखारी यानी लाल रंग प्रमुख होता है। फिर इसमें हरतल यानी हरा, प्यावड़ी यानी पीला, काजल यानी काला आदि रंग मिलाए जाते हैं। आवश्यकतानुसार रंगों को गोंद  मिलाकर घोंटा लगाया जाता है। घोंटा यानी इंटाला। सूखने पर फिर से उसमें गोंद मिलाकर विविध पारम्परिक रंगो से क्रमवार कथाओं का चित्रण होता है। कथा चित्रों को सजाने के लिए मांडणे तथा अन्य अलंकरणों में लोक सौन्दर्य के चितराम भी काष्ठ पर मांडे जाते हैं। कहते हैं, कावड़ कला का उद्गम चित्तौड़ के बस्सी गांव से हुआ। वहां के रावत गोविन्ददास ही पहले पहल कावड़ कलाकार प्रभातजी सुथार को 1652 में मालपुरा टोंक से लेकर आए थे। उन्होंने तब बहुतेरी काष्ठकलाकृतियां बनाकर  रावत गोविन्ददास और महाराणा मेवाड़ को भेंट की। बस्सी काष्ठ कला का आज भी गढ़ है।...वहीं जन्मी जगचावी लोक कला कावड़ के उजास से इस बार पूरा देष नहाएगा।


Friday, December 13, 2013

सांस्कृतिक नीति के लिए हो चिंतन

कलाओं का मूल आधार संस्कृति है। जीवन से जुड़े संस्कारों की नींव संस्कृति से ही तो तैयार होती है। साहित्य, संगीत आदि कलाएं संस्कृति का ही रूप है और हमारा आंतरिक इनसे ही तो उद्घाटित होता है। परन्तु हमारी जीवन पद्धति और मूल्य भी तो संस्कृति का ही हिस्सा है। स्वाभाविक ही है कि संस्कृति प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। या कहें उसमें हरेक की भागीदारी जरूरी है।
इस समय की बडी चुनौती तेजी से खत्म होते जा रहे जीवन मूल्य ही है। बड़ा कारण इसका संस्कृति के जीवंत मूल्यों से निरंतर हो रही हमारी दूरी भी है। प्रदेश में नई सरकार का आगमन हुआ है। बहुत सारे कार्य आने वाले समय में इस सरकार के जिम्मे है परन्तु संस्कृति को जीवन के व्यापक संदर्भों से जोडने की पहल की दिशा में यदि सर्वोच्च प्राथमिकता से कार्य हो तो दूसरे कार्यों में इससे अपने आप ही शुरूआत हो जाएगी। सरकारी अकादमियां और संस्थाएं सांस्कृतिक, साहित्यिक उन्नयन का कार्य कथित रूप में करती भी है परन्तु उनकी प्राथमिकताओं में संस्कृति से जुड़े पहलुओं का स्थूल रूप भर है। यानी साहित्य अकादेमी साहित्य के लिए, संगीत नाटक अकादेमी संगीत, नृत्य और नाट्य के लिए, ललित कला अकादेमी प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए कार्य करती है परन्तु संस्कृति इनसे ही नहीं है। संस्कृति समुदाय के आचरण से है। संस्कृति मनुष्य का व्यवहार और जीवन जीने का ढंग है। जैसे बीज हम बोएंगे-फल वैसा ही मिलेगा। इस दीठ से संस्कृति भविष्य की नींव तैयार करती है। 
सांस्कृतिक आयोजन श्रव्य, दृश्य से जुड़े होते हैं परन्तु सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत संस्कृति व्यापक संदर्भों के साथ जीवन को पोषित करती है। स्वाभाविक ही है कि इसके लिए सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति से ही कार्य हो सकता है। नई सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता रखते हुए इस ओर पहल करे तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। और फिर संस्कृति और सत्ता को अलग नहीं किया जा सकता। राज्य में सरकार को जो अपार जनमत मिला है, उसकी भी मांग शायद यही है कि राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक नीति बने। संस्कृति मूल्यों की सृष्टा और संपोषक जो है! साहित्य और कला अकादमियों के गठन और वहां पर अध्यक्ष, सदस्यों के मनोनयन या फिर किसी तरह के साहित्य, कला उत्सव करने से संस्कृति पोषित नहीं होती। साहित्य और कला के साधनों और सुविधाओं का विकास तो एक बात है परन्तु इससे भी बडी जरूरत यह है कि कलाएं अभिजात या फिर सीमित वर्ग तक की पहुंच के साथ तमाम जनता तक पहुंचे। स्वस्थ और दीर्घकालीन नीति यदि संस्कृति की बनती है तो उसमें साहित्य और कलाओं का ही नहीं व्यक्ति की सोच बदलने तक की ताकत है। यह बड़ी बात है पर पहली आवश्यकता तो अभी यही है कि प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक नीति हो, ऐसी जिसमें साहित्य और कलाएं व्यापक संदर्भों से जुडे। 
साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं में जो मठाधीश लोग हैं, उनकी बजाय सर्जन के सरोकारों से जुडे मूल लोगों को जोडते हुए, उनसे परामर्श करते हुए राज्य की सांस्कृतिक नीति बनायी जाए। ऐसी सांस्कृतिक नीति जिसमें मायड भाषा राजस्थानी के लिए कार्य हो, जिसमें संगीत, नृत्य चित्रकला और खासतौर से लोक कलाओं का जमीनी स्तर पर संरक्षण हो। संस्कृति की जीवंतता किससे  है? अंतर्विरोधों की पहचान से ही तो! अच्छे-बुरे की समझ से। इसलिए जरूरी यही है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हुए हम एक सुनियोजित सांस्कृतिक नीति के तहत सांस्कृतिक हों। संस्कृति जिससे जीवंत हो जीवाश्म न बने। आखिरकार तमाम हमारी कलाओं और दर्शन पर संस्कृति का ही तो प्रभाव रहता है। वह समृद्ध होगी तो हम भी समृद्ध-जीवंत रहेंगे। सरकार बदली है, संस्कृति के संबंध में यह चिंतन तो हो ही। आम जन की अपेक्षा यही है।

Friday, December 6, 2013

कलाओं में गूंथे जीवन के मर्म


कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। मुंशी  प्रेमचन्द की कहन कला को ही लें। कहानी विधा के रूप में वहां साहित्य प्रधान है परन्तु कहानियों के मर्म में उतरेंगे तो पाएंगे कहन में जीवन से जुड़े सरोकार यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। भाषायी अदाकारी में जीवन से जुड़े मर्म की तलाश  ही तो है उनकी कहानियां!  लूंठी-अलूंठी दृष्टि-संपन्न्ता में वहां पूरी की पूरी एक विचारधारा समय का सच उघाड़ती हममें जैसे बतियाती है। 
बहरहाल, यह सच है कि कहानियां जीवन को बयां तो करती है परन्तु जीवन नहीं हो सकती। जीवन तो कलाओं से ही है। इसीलिए तो कहते हैं-संगीत, नृत्य, चित्र और नाट्य जीवन को रंजित ही नहीं करते गहरे से बंया करते हैं। यह बात इसलिए कि कुछ दिन पहले प्रेमचन्द की एक कहानी का नाट्य रूपान्तरण देखा था।  लगा, कहानी को मंच देकर उसे जीवन्त करने की कला नाट्य से ही उपजी है। याद पड़ता है, व्यवस्था प्रसूत विसंगतियों पर लिखी उनकी कहानी ‘नमक का दरोगा’ विद्यालयी दिनों में ही पढ़ी थी। कथा में प्रेमचन्द द्वारा वेतन को पूर्णमासी का चांद की उपमा देकर महिने में एक बार ही दिखने की संज्ञा आज भी कहां भूल पाया हूं। पढ़ने के बाद कहानी के इस तरह के संवाद ज़हन में निरंतर कौंधते हैं। कुछ दिन पहले इस कहानी के नाट्य रूपान्तरण का आस्वाद करते इसमें निहित घटनाओं का दृष्टा भी बना। 
कहानी का नाट्य रूपान्तरण और प्रस्तुति सिद्धहस्त नाट्यकर्मियों ने नहीं करके राजस्थान पुलिस अकादेमी के प्रेक्षागृह में वहां के प्रशिक्षुओं ने किया। पुलिस अकादेमी के निदेशक बी.एल. सोनी के आमंत्रण पर उनके साथ इस कहानी का नाट्य आस्वाद करते लगा, प्रेमचन्द के कहन को कला में पात्रों ने गहरे से जिया है। पुलिस सेवा के प्रशिक्षुओं ने कहानी के मर्म में उतरते नाट्यकला से जुड़ी संवेदनाओं को जैसे आत्मसात किया था। ‘नमक का दरोगा’ कहानी के केन्द्र में ईमानदारी और बेईमानी की ताकत है। ईमानदार पात्र वंशीधर और जमींदार पंडित अलोपीदीन  इसके मुख्य पात्र है। कहानी में अच्छाई की हार के बावजूद अंततः अच्छेपन के सम्मान के मार्मिक प्रसंगों की जीवन्त और मार्मिक नाट्य प्रस्तुति ने मन में कुछ सवाल भी पैदा किए। मसलन पुलिस प्रशिक्षण अकादेमियों में संबद्ध प्रशिक्षण के साथ ही प्रशिक्षुओं में निहित नैसर्गिक प्रतिभाओं को तराषने के अवसर दिये जाएं तो वहां बगैर किसी उपदेष, व्याख्यान के ही मानवीय गुणों का विकास किया जा सकता है। 
अमूमन देखा यह गया है कि प्रशिक्षण अकादेमियों में अधिकारी अपनी नियुक्ति को लेकर खास कोई उत्साहित नहीं होते हैं। ऐसे में प्रायः प्रशिक्षण औपचारिकताओं की भेंट चढ़ता प्रशिक्षुओं को भविष्य के अपने कार्य के प्रति जोश  नहीं जगाकर कार्य आरंभ करने से पहले ही उसके बोझ का ही निरंतर अहसास कराता है। स्वाभाविक ही है कि प्रशिक्षण उपरान्त पुलिस के सामाजिक सरोकारों के नतीजों में स्वाभाविक मानवीय गुणों का लोप ही तब अधिक दिखाई देता है। इस दीठ से विचार यह भी आया कि क्यों नहीं आवश्यक  प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकार भी प्रशिक्षण का हिस्सा हों। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक और राजस्थान पुलिस अकादेमी के इस समय के निदेशक बी.एल. सोनी की पहल इस दृष्टि से उदाहरण बन सकती है। वह स्वयं मानवीय संवेदनाओं से लबरेज व्यक्तित्व है, इसलिए उनकी पहल से ही अकादेमी में साहित्य और कलाओं से जुड़े सरोकारों की इस तरह की पहल हुई है। क्या ही अच्छा हो, तमाम दूसरे प्रशिक्षण  संस्थानों में विषय संबद्ध प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकारों को इसी तरह से जोड़ा जाए। 
यह सही है,प्रशिक्षण  व्यक्ति को संवारकर दक्षता प्रदान करता है परन्तु कलाओं से जुड़े सरोकार प्रषिक्षण में सम्मिलित होंगे तो व्यक्ति जीवन से जुड़े गुणों का पाठ भी स्वतः ही कर सकेगा। रोबोटी होते दौर में संवेदनाओं का वास आखिर कलाएं ही करा सकती है।  


