Friday, December 31, 2010

आईए, हम भी रचें नए वर्ष का उजास...

कल अज्ञेय को पढ़ रहा था। शब्दों में वह कला का अद्भुत लोक रचते हैं। आप-हम सबकी सुप्त अनुभूतियों और संवेदनाओं को स्वर देते हुए। भीतर की नींद से जगाते। थोड़े में बहुत कुछ कहते। काव्य कला के चर्म को उनके लिखे में अनुभूत किया जा सकता है, ‘उड़ गयी चिड़िया@कॉपी, फिर@थिर@हो गयी पत्ती।’ मुझे लगता है, यह अज्ञेय ही हैं जो शब्दों के भीतर के मौन को भी स्वर देते हैं। समय और उसकी चेतना से साक्षात् कराते वह जड़ की बात करते हैं। जड़ की बात कौनसी? जो आज है वह कल नहीं होगा। तब क्या यह जो आज है वह क्या हमारी परम्परा नहीं बन जाएगा! मन इस परम्परा में ही है। अज्ञेय की काव्य कला की परम्परा में, चित्रकारों की चित्रकृतियों की परम्परा में, नृत्य की, नाट्य की, संगीत की हमारी परम्परा में। हम जितना उन परम्पराओं में जाते हैं, उतना ही नवीन होते हैं। अंदर का हमारा जो रीता है, वह भरता है। यह परम्परा ही है जो अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। सामाजिक जीवन को इसी से तो निरंतरता मिलती है।

यह वर्ष आज बीत रहा है। कल नया सूर्य उगेगा। कैलेण्डर बदल जाएगा। नया साल प्रारंभ हो जाएगा, कैलेण्डर बदलने की परम्परा को जीवित रखते हुए! एमिली डिकिन्सन की बेहद खूबसूरत सी एक कविता याद आ रही है, ‘दिस इज माई लेटर टू दी वल्र्ड..’। वह कहती हैं मैं कविता नहीं कर रही। यह तो बहुत जरूरी, निहायत जरूरी चिट्ठी है मेरी-दुनिया के नाम...जिसे लिखे बिना मैं रह नहीं सकती-भले दुनिया उसे समझे न समझे, भले दुनिया को उसे पढ़ने की फुरसत हो, न हो।’ एमिली कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है। कह क्या रही है, हममें जैसे प्रवेश कर रही है। यही तो संप्रेषण की उसकी कला है। सच्ची कला कल्पना और अनुभूति का ही तो संयोजन है। एक तरह से कल्पना प्रवण भावुकता के दौर में आए एक संवेदनशील मस्तिष्क की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति। कवि, चित्रकार, अभिनेता, नर्तक जब कलाकर्म कर रहा होता है तो बहुत से स्तरों पर हमसे संवाद ही तो कर रहा होता है। आत्मीयता का अहसास कराते। हमें लगता है, वह जो संवाद कर रहा है, वही तो हमारा अपना सच है। हम भाव-विभोर हो उठते हैं। गलगलापन हो जाता है। लगता है, बस केवल और केवल हमारे लिए ही है शब्द, कलाकृति। यही तो है कला की हमारी परम्परा। जीवन की एक प्रकार से पुनर्रचना। हम अपने होने को सदा कलाओं में ही ढूंढते हैं। बार-बार यह याद करते,-ईश्वर की रची कला ही तो है यह सम्पूर्ण सृष्टि।

इस मूल्यमूढ़ समय में अनुभव संवेदन की हमारी क्षमता के अंतर्गत यह कलाएं ही हैं जो हमें बचाए हुए है। नए माध्यमों में हमारी अपनी पहचान और भीतर की खोज का उन्मेष जगाती समयातीत हैं हमारी तमाम कलाएं। उनकी परम्पराएं। यह कलाएं ही हैं जिनके सरोकार उत्तरोतर विराट् और व्यापक होने की सामथ्र्य रखते हैं। परम्परा के पोषण और परस्परता में वे निरंतर उगती रहती है सांमजस्य भाव पैदा करते। विग्रह के लिए वहां कोई अवकाश नहीं है। आत्म को व्यक्त करने का माध्यम हैं कलाएं।

आईए, बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते, अच्छाईयों को याद करते साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्र कृतियों की कलाओं मे रमें। उन्हें अपने भीतर की सर्जना से रचें। हर दिन नया आसमान छूएं। अपना नया आकाश बनाएं।...बचेगा वही जो रचेगा। यह आकाश ही तो है जिसमें कुछ नहीं रहता और सब भरा रहता है।...यह जब लिख रहा हूं, सर्जन के गहरे सरोकार लिए, देश के ख्यातनाम कलाकार अवधेश मिश्र की कलाकृति का आस्वाद भी ले रहा हूं। आप भी लें यह आस्वाद! आइये कलाओं में बसें।...हम भी रचें नए वर्ष का उजास।
डेली न्यूज़ में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" 31-12-2010

Friday, December 24, 2010

सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी...

गान का रस जहां मिलता है वही संगीत है। भारतीय संगीत की अनवरत धारा से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा जो आध्यात्मिक और भावात्मक जीवन का आज भी अनिवार्य अंग है। मंदिरों में आरती वन्दन के समय जाएं और पाएं, वहां जो ध्वनित होता है उसमें अनूठी कला की धारा जैसे प्रवाहित हो रही होती है। भले शब्द हमें वहां बहुतेरी बार समझ नहीं आ रहे होेते हैं परन्तु भीतर के आनंद के भाव सहज संप्रेषित होते हैं। मदिरों में ही तो हिन्दुस्तानी संगीत ने जन्म पाया है। हर प्रांत, स्थान के लोगों ने प्रभु की आराधना को अपनी समझ से स्वर दिए और इसी से शायद आरतियों का भी सृजन हुआ।

सामुहिक रूप में जब कभी किसी भी भाषा में ईश आराधना के स्वरों का प्रवाह होता है तो वह समझ आता है। मुझे लगता है, मूलतः यही तो है संगीत की कलात्मक्ता। आरती जब हम सुन रहे होते हैं तो समवेत शब्दों का आस्वाद ही नहीं कर रहे होते हैं बल्कि उनमें निहित भावों में आनंदानुभूति भी कर रहे होते हैं। तब लगता है, शब्द मात्र उन ध्वनियों का पुंज मात्र नहीं है जो बोली जाती है बल्कि वह ध्वनिशास्त्रीय या आक्षरिक ढ़ांचे पर स्थापित एक प्रकार से मानसिक अवधारणा है। इस अवधारणा में भले वह बहुतेरी बार पढ़त और गान की प्रक्रिया में ही अर्थ को पूरा करता हो परन्तु मूलतः उसकी सबसे बड़ी क्षमता अर्थोत्पादकता ही है। यह शब्द की कला शक्ति ही तो है जो उसे अर्थ से जोड़ती है।

कुमार गंधर्व का कहा याद आ रहा है, मधुर गला होने से ही कोई गायक थोड़े बन सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि स्वरों पर आपकी हुकूमत कितनी है। जिसके लिए गाते हैं, उसमें आपकी श्रद्धा कितनी है। आरती गान वाले भले संगीत का क ख ग ही नहीं जानें परन्तु जब वह आरती गा रहे होते हैं तो संगीतकला को ही जी रहे होते हैं। वर्षो से अपने जन्मे-जाये शहर बीकानेर के लक्ष्मीनाथ मंदिर जाता रहा हूं। इस बार जब गया तो समवेत स्वरों में निहित शब्दों को समझने का प्रयास किया। पुरूष-महिलाएं विभोर हो प्रभु की आरती में लीन हैं। संगीत के अद्भुत रस का प्रवाह हो रहा है। एक साथ सधे हुए स्वरों का पान करते मन पवित्रता के सागर में गोते लगाने लगा। भूल गया कि शब्द समझने आया हूं।...शब्द नही भाव समझ आ रहे थे। वह भी ऐसे जिन्हें किसी ओर को कहां समझा सकता था! मैंने एक काम किया। आरती को अपने मोबाईल में रिकॉर्ड कर लिया। जयपुर जब आया तो उसे सुना। एक बार नहीं, बार-बार। समूह स्वरों में आरती के शब्द जो ध्वनित हुए, वह थे ‘सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी... ओ शरण तिहारी। ओ हर बिना मोरी, गोपाल बिना मोरी, लक्ष्मी रे नाथ बिना मोरी... कौन खबर ले...।...‘शहस्त्र गोप्यां रो गिरधरधारी। चक्करधारी...।’

जरा गौर करें गोपियों को गोप्यां और चक्रधारी को चक्करधारी कहा गया है। खालिश बीकानेरी भाषा में रची आरती को बचपन से सुनता रहा परन्तु उसके शब्दों में कभी गया ही नहीं। बस! संगीत के माधुर्य का ही पान करता रहा। जिस प्रकार से लोकगीतों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा, ठीक वैसे ही आरतियों के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा। हां, आंचलिक भाषा की मिठास के साथ उनमें संगीत के सास्वत स्वरों का प्रवाह हर जगह एक ही है। दरअसल वहां शब्द सत्तावान है और अर्थ नित्य। घुम्मकड़ी के अपने स्वभाव के कारण देशभर के मंदिरों में गया हूं और पाया यही है कि वहां आरती के शब्द भले अलग हों परन्तु उनमें सौन्दर्यपरक आनंद का हेतु तो एक ही है। यही तो है संगीत कला! उपनिषद् कहते हैं, ‘रसो वै सः’ अर्थात् रस ही आनंद है। अन्य ललित कलाओं से संगीत कला निराली है। संगीत में एक साची नहीं सव्यसाची होते हैं कलाकार।...आनंद रस की बरखा करते!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 24-12-2010

Saturday, December 18, 2010

बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का यह नया दौर

कहते हैं, यह दौर संस्थापन कला का है। संस्थापन कला माने इंस्टालेशन आर्ट। पश्चिम में ही नहीं बल्कि भारत में भी इस तरफ हर ओर, हर छोर कलाकारो में रूझान साफ दिखायी देने लगा है। यूं भी हर कला युगीन परिवर्तनों की संवाहक होती है। स्वाभाविक ही है कि युग में जो कुछ नया होता है, उसे कलाएं स्वीकार करती हुई ही सदा आगे बढ़ती है। जो आज है, कल वह पुराना होगा ही। आधुनिकता के अंतर्गत बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का भले यह नया दौर कहा जा रहा हो परन्तु मुझे लगता है, संस्थापन कोई नई चीज नहीं है। कला में अभिव्यक्ति की इसे एक एक नई भाषा जरूर माना जा सकता है। ऐसी भाषा जो कैनवस के बंधन से मुक्त है। स्कल्पचर के निर्धारित आकार का बंधन वहां नहीं है। वहां स्क्ल्पचर और कैनवस पर खींची जाने वाली रेखाओं, खुरच और रंगों की एप्रोच तो है परन्तु सब कुछ वहां वर्चुअल है। यानी आभाषी। वहां ध्वनि है, रंग है, डिजिटल इमेजेज है और इन सब में दृश्यों को विशेष ढंग से रूपायित करने की कला की सर्वथा नयी दीठ भी है परन्तु मूल बात है संयोजन। बनी बनाई चीजें इन्सटॉलेशन में मिल जाती है। कला की दीठ से उनका एक प्रकार से संयोजन ही तो फिर कलाकार करता है।

इन्स्टॉलेशन में एक रंग या एक आकृति या फिर यूं कहें आकृतियों के कोलाज, ध्वनियों का विस्तार हमे ंविशुद्ध ऐन्द्रिय आनंद प्रदान कर सकते हैं। वहां कलाकार किसी एक कला के सरोकार लिए नहीं होता, उसकी समझ का वहां विस्तार है। उसके सरोकार व्यापक रूप में कला के बहुत से रूपों से जुड़े होते हैं। मौन भी अगर वहां है तो वह एक खास अंदाज में उद्घाटित होता है। समय की पदचाप से जुड़ी आकृतियों की अनुभूतियां वहां है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां संगीत है तो वह गायन या वादन के रूप में ही है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां चित्र है तो कैनवस पर और मूर्ति में उकेरा यथार्थ या अमूर्त है। संगीत है तो वह सुनी हुई आवाजों में निहित नहीं है। चित्र है तो वह देखे हुए रंगों में नहीं है। जो है, वह रूपाकार में नहीं, रूपाकार और उससे संबद्ध सामग्री के बीच की चीजों में है। बल्कि यूं कहना चाहिए कि वहां रूपाकार और रूपायित करने के बीच का भेद बहुत से स्तरों पर समाप्त होता लगता है। वहां कोई बंधन नहीं है। विषयवस्तु की अधीनता नहीं है। जो है मुक्त है। बंधन रहित। देखी या सुनी हुई, अनुभूत की हुई की बजाय बहुत कुछ वहां कल्पित है। संवेदना में बुना कल्पना का ताना-बाना। ऐसा जिसमें बहुत कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहने की छटपटाहट है।

तकनीक का सशक्त पक्ष इन्स्टॉलेशन आर्ट में है परन्तु इस बात पर फिर भी हमें गौर करना ही होगा कि वह वहां अभिव्यक्ति का साधन है, साध्य नहीं। रंगीन वर्णो, आयतों और लकीरों का तनावपूर्ण संयोजन और कम्प्यूटर के साथ ही विभिन्न अन्य स्तरों पर अभिव्यक्त इंस्टालेशन आर्ट को ऐसे में कला नहीं कला की प्रतिछाया ही क्या नहीं कहा जाएगा!

