Wednesday, September 26, 2018

सांस्कृतिक विरासत संरक्षण के साथ नये पर्यटन क्षेत्रों का हो समुचित विकास


केन्द्र सरकार द्वारा देश में इस बार 16 से 27 सितम्बर तक राज्य सरकारों के सहयोग से पर्यटन पर्व की  पहल की गयी। इसके तहत पर्यटन के लाभों पर ध्यान केन्द्रित करने, देश की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करने औरसभी के लिए पर्यटनके सिद्धान्त को मजबूत करने पर जोर दिया गया। यह सही है, ऐसे आयोजनों से पर्यटन प्रोत्साहन होता है, कुछ समय के लिए पर्यटकों का आगमन भी बढ़ता है परन्तु मूल बात यह है कि पर्यटन उद्योग के विकास के साथ इधर जो चुनौतियाॅं जुड़ी है, जो समस्याएं उभर रही है-उन पर कितना हम गंभीर हैं। पर्यटन विपणन का तमाम जोर देश में इस बात को लेकर है कि पर्यटकों की संख्या में अधिकाधिक वृद्धि हो। यह ठीक है, पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों की वृद्धि ही पर्यटन उद्योग का उद्देष्य है। आखिर विदेशी मुद्रा प्राप्ति और सकल घरेलू आय में इसी से वृद्धि हो सकती है परन्तु पर्यटन क्षेत्र में इस बात को भी देखे जाने की जरूरत है कि स्थान विषेष पर पर्यटकों के बढ़ते दबाव से कहीं वहां का वातावरण तो प्रभावित नहीं होने लगा है।

अभी हाल के एक समाचार के अनुसार जापान में पर्यटकों का दबाव इतना अधिक हो गया है कि उससे वहां अत्यधिक गर्मी और पर्यावरण पर संकट गहरा गया है। रिकियो यूनिवर्सिटी कॉलेज आॅफ टूरिज्म के प्रोफेसर तोरू अजुमा का कहना है कि पर्यटकों की भीड़, गाड़ियों की संख्या, बढ़ती गर्मी और प्रदूषण दुनिया के लिए आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती होगी। भारत में ही देखें,  कुछ समय पहले शिमला में हालात यह हो गए थे कि वहां के प्रशासन को बाकायदा मीडिया में प्रसारित करना पड़ा कि पानी की इस कदर कमी वहां हो गयी है कि अब और पर्यटक शिमला नहीं आएं। नैनीताल, कुल्लू-मनाली, डलहौजी, जैसलमेर, पुष्कर, खजुराहो आदि पर्यटन के अधिक दबाव और असंतुलित पर्यटन के कारण आज सांस्कृतिक और पर्यावरणीय प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। प्रचलित पर्यटन स्थलों पर वाहनों से इस कदर जाम होने लगे हैं कि आम आदमी की दिनचर्या उससे गहरे से प्रभावित हो रही है। होटलों में, वहां के स्विमिंग पूल में बेतहाशा पानी के उपयोग से पेयजल की कमी से भी बहुत से पर्यटन स्थल इस समय इस कदर जूझ रहे हैं कि आने वाले समय के बारे में सोच के ही सिहरन होती है। हम पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों के आगमन के बढ़ते आंकड़ों से इस कदर खुश हो रहे हैं कि पर्यटकों के दबाव से होने वाली दूसरी समस्याओं पर हमारा ध्यान ही नहीं जा रहा है।

पर्यटन प्रचार का जो साहित्य प्रचार और प्रसारण केन्द्र और राज्य सरकारों के स्तर पर  होता है उसमें चिर-परिचित स्थानों पर ही अधिक जोर रहता है। पर्यटन विपणन का हाल भी यही है कि हम जाने-पहचाने स्थानों से इतर पर्यटन स्थलों के विकास या वहां पर्यटकीय दृष्टि से संभावनाओं पर विचार ही नहीं करते। इसी कारण देश के अधिकांष जाने-माने पर्यटन स्थल इस समय पर्यटकों के अधिक दबाव से ग्रस्त बहुत सारी और गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हुए जा रहे हैं।  जितना पर्यटकों के पहुंचने से वहां फायदा होता है उससे कहीं अधिक जरूरत उन स्थानों की सार-संभाल की होने लगी है। अत्यधिक दबाव से पर्यटन का जो लाभ स्थानों पर होना चाहिए वह नहीं हो रहा उलटे पर्यटन अर्थव्यवस्था में घाटे का सौदा साबित हो रहा है। भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबंध संस्थान के निदेशक मित्र संदीप कुलश्रेष्ठ ने कुछ समय पहले अपने संस्थान द्वारा देशभर के पर्यटन स्थलों पर स्वच्छ पर्यटन की चलाई मुहिम में दिखाए जाने वाली एक विडियो फिल्म दिखाई। हालांकि इसमें स्वच्छता के लिए किए प्रयासों का सांगोपांग चितराम है परन्तु गंदगी से बेहाल हो रहे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों की वह तस्वीर इसमें इस कदर डरावनी है कि लगता है पर्यटन के अत्यधिक दबाव से बहुत से स्थल कचरे का ढ़ेर बनते जा रहे है। सुखद है, स्वच्छ भारत, स्वच्छ पर्यटन जैसी मुहिम से कुछ सकारात्मक हुआ है।