Friday, November 29, 2013

जीवन से जुड़े कला के प्रश्न

डॉ राजेश कुमार व्यास, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, प्रयाग शुक्ल और मंगलेश डबराल  
कला के प्रश्न जीवन के प्रश्न है। जीवन स्थितियों और जीवन प्रवृतियों से जुड़े प्रश्न। कुछ दिन पहले जयपुर में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप द्वारा राज्य सरकार के साझे से आयोजित वृहद कला आयोजन में देश के ख्यातनाम कलाकारों से संवाद, उनकी कलाकृतियों से रू-ब-रू होने का अवसर मिला तो सुखद लगा। कला समीक्षक, कलाकार आर.बी. गौतम, विनोद भारद्वाज, विद्यासागर उपाध्याय, मृदल भसीन, टिम्मीकुमार और उनके जैसे ही और कलाकारों के उत्साह से ही आयोजन परिणत हो पाया। पर, आवश्यकता नहीं होते हुए भी हिन्दीभाषी क्षेत्र में आंग्लभाषा का बोलबाला यहां भी अखरा।
बहरहाल, सुखद यह है कि साहित्य के साथ कलाओं पर भी जयपुर देश के बड़े संवाद केन्द्र के रूप में उभर रहा है। कलाओं से जुड़े जीवन प्रश्नों के एक सत्र में कवि, संपादक मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल, संस्कृत मर्मज्ञ कलानाथ शास्त्री के साथ एक सत्र में इस नाचीज ने भी भागीदारी की। सुखद यह था कि इस सत्र पर अंग्रेजी की छाया  नहीं थी। यह भी कि यही वह सत्र था जिसमें कला व्यापार से जुड़े सवालों की बजाय कला की संवेदनशीलता, उसमें निहित संवेगों और कलाकृतियों के अन्र्तनिहित पर बहुतरे मसलों पर विषद् चर्चा हुई। प्रयाग शुक्ल की ‘कला के अयोचित क्षेत्र’ की सूक्ष्म दीठ में कलाकारों को अनछूए के अन्वेषी, अयाचित क्षेत्रों का संदेशग्रहणकर्ता जैसी लयात्मक अभिव्यंजा मोहक थी। वह जब स्वामीनाथन, रामकुमार की यात्राओं और गायतोण्डे के महिनों तक कैनवस के समक्ष बैठकर सृजित उनकी कलाकृतियों पर बोल रहे थे तो बहुतेरी कलाकृतियां भी आंखो के समक्ष जैसे उद्घाटित हो रही थी। प्रयागजी कलाकृतियों और यात्राओं में गहरे से रमते हैं। ऐसा है तभी तो  उनका कहन मन को छूता है।
इसी सत्र में मंगलेश डबराल ‘कला में देखना’ से जब नाता करा रहे थे तो डच कलाकार फरमीर और खिड़की से आने वाले प्रकाश स्त्रोत के बहाने कलाओं के सर्जन को गहरे से जैसे जिया। कलाकृति का स्त्रोत कुछ भी हो सकता है, खिड़की से आता प्रकाश भी और औचक घटित कोई अनुभूति का क्षण भी। इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि कलाएं देखने की सघनता पर निर्भर करती है। मंगलेशजी कवि हैं सो उन्होंने जब कहा कि कविता हमारे समक्ष उड़ती-मंडराती रहती है-जो देख ले वह कवि। सच ही तो है! देखना दृश्य की संवेदना से ही जुड़ा भर नहीं है, इसमें अनुभूति को आत्मसात करने की दीठ भी तो है। रोंदे, रामकिंकर बैज, हिम्मत शाह, मदन लाल जैसे मूर्तिशिल्पियों ने जो घड़ा उसमें दिखने वाली वस्तु ही महत्वपूर्ण कहां है? वहां दृश्य से परे जीवन से जुड़ी उस छाया का अधिक महत्व है जिसे देखने वाला अपने तई सदा ही दूसरों से अलग व्यंजित करता रहा है।
    बहरहाल, जरूरी है कि भविष्य में भी कलाओं पर संवाद की इस तरह की परम्परा कायम रखी जाए। हाॅं, कलाओं पर विमर्श के लिए विषय चयन में भारतीयता और हमारी अपनी भाषा हिन्दी को न बिसराया जाए। विडम्बना यह है कि इधर अंग्रेजी की चमक-दमक से हर कोई मोहित है। अंग्रेजी लेखन, अंग्रेजी परिवेश की भयाक्रान्तता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि उस अंग्रेजी लेखन को पूजा जा रहा हैं-जिसमें हमारा अपना न तो अतीत है, न भविष्य और न अपनी भाषा हिन्दी में लिखे के भविष्य की किसी प्रकार की कोई आहट। भाषा का ज्ञान, बल्कि किसी भी क्षेत्र का ज्ञान व्यक्ति को संपन्न ही करता है परन्तु जब दैनिन्दिनी जीवन में हम अपनी भाषा को जीते हैं, उसी में हमारी सहजता है तो फिर क्या ऐसी मजबूरी है कि ऐसे आयोजनों का परिदृश्य और परिवेश अंग्रेजी में रचा-बसा ही हो! कहीं यह हमारी अपनी ही हीन भावना तो नहीं!

Tuesday, November 26, 2013

सौन्दर्य संवाहक चांद

कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। अंतर के उजास की अभिव्यक्ति। सौन्दर्य का प्रकाष तभी है जब अंतर में उजास हो। अंतर का उजास भी तभी है जब कलाओं का हममें वास हो। इसीलिए तो कहें, कलाओं से ही है यह जीवन! सोचता हूं, चांद का सौन्दर्य उसकी कलाओं से ही तो है। उसमें से कलाओं का लोप होते ही अंधकारमय हो डराने लगती है रात। अमावस में चंद्रमा तमाम अपनी कलाओं को खो देता है, परिणति में ही विलुप्त होता वह काला और कुरूप हो जाता है। 

बहरहाल, पूर्णिमा में चांद की कलाएं लौट आती है। कलाओं से दीप्त होता वह फिर से लुभाता मन को भाने लगता है। कला का पर्व ही तो कार्तिक पूर्णिमा। अंतर के उजास का संवाहक। नदी, सरोवर में इसी दिन प्रवाहित होते हैं दीप। अंधकार को हरने।

कहते हैं, कार्तिक पूर्णिमा पर रात्रि में आसमान में जब स्वच्छ तारे निकलते रहते हैं तभी समृद्धि प्रदायिनी लक्ष्मी उपस्थित होती है। अंधकार हरने के लिए जले दीपकों को निहारने ही धरा पर आती है लक्ष्मी। जहां-जहां दीप वहां-वहां लक्ष्मी का वास। घर-घर जलते हैं दीप। देव मंदिर में, नदी के तीर पर। ऊंची-नीची, संकरी-दुर्गम तमाम जगहों पर जहां भी अंधकार का वास वहीं-वहीं जलता है दीप। दिया जलता है कि उजास हो। अंधियारे जीने के हम आदि प्रकाष से नहाएं। कार्तिक नहान माने अंतर उजास का स्नान।
Artist Vinay Sharma's Painting

पूर्णिमा में दीपदान से बड़ा और क्या दान! पूर्णमासी को ही तो गंगाजी जन्मी। तुलसी जन्मी। गंगास्नान को इसीलिए तो पूर्णिमा को उमड़ पड़ते हैं लोग। कहते हैं, इस दिन किया स्नान, दिया हुआ दान, जप और तप अक्षय होते हैं। अखूट। कभी नहीं समाप्त होने वाले। संयोग ही था कि इस बार कार्तिक पूर्णिमा में षिव के घर था, हरिद्वार।  हरिद्वार यानि हर द्वार। महादेव का घर। ऋषिकेष में वेगवती होकर अपनी प्रखरता जताती गंगा हरिद्वार में शांत और सौम्य है। गतिप्रिया। अविरल बहती गंगा यहां जीवन गति की ही तो संवाहक है। सांझ में गंगा घाटों पर विचरते औचक नजर चन्द्रमा पर ठहर गई। उसकी कलाओं से जैसे साक्षात् हुआ। अमावस के मुरझाए, तेजहीन चांद को देखा था। पूर्णिमा में उसे यूं ओज में देख सुखद लगा। लगा, चांद होले-होले मुस्करा रहा है। चांदनी बरसाता। कमल की भांति सुन्दर। यह खिला-खिला चांद था। अपनी तमाम कलाओं के साथ विराजमान।

कहते हैं, ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो चन्द्रमा ही उनकी सुन्दरतम रचना थी। चन्द्रमा रूप में मनुष्य को सौन्दर्य की सौगात ही तो दी थी ब्रह्मा ने। कोई कह रहा था, चांद हमेषा प्रसन्न रहता है इसीलिए उसे देखते सुख मिलता है। सुख वही तो दे सकता है, जो अपने से संतुष्ट हो। पर कुछ ऐसा हुआ कि चन्द्रमा उदास रहने लगा। अंदर ही अंदर उसके अंदर कुछ ऐसा घटा कि वह कुम्हलाने लगा। तेजहीन होता वह मुरझा गया। सिकुड़ने लगा। अमावस आते-आते वह लोप होता  काला और कुरूप हो गया। उसकी समस्त कलाएं समाप्त जो हो गयी! चन्द्रमा की यह दुर्दषा देख ब्रह्मा को दुःख हुआ। उन्होंने चांद को समझाया, ‘क्यों बना रखी है यह रोनी सूरत! हंसता-मुस्कराता क्यों नहीं? रोने से जिंदगी नहीं कटती। रोने से थोड़े ना होता है समस्याओं का हल। दुख हो, अभाव हो फिर भी तुम्हें मुस्कराना है। यही है जीवन। उसका सौन्दर्य।’ चन्द्रमा को बात समझ आ गयी। उसने फिर से मुस्कराना प्रारंभ कर दिया। लौट आई फिर से उसकी तमाम कलाएं। अमावस का अंधेरा छंट गया था। पूर्णिमा आते-आते इसीलिए वह फिर से अपने पूर्ण सौन्दर्य में निखर हमें मोहने लगता है। सोचिए, तमाम कलाएं है, तभी तो है चांद का यह सौन्दर्य।