कलाकार अन्तर्मन में बनने वाली छवियों, और स्थान विशेष के साथ जुड़ी यादों के बिम्बों को सहज और आत्मीय संस्थापनों के जरिए ही तो कला में अभिव्यक्त करता है। इस अभिव्यक्ति में आभासी (वर्चुअल) और वास्तविक के बीच के द्धन्द केा भले ही इन्स्टालेशन आर्ट के तहत ही अधिक सशक्त ढंग से उजागर किया जा सकता है, परन्तु छवि विज्ञान यानी इमेजोलॉजी के अंतर्गत यदि बगैर किसी रचनात्मक सोच के साथ कुछ किया जाता है तो उसकी कोई सार्थकता है क्या? इस पर विचार किए जाने की जरूरत क्या इस दौर में अधिक नहीं है। आप ही बताईए!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 17-12-2010

Friday, December 10, 2010

आधुनिक भारतीय कला की नयी आलोचकीय दीठ

कलाएं हमें समझ का नया आलोक देती है। कुछ हद तक जीवन जीने का एक नया अर्थ भी देती है। इसीलिए जब कभी किसी कलाकृति से हम प्रतिकृत होते हैं तो उसमें निहित कलाकार की भावनाओं, संवेदनाओं से अपने आप ही साक्षात् होता हैं। कलाकृति तब हमें अपनी लगती हमसे जैसे संवाद भी करने लगती है और इसी से उसको बनाने वाले का भी बहुत से स्तरों पर अपने आप ही मूल्यांकन हो जाता है। कला मूल्यांकन का मूलतः आधार भी यही होना चाहिए परन्तु कला पर केन्द्रित जो पुस्तकें इधर आ रही है, उन्हें पढ़ते लगता है वहां कलाकार प्रमुख है, उसकी कला गौण है। कलाकार का परिवेश, संस्कार, प्रेरणा, सम्मान, पुरस्कार, जीवन के हर्ष-विषाद ही वहां बहुधा मिलते हैं। कला और कलाकार के मूल्यांकन का आधार क्या यही सब कुछ है! ‘समकालीन कला के सम्पादक, आलोचक मित्र डॉ. ज्योतिष जोशी ने कुछ समय पूर्व जब अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारतीय कला’ भेजी तो लगा, उन्होंने भी प्रकाशक की किसी मांग को त्वरित पूरा किया है। पढ़ने के आपके एकसे अनुभव बहुतेरी बार पूर्वाग्रह उपजा देते हैं सो उनकी पुस्तक को इस पूर्वाग्रह ने ही तब पढ़ने नहीं दिया। किसी संदर्भ में कुछ दिन पहले पुस्तक को यूं ही जब टटोला तो लगा कलाकारों के अवदान पर लिखे की अतिअभ्यस्त संवेदना के संसार से भिन्न उन्होंने भारतीय कला के मर्म को इसमें गहरे से छुआ है। कलाकारो की सर्जना के अंतर्गत उनके बनाए चित्रों की बारीकियों में तो वह अपनी इस पुस्तक में गए ही हैं, कलाकार की अपनी ही कला के संदर्भ में की गयी स्वीकारोक्तियों के आलोक में वह पाठकों को कला कथ्य का भी अनायास जैसे नया संदर्भ इसमें देते हैं। राजा रवि वर्मा पर लिखी उनकी यह पंक्तियां देखें, ‘संगीत के स्वरों को उनके आकास(स्पेस) झंकृत करते हैं, नृत्य परिवेश रचता है, साहित्य का सौन्दर्य चरित्रों को समग्रता में रूपायित करता है और कला शेष कलाओं से समन्वित होकर रूपंकर का प्रतिमान बन जाती है।...’

बहरहाल, नंदलाल बसु, यामिनी राय, असित कुमार हालदार, गुरचरण सिंह, कंवल कृष्ण, अमृता शेरगिल, शरतचन्द्र देब, एम.एफ.हुसैन, चित्त प्रसाद, धनराज भगत, रामकुमार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, हकुशाह, अंजलि इला मेनन, बिकास भट्टाचार्यी, ए. रामचन्द्रन, बीरेन दे, सतीश गुजराल, एफ.एन.सूजा, वासुदेव एस. गायतोण्डे, सोमनाथ होर, मनजीत बावा आदि कलाकारों के अवदान पर लिखते वह उनकी कला का रचनात्मक परिचय तो देते ही हैं, स्वयं अपने आत्मानुभवों का एक नया तर्क विन्यास भी पाठकों के समक्ष रखते हैं। मसलन राजा रवि वर्मा के बारे में वह लिखते हैं कि उन्होंने भारतीय भावनाओं और सौन्दर्यशास्त्रीय अवधारणाओं की उपेक्षा की परन्तु इस बात में सच्चाई है कि उन्होंने ही भारतीय कला की आधुनिकता संभव की;यह अलग बात है कि अवनीन्द्रनाथ टैगौर के नेतृत्व में भारतीय कला का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। ऐसे ही देवीप्रसाद रायचैधुरी के समानांतर वह रामकिंकर बैज की मूर्तिकला की स्वच्छन्दता की बात करते हैं तो रजा की कला को भारतीय दर्शन की खोज की परम्परा की दृष्टि से वह महत्वपूर्ण बताते हैं। रामकुमार की अमूर्ततता को वह गहरी अनुभूतियों की संज्ञा देते हैं तो के.जी.सुब्रमण्यनन के चित्रों की दृश्यभाषा के गंभीर भावों की लय पर जाते वह सूजा की कला की निर्वसन स्त्रियों को कला के बाजार से जोड़ते हैं। ए.रामचन्द्रन की कला में आख्यान और संदर्भों के विखंडन के साथ ही हकुशा की कला के मानववाद के साथ ही पणिकर की कला में पारम्परिक प्रतिमानों को खंडित कर उसमें समकालीन जीवन के जटिल ताने-बाने पर जाते ज्योतिष सोमनाथ होर द्वारा छापाकला को नई प्रविधि से और भोगी यातना से शिखरत्व पर पहुंचाने की चर्चा करना भी नहीं भुलते। ज्योतिष अपनी इस पुस्तक में कला के गूढ़ और गंभीर अर्थों से भारतीय कला को समझने की एक नयी आलोचकीय दीठ भी देते है। इस दीठ में पुस्तक के अंत में आधुनिक भारतीय कलाकृतियों के संजोए 48 रंगीन चित्र भी भरपुर मदद करते है।
"डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट" दिनांक 10-12-2010

Friday, December 3, 2010

जलरंगों में दृश्य यथार्थ की नयी दीठ

दृश्यकला में चित्रकला ही ऐसी है जो आधार और माध्यम की दृष्टि से सर्वाधिक सूक्ष्म है। यथार्थ का अंकन भी उसमें यदि होता है तो वह खाली यथार्थ भर नहीं होता बल्कि सूक्ष्म रूप में उसमें कलाकार अपनी आंतरिक एकता और अनुशासन में नई दृष्टि का विस्तार करते देखे हुए का एक प्रकार से पृनर्सृजन करता है। नागपुर शासकीय चित्रकला महाविद्यालय के आचार्य मारूति सेलके के आग्रह पर इस सोमवार को वहां के विद्यार्थियो ंको जब कला की संवेदना पर संबोधित करना हुआ तो प्रकृति चित्रो के अनंत आकाश को जैसे फिर से जिया। स्थान विशेष और प्रकृति के लैण्डस्केप शायद इसीलिए हर कोई पंसद करता है कि उनमें सौन्दर्य की चाक्षुष दीठ होती है। सच कहूं, यह स्थान विशेष और प्रकृति के नाना रूपों के लैण्डस्केप ही थे, जिन्होंने कला से मेरा पहले पहल रिश्ता कराया। ख्यात-विख्यात कलाकारों के बनाए लैण्डस्केप देखने में बाद में इतना प्रवृत हुआ कि ढूंढ-ढूंढ कर स्थानों के बनाए चित्रों का आस्वाद करने लगा। बहुतेरी बार ऐसा भी हुआ कि कोई लैण्डस्केप देखता, फिर उस स्थान पर जाता। मुझे लगता प्रत्यक्ष जो देखता हूं, उसके परे भी बहुत कुछ ऐसा है जो कलाकार ने अपने चित्र में बनाया है। उसे यथार्थ में हमारी आंख शायद पकड़ नहीं पाती। कलाकार के संवेदना चक्षु ही हमें तब सर्वथा नयी दृष्टि देते है। कला ही यह जो दीठ है, उसी ने बाद में कला के मेरे लेखक को बाहर निकाल, कलाकृतियों पर लिखने की ओर निरंतर प्रवृत किया।

बहरहाल, नागपुर के शासकीय चित्रकला महाविद्यालय में भविष्य के कलाकारों के साथ संवाद के बाद प्रो. मारूति सेलके अपने घर ले गए। वहां उनके बनाए बहुत से चित्रों को देखते औचक दृष्टि उनके बनाए एक लैण्डस्केप पर गयी। जलरंगों में प्रकृति जैसे वहां गा रही थी। मैंने उस चित्र पर जब ज्यादा गौर किया तो बेहद संकोच से वह बोले, ‘ये तो बस ऐसे ही बनाया है।’ मैंने उनके उन चित्रों में बेहद उत्सुकता दिखायी तो वे पूरी की पूरी एक श्रृंखला ले आए। नागपुर के ज्ञात-अज्ञात स्थानों की उनकी इस जलरंग श्रृंखला में प्राच्य स्थलों के साथ ही आधुनिक निर्माण, पेड़-पौधे, तालाब, मंदिर, महल और रोजमर्रा के जीवन को उन्होंने इनमें जैसे जिया है। देखे हुए यथार्थ और उनसे उपजी अनुभूतियों और अंतर्दृष्टि का रंगों और रेखाओं से कागज पर पुनराविष्कार करते वह नागपुर की जैसे पूरी सैर ही करा देते हैं। नागपुर की अंबाझरी झील, शिवन गांव, महल, तेलम खेड़ी, दीक्षाभूमि और प्रकृति के उल्लास को रंगों और आकृतियों के संयोजन में गहरे से उद्घाटित करते सेलके अपने चित्रों में कला का जटिल व्याकरण नहीं रचते बल्कि जल रंगों के सुन्दर लोक में ले जाते हैं। यह ऐसा है जिसमें सघन, शुद्ध और मूल रंगों की उत्सवधर्मिता है तो मौन में निहित ध्वनि को भी इनमें सुनते स्थान विशेष के एकांत को अनुभूत किया जा सकता है। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि रेखाओं की सहज वर्तुलता और विषयवस्तु के गठन और संयोजन के बीच के स्थान और अवकाश को भी उन्होंने इन चित्रों में गहरे से पकड़ा है। जल रंगों का उजास तो इनमें हर ओर, हर छोर है ही। सेलके स्थान, काल और पात्र को अपनी कूची में विस्तार देते उन्हें अनूठा रंग सूत्र देते हैं। इन सूत्रों में स्मृतियां, देखी हुई छवियां सर्वथा नये ढंग से उद्घाटित होती हैं। यथार्थ एक प्रकार से नई अर्थवत्ता प्राप्त करता यहां सौन्दर्य का सर्वथा नया आकाश रचता है।

दरअसल सेलके वस्तु, स्थानों और प्रकृति के चाक्षुष स्वभाव को निश्चित करते रंग, रूप, धरातल और उभार में अपने अनुभव और अंतर्मन संवेदना की दृष्टि का एक प्रकार से विस्तार करते हैं। ऐसे में जो कुछ वह देखते रहे हैं, उससे प्राप्त अनुभवों का कला रूपान्तरण मन को भाता है, कुछ कहने को विवश करता भीतर की सौन्दर्य दृष्टि को एक प्रकार से जगाता है। नागपुर के इतिहास, वहां की संस्कृति, रोजमर्रा के जीवन, स्थान विशेष की दृश्यावलियों के जल रंगों के सेलके के भव को अनुभूत करते उन्हें प्रस्तावित करता हूं कि क्यों नहीं इस श्रृंखला की ही एक प्रदर्शनी आयोजित की जाए। इसलिए भी कि बहुत से स्तरो पर वह इन दृश्यावलियों में प्रकाश-छाया प्रभावों के अंतर्गत दृश्य यथार्थ का सर्वथा नया बिम्ब भी रचते हैं। इस बिम्ब में क्षैतिज एवं समरैखिक दृष्टि का अद्भुत सांमजस्य है। जल रंगों के बरतने का उनका गुण तो खैर अनूठा है ही जिसमें देखे हुए को अपने संवेदना चक्षु से वह और अधिक सुन्दर, भावपूर्ण बनाते ऐसा माहौल भी अनायास उत्पन्न करते हैं जिससे रंग देखने वाले से जैसे संवाद करते है। सेलके के जलरंगों की यही वह मौलिकता है, जो उन्हें ओरों से जुदा करती है।
राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट" दिनांक 3-12-2010

Friday, November 26, 2010

कैनवस पर अनुभतियों का अर्थोन्मेष

चित्रकला रूपार्थ पर निर्भर है जबकि काव्य कला वागर्थ पर। कला में रंग, आकार तथा इनके विन्यास हमारी आंखों के जरिए हमारी संपूर्ण इन्द्रियों को संवेदित करते हैं। यहां यह सब इसलिए कि काव्य संवेदना रखने वाला जब कैनवस पर रंगो और रेखाओं से दर्शकों का नाता कराता है तो उसमें अर्थ संदर्भों के नए गवाक्ष अनायास ही खुलते दिखायी देते हैं। तेजी ग्रोवर मूलतः कवयित्री हैं परन्तु पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में लगी चित्रों की उनकी प्रदर्शनी को देखते लगा, कैनवस पर वह प्रकृति के स्वरूप, दृश्यों को सर्वथा नयी दीठ से रूपायित करती है। उनके चित्र बिम्बो में समय की संवेदना और प्रकृति की बहुतेरी भंगिमाएं कला का अनूठा सौन्दर्य रचती है। ऐसा नहीं है उनके सारे चित्र प्रकृति केन्द्रित ही है, उनमें रोजमर्रा की जीवनानुभूतियां भी है परन्तु एक बात सबमें समान है और वह है उनका सांगीतिक आस्वाद। कैनवस पर उनकी कला से साक्षात् होते औचक स्वयं उनकी ही लिखी कविता की पंक्तियां जेहन में कौंधने लगती है, ‘वे बिम्ब ही थे@जिनसे और बिम्ब उपजते थे@कुछ और मिट जाते थे@उनसे निकलना@उनकी अति के बाद ही संभव होता@उनका तिरस्कार@उन्हें रचने की सामथ्र्य से@रचने की सामथ्र्य को रचते भी बिम्ब थे@मिटाते भी थे....।’