बहरहाल, जरूरत इस बात की है कि पर्यटन दबाव से ग्रसित स्थानों का विकल्प तलाश जाए। अल्पज्ञात परन्तु पर्यटन संभावना वाले स्थानों को चिन्हित कर वहां पर्यटन का प्रसार किया जाए। राजस्थान की ही बात करें। राजस्थान में बहुत से ऐसे अल्पज्ञात स्थल हैं जहां पर अपार पर्यटन संभावनाएं मौजूद है। राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी मित्र अजयसिंह राठौड़ ने राजस्थान के 200 से अधिक पक्षियों के छायाचित्र अपने कैमरे से संजोया है। वन्यजीवों के दुर्लभ क्षण क्षणों की छायाकारी उन्होंने की है। राजस्थान के अल्पज्ञात स्थलों को भी उन्होंने अपने कैमरे से संजोया है। उनके छायांकन आधार पर ही प्रदेश के नए पर्यटन स्थलों को पर्यटन नक्शे पर लाने का कार्य किया जाए तो बहुत कुछ महत्वपूर्ण हो सकता है। याद है, अपने कैमरे की दीठ से एक दफा राजस्थान के ऐसे किले, महलों, गुफाओं, नदियों और झरनों के पास वह ले गये जो इस नाचीज़ घुम्मकड़ के लिए भी अदेखे थे। लगा, देशभर का भ्रमण कर लिया पर अपने राजस्थान में तो अभी भी बहुत से स्थानों को जिया ही नहीं है। यह भी कि राजस्थान में बहुत कुछ अभी भी ऐसा है जिसे पर्यटन की दृष्टि से समझा और सहेजा ही नहीं गया है। मसलन झालावाड़ की बौद्ध गुफाएं, पांडवो के अज्ञातवास के स्थल विराटनगर की अप्रतीम चट्टानें, चम्बल नदी का वह क्षेत्र जहां पर जल का सागर ही नहीं है बल्कि बहुत सारे पानी के जीवों का सुरम्य लोक है, बूंदी की चित्रशाला, सवाईमाधोपुर का 12 वीं सदी के इतिहास को जीता खंडार किला, बांरा के शाहबाद, शेरगढ़ फोर्ट, करौली के तिमनगढ़ आदि बहुत से ऐसे स्थल जो पर्यटन के नक्शे पर नहीं है, परन्तु पर्यटन की अपार संभावनाएं वहां मौजूद है।

अभी कुछ समय पहले ही बिहार संग्रहालय में एक व्याख्यान देने के लिए पटना जाना हुआ। वहां के पूर्व मुख्य सचिव और वर्तमान में मुख्यमंत्री के सलाहकार अंजनीकुमार सिंह आग्रह कर अपने कला संग्रहालयनुमा निवास स्थान  ले गये। पता चला, बिहार जैसे राज्य में उनकी पहल से बहुत कुछ सांस्कृतिक नया हुआ है। उनकी पहल से ही पटना में पृथक से बिहार संग्रहाल की स्थापना की गयी है। कईं एकड़ में बना यह देश का ऐसा संग्रहालय है जो पुरातत्व की वस्तुओं का ही भंडार नहीं है बल्कि बिहार की संस्कृति के जीवंत रूप वहां हैं। अंजनीकुमार सिंह कला-संस्कृति की गहरी सूझ रखते हैं। उन्होंने बिहार के अल्पज्ञात स्थलों का भी विकास पर्यटकीय दृष्टि से किया है। उनके सौजन्य से ही नालन्दा यात्रा के दौरान राजगीर के पास एक स्थल घोड़ा कटोरा जाना हुआ। पहाड़ों के मध्य सुंदर सी झील वहां है और हाल ही में उसके ठीक मध्य में बुद्ध की प्रतिमा की स्थापना की गयी है। राजगीर से कोई सात किलोमीटर दूर इस स्थान पर पर्यटकों के जाने के लिए कच्चा मार्ग है और वहां पर कोई धूंए के वाहन से नहीं जा सकता। आपको जाना है तो तांगे से या पैदल जाईए। पारिस्थितिकी पर्यटन का यह अप्रतीम केन्द्र है। बताते हैं, कुछ साल पहले अंजनीकुमार सिंह ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार सिंह के साथ हेलिकोप्टर में इस स्थान को पहाड़ियों से देखा और उसके पौराणिक, प्राकृतिक महत्व को देखते उसे पर्यटन स्थल रूप में विकसित कर दिया। मुझे लगता है, पर्यटन स्थलों के विकास के लिए इसी तरह की बढ़त की जरूरत है।