Thursday, November 7, 2013

हवाओं को सुनें, रेशमा गुनगुनाती मिलेगी


रेशमा नहीं रही! जिन्होंने रेशमा को सुना है, उनमें से बहुतों के ज़हन में ‘लम्बी जुदाई...’ या फिर ‘हाय ओए रब्बा नहीं ओ लगदा दिल...’ गीत ही गूंज रहे होगें पर सच इतना ही नहीं है! वह गाती तो लगता, सुरों के कायदे को दरकिनार करता कोई बेपरवाह गा रहा है। उसे सुनते आरंभ के स्त्री सुरों के मर्दानापन की अनुभूति कुछ ऐसी ही होती पर थोड़ी देर में ही मन सुरों में लिपटे अलहदे फक्कड़पन, विरह के भावों में कुछ इस कदर रमता कि गान का वह बावरापन सदा के लिए हममें बस जाता। माटी की सौंधी महक में रेशमा के सुरों में आंधी उड़ाती रेत, पाकिस्तान लगती राजस्थान की सीमाओं से जुड़ी विरानगी, और खानाबदोश जीवन से जुड़ी संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। कल्पना करें, पाकिस्तान लगते जैसलमेर-बीकानेर की सीमा की किसी ढाणी की। रेत कंटिले तारों से उस पार उड़कर चली जा रही है। इस पार चली आ रही है। आती-जाती या कहें, उड़ती रेत में आंधी की तेजी भी है तो कभी दूर तक कहीं किसी के न होने का सन्नाटापन भी। रेशमा के अलहदे सुर ऐसे ही हैं। नाजुकता में भारीपन। उड़ती रेती की गूंज। कहीं  किसी एक जगह न रूक ठौड़-ठौड़ भटकने का अलमस्तपन। फक्कड़ता। कहीं कोई सधी हुई बुनावट नहीं। जो है, बस वैसा ही जैसा प्रकति ने गढ़ा है। सच! यही तो है प्रकृति का संगीत।
बहरहाल, याद पड़ता है, तब रेशमा कार्यक्रम देने जयपुर आयी थी। उनसे बातचीत हुई तो लगा, अरे! यह तो हमारे बीकानेर की ही हैं। बोल के वही अंदाज। वही मस्ती। मुंह में पान की लाली। एकदम घरेलू। कोई साज-सिंगार नहीं। खानाबदोश मिजाज। ‘आप भैन-भाई प्यार से सुनते रहे हैं। अला की खिदमत है।’ ....गायन पर बातें हुई पर लगा अपने ज़हन में बसे डेरे, पीर-फक्कीर, मजारें, कबीलों, मेले-मगरियों में उनका मन अटका हुआ था। मुझंे लगता है, रेशमा के सुरों में लोकसंगीत की सहजता इसीलिए अंत तक बची रही कि उसने अपने अतीत को कभी बिसराया नहीं। मांड में बसे रेशमा के सुरों में लोक का अनूठा आलोक है। गाया रेशमा ने गुजराती में भी है, सिंधी में भी और उर्दू में भी है पर पंजाबी और राजस्थानी के बोलों में जो माधुर्य का रस टपकता है, वह सच में अनूठा है। धोरां धरा में गूंजती रेत के सुरों का अपनापन उसमें है तो पंजाब की मिट्टी की मस्ती भी। इस बार रेशमा को सुनें तो गौर करें, ‘उठ गए गवांढों यार...’ या फिर ‘अखिया नूं रैण दे...’ गीत। हृदय के तारों को जैसे यह छूते हैं। संगीत में बसी रूह। 
यह विडम्बना नही ंतो और क्या है! रतनगढ़ के लोहा गांव में जन्मी खानाबदोश परिवार की रेशमा का कबीला देश विभाजन के समय हिजरत करके पाकिस्तान पहुंच गया था। वह भारत में ही होती तो उसकी आवाज को मिलने वाली मुहब्बत से क्या उसकी कला और नहीं निखरती! पाकिस्तान उसकी कला की कद्र कर ही कहां पाया! सुरों में निहित विरह की उसकी संवेदना और फक्कड़पन को सुनते लगता है धरती आसमां को बुला रही है। सोचता हूं, वह भारत में होती तो संगीत में आसमां का मुकाम ही पाती। ‘लम्बी जुदाई...’ से ही वह दिलों में छा गई तो सोचिए दूसरा जो उसने गाया है, उससे रेशमा को क्या पहचान मिलती! और फिर मुल्क की सीमाओं को लांघता रेशमा का खानाबदोश मन रमा तो सदा भारत में ही। सच! रेशमा कहीं नहीं गई है। वह हममें ही बसी है। हवाओं को सुनें, रेशमा आपको गुनगुनाती ही मिलेगी।

Monday, November 4, 2013

दीया जलाएं, पर जतन से...

अंधकार से लड़ने की कला का पर्व है दीपावली। उपनिषद कहते है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ माने अंधकार से प्रकाश की ओर गमन हो। आलोक की यही तो है हमारी आराधना। दीपावली इस आराधना का ही तो संवाहक पर्व है। हमारी संस्कृति में प्रातः सूर्य को अध्र्य देकर दिनचर्या प्रारंभ होती है। सूर्य को अध्र्य देकर यही तो कहा जाता है, हे सूर्य! तम को हर आलोकित करें। करते ही रहें। आपके तेज का अंश ग्रहण कर धरा भी आलोकित हो। और यही क्यों, सूर्य गमन के साथ ही संध्या फिर से दीप प्रज्ज्वलन के साथ हम करते हैं, दीप नमन। भाव होते हैं, ‘शुभम् करोति, कल्याणं, आरोग्यं, सुख-सम्पदा आत्म-वृद्धि प्रकाशाय, दुष्ट बुद्धि विनाशाय, दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ प्रकाश के प्रति हमारा यह प्रणम्य भाव ही तो हमारी संस्कृति है। 
कथा आती है। चलते-चलते सूरज थक गया। निराश हो सोचने लगा, अंधेरे में चलने वाले को कौन दिखाएगा राह! आराम की चाह पर राह कहां! औचक उठ एक नन्हे से दीप ने विनम्रता से कहा, ‘आप जाएं सूर्यदेव! आराम करें। आपके आने तक प्रयास करूंगा कि अंधेरा जीवन पर हावी न हो। भले स्वयं इसके लिए मुझे मिटना पड़े।’ आश्वस्त हो सूर्यदेव घर की ओर चले। लौटे तो देखा बाती समाप्त प्राय हो चली थी। पर फिर भी अपने को जला, लौ को प्रज्ज्वलित किए था नन्हा सा वह दीप। सूर्य को देख बुझती लौ और तेजी से प्रकाशित हो शांत हो गई। दीपक बूझ चुका था परन्तु सूर्य मंे समाहित उसका तेज फिर से जीवन को आलोकित कर रहा था। 
यही तो है जीवन के उदात्त भाव। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। माने उठो, जागो, जो श्रेयस्कर कार्य है, उसे पहचानो। सोचता हूं, कैसा होगा वह क्षण जब मृत्युशय्या पर लेटे होंगे बुद्ध। मन में विचार आ रहे हैं, उनका प्रिय शिष्य आनंद समीप खड़ा है। बुद्ध का बिछोह उसे सहन नहीं हो रहा है। दुखी मन से वह रोने लगा। शांत बुद्ध पूछ रहे होंगे, ‘अरे! रो रहे हो!’ आनंद ने तब कहा होगा, ‘प्रभु आप जा रहे हैं! अभी तो मुझे पूरा ज्ञान भी नहीं मिला!’ तभी बुद्ध ने शायद कहा होगा, ‘अत्तदीपो भव’ यानी अपने दीपक आप बनो। सच भी यही है! हमें अपने दीपक आप ही बनना है। अंतर आलोकित होगा तो सर्वत्र उजास ही उजास पाएंगे। याद करें, कभी रैदास ने भी तो कहा, ‘प्रभुजी तुम दीपक, हम बाती।’ दीपक की बाती बन हम आलोक के संवाहक बनें। 
दीपावली! यानी कार्तिक अमावस की घनघोर रात। यह वह रात्रि है जब चांद और सूरज एक राशि में आ जाते हैं। चांद अपनी तमाम कलाओं को खो देता है। इसी से पसर जाता है धरा पर घटाटोप अंधेरा। धरा के तम को हरने ही तो जलाते हैं हम दीप। घर-आंगन एक साथ असंख्य दीपकों की झिलमिल से रोशन हो उठता है संसार। अंधेरे की अब क्या बिसात! दीपावली के झिलमिलाते दीप मन में अवर्णनीय आनंद का ही तो उजास करते हैं। 
प्रकाश हो तो अंधकार का अस्तित्व ही न हो। कोई कह रहा था, अंधकार ने एक बार ब्रह्माजी से प्रकाश की शिकायत की। कहने लगा, यह हर वक्त मेरा पीछा करता रहता है। इसे रोकिए! ब्रह्माजी ने तुरंत प्रकाश को बुला भेजा। कहने लगे, ‘अंधकार ने तुम्हारी शिकायत की है।’ प्रकाश हैरान, बोला, ‘अंधकार ने! पर मैं तो उसे जानता ही नहीं। कभी उसे देखा ही नहीं। आप सामने लाईए।’ अंधकार को प्रकाश के सामने आने को कहा गया। कहते हैं, ब्रह्माजी तब से इन्तजार ही कर रहे हैं। प्रकाश के सामने अंधकार आने का अर्थ है, उसका अस्तित्व ही न रहना। फिर बताईए, वह आता भी कैसे! जहां ज्ञान है, वहीं तो प्रकाश है। अज्ञान के अंधेरे की प्रकाश के सामने आने की हिम्मत हो  भी कैसे सकती है! ज्ञान की ज्योति जल जाए तो फिर अज्ञान कहां ठहरेगा।
तो आईए, इस दीपावली मन से जलाएं एक नन्हा सा दीप। भीतर के अपने तम को हरने। संस्कृति का यही तो चिंतन है। चिरंतन। कालिदास इसीलिए तो कहते हैं, दीपक शरीर है। प्रकाश प्राण। एक दीप की लौ से दूसरा दीपक और दूसरे से तीसरा।...प्रकाश की लौ पकड़ कर ही हम बढ़ते जाएं आगे। और आगे। अंधकार को दूना होने दें। प्रकाश इसी से और अधिक शक्तिमान हेागा। आईए, दीया जलाएं। पर जतन से। यह दिया सत्य पर टिका हो। इसमें तप से तेल मिले। बाती दया से पूरी गयी हो। क्षमा की लौ हो।...तो आईए, इस दीपावली जलाएं-अंतर को आलोकित करता नन्हा सा एक दीप।