तेजी के चित्रों में ऐसे ही बिम्बों की भरमार है, प्रतीक हैं और यह ऐसे हैं जिनसे बाहर निकलना आसान नहीं है। ऐसा ही उनका एक चित्र है जिसमें भगवा, पीली, हरी, सफेद रंगों की आकृतियां है। रंगों का संयोजन ऐसा कि उसमें अध्यात्म की गहराईयो ंको गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। यूं देखने पर चित्र पत्तियों का कोलाज भर दिखायी देता है परन्तु जैसे-जैसे उस पर गौर किया जाता है, वहां रंगों का अनूठा आलोक बिखरा दिखायी देता है। इस आलोक में शांत बहती नदी है, मंद बहती पवन है और है प्रकृति की गुनगुनाहट भी। ऐसे ही दूसरा एक चित्र है जिसमें पत्तियां का रंग हरा, मटमैला सा है। जीवन की आस-निराश के साथ तमाम विविधताओं को इनमें अनुभूत किया जा सकता है। मुझे लगता है, तेजी बिम्बों में लय का सर्वथा नया मुहावरा रचती है।

मुझे लगता है, तेजी सृष्टि में व्याप्त सौन्दर्य को अखंड और वृहद रूप में देखती है। शायद यही कारण है कि उनके चित्रों में प्रतिकात्मक लाल में भी हरापन है। हरेपन में पीलापन। काले में सफेद और ऐसे ही एक रंग में उसके विपरीत का अनुठा मिश्रण। जीवन दर्शन की लय जैसे कैनवस पर गहरे से गुनगुनाई गयी है। उनके चित्र दरअसल समकालीन कला परिदृश्य में एक जरूरी हस्तक्षेप करते हैं। वे ऐसे अर्थ के अनुसंधान की ओर भी ले जाते हैं जिनमें भारतीय संस्कृति, हमारे संस्कार और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा के बहुतेरे भाव भी निहित हैं। होने और न होने के बीच के स्पेस में अन्तर्मन संवेदनाओं को कैनवस पर स्वर देती तेजी जीवन, समाज और प्रकृति से घुल-मिलकर अपनी गहन अनुभूतियों को ही जैसे कैनवस पर अनुप्राणित करती है।

तेजी के चित्रों में रंग, रेखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर रूपकों की जो निर्मिती करते हैं, उनमें रंगों के भी अनूठे बिम्ब है। एक्रेलिक, आॅयल के साथ ही तेजी के बरते रंगों की खास बात स्वयं उसके द्वारा सृजित रंग भी है। मसलन उसने अपने चित्रों में हल्दी, अनार के रस, फूलों, पत्तियों को घोलकर बनाए रंग भी बहुतायत से प्रयुक्त किए हैं। ऐसे में चित्रों में निहित विषय रंगों के उसके संयोजन, स्वयं उसकी विचारधारा और प्रकृति से उनके जुड़ाव को भी सहज संप्रेषित करते हैं। तेजी के चित्रों में लोक चित्रो की सौरभ है तो बहुत से चित्रों में प्रयुक्त अलंकरण, फूल-पत्तियां समकालीन बोध की भी विशिष्ट अर्थ छवियां लिए है। रंग और रेखाओं का यही तो गतिशील प्रवाह हैं और कला की सांस्कृतिक दीठ भी।

कभी निर्मल वर्मा ने कहा था, ‘कलाकृति से एक अर्थ निकालना-अथवा उसमें अपने विश्वासों का सबूत ढूंढना-दोनों ही बातें झूठी नैतिकता को जन्म देती है। कला की नैतिकता इसमें नहीं है कि वह हमारे संस्कारों या विश्वासों का समर्थन करे,...कला सिखाती नहीं, सिर्फ जगाती है, क्योंकि उसके पास ‘परम सत्य’ की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके।’ मैं इसमें यह और जोड़ देता हूं, ‘कला सत्य या यथार्थ नहीं है, वह सत्य या यथार्थ की खोज की एक प्रकार से प्रस्तावना है।’ तेजी के चित्रों की इस प्रसतावना में निहित संवेदना ही कला का क्या परम सौन्दर्य नहीं है! आप ही बताइये।
राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 26-11-2010


Friday, November 19, 2010

मुरली की तान में माधुर्य की सृष्टि

सूक्ष्म अंतर्वृतियों के उद्घाटन का सबल माध्यम संगीत ही है। खाली ध्वनि भर नहीं है संगीत। आंतरिक भावों, अनुभूतियों को इसमें जब अभिव्यक्ति दी जाती है तो लगता है, प्रकृति गा रही है। मुझे लगता है, संगीत का विशुद्धतम रूप वाद्य है। वाद्यों का जन्म नैसर्गिक ध्वनियों के अनुकरण तथा अन्य चेष्टाओं के परिणामस्वरूप ही हुआ है। बांसुरी को ही लें। इसकी मीठी तान जब भी कानो मंे पड़ती है, लगता है प्रकृति माधुर्य का रस घोल रही है। प्रकृति वाद्य ही तो है बांसुरी। कहते हैं, कभी कीटों ने बांस के एक टूकड़े मंे छेद कर दिया। छेद में से होकर निकलने वाली हवा से जब मधुर ध्वनि निकली तो बांसुरी के निर्माण की पहल हुई।...ऐसा ही कुछ कहानी अन्य वाद्यों के साथ भी रही होगी परन्तु अभी तो बात मुरली की हो रही है। कन्हैया जिसे बजाते, उसी मुरली की।

पंडित रोनू मजूमदार की बांसूरी की तान सुनते लगा, वह अंतर के साथ बाहर के राग-अनुराग का अद्भुत मेल कराते हैं। मुरली में फूंक के जरिए वह जैसे नूतन की सृष्टि करते हैं। ‘म्यूजिक इन द पार्क’ में उन्हें सुनते लगा भांत-भांत के सुर संजोती उनकी बांसूरी गा रही है। बांसुरी में वह बढ़त करते हैं। बढ़त माने विस्तार। ढ़लती सांझ रात्रि की ओर बढ़ने लगी थी। मुरली की तान छेड़ने से पहले श्रोताओं से संवाद करते वह कहने लगे, ‘मन की शांति और अध्यात्म से जुड़ा है हमारा संगीत। मुरली प्रकृति वाद्य है। इसमें न तार है न चाभी। चलिए आपको सुनाता हूं,...पहले आलाप होगा।’

मुरली की तान छिड़ जाती है। खुले आसमान में दूर तक फैली हरियाली में सुरों की मिठास घोलती। राग के चरणबद्ध शास्त्रोक्त स्वरूप में रमने लगा मन। विलम्बित लय का आलाप। स्वरों की बढ़त। तार, अति तार, मन्द्र और मध्य सप्तकों में वह आलापों का माधुर्य विस्तार करते जैसे खुद भी उसमें खो से जाते हैं। आरंभ होता है, राग बागेश्वरी से। संगीत की चिर सम्पूर्णता में हृदयभावों की उनकी अभिव्यंजना सूक्ष्मातिसूक्ष्म परन्तु बंधनमुक्त सुरांे की निर्मिति करती जैसे ईश्वर से तादात्म्य की गुहार कर रही है। बांसूरी में पुकार। प्रार्थना की ध्वनि। सांसो से सधा भावों का मनोयोग। शांति, नीरवता और पवित्रता लिए। ध्वनि में मौन।...औचक जैसे पं. रोनू ने अपने होठों से लगी बांसूरी से शंख बजाया है। ठीक वैसे ही जैसे ईश़्ा आरती में बजता है शंख।

प्रभु! बांसुरी में शंखनाद। यह मोटी बांसुरी है। अति मन्द्र सप्तक में शंखनाद करती। ध्वनि के माधुर्य में पंडितजी अलग-अलग बांसुरियों से बढ़त करते हैं। लगता ऐसे है जैसे एक ही बांसुरी में वह सप्तकों को साध रहे हैं, ईश्वर को रिझाते। मनाते। शंखनाद के बाद मन्द्र और मध्य सप्तक के सुर। लम्बी तान। पुकार! आनंद विभोर करती बांसुरी। अनंत में विलीन होते सुर। तबला नहीं बज रहा परन्तु उसकी थाप है। तानपुरा नहीं परन्तु उसकी तान है।...मन को लुभाती बासुरी जैसे गा रही है। इस गान में आरोह है और अवरोह भी। मुझे लगता है, सधते सुरों में बांसुरी एक-एक कर दीप जला रही है। अंतर के दीप। एक...दूसरा...तीसरा और फिर अनेक दीपकों की रोशनी से जैसे नहा उठा माहौल। बांसुरी की पं. रोनू मजूमदार की तान जैसे आह्वान कर रही है, जल दीप। जल! हर ओर संगीत का उजास। मंद बहती पवन भी झुम कर तेजी से बहने लगी। सुरों का कारंवा भी परवान चढ़ने लगा।

तबले में सुधीर पाण्डे भी उनको गजब का साथ देते हैं। आलाप के साथ राग को उठाते वह मंड, मध्य और तार सप्तक का शनैःशनैः जब विस्तार करते हैं  तो ताल भी पूरा साथ देती है। भुपताल, तीनताल में बंदिशें। आलाप। शास्त्रीय रागों के साथ सुफी संगीत, मांड, पहाड़ी लोकसंगीत और मीरां के भजनों के माधुर्य में वह तन और मन दोनों को ही अंदर तक भिगोते हैं। उन्हें सुनते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, बांसुरी की तान में वह अपने ही रचे को तोड़ते हैं। हर बार। बार-बार। मधुर तान में फूंक को एक जगह रोक वह उसके टूकड़े करने लगते हैं। फूंक को तोड़ते, फिर से उसे जोड़ते हैं। अद्भुत रस की सृष्टि करते। सांसो को गजब साधते मुरली वादन की यही उनकी मौलिकता है।

Friday, November 12, 2010

जड़ होते चिंतन को नई दिशा देता संवाद

आधुनिक कला प्रवृतियां और संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में कला की परम्परा, विषय वस्तु, माध्यम पर हिन्दी में लगभग सन्नाटा सा पसरा रहता है। पत्र-पत्रिकाओं में कला पर जो कुछ छपता है, बहुधा  उसमें विचार गौण होता है। कला लेखन सर्जन में जो निहित है, उसकी संवेदनाओं की बजाय कलाकार को मिलने वाले सम्मान, पुरस्कार तथा तमाम अन्य घटनाओं पर ही जैसे केन्द्रित होता जा रहा है। ऐसे में ‘अखिलेश एक संवाद’ पुस्तक अंधेरे में जैसे
उजास लिए है। दूरभाष पर कवि, संपादक मित्र पीयूष दईया अपनी पत्रिका के लिए कला पर नया कुछ लिखने का आग्रह करते पूछते हैं, ‘आपको अखिलेश से संवाद की मेरी पुस्तक मिली?’ मैं नहीं कहता हूं तो वे सहर्ष इसे प्रकाशक से भिजवाते हैं। ख्यातनाम चित्रकार अखिलेश से पीयूष के लम्बे साक्षात्कार की इस पुस्तक का घूंट-घूंट  आस्वाद करते लगता है, हिन्दी में भारतीय कला को जैसे गहरे से जिया हूं।
पीयूष ने इसमें कला के आज और आने वाले कल के साथ ही परम्परा के सूत्र व्यापक रूप में संजोए हैं। ऐसा करते यह किताब कोरा संवाद भर नहीं रह गयी है बल्कि अपने आप में एक स्वतंत्र सृजन बन गयी है। पुस्तक में अखिलेश एक जगह कहते हैं, ‘चित्रकला में महत्वपूर्ण अवकाश है, समय नहीं। आप समय का चित्रांकन नही कर रहे होते हैं बल्कि आप अवकाश को रच रहे होते हैं।...’ वह जब यह कहते हैं तो कला में निहित किसी कलाकार की अन्तर्मन संवेदनाओं को, कला की उसमी जमीन को गहरे से समझा जा सकता है। उस जमीन को जिसमें अखिलेश मनुष्यता के सभ्यतर होने में सभी कलाओं का वास भी अनायास ही ढूंढ लेते हैं।
लियोनार्दो के ‘द लास्ट सपर’, पिकासो के ‘गुएर्निका’, वॉन गॉग के व्यक्तिचित्र, हुसैन के ‘जमीन’, डेमियन हस्र्ट की ‘फॉर द गॉड ऑफ  लव’ की प्रसंगवश चर्चा करते अखिलेश भारतीय और पाश्चात्य कला के परिप्रेक्ष्य के समझ की दृष्टि भी पाठक को अनायास देते हैं। पीयूष इस संवाद में कला के अनंत आकाश की बारीकियों से रू-ब-रू कराते पाठक को एक कलाकार के मन को पढ़ने का अवसर देते हैं।
दरअसल हमारे यहां कला और उसके अन्र्तसंबंधों को प्रायः गंभीरता से लिया ही नहीं गया है। कला और कलाकार के मध्य संवाद तो प्रायः नहीं के बराबर है। ऐसे में पीयूष ने अखिलेश के बहाने कलाकार के सर्जन में निहित उसकी समझ से जुड़े तमाम मुद्दों को एक प्रकार से रोशनी दी है। इस रोशनी में सृजन में निहित संवेदनाओं, रचनाशीलता के दूसरे सरोकारों के साथ रचना का समग्र परिप्रेक्ष्य उद्घाटित हुआ है। जड़ होते चिंतन को नई दिशा देते।
बहरहाल, मुझे लगता है संस्कृतिबोध, सौन्दर्यदृष्टि और कला से जुड़े अपने सरोकारों के कारण ही पीयूष अखिलेश के कलाकर्म और उसमें निहित उनकी सोच की सिराओं को गहरे से पकड़ पाए हैं। अपनी जिज्ञासाओं में उन्होंने एक तरह से अखिलेश के कलाकर्म का मंथन ही नहीं किया है बल्कि कला की प्रासंगिकता और परम्पराओं से भी सहज संवाद किया है।
महत्वपूर्ण यह भी है कि अखिलेश से संवाद में कला के चिंतन सूत्रों में वह बहुत से स्तरों पर कलाकार की कला से ‘बाहर’ भी गए हैं। इसी से यह पुस्तक कला आलोचना की एक जरूरी आधारभूमि भी निर्मित करती है।  पीयूष ने इसमें कला की अछूती संभावनाओं को गहरे से छुआ ही नहीं है बल्कि कलाकार के मर्म को गहरे से अपने तई जिया भी है। ऐसे दौर में जब कला लेखन सिद्धान्तों की पड़ताल और अकादमिक निष्कर्षों तक ही सीमित होकर रह गया है, पीयूष की यह पुस्तक हिन्दी में कला विमर्श का नया आकाश निर्मित करती है। अशोक वाजपेयी ठीक ही कहते हैं, ‘भारतीय कला के व्यापक क्षेत्र में, और हिन्दी मंे तो बहुत कम ऐसा हुआ है कि कोई कलाकार अपनी कला, संसार की कला, परम्परा और आधुनिकता आदि पर विस्तार से, स्पष्टता से, गरमाहट और उत्तेजना से बात करे और उसे ऐसी सुघरता से दर्ज किया जाये।’