कुछ समय पहले मित्रों के साथ अलवर के नीलकंठ महादेव मंदिर जाना हुआ। टहला की पहाड़ी के ऊपर नीलम का शिवलिंग और सुंदर सा एक सरोवर वहां है।...और आस-पास प्राचीन मूर्तियां बिखरी पड़ी है। कुछ ही दूरी पर भगवान महावीर की प्राचीन मूर्ति है तो बौद्ध कालीन अवषेष भी हैं। हम इससे कुछ किलोमीटर और आगे घने जंगल में कांकवाड़ी फोर्ट भी गए। इस किले से दूर तक फैले जंगल, हिरनों की टोली को देखना जैसे अद्भुत लोक की सैर जैसा था। मजे की बात यह कि वन विभाग के अधीन इस किले में पर्यटक के बराबर आते हैं। मुझे लगता है, पर्यटकों के चिर-परिचित स्थानों पर बढ़ते दबाव को ऐसे स्थानों की ओर मोड़ने की जरूरत है। अल्पज्ञात ऐसे स्थानों को यदि विकसित कर इनका समुचित प्रचार-’प्रसार किया जाए तो देष में पर्यटन के लिए संभावनाओं के नए रास्ते खुल सकते हैं।

बहरहाल, पर्यटन से विदेशी मुद्रा की बड़े स्तर पर आवक होती है परन्तु इस बात को भी ध्यान रखना होगा कि अधिक पर्यटन दबाव से स्थानों पर इस तरह का बोझ नहीं हो जाए कि हम बाद में उन स्थानों को संभाल ही नहीं पाए। पर्यटन प्रबंधन के तहत अल्प ज्ञात परन्तु असीमित संभावनाएं वाले पर्यटन स्थलों की पहचान कर वहां पर्यटन की शुरूआत इस दिशा में महत्ती पहल हो सकती है। इसके लिए  प्रचलित प्रचार-प्रसार नीति की बजाय ऐसी व्यावहारिक प्रचार-प्रसार नीति को अपनाया जाए जिससे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं का भी प्रभावी संरक्षण हो सके। पर्यटन प्रचार की सामग्री सूचनात्मक होने के साथ ही स्थान-विषेष पर पर्यटकों को पहुंचने के लिए प्रेरित करने वाली भी हो। इसके लिए यात्रा वृतान्त लिखने वाले लेखकों की सेवाएं ली जा सकती है। क्यों नहीं यह भी किया जाए कि अल्पज्ञात स्थानों को पर्यटन नक्शे पर लाने के लिए सरकारें उन स्थानों को सुनियोजित सोच के तहत चिन्हित करे और उन स्थानों पर यात्रा संस्मरण लिखने वालों की यात्राएं प्रायोजित करे। एक लेखक ऐसे किसी स्थान पर ठहरता है और अपने अनुभव शब्दों से सहेजता है, उस सामग्री का उपयोग यदि केन्द्र और राज्य सरकारें करती है तो उससे बड़े स्तर पर ऐसे स्थानों पर पर्यटकों को पहुंचने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। मुझे लगता है, पर्यटन प्रचार का एक हिस्सा ऐसी यात्राओं के आयोजन का भी होना चाहिए जिसमें पर्यटन लेखक अपने अनुभव सहेजे और बाद में वह मीडिया के जरिए व्यापक पाठक, दर्शक वर्ग तक पहुंचे।
मूल बात है चिर-परिचित पर्यटन स्थलों पर बढ़ते पर्यटन दबाव को नियंत्रित करते हुए वैकल्पिक पर्यटन स्थलों की खोज की जाए। हमारे यहां तो पर्यटन का मूलमंत्र हीचरैवेति...चरैवेतिरहा है। माने चलते रहें, चलते रहें। एक ही स्थान पर यदि ठहर गए तो फिर विकास भी रूक जाएगा। क्यों नहीं इसे समझते नए पर्यटन स्थलों के विकास पर हम ध्यान दें।