Friday, October 25, 2013

सुर जो सजे

विश्वास नहीं हो रहा, मन्ना डे नहीं रहे! अभी कल की ही तो बात लगती है, वह जयपुर आए थे। गायन से पहले होटल में उनसे मुलाकात हुई तो ढेरांे बातें हुई थी। उनकी जिन्दादिली को तब गहरे से जिया था। उनकी मनुहार को भी तो अब तक कहां भूल सका हूं! कार्यक्रम का समय हो चला था उन्होंने साथ ही चलने की नूंत दी थी। बाद में तो तीन-चार दिन उनके साथ  रहने का भी सुयोग हुआ। लगा, गान में ही नहीं असल जिन्दगी की भी उनकी रेंज का कोई पार नहीं था!
याद पड़ता है, जयपुर में खुले आकाश के नीचे हल्की ठंड में रवीन्द्र मंच के ओपन थिएटर में वह गाने लगे थे। उनके सुर सजे तो सजते ही चले गए। पता ही नहीं चला था कब सांझ रात में तब्दील हो गई थी। उनके गान की वह अद्भुत सांझ थी। स्वयं भी वह जयपुर की फिजाओं में विभोर हो गए थे। हारमोनियम बजाते वह गा रहे थे, ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम मिले तो वीराने में भी आ जाएगी बहार’ सच में उनके गान से तब बहार आ गई थी। बच्चन की ‘मधुशाला’ भी तब उन्होंने मन से सुनाई। वह घड़ी भी आई जब उन्होंने गाया, ‘जिन्दगी कैसी है पहेली हाय...।’ लगा, जिन्दगी की पहेली का हल ढूंढते ही उनके सुर फिल्म संगीत में सजे। सजते ही रहे।
 मन्ना डे यानी प्रबोधचन्द्र डे। हिन्दी फिल्म संगीत के ऐसे गायक जिन्होने दुरूह से दुरूह गीत को गान से संवारा। हर रेंज के गीत गाए। आवाज का विरूपण करने की अद्भूत क्षमता उनमें जो थी! कभी अनिल बिश्वास ने यूं ही तो नहीं कहा था, ‘मन्ना डे की आवाज बहते झरने सा अहसास कराती है।’ सच भी है। रवीन्द्र संगीत, बाउल संगीत और खयाल गायकी से गायन का सफर प्रारंभ करते मन्ना डे ने फिल्म संगीत में स्वर की मौलिकता को सदा बरकरार रखा। शास्त्रीय ही नहीं रोमांटिक, तेज संगीत के गीत, कव्वाली, देशभक्ति, दर्शन, प्यार-रोमांस सभी तरह के गीत तो गाए हैं मन्ना डे ने। सब के सब सुरीले। पर उनके साथ ट्रेजिडी यह भी रही कि उन्हें सदैव वे गीत दिए जाते रहे हैं जो या तो किसी गायक कलाकार की रेंज से बाहर होता या फिर जो फिल्म में नायक की बजाय अतिरिक्त नायक या फिर फिल्म की थीम सांग होता। 
फिल्मों में गायन की सुर यात्रा के पहले एक दशक में उन्हें या तो उपदेश से भरे बोलों के गीत दिए जाते या फिर कठिन धुनों पर आधारित गीत। और तो और जो गीत उन्हें गाने को दिए जाते वे लोकप्रिय सिचुएशनों में उपयोग नहीं किए जाते थे बल्कि अक्सर चरित्रों के नैतिक संकट को सुलझाने के लिए किए जाते थे। बावजूद इसके उनके गाए उस दौर के गीतों केा भी विशेष पहचान मिली। यह वह दौर था जब मन्ना डे संगीतकार सचिनदेव बर्मन, के.सी.डे. और खेमचन्द प्रकाश के सहायक के रूप में काम किया करते थे। राजकपूर अभिनीत जितनी भी फिल्मों में मन्ना डे ने गाया, वे सभी फिल्में गीतों के कारण ही खासी सराही गई। लोक संगीत पर आधारित नौशाद के संगीत में ‘मदर इंडिया‘ का गीत ‘चुनरिया कटती जाए रे, उमरिया घटती जाए रे...‘ गीत हो या संवाद शैली का शंकर-जयकिशन का संगीतबद्ध ‘मेरा नाम जौकर का‘ गीत ‘ए भाई जरा देख के चल.‘ या आवाज में शोखी लिए ‘उजाला‘ फिल्म का ‘झूमता मौसम मस्त महीना, चांद सी गोरी एक हसीना...‘ या ‘श्री 420‘ का ‘प्यार हुआ इकरार हुआ..‘ जैसा गीत या फिर ‘पड़ोसन‘ का ‘यक चतुर नार कर के सिंगार...‘ और ‘पगला कहीं का‘ फिल्म का ‘मेरी भैंस को डंडा क्येां मारा..‘जैसा सदाबहार हास्य गीत। मन्ना डे ने हर गीत को अपने गान में गहरे से जिया। 
बहरहाल, ‘मेरा नाम जोकर’ के ‘ए भाई जरा देख के चलो...’ पर उन्हें  अवार्ड मिला। मजे की बात यह कि यह वह गीत था जिसे उन्होंने कभी गीत माना ही नहीं। याद पड़ता है, इसकी याद दिलाने पर उन्होंने इन पंक्तियो ंके लेखक से कहा, ‘अरे भई, यह गीत है कहां! सीधा-सादा, कोई सुर, लय तो इसमें है ही नहीं।’ मैंने तपाक से तब अगला प्रश्न किया था, ‘...तो फिर आप कौनसा वह गीत मानते हैं जो अवार्ड का हकदार है?’ तुरंत उन्होंने जवाब दिया, ‘पूछो न कैसे मैने रेन बिताई...,’ ‘लागा चुनरी में दाग...’ जैसे बहुत से गीत हैं।’ 
याद करता हूं, कभी भीमसेन जोशी के साथ उन्होंने ‘‘केतकी गुलाब जूही.....’ गीत गाया था। संगीतकार शंकर-जयकिशन ने पं. भीमसेन जोशी के साथ इस गीत को गाने के साथ ही गायन में पं. भीमसेन जोशी को हराने की बात भी बताई थी। मन्ना डे हैरान। यह कैसे हो सकता है! पर करना तो था ही सो उन्होंने जमकर रियाज किया। गायन की धुन में यह पता ही नहीं चला कि कब उन्हांेने पं. भीमसेन जोशी को हरा दिया था। इस बार जरा गौर से सुनेें इस गीत को, आपको भी हार-जीत समझ आएगी। पडित भीमसेन जोशी जी से भी इन पंक्तियो के लेखक ने कभी इस पर प्रश्न किया था तो उन्होंने कहा था ‘शास्त्रीय गीत को फिल्मी गीत में भी मन्ना डे वैसे ही हद तक ले गए थे।’ सच! उनके गान की यही तो खूबी थी। वह जो गाते उसे आत्मसात कर लेते।  
सोचता हूं, ‘सुर न सजे क्या गाऊं मै, सुर के बिना जीवन सूना...’ गीत जब मन्ना डे ने गाया था तब क्या किसी ने यह सोचा था कि उनके सुर इतने सजेंगे, इतने सजेंगे कि उनके बगैर फिल्मी गीतों की चर्चा ही नहीं की जा सकेगी!
बहरहाल, सच यही है। उनकी आवाज का जादू फिजाओं में आज भी गायन के प्रति उनकी दिवानगी को ही बंया करता हम में बसता है। प्रबोध चन्द डे फिल्मी दुनिया के अकेले ऐसे गायक रहे हैं जिनकी आवाज में खुद की निजता सदा बरकरार रही। हर काल, परिस्थिति में। सुनने वाले को आंनदानुभूति का अहसास कराते। भले आज वह देह से हमारे साथ नहीं है परन्तु गान में सदा ही वह हममें बसे रहेंगे। कहें, मन्ना डे ने जो गाया, उसमे -सुर जो सजे, सजते ही रहे। सजते ही रहेंगे।


Friday, October 18, 2013

पंचम वेद की दृश्य संवेदना

प्रदर्शनकारी कलाओं में नाटक ही वह विधा है जिसमें तमाम दूसरी कलाओ का उत्स है। चार वेदों के बाद पांचवे वेद के रूप में इसीलिए नाटक ही अभिहित है। पर इस समय हिन्दी नाटको के साथ विडम्बना यह है कि पर्याप्त मात्रा में खेले जाने के बावजूद दर्शकों का हर ओर टोटा है। भले यह कहें कि सिनेमा, टीवी और दूसरे माध्यमों के कारण ऐसा हुआ है परन्तु बड़ा कारण क्या यह नहीं है कि अच्छे नाटकों के प्रदर्शन के साथ प्रेक्षागृह में दर्शकों को उन्हें दिखाने के आग्रह गौण हो रहे है! कुछ समय पहले पणिक्कर नाट्य समारोह जब हुआ तो बावजूद संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में नाट्य प्रस्तुतियों के प्रतिदिन ही रवीन्द्र मंच दर्शकों से खचाखच भरा रहा। 
बहरहाल, नाटक द्विज है। माने दूसरा जन्म। जो बीत गया है, उसे फिर से मंच पर जीवन्त करने की कला। जीवन से जुड़े तमाम रंग जो वहां होते हैं! अंतर्मन संवेदनाओं का आकाश लिए। रवीन्द्र मंच स्वर्णजयन्ती समारोह में अशोक राही के निर्देशन और अभिनय में ‘सेल्विन का केस’ नाटक देखा था। लगा, राही नाटक के मर्म में जाते उसमें निहित तमाम संभावनाओं को अपने तई जीते हैं। ‘सेल्विन का केस’ का मंचन दुरूह है।  कहानी रोचक है पर बदलते दृश्यों में बार-बार फ्लेश बैक में ले जाती हुई। सिनेमा में यह सुविधा है कि वहां एक ही समय में अनेकों कालखंड दिखाए जा सकते हैं। दृश्य परिवर्तित होते वहां सैकण्ड लगते हैं पर मंच पर यह कैसे संभव हो! पर राही ने इसे संभव किया। नाटक में एक हत्यारे को निर्दोष जान ख्यात लेखक लियोनार्ड लंडन मानवाधिकार से जुड़ी लेखकीय दलीलों से हत्या के जुर्म से उसे बरी करा देता है। उसे इसके लिए अपार यश और नोबल पुरस्कार तक मिलता है। बाद में लंडन को पता चलता है कि जिसे उसने बचाया वास्तव में वही खूनी था। अब क्या किया जाए! नाटक लेखक का संघर्ष, द्वन्द, पीड़ा, विडम्बना के मध्य संवेदना की सूक्ष्म अभिव्यंजना है। राहीजी के नाटक पहले भी देखे हैं पर मुझे लगता है, इधर उन्होंने अपनी जो रंगभाषा ईजाद की है वह अद्भुत है। यह ऐसी है जिसमें रंगमंच से जुड़े बाहरी आवरण नहीं बल्कि वह स्वयं और उनका अभिनय प्रधान है। प्रदर्शन में खुलेपन के साथ सहजता। ऐसी जिससे दर्शक सीधे मंच से जुडें। 
माना यह जाता है कि थिएटर में स्थानीय संदर्भ डालने से दर्शक अधिक उसका हिस्स बनते हैं परन्तु राही अपने रंगकर्म में इस मिथक को तोड़ते हें। ‘सेल्विन का केस’ ही लें। अमूमन ऐसे नाटकों में प्लेबैक थिएटर होता है। माने कहानी दर्शक को सुनाई जाती है ताकि वे स्वयं ही अपेक्षित निर्णय पर पहुंच जाएं। परन्तु राही ने कहानी से नहीं अपने अभिनय से यह संभव किया कि वह दर्शको को प्रभावी रूप मंे संप्रेषित हो जाएं। अनुभूतियों और भीतर के द्वन्द को वह भाव भंगिमाओं से व्याख्यायित करते चरित्र में रमते हैं। हां, निर्देशक के रूप में उनके पास दृश्यों की संगत की भी प्रभावी दीठ है। इसीलिए फ्लेश बैक दृश्यों में अतीत का वर्तमान से नाता कराते वह कहीं कोई अवरोध नहीं आने देते। यही तो किसी नाटक की बड़ी विशेषता होती है।
मुझे लगता है, रंगमंच मूलतः अभिनेता का ही माध्यम है। इसलिए कि वहां चरित्र को जीते वह अपना स्पेस तलाशता एक प्रकार से उसमें अपने को घोल देता है। स्वयं की सीमाओं को लांघते हुए। यही उसका द्विज है। जो इसे साध ले वही तो होता है सच्चा अभिनेता। तो कहें, इस दीठ से अशोक राही सधे हुए अभिनेता, निर्देशक हैं!