Friday, November 5, 2010

कला की समग्रता का आलोक पर्व

भारतीय कला दृष्टि, सृष्टि का पुनःस्थापन है। एक प्रकार से सृष्टि का अनुकरण। सृष्टि माने भांत-भांत के रंग। भांत भांत की ऋतुएं। उत्सव और पर्व। इस सब में ही तो है जीवन की समग्रता। कला का परम सौन्दर्य। शायद इसीलिए कवीन्द्र रवीन्द्र ने कभी कहा, ‘सौन्दर्य अभिव्यंजना मात्र नहीं है, वरन् आत्मा में निवास करता है।‘ यह कला ही तो है जो मन को रंजन और उद्बोधन देती है। मुझे लगता है, कला प्रकृति की प्रतिकृति है। नहीं, इससे भी आगे, प्रकृति का बिम्ब प्रतिबिम्ब है। हम सभी उत्सवधर्मी हैं। शायद इसलिए कि कला से हमें अनुराग है। उसमें बसते, सदा कुछ नया रचना चाहते हैं। इस रचे को जीना चाहते हैं।

दीपावली से बड़ा और कौनसा होगा हमारा कला का हमारा पर्व। बाहर और भीतर के आलोक के इस पर्व पर घर-आंगन सज उठते हैं। मन हिलोरें लेता सौन्दर्य की सर्जना को आतुर हो उठता है। लक्ष्मी के स्वागत के बहाने, रंगोली सजती हैं। कुमकुम के उसके पगलिए हम घरों में मंाडते हैं। मुझे याद है, बीकानेर में सीमेंन्ट के आंगन को भी दीपावली पर गोबर से हम सब लीपते। उस पर हिरमच, हल्दी और दूसरे प्रकृति प्रदत्त रंगों से मांडणे मांडते। जहां दीपावली पूजन होता, वहां पर स्वस्तिक ओर षट्कोणीय आकृतियां दीवारों पर बनाते। बाकायदा इनके नीचे ‘लाभ’ और ‘शुभ’ लिखा जाता। पता नहीं कहां से भीतर का कलाकार तब जाग उठता और भांत-भांत की रंगोलियां हम बना डालते। हम ही क्यों, प्रजापति कुम्हार की कला भी दीपावली पर ही तो परवान चढ़ती है। करीने से बनाए सुन्दर दीये। एक से बढ़क एक।

बाजार जाना हुआ तो, इस बार दीपकों की पारम्परिक आकृतियां से अलग दीपक भी इस बार दिखाई दिए। बेहद सुन्दर दीपक। अलंकारिक। लगा, समय के साथ कुम्हार का कलाकार मन भी समाज को पढ़ लेता है। इस पढ़े हुए को ही वह अपने सर्जन में आकार देता है। दिये ही क्यों बहुत सी और मृण आकृतियां भी तो कुम्हार हम लोगों के लिए दीपावली पर बनाता है। दिए रखने वाली छेद करी हंडिया, घंटियां, मिट्टी के मिष्टान पात्र और भी दूसरी बहुतेरी कलात्मक चीजें। इन सबसे ही तो सजती है हम सबकी दीपावली। हमारा घर-आंगन।

यह हमारा कलाकार मन ही तो है जो पारम्परिक प्रजापति कुम्हार के बनाए दीये जतन से घरों में सजाता है। थाली में आंगन के चौक में, घर के बाहर की दिवारों पर, छत की दिवारों और घर के कोने-कोने में हर एक दरवाजे और हर खिड़की के पास दीये रखे जाते हैं। एक साथ जब ये दिये जलते हैं तो मन में भी अनूठा आलोक होता है। दीपकों के झिल-मिल प्रकाश में घर-आंगन में भी हर कोई अनूठी सजावट करता है। लक्ष्मी के स्वागत को तैयार मन प्रतीक रूप में उसके कुमकुम पगलिये मांडता है। कहते है, दीवाली की रात लक्ष्मीजी विष्णु की शेषशय्या त्यागकर अपनी बहन दरिद्रा के साथ भू लोक पर विचरण करती है। जो घर कलात्मक सजा है, स्वच्छ सौन्दर्य का जहां वास है, उसी में लक्ष्मी प्रवेश करती है और जहां गंदगी है, कला नहीं है वहां दरिद्रा चली जाती है। इसी लोक विश्वास के चलते दीपावली का आलोक हर ओर, हर छोर होता है। कला सर्जन के इस पर्व में हर क्षण अपूर्व होता है। जीवन की पूर्णता, समृद्धि, शांति के समस्त सांस्कृतिक भाव इस एक पर्व में ही जो निहित है।

चन्द्रमा की सोलह कलाएं होती है। सोलहवीं कला अमावस्या की अदृश्य कला है। यही अमृता है। अमृता का अर्थ है न समाप्त होना। दीपावली के जगमगाते दीयों का आलोक हरेक मन को भाता है। सौन्दर्य की अद्भुत सृष्टि वहां है, नेत्रों को तृप्ति प्रदान करती हुई। जब हम यह कहते हैं कि दीपकों के प्रकाश से यह जहां आलोकित है तो इस आलोक के निहितार्थ पर भी जाना होगा। आलोक माने प्रकाश। प्रत्यक्ष का भेद। आलोकित दरअसल आकार की सत्ता का बोध कराता है। इसीलिए दीपकों के प्रकाश से आलोकित है जहां। कला दीठ की यही समग्रता है। मन की हमारी कलात्मक संवेदनाओं को ये दीपक ही तो रूपायित करते हैं। इन्हीं में है अंतर के आनंद का रस।

...तो आईए, दीपावली के आलोक में नहाएं। चित्रकला की चित्रोपमता, संगीत के माधुर्य को इस पर्व में अनुभूत करें। यह दीपावली ही है जिसमें कला के लिए अवकाश के क्षण हम निकाल ही लेते हैं, वरना कहां है इस भागमभाग में अवकाश। आईए, सहेजें कला के इन अवकाश के क्षणों को। आज के लिए नहीं। सदा के लिए। इन्हीं में तो है लोक का हमारा आलोक।

डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 5-11-2010

Friday, October 29, 2010

कला, कला का भविष्य और हिंदी


दिल्ली से ललित कला अकादेमी की ओर से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर चंडीगढ में आयोजित राष्‍ट्रीय कला सप्‍ताह में भाग लेने और संवाद करने का जब संदेश मिला तो संशय में था। संशय इस बात को लेकर था कि संवाद हिन्दी में करना है या अंग्रेजी में। चंडीगढ़ ललित कला अकादेमी की मेजबानी में आयोजित समारोह के निमंत्रण पत्र से लेकर तमाम संवाद, औपचारिकताएं अंग्रेजी में ही हो रही थी। यूं भी केन्द्रित विषय में हिन्दी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। सो मेरा संशय भी वाजिब ही कहूंगा। पहुंचने पर चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और देश के जाने माने छायाकार दिवान मन्ना ने गर्मजोशी से अंग्रेजी में ही स्वागत किया। होटल में कुछ और भी प्रतिभागी थे, सबके सब अंग्रेजीदां। हिन्दी वहां भी कहीं नजर नही आ रही थी।

दूसरे दिन राहुल भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में संयोजन की अपनी शुरूआत में ही जता दिया कि हिन्दी का वहां कोई स्थान नहीं है। विभा ने भी उनकी इस मंशा पर पूरी तरह से मोहर लगायी। अब बारी मेरी थी। मेरी सहजता हिन्दी है सो हिन्दी में बोला। हां, अवधेश ने आरंभ में हिन्‍दी में कुछ बोला तो उनकी बात की काट अंग्रेजीं में कुछ इस तरह से की गयी कि बाद मे उन्‍होंने बोलना ही नहीं चाहा। ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर हिन्दी में दिए तर्क और कला संवेदना की व्याख्या को समझते हुए भी मंच अंत तक अंग्रेजी पर ही अडा रहा, मैं हिन्‍दी पर। अजीब स्थिति थी। यह बात अलग थी कि आयोजन से पहले जो लोग अंग्रेजी में बोल रहे थे, उन सबसे हिन्‍दी में बाहर खुब बतियाने का अवसर रहा।

‘न्यू मीडिया आर्ट’ में अंग्रेजी बाजार की जरूरत हो सकती है परन्तु हिन्दी का वहां क्या कोई स्थान नहीं है? हर युग में कला में नवीनतम तकनीक अपनायी जाती रही है। संवेदनशीलता के साथ हमारी जो परम्पराएं है उनके साथ हमारे वर्तमान को जोड़ते हुए अपनी एक दीठ के जरिए सांस्कृतिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में यदि कलाकार कुछ नया सृजित करता है और उसमें उसे लगता है कि नयी तकनीक उसका अधिक सहयोग करती है, तो निश्चित ही कला को नया क्षितिज मिलता है परन्तु उसमें अपनी भाषा के संस्कार ही यदि छोड़ दिए जांएंगे तो क्या वह कला जनोन्मुख हो पाएंगी?

भारत में अभी भी कला जनरूचि का विषय शायद इसीलिए नहीं हो पायी है कि यहां पर अव्‍वल तो कला के सार्वजनिक आयोजन ही नहीं होते और जो होते हैं, उनमें हिन्‍दी कहीं नही होती जबकि इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज भी आम जन की भाषा हिन्‍दी ही है। हिन्दी में कला आलोचना के नहीं होने का जो रोना रोया जाता है, उसका एक बड़ा कारण क्या यही नहीं है कि हमारे यहां कला में जो कुछ नवीन होता है, उसमें हिन्दी का कहीं कोई स्थान ही नहीं होता। जो कुछ छपता है, अंग्रेजी में। जो कुछ प्रस्तुत किया जाता है अंग्रेजी में। हिन्दी की शायद वहां जरूरत ही नहीं महसूस की जाती। हिन्दी को फिर क्यों दोष दिया जाए। क्यों हिन्दी में फिर ऐसी कला को देखा और परखा जाए। कला में तकनीक और माध्यम के साथ ही उसे आम जन में संप्रेषित किए जाने की सोच नहीं है तो चाहे जितनी चौंकाने वाली, अतिशय उत्तेजना प्रदान करने वाली, जिज्ञासा में लुभाने वाली कला हो, वह अपने दीर्घकालीन भविष्य का निर्माण क्या कर सकती है? चंडीगढ़ से लौटे एक माह के करीब हो रहा है, परन्तु जेहन में अभी भी यही प्रश्न मंडरा रहे हैं।
"डेली न्यूज़" में  प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 29-10-2010

Friday, October 22, 2010

नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

कलात्मक खोज हमेशा जीवन को नया तथा अद्वितीय बिम्ब देती है। यह कलाएं ही तो है जो जीवन की अनंतता के बारे में हमें चिरन्तन ललक देती है। छायाचित्रों को ही लें। वहां पर सामान्यतः यथार्थ का ही दर्शाव होता है परन्तु इससे परे जब छायाकार अपनी अर्न्तदृष्टि में दृश्यों में निहित संवेदनाओं को परोटने लगता है तो वह चाक्षुष में दृश्य के सत्य को प्रकाशित करने लगता है। दरअसल सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में चित्रकला की बजाय छायाचित्र गति और स्थिति को अधिक प्रभावी ढंग से पुनःप्रेक्षित करते हैं। सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में तकनीक वहां कला में गजब का संतुलन जो स्थापित करती है। हस्तनिर्मित चित्रों में शायद यह संभव नहीं।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में कुछ समय पूर्व अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की छायाकृतियों से रू-ब-रू हुआ था। एक नजर में महाकुम्भ के दृष्यों के लोक ने खास आकृश्ट नहीं किया परन्तु जैसे-जैसे छायाचित्रों की गत्यात्मकता पर गया, लगा उन चित्रो में बहुत कुछ कुछ विषिश्ट है। अजय-एंड्रयू हरिद्वार के महाकुम्भ को कैमरे के अपने लैंस से खंगालते बहुत से स्तरों पर कला की गहराईयों में गए हैं। मसलन मोक्ष के लिए स्नान के अंतर्गत उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे एक व्यक्ति चित्र में विषय की बारीकी ही नहीं है बल्कि उसके महत्व की भी जैसे स्थापना की गयी है। ऐसे ही महाकुम्भ में एक स्थान पर साधु के हुक्के में उठती चिंगारी में दृश्य के साथ समय के अवकाश को पकड़कर उसे जैसे स्थिर कर दिया गया है। पूर्णाहुति में राख मले साधु हों या फिर शाही स्नान की ओर बढ़ते नागा साधुओं के कदम या फिर हुजूम में अकेलेपन को बंया करते नागा साधुओं के व्यक्ति चित्र-प्रदर्शित छायाकृतियां स्वयंस्फूर्त दृश्य संवाद कराती है। महाकुम्भ के बहाने साधुओं की फक्कड़ता, उनके राजसी ठाठ, मोक्ष के लिए उनकी भटकन के साथ ही कहीं-कहीं भौतिकता से विलग होते भी उसमें रमती उनकी मुखाकृतियां के छाया दृश्यों की यथार्थपरकता को एक प्रकार से छायाकारों ने चाक्षुष कला दृश्यों में रूपान्तरित किया है। ऐसा करते एकाधिक नागा साधुओं की मुखाकृतियों में एक खास एकांतिका भी अनायास ही उजागर हुई है।