Saturday, October 12, 2013

संस्कृति के सौन्दर्य चितराम

संस्कृति माने जीवन से जुड़े संस्कार। स्वाभाविक ही है, इसमें विचार, सूक्ष्म कल्पनाएं, भावनाएं आदि सभी कुछ के संस्कार निहित हैं। जब कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा होता हूं, लगता है वहां प्रदर्शित-ध्वनित हमारी अनन्तरूपा संस्कृति से ही साक्षात् हो रहा होता हूं। उस संस्कृति से जो साहचर्य के गुणों से संपन्न है।  
बहरहाल, बिड़ला सभागार में कुछ दिन पहले पावरग्रिड कारपोरेशन आफ इण्डिया द्वारा क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं आयोजित की गई थी। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड और ऐसे ही तमाम दूसरे प्रांतो से जुड़े उपक्रम के कार्मिक और उनके परिजन कलाकारों ने इसमें अपनी प्रस्तुतियां दी। प्रतियोगिता निर्णायक की भूमिका के रूप में भाग लेते संकट मेरे समक्ष यह था कि बेहतरीन प्रस्तुतियों में से कैसे किन्हीं तीन उत्कृष्ट प्रस्तुतियों को छांटा जाए। इसलिए कि पंजाब से आए दल ने भांगड़ा में खेतों में होने वाले श्रम के महत्व का सांगोपांग चितराम किया था तो उत्तराखंड के कलाकार दल ने हाल ही आयी वहां की त्रासदी को जीवंत करते भगवान शिव का अद्भुत नृत्य प्रस्तुत कर सभागार को सम्मोहित सा कर दिया। आगरा के दल ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को जीवन्त किया तो बल्लभगढ़, कानपुर, लखनऊ से आए कलाकारों ने अपने-अपने क्षेत्र की संस्कृति जुड़ी नृत्य, नाट्य प्र्रस्तुतियां दी। राजस्थान के दल ने उत्सवधर्मी राजस्थान के विविध रंगों को अपनी प्रस्तुतियों में गहरे से जिया। संस्कृति से जुड़ी इन तमाम प्रस्तुतियों का आस्वाद करते निर्णय के वक्त यह भी अनुभूत किया कि देश-काल-परिवेश से उत्पन्न विभिन्नताएं हमें भिन्न करने की बजाय एकसूत्रता के धागे में पिरोती है। यह भी कि यह वैविध्यता से सराबोर हमारी संस्कृति के ही रंग है जिनमें खंड सौन्दर्य का भी विराट दृश्यगत होता है। शायद इसलिए कि वहां रमणीयता है। क्षण क्षण में नवीन जान पड़ती रमणीयता।
सांस्कृतिक प्रतियोगिता में देश के विविध भागों से आए सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियों में रमते हुए यह भी लगा कि संस्कृति समाज को मानवीय मूल्यों से जोड़ती है। ऐसा है तभी तो सरकारी उपक्रम के वह लोग जो निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं परन्तु जहां रहते हैं, वहां के परिवेश में रच-बस जाते। उनके इस अपनापे से ही संवेदना के मूल्य फिर उनमें जगते हैं। मसलन राजस्थान मंे पदस्थापित कार्मिकों के सांस्कृतिक दल की प्रस्तुति को ही लें। राजस्थान की लोक संस्कृति से सीधे उनका कोई सरोकार जन्मजात नहीं रहा है परन्तु यहां रहते उन्होंने राजस्थानी संस्कृति को जैसे आत्मसात कर लिया। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ ही होता है सो अपने प्रांत की प्रस्तुति को प्रथम घोषित करने के संकोच के बावजूद निर्णय तो यही करना था! पर इस निर्णय मंे नहीं जाए तो भी यह कहा जा सकता है कि स्थान-विशेष  के नहीं होते हुए भी हर सांस्कृतिक दल ने वहां की संस्कृति से अपने को जोड़ा ही। पावरग्रीड के महाप्रबंधक एच.के.मलिक और उप महाप्रबंधक उपेन्द्र सिंह से संवाद हुआ तो यह भी पता चला कि सांस्कृतिक तैयारियों के लिए बाकायदा काॅरपोरेशन राष्ट्रीय स्तर पर बजट प्रावधान करता है। यही नहीं इस बजट के अंतर्गत कार्मिकों के परिजनों को प्रस्तुतियों का अवसर मिलता है। एक साथ मिल-बैठ बतियाने का मौका भी। माने कार्मिक के साथ उसके परिवारजन भी संस्कृति के विविध रंगों से अपने आप ही रंगते हैं। संस्कृति के सरोकारों का यह श्रेष्ठतम उदाहरण है। राजकीय सेवा में कार्यरत कार्मिक और उसके परिजनों को यदि संस्कृति से जुड़े सराकारों के श्रेष्ठतम प्रदर्शन की भावना से मंच पर आने के अवसर मिलते हैं, तो बहुत से स्तरों पर समाज में क्षीण होते जा रहे सांस्कृतिक मूल्यों का बिगसाव हो सकता है। आखिर, समय की बड़ी जरूरत आज यही तो है!   


Friday, October 4, 2013

राग में रूप की खोज

नादब्रह्म की उपासना है ध्रुवपद। संगीत के सप्तस्वरों का आदिरूप नादब्रह्म ओंकार ही तो है। ओंकार में शब्द भी है और स्वर भी। कहते हैं, सृष्टि की उत्पति इस नादब्रह्म से ही है । बहुश्रुत पद भी है, प्रथम आदि शिव शक्ति नादे परमेश्वर।’ इसीलिए तो कहते हैं, नाद से उत्पन्न रस ही संगीत है। और नाद की रहस्यमयी महिमा और संगीत शास्त्र से संबद्ध विषय का सांगोपांग कहीं है तो वह ध्रुवपद में ही हैं। ध्रुवपद को ज्ञान की परम्परा से शायद इसीलिए अभिहित किया गया है। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में ध्रुवपद संगीत समारोह में भाग लेते संस्कृत के कहन नादाधीनं जगत्को जैसे गहरे से अनुभूत किया। सच! असार जग का सार कहीं है तो वह संगीत में ही है। ध्रुवपद-धमार से जुड़े कलाकारों को सुनते लगा, संगीत बाहरी ही नहीं अंतर के सौन्दर्य का भी संवाहक है। समारोह में सुना तो और भी कलाकारों को पर डॉ मधु भट्ट तैलंग का ध्रुवपद मन में अभी भी गहरे से बसा है। लयकारी और सांसो पर उनका गजब का नियंत्रण है। गान में आलाप की साधना और स्वरों पर विलक्षण अधिकार और हां, गायकी की उनकी निरंतरता में शब्दों से जुड़े संस्कारों की ध्वनि ओप भी विरल है। जवाहर कला केन्द्र में उस दिन बूंदा-बांदी हो रही थी। अंदर प्रेक्षागृह में  मधुजी जब गाने लगी तो उनका गान भी जैसे भिगोने लगा। दुरूह होते हुए भी गान का सहज निभाव। गमक और मींडयुक्त उनका आलाप। लय वैचित्र्य के अंतर्गत उपज, बोलबांट, दुगुन-तिगुन आदि की विभिन्न लयकारियां। 

कोई कह रहा था, ध्रुवपद महिलाओ का गान नहीं है। गान में फेफड़ों पर जोर जो पड़ता है! दमदार और खुली आवाज से यह जो सधता है। भला, महिला स्वर में ध्रुवपद हो सकता है! शायद इसी सोच से ध्रुवपदको कभी मर्दाना गान कहा गया। इसका मतलब मधु भट्ट अपवाद हैं।  ध्रुवपद को उन्होंने अपने तई साधा है। स्वर, लय पर पूर्ण अधिकार के साथ। वह गाती है तो लगता है,  ध्रुवपद अपनी पूर्णता के साथ हृदय के अंतरतम में प्रवेश करता है। उनके स्वरों में सौन्दर्य का उजास भी है तो बेलौस खुलापन भी। स्वर माधुर्य के साथ काव्य का वह सुंदर प्रयोग करती है। विशेष लयकारी में वह गाने लगी थी, ‘घन घुमण्ड चण्ड प्रचण्ड...। झंकृत होने लगे मन के तार। लगा, संगीत के समुद्र की अतल गहराईयां नापते हैं उनके सुर। नाभि से उठता नाद। सच! सुरों की दुरूह साधना में वह ध्रुवपद को गहरे से जीती कलाकार हैं। आलाप के साथ स्वरों पर विलक्षण अधिकार लिए वह जब गा रही थी तो, अंतर से ध्वनित होती वाणी से ही जैसे साक्षात् हो रहा था। गमक में सुरों की अद्भुत धमक। सुनते हुए लगा, दूर से आते सुरों में वह अनंत की सैर कराती है। 

उनका आलाप सुनते यह भी लगा, होले-होले नदी, नाले, पर्वत, गली, संकड़ेपन के सफर में लय के साथ एक-एक कर आगे बढ़ते जा रहे हैं सुर। राग में रूप की खोज। मुझे लगता है, सधे सुरों में व्यक्ति अपने होने की तलाश कर सकता है। यह संगीत का ही सामर्थ्‍य है कि वह व्यक्ति को वहां ले जाता है, जहां चाहकर भी कोई जा नहीं सकता। सधे सुर ही तो करते हैं अनंत की चाह की राह आसान। ध्रुवपद गाने वाले कलावन्त कहे जाते हैं। माने कला के ज्ञाता। ज्ञान का अथाह सिलसिला ही तो है ध्रुवपद। ...और ऐसे दौर मे जब ध्रुवपद शनैः शनैः हमसे दूर होता जा रहा है, एक महिला गायिका गान की उस महान परम्परा से हमें जोड़े हुए हैं। अब बताईए, मधु भट्ट के होते, है कोई जो यह कहे-ध्रुवपद पुरूषों का ही गान है! 