बहरहाल, मुझे लगता है श्रद्धा की मूल भावना को महाकुम्भ श्रृंखला के छायाचित्र एक मधुर स्मृति में तब्दील करते महाकुम्भ के विराट रूपाकारों को साकार करते हैं। महाकुम्भ में नागा साधुओं, वहां आए श्रद्धालुओं की भावाविष्ट मुख-मुद्राओं, दृश्यों की लम्बी श्रृंखला की अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की रचनात्मक छायाकृतियों का यह वृहत दस्तावेज छायाकला का उनका नया आयाम है।

जे.स्वामीनाथन् का कहा याद आ रहा है, ‘एक कलाकार का काम केवल कला-रचना या उसका सृजन मात्र नही है, बल्कि जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करना और प्रबुद्ध कला-दर्षकों को तैयार करना भी है।’ मुझे लगता है, छायाचित्र में छायाकार जो कुछ देखता है, उसका कैमरे की अपनी आंख से एक प्रकार से पुनराविश्कार करता है। ऐसा करते वह देखने की एक कला दृश्टि और षैली भी अपने तई विकसित करता है, वही उसका छायाकला का अपना मुहावरा होता है। छायाचित्र मंे यदि यथार्थ को हूबहू वैसे ही दिखा दिया जाता है, तो उसमें सब कुछ तकनीक का ही खेल होता है परन्तु जो दिख रहा है उसमें निहित संवेदना, उससे जुड़ा कला सौन्दर्य यदि छायाकार पकड़ लेता है तो वह एक प्रकार से सृजन ही कर रहा होता है। ऐसा करते वह जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करने का कार्य भी अनायास ही कर रहा होता है। अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू के छायाचित्र कला की दीठ से जनहितेशणा युक्त रचनाधर्मिता के सषक्त संवाहक हैं। हमारी समृद्ध परम्पराओं की छायाकला का उनका यह सृजन सतर्क कल्पनाषीलता के साथ बदलते दौर में महाकुम्भ के संदर्भ में सर्वथा नवीन वैचारिक स्थापनाएं भी कराता है। कलादीर्घा में उनके छायाचित्रों के भव में विचरते औचक मन कह उठा, नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

Friday, October 8, 2010

कला का समय, संवेदना और रचनात्मक मूल्य

अपने युग से कला जब संवाद करती है तो निष्चित ही उससे जुड़ी घटनाओं, परिघटनाओं को अपने में समाहित करके चलती है। कम्प्यूटर के इस दौर में जब विज्ञान और तकनीक कला पर निरन्तर हावी होती जा रही है, यह सोचने की बात है कि तकनीक क्या कला हो सकती है? वह कलात्मक तो हो सकती है परन्तु उसे कला कैसे कहा जाए!

दरअसल तकनीक बाजार की जरूरत है। वह यदि रचनात्मकता पर हमला करती है तो फिर उससे कला जगत को सतर्क होने की आवष्यकता है। ‘फ्रीडम ऑफ क्रिएटीविटी’ के तहत कला में इधर तकनीक के जरिए बहुत से स्तरों पर बेहतरीन कार्य भी हुआ है परन्तु उसकी अपील सार्वकालिक, सार्वदेशीय है भी अथवा नहीं, इस पर विचार किए जाने की जरूरत है। तकनीक के साथ इधर इंगलैण्ड, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में कलाकार अपने शरीर तक का इस्तेमाल तथाकथित अपनी कला में करने लगे हैं। कुछ समय पहले कोडिस गैलरी ने नया काम करने वाले विभिन्न कलाकारों को बुलाया था। मकसद था कला में नवीन करने वालों की कला का प्रदर्षन। इसमें इन्स्टॉलेषन के लिए अमेरिकी कलाकार गुइलर्मो वर्गाज जिमनेज हेबाकक ने एक कुत्ते को तब तक बांधे रखा जब तक कि वह भूख से बिलबिला कर मर नहीं गया। इस तथाकथित कला को इन्स्टालेषन कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना घोषित किया गया। सोचने की बात यह है कि कला के नाम पर इस तरह का प्रयोग हमारी संवेदना को कहां पहुंचा जा सकता है। आज कूत्ते का प्रयोग क्या कल मनुष्य में परिणत नहीं होगा?

कलाकार अन्तर्मन में बनने वाली छवियों, और स्थान विशेष के साथ जुड़ी यादों के बिम्बों को सहज और आत्मीय संस्थापनों के जरिए ही कला में अभिव्यक्त करता है। इस अभिव्यक्ति में आभासी (वर्चुअल) और वास्तविक के बीच के द्धन्द को तकनीक बेहतरी से अभिव्यक्त कर सकती है परन्तु इमेजोलॉजी के अंतर्गत यदि बगैर किसी रचनात्मक सोच के साथ कुछ किया जाता है तो वह तकनीक का प्रदर्षन भर होगा। तकनीक अन्तर्मन अनुभवों और संवेदनशीलता को उजागर करने का साधन तो हो सकती है परन्तु कला का साध्य नहीं। कला व्यक्ति की संवेदनाओं को चक्षु देती है। यह कला ही है जिसमें विचार और प्रतिक्रियाएं गहन आत्मान्वेषण से मुखरित होती है। ऐसा जब होता है तो कलाकार इस बात की परवाह नहीं करता कि उसके किए सृजन का क्या महत्व होगा। उसका बाजार में क्या मूल्य होगा। कला रचनात्मकता का अनुभव है। इस अनुभव में जीवन की लय संवेदना से जुड़ी हो न कि चौंकाने या चमत्कृत करने के लिए। आप क्या कहेंगे?

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 8-10-2010

Friday, October 1, 2010

अनुभव, चिंतन और तकनीक का नया आकाश

कला का इधर जो नया रूप सामने आ रहा है वह अतिशय उत्तेजक, बहुआयामी प्रक्रिया लिए हुए कलाकारो ंके अनुभव और चिन्तन को नया रूप दे रहा है। यह न्यू मीडिया आर्ट है। इसमें डिजिटल इमेेजेज हैं, विडियो है, साउंड है और बहुत सा आभासी यानी वर्चुअल भी है। सारनाथ बैनर्जी, सोनल जैन, अतुल डोडिया, विभा गेहरोत्रा, रनबीर, किरण सुबैया, साईना आनंद जैसे कलाकार इस दिशा में बहुत अच्छा कर रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो तकनीक के जरिए कलाकार का दर्जा पाने में लगे हैं।

ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष और ख्यात कवि, आलोचक अशोक वाजपेयी की पहल पर पिछले दिनों चंडीगढ़ में ‘नेशनल आर्ट वीक आॅफ न्यू मीडिया’ मंे भाग लेते लगा जैसे कला की नयी दुनिया मंे प्रवेश कर गया हूं। इसमें रचनात्मकता तो है परन्तु तकनीक हर ओर, हर छोर जैसे हावी है। अंतिम दिन विमर्श में न्यू मीडिया आर्ट की चर्चित कलाकार विभा गेहरोत्रा, समकालीन कला के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर, कला दीर्घा के सम्पादक डॉ. अवधेश मिश्र, अंग्रेजी कला पत्रिका ‘आर्ट एंड डील’ के सम्पादक राहुल भट्टाचार्य के साथ इस कला के विभिन्न पक्षों पर विषद् विमर्श हुआ। राहुल और विभा ने न्यू मीडिया आॅफ आर्ट की समकालीनता पर अपनी दृष्टि दी तो खाकसार ने स्पष्ट किया कि कला के साथ तकनीक और विज्ञान का मेल तो हो सकता है परन्तु इस मेल में ही यदि कोई कला की आधुनिकता की तलाश करता है तो यह सही नहीं है। इसलिए कि कला वस्तु मात्र नहीं है और ऐसा जब नहीं है तो उसकी व्याख्या भी वस्तु की तरह नहीं की जा सकती। विज्ञान और तकनीक कला को एक आधार दे सकती है बशर्ते कि उसमें रचनात्मक सौन्दर्य की मानवीय दृष्टि निहित हो। अवधेश ने कला में आधुनिकता के नाम पर भयावह प्रयोगों की सिहरन का अहसास कराते कहा कि यही न्यू मीडिया कला है तो उसकी फिर कोई सार्थकता नहीं है।

ललित कला अकादेमी की यह सर्वथा नयी पहल थी। चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और जाने-माने छायाकार दिवान मना के प्रयासों से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर भारत में संभवतः पहली बार इस प्रकार का राष्ट्रीय आयोजन हो सका। आम तौर पर कला संबंधी इस प्रकार के आयोजनों में दर्शकों, श्रोताओं की अधिक रूचि नहीं होती परन्तु चंडीगढ़ में समयबद्ध सारे कार्यक्रमों में प्रेक्षागृह खचाखच भरा रहा। विमर्श से एक दिन पहले अल्का पांडे ने न्यू मीडिया आर्ट से संबंधित कलाकारों के साथ ही इस कला के भविष्य पर स्लाईड शो के जरिए कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला। भारत में तेजी से न्यू मीडिया आर्ट के तहत हो रहे कार्य की चर्चा के साथ ही अल्का की साफगोई भी भाई। उन्हांेने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि न्यू मीडिया से बहुत अधिक उनका नाता नहीं है, इसीलिए जब इस पर बोलने का निमंत्रण मिला तो सबसे पहले उनकी बेटी ने ही उन्हें टोका था परन्तु अपने क्यूरेटर अनुभवों के साथ ही अध्ययन के आधार पर उन्होंने जो बोला उससे न्यू मीडिया के संबंध में बहुत कुछ समझा जा सकता था। वैसे भी यह वैश्विकरण का दौर है, चीजें तेजी से बदली रही है। तकनीक भी हर रोज बदल जाती है, ऐसे में आर्ट में न्यू मीडिया का प्रयोग स्वाभाविक ही है। आष्ट्रीया मे इस संबंध में बेहद महत्वपूर्ण काम हो रहा है। आष्ट्रीय काउन्सिल के अनुसार न्यू मीडिया आर्ट वह है जिसमें कलाकार नवीन तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इस प्रकार का कार्य सृजित करता है जिससे उसकी कला का नया कलात्मक संप्रेषण हो। इस नवीन तकनीक में कलाकार की ब्रश और कूची कम्प्यूटर, सूचना प्रौद्योगिकी, इन्स्टालेशन और ध्वनि की अधुनातन तकनीक है। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी जोड़ा जा सकता है कि कला सत्य या यथार्थ नहीं बल्कि उसकी खोज की एक प्रकार से प्रस्तावना है। इस प्रस्तावना में न्यू मीडिया आर्ट में भी संभावनाओं का अनंत आकाश है।

ललित कला अकादेमी ने इधर कला आयोजनों की जो स्वस्थ परम्परा विकसित की है, उसमें इस पहल का इसलिए भी स्वागत किया जाना चाहिए कि नई पीढ़ी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की है। स्वाभविक ही है कि कला में भी आने वाले कल में अब उसकी कूची और ब्रश न्यू मीडिया ही होगा। लौटते वक्त दिल्ली में कला आलोचक विनयकुमार मिले तो कहने लगे, ‘न्यू मीडिया आर्ट पर जब देश में बड़े स्तर पर काम हो रहा है तो इस पर विमर्श की भी तो नई राहें खुलनी ही चाहिए, ललित कला अकादमी ने यही किया है।’

बहरहाल, तकनीक का उपयोग कलाकार अपनी अंतःदृष्टि के अंतर्गत रचनात्मक ऊर्जा को नया रूप देने के लिए करता है तब तो ठीक है परन्तु केवल प्रयोग के लिए, चमत्कृत करने के लिए ही ऐसे जतन होते हैं तो फिर उसमें कला की संभावनाओं को फिर तलाशा भी क्यंूकर जाए। तकनीक को भला कला का पर्याय कहा जा सकता है!