Friday, September 27, 2013

प्रौद्योगिकी, छायांकन एवं कला

छायांकन स्मृतियों का सौन्दर्य अंकन हैं। कहें, यह वह दृश्य कला है जिससे आप अतीत को बांच सकते है। सच! गुजरे हुए कल के पल की स्मृति के सुनहरे लेख ही तो है छायाचित्र। तमाम हमारी कलाएं व्यक्ति और वस्तु की अंतःविषयक प्रकृति को प्रतिबिम्बित करती है। ऐसे दौर में जबकि हमारा जीवन पूरी तरह से विज्ञान और तकनीक से ही आबद्ध होता जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि प्रौद्योगिकी से जुड़े होने के बावजूद छायाकंन में संवेदनाओं की सीर बची हुई है। माने वहां रोबटनुमा होने की बजाय व्यक्ति भीतर के अपने द्वन्द, भावनाओं, सर्जन संभावनाओं से जुड़ा रहता है। 
बहरहाल, मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तुकला एवं नियोजन विभाग ने कुछ समय पहले डच वास्तुकला के अंतर्गत जल प्रबंधन, शहरी फैलाव और बड़ी तादाद में भवन निर्माण की आवष्यकता से संबद्ध छायाचित्रों की एक प्रदर्षनी का आयोजन किया था। इसमें प्रदर्षित छायाचित्रों का आस्वाद करते ही यह सब ज़हन में कौंधने लगा है। मुझे लगता है, विज्ञान और तकनीक में संवेदनाओं की खेती छायांकन से ही की जा सकती है। और विडम्बना देखिए, देषभर के प्रौद्योगिकी संस्थानों में तकनीकी यंत्र के रूप कैमरे के भरपूर इस्तेमाल के बावजूद छायाकंन के कला महत्व को दरकिनार किया हुआ है। तकनीकी षिक्षा में कला सरोकारों का माध्यम कैमरा बनता है और छायांकन के कला पहलुओं पर भी वहां अगर शिक्षण की पहल होती है तो प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में आने वाली तकनीकी युवा पौध संवेदना के मानवीय गुणों से सर्जना के नए आयाम गढ़ सकती है। उनके किए कार्य, चाहे वह वास्तुकला या अन्य प्रौद्योगिकी निर्माण के हों, वहां का तमाम सर्जन सौन्दर्य का संवाहक भी नहीं हो जाएगा! कांकरिट के जंगल उगाते मन के इस युग की बड़ी आवष्यकता आज यही तो है। और नहीं तो प्रौद्योगिकी संस्थानों के वास्तु और नियोजन विभाग तो यह कर ही सकते हैं। आखिर वहां भवन विन्यास, आकल्पन के कार्य में कैमरे रूपी यंत्र का ही तो सहारा प्रमुख होता है।
इस दीठ से मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तु और नियोजन विभाग के विभागाध्यक्ष रामनिवास शर्मा की पहल बहुत से स्तरों पर प्रभावित करती है। उनकी लगाई ‘नीदरलैण्ड आर्किटेक्चर इन्स्टीट्यूट’ के छायांकनों की प्रदर्षनी में वास्तुकला में छायाकंन की अहमियत तो है ही, प्रदर्शनी के सुव्यवस्थितकरण की उनकी सूझ भी लूंठी हैं। विभाग के बारादरी गलियारे को ही छायांकन दीर्घा बनाते उन्होंने छायाकला के वास्तुकला रूपान्तरण की दीठ का सुअवसर जो दिया! छायाकार मित्र महेष स्वामी आग्रह कर प्रदर्षनी दिखाने जब ले गए थे, तब तकनीकी संस्थान के इस प्रदर्षन की बेरूखी भी ज़हन में थी। परन्तु वास्तुकला और छयाकन के रिश्तों की संवेदना  में जाते यह भी लगा कि प्रदर्शनी यदि नहीं देखता तो एक बड़ा अवसर गंवाता ही। मुझे लगता है, छायांकन विज्ञान और तकनीक में कलात्मक सौन्दर्य का रस घोलती कला है। कभी बिनाॅय बहल ने अजंता की गुफाओं, उनकी छतों और भित्तिचित्रों को विस्तृत रूप में फोटो रूप में ही प्रलेखित किया था। वास्तुकला और मूर्तिकला के अंतर्गत उनका यह संग्रह आज भी इन्दिरा गाॅंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के ‘कलानिधि’ संकाय में संग्रहित है। ललित कला की एक शाखा के रूप में उपयोगिता की दृष्टि से भले ही वास्तुकला भवन निर्माण तक ही सीमित हो गई हो परन्तु सामाजिक बदलाव और विकास के परिप्रेक्ष्य में इसके कला से जुड़े महत्व पर भी हमें गौर करना होगा। आखिर तमाम कलाओ की जननी कभी यही वास्तुकला ही तो रही है। यही वह कला है जिसके तहत तकनीकी ज्ञान संपन्न संवेदनाओं से उपजे सर्जक मन की सुविकसित रचनाओं का आकाष गहरे से रचा जा सकता है। बल्कि कहें, आधुनिक सभ्यता का सांचा वास्तुकला से ही निर्मित है। इसमें छायांकन से जुड़ी कला संवेदना का वास हो जाए तो सोने में सुहागा नहीं हो जाएगा!

Friday, September 20, 2013

अतीत का सौन्दर्यान्वेषण

तमाम हमारी कलाएं सौन्दर्य का अन्वेषण है। कहें, मन के भीतर नया कुछ रचने, गढ़ने के लिए चलने वाली अकुलाहट। दैनिन्दिनी जीवन में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, क्षण-क्षण में उसमें परिवर्तन होता है। तेजी से बदलते इस समय की गति को पकड़ते नया जो रचा, वही तो कला है। पुराने पते झड़ते हैं, नए उगते हैं। प्रकृति का यही नियम है। सर्जन का सच भी तो यही है।

बहरहाल, यह जब लिख  रहा हूं, जीर्ण-शीर्ण स्टेम्प पेपर पर ठुकी रियासतों के अतीत से जुड़े राजस्थान की राजमुद्राएं दिखाई दे रही है। जयपुर, भोपाल, बूंदी, टोंक, अलवर, बीकानेर, उदयपुर राज्यों के एक आने, दो आने के स्टेम्प पेपर और उन पर ब्लाॅक्स की छपाई। स्याही के पैन से संस्कृत, फारसी, उर्दू, अरबी, के साथ साथ खास बीकानेरी ‘बाणिका’, मुरडि़या लिपि  और उस पर अंगूठे, अंगूलियों के लिए निशान। पर यह सब कैनवस का पाश्र्व है। इस पाश्र्व पर आम आदमी भी है। उसके जीवन से जुड़े सरोकार भी और इन्हें अंतर्मन संवेदना से भांत-भांत के रूपों मंे जिया है कलाकार मालचन्द पारीक ने। गणपति प्लाजा स्थित ‘समन्वय’ कलादीर्घा में पारीक की कला प्रदर्शनी ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ के अंतर्गत इस सबका आस्वाद करते यह भी लगा कि अंतःप्रक्रियाओं में यह कलाकार ही है जो कालातीत को समय के सर्वथा नूतन संदर्भ देने की क्षमता रखता है। 

मालचन्द पारीक ने पुराने जमाने में कोट-कचहरी के कार्यों, लेन-देन में प्रयुक्त होने वाले स्टेम्प पेपर को केन्द्र में रखते कैनवस पर आम आदमी के सपनों, उसके संघर्ष के साथ ही अदम्य जिजीविशा को प्रदर्शनी में अपने तई सांगोपांग रूपायित किया है। एक अदद घर का सपना यहां है। उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, ठेला ठेलने वाला, रिक्शा चलाने वाला या फिर मजदूरी करता श्रमिक-सबका सपना अपने घर का है। पुराना स्टेम्प पेपर आज की मुद्रा का प्रतीक है, और उस पर उकेरा व्यक्ति घर की चाह में भटकता आम आदमी।

सोचता हूं, मालचन्द कैनवस पर जीवन का रूपक गढ़ता कलाकार है!  इस रूपक में सौन्दर्य सर्जना के अंतंर्गत कला की हमारी लोक परम्परा को भी गहरे से संजोया गया है। मसलन ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ की एक कलाकृति में जलरंगों की प्रक्रिया में आदि जैन पुराण का मोहक चितराम है। पड़ की मानींद। पुराण कथा से जुड़े चित्रों का कोलाज। दूसरी और कलाकृतियां में स्टेम्प पेपर पर रिक्शे पर, ठेले पर, तांगे, बैलगाड़ी, टैम्पो पर बहुमंजिला इमारते ढोता आम आदमी है तो चाक से घर गढ़ता किसान भी है, बैण्ड वादक भी है और हां, सांप की पिटारी से सांप नहीं बीन बजाकर बहुमंजिला इमारत निकालता सपेरा भी है। कहीं स्टेम्प पेपपर को पाश्र्व में रखते तारों का जाल बुना गया है और उसमें उलझे पक्षियों का कलरव सुनाया गया है तो खण्डहर होता अतीत भी यहां गा रहा है। हवेलियों के ध्वस्त होते झरोखों में बीता अतीत कलाकृतियो में जैसे ध्वनित हो रहा है। माने रंग-रूप के साथ उनमें निहित संवेदना के अंतर्गत संगीत की अंर्तध्वनियां भी है।

मालचन्द बहुआयामी चित्रकार है। चित्रो की इस प्रदर्शनी में उसके मूर्तिशिल्प और एक बड़ा सा घूमता हुआ इन्स्टालेशन ‘मिरर-कर्टेन’ भी समय संदर्भों को अंवेरता देखने वालों को स्पन्दित करता है। तमाम मूर्तिशिल्पों के केन्द्र में टीवी डिश है। यह पेड़ के तने पर लगी है, झोपड़ी पर भी और सांची के स्तूप, पीरामीड और बैठने की कुर्सी तक में। माने कहीं कोई जगह नहीं बची है, जहां बुद्धुबक्शा की पहुंच नहीं हुई है।

कला के इन भांत-भांत के रूपों को देखते औचक ही यह भी अनुभूत होता है कि भिन्न माध्यमों में समय को रूपायित करते कलाकार अजीब सी अकुलाहट में जीता है। इस अकुलाहट में ही शायद वह माध्यम के साथ संदर्भों के अन्वेषण में कला की बढ़त भी करता है। कला में माध्यम के साथ संदर्भ की तलाश जरूरी भी है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को रूपायित करते निरंतर उत्कृष्टता की ओर उन्मुख होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। किसी कलाकार के भविष्य की राह आखिर इसी से तो तय होती है! मालचन्द इसी राह पर आगे बढ़ रहा है। आप क्या कहंगें!

Friday, September 13, 2013

रमणीयता बोध कराते चित्र

कलाएं भीतर के हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती है। रस की तन्मयता जो वहां है! माने यह कलाएं ही हैं जो सब कुछ भुलाकर हमें रस विलीन करती 'भावो भावं नुदति विषयाद इसीलिए तो कहा गया है। यानी भावों की प्रेरणा के पीछे जो भाव रह जाए। रागबन्ध। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में सुधीर वर्मा के चित्रों को देखना संगीत को सुनना, नृत्य से सराबोर हो जाना ही है।
रेखाओं की अदभुत लय अंवेरते वह मन को रससिक्त करते हैं। उनके चित्र सुन्दर नहीं रमणीय हैं। माधुर्य का आस्वाद कराते। मुझे लगता है, रंगों में घुली उनकी रेखाएं संगीत में आलाप लेने सरीखी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। भले ही चित्रों का उनका मूल आधार नायिका भेद है परन्तु इसमें सब कुछ सादृश्य है। माने रेखाएं आकृतियों को जीवन्त करती मोहक छटाओं का छन्द रचती है। 
कुछेक चित्रों पर जाएंगे तो पाएंगे उनमें घोड़ों के साथ नायिका है। अलग से भी वह है परन्तु घोड़ों के साथ का लावण्य मन को मोहता है। नारी शुलभ चंचलता मंडी रेखाओं में यथार्थ की बजाय भाव-भंगिमाएं ही वहां प्रधान है। कहें, नारी नहीं उसके आत्मीय गुणों को रेखा दर रेखा वह रंगों में घोलते आप-हम से साक्षात कराते हैं। बिहारी सतसर्इ का आधार लेते कुछेक नारी चित्रों में पाश्र्व में उभरे पन्ने और उसमें मंडी लिपियां भी वहां है। सर्जना की अनवरत प्यास का संयोग निर्मित करती। रूप को अलंकृत करती।
सुधीर के नायिका चित्र दरअसल परकीया प्रेम की गंध में मानिनीरूप लिए हैं। बकौल बिहारी सतसर्इ वह धीर है, अधीर है ओर धीराधीर भी है। और अचरज! सुधीर नायिका भेद के इस वण्र्य को अपने तर्इ आविष्कृत करते रमणीयता का बोध जगाते हैं। उनकी नायिका की कमर, अधर, भाल, नेत्र आदि सभी कुछ इस कदर मधुर हैं कि वहां रेखाओं के पीछे अर्थ दौड़ता है। माने वहां आकृतियां है परन्तु उनमें निहित लय में रात, चांदनी, धूप, बरसात और ऋतु संबंधी तमाम अनुभूतियों भी हैं। मुझे लगतां है, ऋतुओं को यदि देखना हो तो सुधीर वर्मा के चित्र हमारी मदद करते हैं। यही क्यों? नृत्य, संगीत की सहोदरा भी है उनकी यह कला। प्रारंभिक रंग मूलत: पांच हैं। श्वेत, पीला, काला, नीला और लाल। इनकी संगति से ही दूसरे रंग उपजते हैं। सुधीर की रेखाओं में प्रारंभिक इन पांच रंगों के सुव्यवसिथत संयोजन में कलाकृतियां संगीत और नृत्य का आस्वाद ही तो कराती है। इसलिए कि सूर्य के सात घोड़ों, मयूर के साथ ही तमाम दूसरे बिम्ब, प्रतीकों के साथ रेखाओं में घूले रंगों में सुधीर के नायिका भेद चित्रों से संगीत निकलता है। लय का अनुसरण करती रेखाएं नृत्य को जीवंत करती देखने वालों में बसती भी है। 
सुधीर के उकेरे घोड़ों पर ही जाएं। घोड़ों का उनका वेग रेखाओं की चंचलता लिए है। माने घोड़े हैं परन्तु उनमें निहित ऊर्जा माधुर्य से उपजी है। शकित की बजाय वह मन की उत्सवधर्मिता से जुड़ी है। सोचें, सूर्य नही हो तो सब कुछ निस्तेज नहीं हो जाएगा! इसीलिए कहूं, सुधीर की आकृतियां भीतर के हमारे रिक्तपन या कहें निस्तेजपन को दूर करती है। हुसैन ने कभी 'बूंदी की नायिका शीर्षक से एक चित्र उकेरा था। सुधीर के नायिका चित्रों का आस्वाद करते न जाने क्यों वह औचक ही ज़हन में उभरा है। माने सुधीर की रेखाओं में हुसैन की एप्रोच भी है और हां, पिकासो की रेखाओं के वेग का संवेग भी। सादृश्य में रंग घूली रेखाओं में लावण्य के चितेरे तो वह हैं ही। इसीलिए तो सौन्दर्य नहीं रमणीयता का बोध कराते वह मन को रमाते हें। क्षण क्षण में रेखाओं का नव रूप दिखाते।

Friday, September 6, 2013

रेत राग रमा कमायचा

सरोद और सांरगी से कुछ-कुछ मिलता हुआ वाद्य है कमायचा। सुनेंगे तो मन करेगा गुनें। गुनते ही रहें। बहती हवा में रेत के धोरों में खड़ताल, ढोलक अलगोजा के साथ कमायचा बजे तो थार जैसे सजे। और थार के सौन्दर्य को अपने कमायचे में समाते धुनों का जो लोक साकर खां रचते, उसे चाहकर भी कहां कोई बिसरा सकता है।
सोचता हूं, अब जबकि साकर खां नहीं रहे, थार क्या वैसे ही सजेगा! यह साकर खां ही थे जिन्होंने कमायचे में रेत का हेत संजोया था। वह कमायचा बजाते और लगता रेत धोरों के भांत-भांत के रंगों को गाने लगी है। लोक संस्कृति में व्याप्त संस्कारों का संवाहक ही तो था उनका कमायचा। यह जब लिख रहा हूं, साकर खां के कमायचे से निकली मूमल, हालरिया, बनड़ा, घूमर, बायरो और भी न जाने कितनी-कितनी लोक धुनें ज़हन में बसने लगी है। लग रहा है, होले बहती हवा में उड़ती रेत के कणों से झरता उनका कमायचा मरूस्थल की प्यास का गान कर रहा है।...रेत की अनगिनत छवियां उकेरता। उनका कमायचा बजता तो पेपे खां की सुरनई भी मन के तार झंकृत करती। उनका कमायचा कभी विरह का रूदन करता तो कभी उत्सवधर्मी रंगों की छटा बिखेरता मन में अवर्णनीय उमंग, उत्साह का संचार करता। लगता यही कि कमायचा नहीं धोरे गा रहे हैं। मिट्टी की सौंधी महक में जो रचा-बसा था उनका कमायचा! 
बहरहाल, साकर खां पाकिस्तानी सरहद के पास बसे गांव हमीरा के थे। वह जब ग्यारह वर्ष के थे तभी पिता का देहान्त हो गया। पिता से विरासत में और तो कुछ मिला नहीं, कमायचा मिला। इस विरासत में लोक धुनों को उन्होंने अपने तई साधा। उसमें बढ़त की। उन्होंने जो धुने निकाली लोक में सजी वह शास्त्रीयता की धुने थी। यही कारण था कि देश-विदेश में राजस्थान के पारम्परिक लोक वाद्य कमायचा को बाद में उन्हीें के कारण अपार लोकप्रियता भी मिली। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया तो केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी, राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी आदि से भी उनकी कला को निरंतर सम्मान मिलता रहा। अभी कुछ दिन पहले देश के सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित रामनारायणजी जब जयपुर में थे तो उनसे साकर खां के कमायचे पर भी संवाद हुआ। कहने  लगे, ‘साकर खां को सुना है। उसके कमायचे में लोक धुनों की आत्मीयता में खोने का मन करता था। राजस्थान के लोक संगीत को तो लंगा, मंागणियारो नें ही तो सहेजा है।’ 
कमायचा सारंगी की तरह गज से बजने वाला वितत् वाद्य है। आम शीशम की लकड़ी से गोलाकार तबली का इसका ऊपरी भाग खाल से मढ़ा होता है। मुझे लगता है, साकर खां ने राजस्थान के इस पारम्परिक वाद्य को सुदूर देशों तक पहंुचाया ही नहीं बल्कि रेत की धुनों से हर आम और खास का नाता भी कराया। याद पड़ता है, मरू महोत्सव में कभी उनके कमायचे से निकली मांड सुनी थी। लगा, धोरे विभोर हो अपने पास बुला रहे हैं। राजस्थान की जगचावी धुन ‘पधारो म्हारे देस...’ बज रही थी और लग रहा था कि राजस्थान के तमाम रंग सुनने वालों को भीगो रहे हैं।  रेत जैसे अपने हेत से रंगने की नूंत दे रही थी। होले-होले गज से छिड़े कमायचा के सुर मन में घर कर रहे थे। मुझे लगता है, यह साकर खां का कमायचा ही था जिनकी धुनें लोक से अपनापा कराती मन में यूं घर करती थी। रेत राग रमा ही तो था उनका कमायचा!

Friday, August 30, 2013

समय रचती कलाएं


संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य आदि तमाम कलाएं काल के अनंतर अपना अलग समय गढ़ती है। यह है तभी तो उनमें रमते, उनमें बसते बहुतेरी बार यह भी अनुभूत होता है कि यह वह समय नहीं है, जिसमें हम जी रहे हैं। यह तो कला का समय है। तो क्यों नहीं यह प्रस्तावित किया जाए कि समय कलाओं को नहीं बल्कि कलाएं समय को रचती है।

 कुछ दिन पहले राजस्थान विश्वविद्यालय में कलाओं से जुड़े देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों के प्राध्यापकों के पुन्शचर्या  पाठ्यक्रम में संबोधित करने जाना हुआ था। औचक ही ज़हन में कौंधा, यह कलाएं ही हैं जो काल से परे सौन्दर्य की सर्जना करती है।  

कला क्या है? आकार, रंग, स्पेस का सम्मिलित सौन्दर्य ही तो। ध्वनि का सामंजस्य संगीत का, लय का सामंजस्य कविता का, रंग-रूप का सामंजस्य चित्र का सौन्दर्य है। सामंजस्य का यह संसार ही अपने तई फिर समय की सर्जना करता है।

विचार करें, संध्या पहर कुछ सुन रहे हैं। ध्वनित राग सुबह का है। भोर की अनुभूति होगी। बारिश हो नहीं रही परन्तु मल्हार राग बूंदो से भीगो देता है। यही क्यों! प्रेक्षागृह में नाटक देखते अभिनय में  निहित करूणा अपनी हो जाती है। मन भारी हो जाता है। यही तो है कलाओं का रचा समय। कला-अुनभूति का समय देखने, सुनने के समय का सच हो जाता है। इस समय की तीव्रता इस कदर होती है कि जिस समय में व्यक्ति जी रहा होता है, उसके सच को बदल देता है। इसीलिए संगीत, नृत्य, चित्र, नाट्य को अपने में बसाते हम कला के समय में रूपान्तरित हो जाते हैं।  हम वह नही  रहते जो पहले थे। कला के समय का इससे बड़ा सच और क्या हो सकता है!