Friday, September 24, 2010

चित्रकर्म में कविता के अर्थ गवाक्ष

कवि, चित्रकार की मूल ऊर्जा सृजन में ही निहित होती है। हां, आधार सामग्री के अंतर के कारण दोनों ही अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्ति पाते हैं। मूल बात उन आत्मपरक संवेदनाओं की है जिनमें रचनाकार हर बार जड़त्व को तोड़ते अपने को ही रचता और गढ़ता है। कविता और कैनवस संबंध जगजाहिर हैं। कभी महादेवी ने ‘यामा’ और ‘दीपशिखा’ जैसे अपने संग्रहों में कविताओं के साथ जो चित्र बनाए वे उनके सृजन का ही एक नया आयाम थे। आज भी चित्रों के साथ उनकी कविताएं पढ़ते लगता है, कविता में रचनाकार दरअसल ध्वनि के अर्थ के जरिए हमें संवेदित करता हैं तो कैनवस पर रंग, आकार और इनके विन्यास के जरिए हमारी आंखों से सम्पूर्ण इन्द्रियों को वह संवेदित करता है।

बहरहाल, पिछले दिनों प्रयास संस्थान एवं राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने चूरू में अपने एक आयोजन में पत्रवाचन के लिए जब आमंत्रित किया तो कविता और कैनवस के संबंधो को वहां गहरे से जिया। साहित्यकार मित्र दुलाराम सारण ने राजस्थानी के मूर्धन्य कवि स्व. कन्हैयालाल सेठिया की कविताओं के कैनवस पर रूपान्तरण का प्र्रस्ताव रखा और कलाकार रामकिशन अडिग ने इसे त्वरित मूर्त भी कर दिया। रंगो, रूपाकारों और उनके संपूर्ण विन्यास में सेठियाजी की कविताओ में निहित भावों और विचारों को अडिग ने फलक पर रेखीय प्रतीकों में रखते जैसे साहित्य और कला के अन्तर्सम्बन्धों का भी नव साक्षात्कार कराया। सेठिया जी की कविता ‘सबद’ की पंक्तियां ‘जाबक भोली गोरड़ी@कर सोळे सिणगार...’ को रेखाओं में जीवंत करते अडिग के एक चित्र पर नजर ठहर जाती है। चित्र में स्वयंस्फूर्त सृजनात्मक गत्यात्मकता हर ओर, हर छोर है। ऐसे ही ‘कूंकूं’ कविता की अन्र्तनिहित संवेदनाओं की अर्थ ध्वनियों को कैनवस पर सुनते मन उसे स्वतः ही गुनने को करता है। मैंने अर्थ ध्वनि सुनी और गुन अब भी रहा हूं। दरअसल सेठियाजी की बहुतेरी कविता पंक्तियों में अडिग ने अपने चित्रकर्म से कविता के अर्थ संदर्भों के सर्वथा नये गवाक्ष खोले हैं।

अडिग कैनवस पर सरल, स्पष्ट एवं ज्यामितीय रेखाओं के जरिए सेठियाजी के काव्य को पुनर्नवा करते यह अहसास भी कराते हैं कि चित्रकला रूपार्थ पर निर्भर है जबकि काव्य कला वागर्थ पर। उनके चित्रों में बरती रेखाओं, और रंगों की हल्की परत में मांडणों, समृद्ध जैन चित्र शैलियों में राजस्थान और यहां की रचनाधर्मिता का समग्र परिवेश भी अनायास ही मुखरित हुआ है। अडिग के साथ सेठियाजी की काव्य पंक्तियों पर कुछ चित्र संभावनाशील कलाकार राजेन्द्र प्रसाद ने भी बनाए है, उनमंे भी भावों की अभिव्यंजना काफी हद तक है। मुझे लगता है, सृजन का यही वह स्वाभाविक प्रवाह है जिसमें नया कुछ गढ़ने और रचने की दीठ निहित होती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश   कुमार व्यास का स्तम्भ
"कला तट" दिनांक 24-09-2010

Saturday, September 18, 2010

लोक का आलोक

सौन्दर्य की साधना किसी भी समाज के सांस्कृतिक स्तर का निर्धारण करती है। दैनिन्दिनी वस्तुओं, उपकरणों में कलात्मक अंकन और रंग संयोजन उन्हें सादृश्यता प्रदान कर आनंददायी बनाता है। कला का यही तो सौन्दर्यान्वेषण है। इस सौन्दर्यान्वेषण में शिल्प, चित्र, मूर्ती और वास्तु कलाओं का समग्रता से विस्तार अर्न्तनिहित जो होता है।

बहरहाल, हमारी जो परम्परागत कलाएं हैं, उनमंे जीवन के हर पहलू की अनुगूंज है। मानव के अपने परिवेश की स्मृतियां इनमंे हैं और है अर्न्तनिहित भावना का साकार रूप। राजस्थान तो हस्तकलाओं, हस्तशिल्प परम्पराओं का जैसे गढ़ है। पन्नालाल मेघवाल ने पिछले दिनों अपनी पुस्तक ‘शिल्प सौन्दर्य के प्रतिमान’ जब भेंट की तो लगा मैं हस्तकलाओं, हस्तशिल्प के इस गढ़ में जैसे प्रवेश कर गया हूं। गढ़ का द्वार खुलता है तलवार, खुखरी, खंजर, गुप्ती, ढ़ाल-तलवार आदि पर नक्काशी करने वाले सिकलीगर परिवारों की कला के बखान से। आगे बढ़ता हूं तो पुस्तक गढ़ की दरो-दीवारों पर कांच पर सोने के सूक्ष्म चित्रांकन की बेहद सुन्दर थेवा कला है। मिट्टी से निर्मित छोटे-छोटे गवाक्ष, जालियां, कंगूरों की गृहसज्जा में उपयोग आने वाली मिट्टी की महलनुमा कलाकृतियां ‘वील’ है। लकड़ी का चलता फिरता देवघर काष्ठ-तक्षित कावड़ है और है बाजोट, मुखौटे, कठपुतली, लाख की कलात्मक वस्तुएं, मोलेला की मृणमृर्तियां, पीतल के गहने-भरावे, शीशम की लकड़ी पर किये तारकशी आदि की मनोहारी कलाएं। लोक मन के अवर्णनीय उल्लास, उमंग की सौन्दर्य सृष्टि करती कलाओं का मेघवाल का पुस्तक गढ पाठकीय दीठ से हर ओर, हर छोर से लुभाता है। पन्नालाल ने इस गढ़ को कलाकारों से बतियाते और राजस्थान की कला से संबद्ध बहुतेरी पुस्तकों को खंगालते रचा है। इस रचाव में वे राजस्थान की प्रमुख कलाओं, हस्तशिल्प आदि की सहज जानकारी तो देते ही हैं, साथ ही लुप्त होती उन कलाओं की ओर भी अनायास ध्यान आकर्षित करते हैं, जिन्हें आज संरक्षण की अत्यधिक दरकार है।

कला की प्रभा और प्रतिभा सदा सर्वोन्मुखी रही है। ऐसा है तभी तो हमारी इन पारम्परिक कलाओं को हम आज भी अपने घरों मंे सहेजे हुए हैं। लोक का क्या अब यहीं ही नहीं बचा रह गया है आलोक!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "काका तट" दिनांक 17-09-2010

Friday, September 10, 2010

अंतर्मन आस्था में संस्कृति का प्रवाह


कला का रूप और संस्कृति समाज स्वीकृत जीवन दर्शन से बंधे होते हैं। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि हमारी जो संस्कृति है, हमारी जो परम्परा है उससे अलग होकर कलाकृतियों का सृजन संभव नहीं है। यह परम्परा ही है जो पूर्ववर्ती गुणों के साथ नये गुणों को आत्मसात करती जड़त्व को तोड़ती है। इस दृष्टि से परम्परा का पोषण यदि कोई कलाकार करता है और उसे अपने तई समय की संवेदनाओं से साधता है तो उसमें अपूर्व की तमाम संभावनों से इन्कार नहीं किया जा सकता। रागिनी उपाध्याय के चित्रों से रू-ब-रू होते लगता है, परम्परा के अंतर्गत कहानियां, मिथकों, किवदंतियों, पुराण कथाओं को आधार बनाता उसका कलाकर्म कला का सर्वथा नया मुहावरा लिए है। इस नये मुहावरे में गहरे रंगोंे के साथ स्पष्ट आकार, स्वच्छन्द संयोजन और किसी मिथक पर आधारित होने के बावजूदे चित्रों मंे निहित विषय वस्तु की स्वतंत्रता अलग से ध्यान खींचती है। टेक्सचर प्रधान रूपाकारों में नेपाल की कुमारी का अंकन हो या फिर हिन्दू देवी-देवताओं को आधुनिक संदर्भों में कैनवस पर उकेरना या फिर भगवान बुद्ध के जरिए विध्वंश में आश का सूर्य संजोना-रागिनी अनुभूति और अंर्तदृष्टि के पुनर्सृजन में कला की सर्वथा नयी दीठ देती है।

बहरहाल, रागिनी के चित्रों में परम्परा और मिथकों के जरिए अन्तर्मन संवेदना के अनुभवों के विराट भव से रू-ब-रू हुआ जा सकता है। आॅयल पेंटिंग के उसके एक चित्र में औरत के रूप में गाय का अंकन है। इस अंकन में लोकचित्रकला की हमारी परम्परा के जो प्रतीक और बिम्ब आधुनिक संदर्भों में दिए गए हैं, वे अलग से लुभाते हैं। ऐसे ही ‘द पावर’, ‘द पेशेंस’ जैसे बहुतेरे उसके चित्रों के तुलिकाघात सहज, स्वाभाविक तो हैं ही, उनमंे बरते गए रंगों का संयोजन भी उत्तमता से परिकल्पित ऐसा है जिसमें चाक्षुष सौन्दर्य है। आॅयल पेंटिंग के अंतर्गत ‘बर्लिन की दीवार’ ‘डस्ट एंड लव’, ‘गोल्डन चेयर’ जैसे उसके बहुचर्चित चित्रांे में रंग और रेखाओं का गतिशील प्रवाह हैं। इधर रागिनी ने पौराणिक हिन्दू कथाओं को आधार बनाते हुए उसमें आधुनिक परिवेश को उद्घाटित किया है। स्टेच्यु आॅफ लिबर्टी, ताजमहल, एफिल टावर आदि को प्रतीकों में रखते हुए उसने आधुनिक परिवेश और बदल रही धारणाओं की इनके जरिए अपने तई कला व्याख्या की है। अपने कलाकर्म के जरिए वह इतिहास और संस्कृति की यात्रा कराती है। उसके चित्रों में उभरे बिम्ब और प्रतीकों में संस्कृति के अनूठे स्वरों का आस्वाद है। कला की उसकी यही सांस्कृतिक दीठ उसे औरों से जुदा करती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 10-09-2010

Saturday, September 4, 2010

अलहदा चित्रकार आर.के. लक्ष्मण

भारतीय कला परम्परा के अंतर्गत विष्णुधर्मोत्तर पुराण में ‘चित्रसूत्रम्’ के अंतर्गत चित्रकला के जो नौ रस बताए गए हैं, उनमें व्यंग्यचित्रकला भी प्रमुख है। विडम्बना यह है कि मूल्यांकन के अंतर्गत आधुनिक और पारम्परिक चित्रकला में भेद करते हमने हास्य-व्यंग्य चित्रकला को इधर जैसे सिरे से बिसरा दिया है। यह जब लिख रहा हूं, आर.के लक्ष्मण का कॉमन मैन याद आने लगा है। चेक का बंद गले का कोट, सर पर चंद बालों के गुच्छे, नाक पर भारी सा चश्मा लगाता अधेड़ उम्र का लक्ष्मण का हास्य-व्यंग्य चित्र किरदार कॉमन मैन हैरान और हक्का बक्का सा हमारी राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी गतिविधियों से संबंधित घटनाओं का जैसे मूक साक्षी है।

एक चित्र में आर.के.लक्ष्मण ने अपने कॉमन मैन को बड़े उदर, लम्बे कान के भगवान गणेश के चित्र के समक्ष नतमस्तक होते दर्शाया है। इन दिनों जब आर.के. लक्ष्मण अस्पताल में गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं। स्नेहवश उनके द्वारा भेंट किए और अपने अध्ययन कक्ष में लगाए उनके इस चित्र को देखकर मुझे औचक खयाल आता है कि उनका कॉमन मैन गणेश से अपने सृजनहार को ठीक करने की प्रार्थना कर रहा है। क्यों न करें? उनका सृजनहार सबसे अलायदा जो हैं। बारीक रेखाओं में अपने व्यंग्यचित्रों से लक्ष्मण ने जीवन के तमाम पहलुओं को हर ओर, हर छोर से जैसे बार-बार उद्घाटित किया है।

याद पड़ता है, पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.कलाम ने जयपुर में उनके व्यंग्यचित्रों की कला प्रदर्शनी ‘लक्ष्मण रेखा’ का उद्घाटन किया था, तब उनसे लम्बा संवाद हुआ था। सवाल करें तो हर जवाब में आपसे सवाल। पैरेलेसस के बाद भी उनके काम में कोई फर्क नहीं पड़ा। कहने लगे, ‘हाथ और दिमाग काम कर रहा है...और क्या चाहिए।’ किसी से मिलना-जुलना उन्हें पंसद नहीं। न कहीं वे जाते-आते हैं, फिर उनका कॉमन मैन कैसे समकालीन जीवन की सांगोपांग अभिव्यक्ति कर देता है? सवाल जब हुआ तो बोले, ‘आम आदमी के पास जाना क्या जरूरी है? मीडिया सारा कुछ तो बताता ही है।’ रचनाकार के तौर पर कोई अपेक्षा के सवाल पर कहने लगे, ‘मैंने जो बनाया है, उसे लोग समझे बस इतनी ही।’ पहली बार ऐसा हुआ कि किसी व्यंग्यचित्रकार की कला प्रदर्शनी का राष्ट्रपति ने उद्घाटन किया। इस पर जब प्रश्न हुआ तो कहने लगे, ‘पहली बार किसी ने इतना अच्छा कार्य जो किया है। आपको नहीं लगता?’

बहरहाल, उनका जवाबनुमा यह सवाल मन में हलचल मचा रहा है। सच ही तो कहा उन्होंने, व्यंग्यचित्रकला में लक्ष्मण ने जो किया है, वह क्या कोई ओर कर सका है? है कोई, जिसमें अपने काम के प्रति इतना आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा हो? व्यंग्य चित्र कॉमन मैन जितना हुआ है कोई और व्यंग्यचित्र इतना लोकप्रिय? कॉमन मैन के साथ आईए, हम भी ईश्वर से दुआ करें। वे जल्द स्वथ हों। आमीन!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 3-09-2010

Saturday, August 28, 2010

कला परम्परा का आधुनिक व्याकरण

भारतीय कला मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिन्तन को समर्पित रही है। जैन धर्म की हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियां को ही लें। हाथ से सुन्दर लिखाई और उनके साथ भावपूर्ण चित्रों का वहां सांगोपांग मेल है। आज के इस दौर में भी कला की उस भारतीय परम्परा का सतत निर्वहन इधर डॉ. मंजू नाहटा के कलाकर्म में देखकर सुखद अचरज हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ सृजित खंडकाव्य ऋषभायण के साथ ही जैन धर्म के अनेकांत दर्शन के जो चित्र उन्होंने उकेरे हैं, उनमें भारतीय चित्रकला के सुनहरे अतीत की अनुगूंज तो है ही आधुनिक कला के बिम्ब और प्रतीकों के जरिए कला का जैसे नया व्याकरण भी रचा गया है।

पिछले दिनों जब वह जयपुर आयीं तो जैन धर्म और भारतीय चित्रकला पर उनसे विषद् चर्चा हुई। कहने लगी, ‘यह जैन धर्म ही है जिसमें हस्तलिखित पाण्डुलिपियों पर सूक्ष्म लिखाई और चित्रांकन की परम्परा आधुनिक दौर में भी जीवन्त है।’ वह जब यह कहती है तो अनायास ध्यान उनके बनाये अनेकांत दर्शन और विभिन्न जैन कथाओं से प्रेरणा ले बनाए उन चित्रों पर जा रहा है। समतल रंगाकन, आकारों के सरलीकरण में मंजू ने जैन दर्शन में जो अर्न्तनिहित है उसे मूर्त-अमूर्त में बेहद सजिदंगी से उकेरते बारीक रेखाओं में रंगो का भी अभूतपूर्व संयोजन किया है। ऑयल या एक्रेलिक रंगो की बजाय प्राकृतिक रंगों का उनका प्रयोग करते। मसलन काला रंग यदि बनाना है तो उसके लिए बड़े दीपक की लौ में धूंआ उपाड़कर कार्बन को एकत्र कर उसका प्रयोग किया गया है। सफेद रंग के लिए काठ खड़ी, फूल खड़ी आदि का उपयोग हुआ है तो नील के वृक्ष से नील, पलाश के फूलों से गहरा लाल व पीला रंग घोटकर तैयार करने के साथ ही सोने और चांदी के रंगों का प्रयोग भी बहुतायत से किया गया है।

आचार्य तुलसी के जीवन पर इधर डॉ. मंजू ने 54 फीट लम्बी और 4 फीट चौड़ाई की म्यूरल पेंटिंग बनायी है। रंग और रेखाओ में उनके जीवन के विभिन्न पड़ावों के जो बिम्ब और प्रतीक इसमें उन्होंने दिए हैं, अनायास ही वे ध्यान खींचते हैं। मसलन उनके परिनिर्वाण को उन्होंने उड़ते हुए एक पक्षी के रूप में उकेरा है। मुझे उसे देखते जेहन में कबीर का ‘उड़ जायगा हंस अकेला...’ भजन स्मरण हो आता है। कुमार गंधर्व के गाए उस भजन की जीवंतता डॉ. मंजू नाहटा के चित्रांकन में भी मैं गहरे से अनुभूत करते कला की उनकी इस दीठ में जैसे खो सा जाता हूं।

बहरहाल, निंरंतर अभ्यास और लयबद्धता के साथ रंगों और रेखाओं को अपने तई साधते मंजू के चित्र भले जैन धर्म और दर्शन पर ही केन्द्रित हैं परन्तु उनमें समय की संवेदनाओ ंऔर कला की परम्पराओ को गहरे से जिया गया है। मुझे लगता है, अतीत को वर्तमान से जोड़ते डॉ. मंजू अपने चित्रों में जैन दर्शन के जरिए जीवन के रहस्यों और सच्चाई को ही तो तुलिका स्वर देती है। सच भी है। जीवन से पृथक होकर क्या कोई कला जीवित रह सकती है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 27-8-2010

Friday, August 20, 2010

चाक्षुष बिम्बों में भावों का सम्प्रेषण

कलाओं में परस्पर द्वैत नहीं अंर्तसम्बन्ध होते हैं। एक कलाकार जब सर्जन करता है तो रचना में निहित उसकी अनुभूति और संवेदना ही उसे उदात्त बनाती है, कईं मायनों में सर्वग्राही भी। फोटोग्राफी को ही लें। चित्रकला की भांति इसमें जो दिख रहा है, वही यदि उभरकर सामने आता है तो उसका कोई कला अर्थ नहीं है परन्तु भावग्राही दीठ वहां है तो वही उसका कला आधार बन जाता है।

बहरहाल, छायाकारी ही नहीं बल्कि किसी भी कला के रूप मंे परिवर्तन होते रहना उस कला को सचेत व प्रभावी रखने के लिए आवश्यक है। पहले पहल जब कैमरा अस्तित्व में आया तब उसका प्रमुख ध्येय जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू प्रस्तुत करना ही रहा होगा परन्तु जैसे-जैसे उसका विस्तार हुआ, कला माध्यम के रूप में भी उसने अपनी पहचान बनायी। भले ललित कला अकादमी फोटोग्राफी को अभी भी कला नहीं मानें परन्तु माध्यम के रूप में फोटोग्राफी को कोरी यांत्रिक प्रक्रिया भर नहीं कहा जा सकता। रघुराय, ज्योति भट्ट, अकबर पदमसी के छायाचित्रों को ही लेें। क्या वहां कला नहीं है? कैमरा जब यथार्थ में अन्र्तनिहित संवेदनाओं का सृजन करता है तो उस क्रिया में साधारण चीजें कला रूपान्तरण के रूप में ही हमारे सामने आती है। तब तस्वीरों में उभरने वाले अजीबोगरीब दृश्य हमारे अवचेतन मन को छूने लगते हैं। विश्व फोटोग्राफी दिवस पर छायाकार महेश स्वामी की छाया-कला प्रदर्शनी ‘यात्रा’ से रू-ब-रू होते भी लगा उसकी खींची तस्वीरें यथार्थ का अंकन भर नहीं है। वहां दृश्य में निहित संवेदनाओं, भावनाओं और उस सौन्र्दबोध को भी छुआ गया है जो हमारे अन्तर्मन को झकझोरते कुछ सोचने को विवश करता है। मसलन स्कल्पचर को कैमरे से पकड़ते उसने उसके आकाश, बुलन्द इमारत को भी इस खूबसूरती से प्रस्तुत किया है कि वह यथार्थ में जो दिख रहा है, उससे परे अमूर्त संवेदना का चाक्षुष बिम्ब बन गया है। इसी तरह समारोहों की हलचल में कदमताल को आउट आॅफ फोकस करते जो दृश्य संयोजन किए गए हैं, उनमें एक नये तरह का भावबोध संप्रेषित होता है। यही नहीं ऐतिहासिक इमारत के पानी में पड़ते अक्स, वास्तु धरोहर में परिन्दों के बास, प्रकृति दृश्यावलियों में अन्र्तनिहित सौन्दर्य के बिम्ब कला का सर्वथा नया मुहावरा ही रचते हैं।

मुझे लगता है, संवेदनाओं के चाक्षुष बिम्ब उकेरने वाला छायाचित्रकार भी सर्जक, चित्रकल्पी ही होता है। भावग्राही दृष्टि के अंतर्गत फोटोग्राफी और चित्रकला में परस्परावलम्बता है। दोनों में ही जब सर्जक यथार्थ को एक निजी अनुभव की तरह समझता है तो जीवन के नये तथा अद्वितीय बिम्ब हमारे सामने उभरकर सामने आते हैं और ऐसे बिम्बों के जरिए ही अनंत के बारे में एक जागरूकता विकसित होती है।...तो अब भी क्या फोटोग्राफी को हम कला नहीं कहेंगे!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 20-8-2010

Saturday, August 14, 2010

पौराणिक, ऐतिहासिक चित्रों के रूपक

सर्जनशील कला परम्परा से पोषित होने के बावजूद कलाकार की स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही जन्म लेती है। तैलरंगीय चित्रों को ही लें। कला की यह शैली विदेश से भारत आयी है परन्तु कला की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य और सर्जनात्मक ऊंचाईयां इस कला को भारतीय कलाकारों ने अपनी स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही प्रदान की।

राजा रवि वर्मा, बीपी बनर्जी, एम.ए. घोष, माधव विश्वनाथ, जामिनी प्रकाश आदि चित्रकारों की जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में लगी ‘टिन्ट टू दी मास’ प्रदर्शनी का आस्वाद करते लगा भारतीय कला ने सर्वव्यापी व शाश्वत तत्वों को अपने सम्मुख आदर्श के रूप में रखा है। वहां कलाकार कला के बाह्य रूप तक ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि यथार्थ, आख्यान के भीतर निहित संवेदना, उसके उत्स और भावनाओं पर अधिक गए हैं। यही कारण है कि दर्शकीय दीठ में चित्रकार दार्शनिक और कवि रूप में भी प्रायः मिलता है। क्रोमोलिथोग्राफ्स और ओलियोग्राफ्स तकनीक से मुद्रित शिव-पंचायत, राधा-कृष्ण, नृसिंह भगवान, विष्णु, सिद्वी विनायक और ऐसे ही पौराणिक आख्यान के दूसरे चित्रो की भाव-भंगिमाएं रूपकों की निर्मिती करती हैं। ऐतिहासिक चरित्रों के भी जो चित्र तब कलाकारों ने बनाए वे व्यक्ति चित्र नहीं होकर किसी आख्यान को नाटकीय रूप में उजागर करते हैं। तत्कालीन लोक जीवन की अनुगूंज भी इन चित्रो में विशेष रूप से दिखायी देती है। रामदरबार के एक प्रिंट में यहां राम मूंछो सहित है। लोकाख्यान की यह कला परिणति बहुत से स्तरों पर दूसरे ओलियोग्राफ्स में भी दिखायी देती है। लगभग सभी चित्रों में रेखाओं की रंगसंगति चमकीली व आकर्षक है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पश्चिम से प्रेरणा के बाद भी कला की इस शैली में भारतीय परम्परा कहीं विलुप्त नहीं हुई है।

बहरहाल, ओलियोग्राफ यानी तैलरंगीय छाप चित्रों के अंतर्गत पहले पहल फ्लेमिश कलाकार यान वान आइक ने चमकीलापन डाला। उनके इस प्रयोग को बाद में इटली के चित्रकार आंतोनेलो द मेस्सिना ने भी अपनाया और बाद में तो निम्न परत, मोटी परत, सूक्ष्म छटांकन आदि तरीको ंको अपनाते हुए तैल चित्रण पद्धति पूर्णतः विकसित होती चली गयी। थिओडोर जेन्सन नाम के इंगलिश चित्रकार से तैलरंगचित्रण पद्धति की शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजा रवि वर्मा ने भारतीय जीवन, व्यक्ति व पौराणिक विषयों को सांगोपांग ढंग से उकेरा। तैलरंगीय चित्रों को भारत मंे शास्त्रीयता प्रदान करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने ही कला की इस तकनीक को बहुसर्जक और एक प्रकार से मनोहारी भी बनाया। उनके बाद ऐसे चित्रों की एक प्रकार से हमारे यहां परम्परा सी ही बन गयी और घरों में आज भी दीवारों पर ऐसे बनाए चित्रों की प्रतिकृतियां के कैलेण्डर टंगे हम देख सकते हैं।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 13-08-10

Friday, August 6, 2010

अनुकृति नहीं, कला सृष्टि

कला अरूप से रूप का सृजन करती है। मानवीय क्रियाओं एवं विचारों का पोषण,  संवर्धन कला ही करती है।    जब से विज्ञान ने कलाओं के दरवाजे पर दस्तक दी है, वे नित नए रूपों में और अधिक लुभाती मन को भाने लगी है। एनिमेशन फिल्मों को ही लें।   परिकल्पनाओं को यथार्थ धरातल पर उतारती कार्टून चरित्रों की यह कला आज विश्वभर में सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है।

अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र की एक कला दीर्धा में बाकायदा एनिमेशन चरित्रों की कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी। बच्चा बनता मन इसे देख जैसे इसी में खो सा गया था और तभी याद आने लगी थी ढ़ेरो एनिमेशन फिल्में। गोल-गोल, लव-कुश, रोड साईड रोमियो, अलादिन, विक्रम-बेताल, जंबो, दशावतार, कृष्णा, बाल गणेश, हनुमान, हनुमान रिटर्न आदि एनिमेशन फिल्में बनी जरूर बच्चों के लिए है परन्तु इन्हें देखने का लोभ बच्चों के साथ मैंने भी कभी छोड़ा नहीं। इन्हें देखते लगा, यह इनमें निहित कला ही है जो प्रबल मनोवेगों का सहज भावाद्रेक कराती है।  

‘एनीमेट’ का अर्थ है अनुप्राणित करना और इसी से बना है-एनिमेशन। कार्टून कैरीकेचर के रूप में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक किरदारों को आधुनिक रंग में रंगे देखते लगता है एनिमेशन के जरिए हमारे जेहन में बसे चरित्रों का कार्टून बनाने वालों और फिर कम्प्यूटर के जरिए उन्हें सिनेमा के पर्दे पर जीवंत करने वाले तकनीकी कलाकारों ने पुनराविष्कार कर दिया है। बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय एनिमेशन चरित्र मिकी माउस का ही है। इतना कि जब कभी यह स्क्रिन पर आता है, दर्शक उसमें डूब-डूब जाते हैं। वाल्ट डिज्नी ने चार्ली चैपलिन की प्रेरणा से यह नायाब कार्टून करेक्टर गढ़ा था। डिज्नी ने अपने सहयोगी एनिमेटर अब आइवक्र्स के साथ मिलकर जब इस चरित्र को गढ़ा था तब इसका नाम था-मोर्टिमर। मजे की बात यह है कि यह नाम डिज्नी की पत्नी लिलियन को बिल्कुल भी नहीं सुहाया। लिहाजा इस कार्टून करेक्टर का नाम हुआ-मिकी। हम सभी जानते हैं यह अब हमारे बीच कितना लोकप्रिय है।