प्रश्न हो  सकता है कि फिर आधुनिकता क्या कला का समय नहीं है? आधुनिकता समय नहीं है। विचार है। कुछ अर्थों में तकनीक से जुड़ा विचार। कलाओं पर नियम-अनुशासन  लागू होते हैं परन्तु वे आदेशात्मक नहीं होते। माने तकनीक कला संप्रेषण को सुगम कर सकती है परन्तु वह उसे आदेशित नहीं कर सकती। इसलिए कि कलाएं तो अपना समय स्वयं गढ़ती है। 

हां, इस गढ़न में समाज से जुड़े संस्कार अपने आप ही तकनीक के रूप में जुड़ते चले जाते हैं और हम यह कहने लगते हैं कि समाज में हो रहे परिवर्तनों के समय का असर कला पर भी पड़ता है। ऐसा ही यदि होता तो कलाएं अपने स्वरूप में कार्यप्रेरक नहीं होती। वह भाषाओं, भौगोलिकता और व्यक्ति की सीमाओं से मुक्त नहीं होती। और इन सबके साथ व्यक्ति को रोबोटनुमा बनने से रोकती भी नहीं। यह कलाएं ही हैं जो व्यक्ति को संपूर्णता की ओर ले जाती संवेदना संपन्न किए रखती है। 

व्यक्ति में देखने, विचारने, चीजों और उसके समय को परखने की दीठ देती है। कलाओं का यदि अपना समय नही होता तो क्या संवेदना शून्य होते व्यक्ति स्वयं अपने में ही कभी के गुम नहीं हो जाते। मुझे लगता है, कला का समय समाज का सच रचता है। और इसका प्रभाव सूक्ष्म, अस्पष्ट परन्तु सर्वव्यापी होता है। मानव उसी से संस्कारित होता है। इसीलिए तो देश, भाषा और काल की सीमाओं को लांघती कलाएं संवेदनाओं का हममें वास कराती रोबोट बनने से हमें बचाती है। 

बहरहाल, संगीत एवं नाट्य विभागाध्यक्ष विदुषी  माया टाक और अर्चना श्रीवास्तव के आग्रह पर जब विश्वविद्यालय  में कलाओं पर कुछ बोलने की नूंत मिली तो संकट में था  कि क्या कुछ नया कर पाऊंगा परन्तु लगता है, यह कलाओं के समय में प्रवेश  ही रहा होगा जिससे विचार का वातायन यूं खुल पाया। 


Friday, August 23, 2013

सुरों के रस का सारंगी गान


तत्वाद्य है सारंगी। करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करता वाद्य। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी वहां है। मुरकियांे के साथ खटका और तानें भी। माने कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। कोई कह रहा था, अतीत का ‘सारिंदा’ सारंगी बन गया। ‘रावणहत्था’ से भी कोई इसे जोड़ता है। 
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं और पंडित रामनारायण की सारंगी के सुर ज़हन में बस रहे हैं। राग पीलू ठुमरी। सारंगी के स्वरों का जादू तन-मन को जैसे भीगो रहा है। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सारंगी रच रही है दृश्य की भाषा। ठुमरी के रंग रच गए तो लो अब सारंगी के तारों पर पंडितजी ने राग जोगिया की तान छेड़ दी है। सारंगी जैस समझा रही है असार संसार का सार। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते सारंगी के सुर। निरवता का गान। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है यह नाद! सुरों का अनूठा उजास है पंडितजी की सारंगी में। मन के अंदर तक घर करती है सारंगी की उनकी गूंज। सुनते लगता है, बीन और अंग के आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की बढ़त करते हैं। गज चलाना कोई उनसे सीखे! दोनों हाथों की अंगुलियों का संतुलित संचालन। सारंगी बजाते खुद भी वह जैसे खो जाते हैं और सुनने वालों को सुरों के समन्दर की जैसे सैर कराते हैं। एक लहर आती है, दूर तक बहा ले जाती है। दूसरी आती है और जैसे अपने में समा लेती है। भीगोती, पानी के छींटे डालती हुई। ...सच! पंडित रामनारायणजी की सारंगी बजती नहीं, गाती हुई हममें जैसे सदा के लिए बस जाती है।
पंडित रामनारायण जी उदयपुर में जन्में। और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। सारंगी की शास्त्रीय पहचान का श्रेय उन्हीं को है।  कहें, वह नहीं होते तो सारंगी कब की हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर  पंडितजी ने सारंगी अपनायी। उस्ताद वहीद खां से सुर, लय और ख्याल गायकी सीखी तो धु्रवपद को भी अपने तई साधा। आकाशवाणी में भी रहे पर सारंगी को स्वतंत्र पहचान दिलाने में नौकरी बाधा लगी सो छोड़ दी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी की धूम मच गयी। उस्ताद विलायत खां के साथ उनका एलपी रिकाॅर्ड आया। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की। याद करें ‘कश्मीर की कली’ का ‘दिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुरों पर गौर करें। मन करेगा बस उन्हें गुनें। गुनते ही रहें। पंडितजी ने सत्यजीत राय की कुछेक फिल्मों के साथ तपन सिन्हा की ‘क्षुधित पाषाण’ का पाश्र्व संगीत भी दिया है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले पंडितजी जयपुर में थे तो कलाकार मित्र विनय शर्मा और महेश स्वामी के साथ उनसे खुब बतियाया हुआ। लगा, सारंगी में ही नहीं, उनकी बातों में भी अद्भुत रस है। होटल की खिड़की से बाहर झांकते तरण-ताल पर उनकी नजर गयी। उसके कम पानी को देख वह कहने लगे, ‘...स्विमंगपुल में इतना चुल्लूभर पानी है कि कोई आराम से इसमें डूब मरे!’ उनका कहन इतना धीमा, गंभीरता लिये था कि औचक समझ ही नहीं आया। जब समझे तो हंसी के मारे बुरा हाल था। फिर से पंडितजी ने फरमाया, ‘लो...हम तो आपकी इस हंसी पर ही मर मिटे।’ 

Friday, August 9, 2013

लोक संस्कृति का गान

हरिमोहन भट्ट रेखाओ में सौन्दर्य की सर्जना करते हैं। लोक संस्कृति का गान करती उनकी रेखाएं जीवन की उत्सवधर्मी संवेदनाओं का नाद है। उनकी रेखाओं में रंग हैं, रूप है और है संवेदनाओं का आकाश। रेखाओं में सौन्दर्य का अन्वेषण करते भट्ट पारम्परिक प्रशिक्षित कलाकार नहीं है। वह रंगीन बालपोईन्ट पैन से उकेरते हैं रेखाएं। बाल्यकाल में कभी अपने लिखे को सजाने में इस कदर प्रवृत हुए कि बाद में तो उनका बालपोईन्ट पैन रेखाओं का सौन्दर्य संवाह ही बनता चला गया। अपनी कला में राजस्थान की उत्सवधर्मी संस्कृति में बिखरे भांत-भांत के रंगों के वह संवाहक हो गए। लोक संस्कृति में रचा-बसा उनका मन सर्जना में दृश्य ही नहीं बल्कि उसमें निहित संवेदना की बारीकियां की बढ़त करता है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले ही हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन रेखाचित्रों का आस्वाद किया। लगा, रेखाओं में भांत-भांत के रंगों को घोलते वह दृश्य की हमारी संवेदना को ही नहीं बल्कि सुनने के हमारे माधुर्य को भी गहरे से छूते हैं। उनके रेखांकनों का आस्वाद करते सहसा ही राजस्थान के मांडणों की याद आती है। मांडणे सरीखे उनके रेखांकन बारिश के इस मौसम में अपने पंखों से रंगों की छटा बिखरते मोर की याद दिलाता है तो बरसती बूंदों की रिम-झिम के साथ आसमान में उभरते इन्द्रधनुष को भी औचक ही मन मे बसाता है। सांगीतिक आस्वाद कराती उनकी रेखाएं नृत्य करती हुई हममें प्रवेश करती है तो कभी गांव के उस परिवेश से भी हमारा अनायास साक्षात् करा देती है जिसमें मन बनावटीपन से कोसों दूर बस सहज सौन्दर्य का पान करता है। ज़हन में बचपन कौंधने लगा है।  तब शहर की चारदीवारी से दूर बड़ा सा बीकानेर के घर का हमारा आंगन हुआ करता था। आंगन के बीचोबीच उगा खेजड़ी का वृक्ष। त्योंहारों पर कच्चे आंगन पर गोबर पूतता। दादी चाव से आंगन संवारती। गैरू-गोबर से आंगन लीपती। इस लीपे पर फिर मांडणे मंडते। मनभावन मांडणे। मूढ़ से बनी घर की बड़े ओसार की दीवारें भी दादी के हाथों से तब अलंकृत होते देखता। अक्षर ज्ञान से कोसों दूर दादी रेखाओं में सधी माधुर्य की अनूठी लय अवंेरती। 
सोचता हूं, हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन से बने रेखाचित्र लोक मन में बसे ऐसे अलंकरण ही तो है! इनमें कहीं कोई बनावट नहीं है। जीव-जंतु, फल-फूल, प्रकृति और लोक आस्था के अनगिनत सुर। संवेदनाआंे को जगाते। हमसे बतियाते। इनमें रेखाओं का अद्भुत उजास है तो आत्मिक अनुभूतियां से जुड़े अनगिनत छलकते रसों के संदर्भ भी हैं। मुझे लगता है, लोक संस्कारों के सर्जनषील तत्वों को भट्ट शुद्ध व स्पष्ट रूप में हमारे समक्ष रखते हैं। वह बेल बूटों को इनमें सूक्ष्म उकेरते हैं तो बहुतेरी बार भारतीय शिल्प की गहराईयों में भी ले जाते दिखते हैं। अजन्ता की कलाओं का आस्वद यहां होता है तो मूगल चित्र शैलियों के अलंकरण तत्वों की सूक्ष्म दीठ भी यहां है। राजस्थान की राजपूत-मूगल शैली के साथ ही मिनिएचर तत्वों का अहसास ठौर-ठौर उनकी कला में है। सौन्दर्य से जुड़े मन के भावों के दृष्यों का अपने तई वह  आकाश ही तो रचते हैं! अलंकृत रेखाएं। कहीं कहीं वलयकार रेखाओं में सरल, सीधी रेखाओं का विलोप। मुल्कराज आनंद के शब्द उधार लेकर कहूं तो हरिमोहन भट्ट की बालपोईन्ट पैन  रेखाएं सौन्दर्य की सर्जना में बहुत से स्तरों पर ईष्वर की आषुलिपि है। रंग-बिरंगी रेखाएं मेंहदी सजे गौरी के हाथों की याद दिलाती उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का नाद भी तो करती है। लय का अनुसरण करती एक-दूसरे में समाती। एक दूसरी से ओत-प्रोत होती कब यह सौन्दर्य का आत्मरूप हो जाती हैं, कहां पता चलता है!