बहरहाल, भावों का संशोधन, चिन्तन की गहनता और कल्पनाशीलता के साथ एनिमेशन कला आज विश्वभर में छा गयी है। यह जब लिख रहा हूं, लियोनार्डो दा विंची बहुत याद आ रहे हैं। कभी उन्होंने ही कहा था, ‘कलाकार अनुकृति नहीं वरन सृष्टि करता है।’ मिथकों, पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्रों के साथ ही बहुत सी दूसरी परिकल्पनाओं को इधर आधुनिक यथार्थ के ताने-बाने में बुनती एनिमेशन फिल्में क्या इस दीठ से कला की पुनः सृष्टि ही नहीं है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 6-8-2010

Saturday, July 31, 2010

पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति

सभी कलाओं का मूल उद्गम लोक है। भारतीय कलाओं में लोक की अनुगूंज हर ओर, हर छोर है। लोक दृश्यों का वहां अक्षय भंडार जो है। दरअसल यह लोक ही है जो आधुनिक और पारम्परिक कलाओं में आनुष्ठानिक उद्देश्यों और चिन्तन के व्यापक अर्थ समाहित करता है।

बहरहाल, हमारी लोक संस्कृति की जड़े आज भी इतनी हरी है कि यही पूरे देश को एकता के सूत्र मंे बांधे भी रखती है। लोक कलाओं के प्रतीक, बिम्ब और संस्कारों में ही जीवन मूल्यों के हमारे आदर्श निहित हैं। लोक संस्कृति पर लेखन से जुड़ी कमलेश माथुर ने पिछले दिनों अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ जब भेजी तो उसका आस्वाद करते लगा, आधुनिक कलाओं में भी यदि लोक का दर्शन नहीं हो तो वे रूखी-रूखी सी बेस्वादी ही लगेगी। मुझे लगता है, जिन आधुनिक कलाकारो ने लोक संस्कृति की परम्पराआंे को अपने सृजन में परोटा हैं, वे ही अधिक चर्चित हुई हैं। यह सही है कि भौतिकता की भागम-भाग के इस दौर में बहुत से स्तरों पर हमारी इन कलाओं का क्षय भी हुआ है परन्तु स्थान-विशेष के संदर्भ में उनकी महक अभी भी बरकरार है।

बहरहाल, लेखिका कमलेश माथुर लोक संस्कृति के गहरे सरोकारों से जुड़ी रही हैं। लोक कलाओं और परम्पराओं पर बहुविध उनके लेखन में मिट्टी की सौंधी महक को सहज अनुभूत किया जा सकता है। ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ पुस्तक में हालंाकि बहुत सी सामग्री पहले भी आयी हुई है परन्तु ग्रामीण अंचलांे में महिलाओं द्वारा घरों में बनायी जाने वाली मिट्टी की महलनुमा कलाकृतियां विषयक ‘वील’, काष्ठ के चित्ताकर्षक चलते-फिरते देवघर ‘कावड़’, भित्ति चित्रण की ‘पड़’, पारम्परिक ‘थेवा’ आदि कलाओं के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रांे मंे बहुप्रचलित ‘घूरा पूजन’, आदिवासियों से संबद्ध ‘भगोरिया प्रणय पर्व’, ‘गवरी’, आदि की परम्पराओं पर उनके मौलिक लेखन की दीठ भी सहज लुभाती है। उनकी इस पुस्तक में लोक कलाओं के विभिन्न अनछुए पक्ष भी अनायास ही उद्घाटित हुए हैं हालांकि उनकी संक्षिप्तता खटकती भी है। ऐेसे में मन मंे कहीं यह भाव भी अनायास ही आता है कि ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों में लोक से जुड़ी परम्पराओं को सहेजते हुए उनको व्यापक अर्थों में उद्घाटित करने के व्यापक प्रयास हों तो लोक कलाओं, बेषकीमती धरोहर और उससे जुड़ी हमारी संस्कृति का सही मायने में संरक्षण हो सकता है। ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ इस संदर्भ में गहरी आष जगाती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 30-07-2010

Friday, July 23, 2010

स्वर, राग और ताल का अनूठा आस्वाद

वाद्य संगीत में स्वर, राग और ताल का कहीं परिपूर्ण मेल है तो वह है बीन में। बीन माने वीणा। तार वाद्यों के सम्पूर्ण संकुल की द्योतक। अव्यवहित आकर्षण में संगीत का समग्रता में सृजन करती हुई। यह वीणा ही है जो शब्दों से परे नाद सौन्दर्य में व्यक्ति और वस्तु के बीच की विसंधि को वीलिन करती है। इसलिए कि प्रकट संगीतीय अभिव्यक्ति कंठ माध्यम की अपेक्षा वीणा अधिक प्रांजल जो है।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों जब अखिल भारतीय रूद्र वीणा समारोह का आयोजन हुआ तो कर्नाटक से आयी देश की पहली महिला रूद्र वीणा वादक ज्योति हेगड़े को सुनते नाद सौन्दर्य को जैसे गहरे से जिया। रूद्र वीणा वादन में वह ध्वनि में अन्र्तनिहित सौन्दर्य की जैसे बढ़त करती है। वह वीणा बजा रही थी परन्तु लग ऐसे रहा था जैसे वह गा रही है। वाद्य संगीत को कंठ संगीत की प्रतिकृति करते वह स्वरों के पूर्ण प्रलंबों और सूक्ष्म गमक में मन को भीतर तक झंकृत करती है। अपनेपन से भरते। राग मीया मल्हार का उनका रूद्र वीणा वादन सुना तो लगा स्वरों की बढ़त में जैसे वह हर बार अपने आपको ही रचती हैं। उनका यह रचना ऐसा है जिसमें संगीतीय अन्तरावधियों की समग्रता को सहज अनुभूत किया जा सकता है। मुझे लगता है, यह रूद्र वीणा ही है जिसमें संगीतीय मुहावरे के साथ-साथ उसकी गति को सुनने वाला अनुभूत कर सकता है। उस पर नजर रख सकता है।

ज्योति हेगड़े ने रूद्र वीणा में अपने आपको पूर्णतः साधा है। गत में लय को क्रमशः बढ़ाते हुए रूद्र वीणा पर चलती उनकी अंगुलियां राग और ताल को एकमेक करती अनूठा रस प्रदान करती है। राग मीया मल्हार में वर्षा की गिरती टप-टप बूंदों को उसने इस करीने से रूद्र वीणा में साधा कि बंद प्रेक्षागृह में भी झमा-झम का अहसास होने लगा। रूद्र वीणा के तारों में जब वह बढ़त कर उसे क्लाइमेक्स पर ले जाती है तो उत्तेजना के विपरीत प्रशांति पर बल देती है। वादन का उनका यह संगीतीय मुहावरा ही उन्हें ओरों से जुदा करता है।

बहरहाल, प्राचीन एवं मध्यकालीन संगीत शास्त्रीय ग्रंथों में अलापिनी, घोष, चित्रा, किन्नरी, सरस्वती वीणा, त्रितंत्री, सार वीणा, नारद वीणा, विपंची और रूद्र वीणा का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। शिव के एक नाम से व्युत्पन्न और शिव द्वारा सृजित होने के कारण रूद्र वीणा बाहर और भीतर से सौन्दर्य की प्रतीक है। इसे सुनते लगता है, वाद्य संगीत अनायास ही शब्दों से परे नाद के शुद्धतर विश्व से साक्षात् कराता है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 23-7-2010

Friday, July 16, 2010

अर्थपूर्ण स्पष्टता में भावों का सघन संचरण

चित्रकला में रंग, रेखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर बिंबो और रूपकों को रचते है। इस दृष्टि से युवा चित्रकार सुरेन्द्र सिंह के चित्रों का कला आकाश विशेष रूप से लुभाता है। उसके चित्रों में रूपकों की तलाश में दृष्टियों की बहुलता है। किसी एक थीम की बजाय एक साथ बहुत से विषयों को कैनवस पर निरूपित करते उसके चित्रों की बड़ी विशेषता यह है कि आकृतिमूलकता में अमूर्तन का रोचक अध्याय है। सद्य बनायी उसकी ‘प्रकृति’ श्रृंखला चित्रों को देखते मुझे लगता है, माध्यम से अधिक आशय की अर्थवत्ता में वह कला की बारीकियों में गया है।

बहरहाल, उसके चित्रों से रू-ब-रू होते यह अहसास स्पष्ट ही होता है कि वह किसी खास संकल्पना और विचार को लेकर कार्य प्रारंभ नहीं करता। जो कुछ हो रहा है, वह उसके कैनवस पर भी वैसे ही घटित होता है। हां, महत्वपूर्ण यह जरूर है कि प्रतिकात्मकता मंे कैनवस पर फूल और पत्तियों के जरिए ही वह संवाद करता है। पार्श्व में हल्के काले रंग को धूसरित करते वह औचक कहीं लाल और कहीं हरे रंगों में अनूठे बिम्बों की सर्जना करता है। एक्रेलिक, ऑयल और जल रंगो के उसके चित्रों में त्रिआयामी प्रभाव भी है। यह ऐसा है जिसमें लोक चित्रो में प्रयुक्त अलंकरण, फूल-पत्तियों की सौरभ तो है ही समकालीन बोध की विशिष्ट अर्थ छवियां भी है। खास बात यह जरूर है कि अमूर्तन होते हुए भी उसके ऐसे चित्रों मे आधुनिकता द्वारा पैदा विभ्रम नहीं है। मुझे लगता है समकालीन सरोकारों के अपने कला बोध में वह अपने चित्रों में प्रकृति और जीवन को सर्वथा नये ढंग से रूपायित करता है। यही उसके चित्रों की वह विशेषता है जो उसे अपने समकालीनों में भी सर्वथा अलग पहचान देता है।

प्रकृति के पंचभुत तत्वों में अग्नि, जल, वायु को अपने चित्रों में केन्द्र में रखते वह कला के गतिशील प्रवाह की सृष्टि भी करता है। कैनवस पर चित्रों का उसका लोक इसलिए भी लुभाता है कि उसमें स्वयंमेव प्रतिष्ठित होने का आग्रह नहीं है। मैटेलिक कलर के पार्श्व में उसके बहुतेरे चित्रों में गहरे से हल्के होते रंगों के बीच उभरते मोर पंख, रंग बिरंगे फूूल और परम्परा बोध के तहत उकेरी गयी पत्तियां में अनुभव का अनूठा भव है। विषय वस्तु में चित्र यहां आकारनिष्ठ हुए भी यहां रूपों को नैसर्गिकता प्रदान करते हैं। ग्राफिक में मटमेले होते रंगों में सुरेन्द्र सिंह के चित्रों में अर्थपूर्ण स्पष्टता और भावों का सघन संचरण है। किसी भी कला का वैशिष्ट्य और उसकी सफलता व्यक्तिगत आनंद की यह समाजगत अनुभूति करा देना ही क्या नहीं है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 16-07-2010

Friday, July 9, 2010

अविगत गति कछु कहति न आवै...

बारिश की बूंदे मन को गढ़ती है, कुछ रचने के लिए। आसमान से टप-टप गिरती बूंदे जैसे हमें जगाती है-कुछ करने के लिए। इस बार जब बारिश हों तो आप उसे देखें नहीं, उसे सुनें और गुनें। आपको लगेगा प्रकृति गा रही है। प्रकृति के इस मधुर गान में, लगेगा आपके भीतर का कलाकार भी गा रहा है। मन तब जो गाता है, वही अनाहत नाद है। साहित्य, संगीत और कलाओं का अग्रज यह भीतर का हमारा अनाहत नाद। अंर्तध्वनि का प्रतीक यह सधे हुए वाद्य वृन्द की भांति बजता है। यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद के रूप में बज पड़ता है। अनाहद नाद का मूल स्त्रोत हमारी अनुभूति है। प्रकृति को महसूस करने की हमारी दृष्टि है। भावात्मक होने से अव्यक्त यानी अविगत है यह। इसीलिए अनाहत नाद भी अव्यक्त है। कहा भी तो गया है, ‘अविगत गति कछु कहति न आवै।...’

संगीत के इतिहास लेखक सांबमूर्ति कहते हैं, ‘अनाहत नाद को हमे महत्व देना चाहिए। नाद से ही यह समस्त विश्व निनादित जो है।’ सच ही तो कहते हैं सांब! बारिश जब होती है तो मोर बोलते हैं। कोयल गाती है। चिड़ियाएं चहचहाती हैं। प्रकृति मौन में भी अनूठे संगीत का आस्वाद कराने लगती है। कलाकृति प्रकृति के इन गुणों से ही क्या नहीं निकलती!

इस बार की बारिश में मन के भीतर के इस नाद को सुनें। आपको लगेगा आप वह नहीं है जो हैं। आप अपने भीतर के कलाकार को पहचानने लग जाएंगे। आपको लगेगा, आप भी कुछ रच सकते हैं। संगीत, नृत्य, चित्रकलाओं का जन्म आपके भीतर के कलाकार से ही तो होता है। वह प्रकृति से ही तो प्रेरणा ग्रहण करता है। इसीलिए तो हमारे यहां कहा गया है, कलाएं केवल शरण्य ही नहीं हैं। आश्रय भी हैं। जिनमें अपने आपको अभिव्यक्त करते बहा जा सकता है। तैरा जा सकता है। सच्ची कला आपको वहां ले जाती है जहां आप पहले कभी न गए हों।...भले कईं बार वह जानी-पहचानी जगह पर भी ले जाती है परन्तु तब उस स्थान को अप्रत्याशित ढंग से देखने के लिए वह आपको विचलित भी करती है। यह प्रकृति है, बारिश की बूंदे हैं जो परम्पराओं के भान में स्मृतियों का गान कराती है।

आईए, इस बार बारिश को देखें नहीं उसे सुनें भी। इस सुनने मंे जो सुकून है, उसे अनुभूत करें। प्रकृति के अनाहत नाद में बचेगा वही जो रचेगा।...तो आईए, बारिश की बूंदों को रचें। कैनवस पर उकेरे सृष्टि के इस अनुभव के भव को। प्रकृति कितना दे रही है। हम क्या उससे उतना ले रहे हैं!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 9-7-210