Friday, December 27, 2013

साहित्य, कला और संस्कृति का लोकतंत्र

लोकतंत्र की परम्परा और उसकी विशिष्टता जनभागीदारी की सतत तलाश है। और यह केवल और केवल किसी भी समाज में कला, संस्कृति और साहित्य के स्वस्थ मूल्यों से ही हो सकती है। व्यापक अर्थ में संस्कृति परम्पराओं, साहित्य, ज्ञान, विचारधाराएं, सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं, कानून और क्षमताओं के साथ व्यक्ति की आदतों का मिला-जुला रूप ही तो है। वर्ष बीतने को है। सालभर का लेखा-जोखा संचार माध्यम कर ही रहे हैं, पर इससे परे साहित्य और संस्कृति के सनातन मूल्यों के लिहाज से आकलन करें तो पाएंगे बहुत कुछ ऐसा महत्वपूर्ण है जिससे हम धीरे-धीरे विलग हो रहे हैं। सृजन को जीवन की अभिव्यक्ति मान लिया गया है पर ऐसा नहीं है। सृजन स्वयं जीवन है। ऐसा जिसे कोई भी सत्ता, राजनीति चाहकर भी बाधित नहीं कर सकती। माने सृजन की स्वायत्ता पर कहीं कोई पहरा नहीं हो सकता। यह ऐसा लोकतंत्र है, जिसमें हर व्यक्ति अपना स्वयं शासक है। सोचिए! साहित्य और कलाएं ही तो है जिनमें कहीं कोई आरक्षण नहीं है। सबके लिए यह क्षेत्र समान रूप से खुला है। यहां कोई है भी तो वह अपनी योग्यता और अपनी क्षमता से ही है। साहित्य खेमों में बांटते दलित या इसी तरह के अन्य किसी लेखन की बात कोई करता है तो उससे बड़ी बौद्विक दरिद्रता हो नहीं सकती। कबीर, रैदास, गालिब के लिखे को फिर क्या कहेंगे! इसीलिए कहें, साहित्य में न जाति है, न धर्म। महत्वपूर्ण यदि लिखा गया है, कलाकृति में सिरजा गया है, संगीत में गुना गया है तो वह कालजयी ही होगा। 

सरकारें यह दावा कर सकती है कि कला, साहित्य और संस्कृति के लिए कला-संस्कृति विभाग बनाए हुए हैं। ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादमियां में प्रतिवर्ष करोड़ों का बजट इसीलिए दिया जाता है कि साहित्य-संस्कृति का पोषण हो सके। पर गंभीरता से विचारें, क्या वास्तव में इनसे संस्कृति, साहित्य और कलाओं का भला हुआ है!  होता प्रायः यह भी है कि अकामियों की स्वायत्ता के नाम पर अकादमी के लिए चुने गए व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों और अपनों का पोषण करने लग जाते हैं। बीतते जा रहे वर्ष में राजस्थान साहित्य अकादेमी ने तो इसकी मिशाल पेश की है। वर्तमान में जो अध्यक्ष हैं उन्होंने साहित्य के तमाम मूल्यों को ताक पर रखते हुए जैसे इतिहास ही रचा। पूरे कार्यकाल में सामंती सोच को धिक्कारते वाले अध्यक्ष महाशय साहित्य अकादेमी को मठ के रूप में स्थापित करते उसके जरिए सामंती सोच से पुरस्कार की रेवडि़यारं बांटते रहे। सता के समक्ष सामथ्र्य जताते जिसे जैसे चाहे नियमों को ताक पर रखकर दिया। स्वायत्ता के नाम पर उनका पूरा कार्यकाल बंजर विचारों की खेती ही करता रहा। सांस्कृतिक जागरण के नाम पर सस्कृति का चीर-हरण और साहित्य के नाम पर कृतार्थ की मंशा की परिणति अमृत सम्मान समारोह, कला मेले जैसे आयोजनों में उड़ाया सरकारी धन कहा जा सकता है। 

कलाओं की दृष्टि से बीतते जा रहे वर्ष में राजस्थान में बहुत कुछ नया हुआ भी। मसलन जयपुर में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कला उत्सव प्रोगे्रसिव आर्ट ग्रूप के जरिए हुआ। ललित कला अकादेमी ने साल बीतते बीतते छायांकन की एक प्रदर्शनी अपने यहां आयोजित कर छायाचित्र कला को कुछ तो मान्यता दी ही। हां, नर्मदा के अनथक यात्री और प्रसिद्ध कलाकार अमृतलाल वेगड़जी के एक व्याखान के लिए अकादेमी को अपना स्थान उपलब्ध कराने के लिए आग्रह किया तो उसकी लाज रखते हुए तुरता-फुरत में आयोजन अकादेमी परिसर में हुआ भी परन्तु उसके लिए भी अकादेमी की कोई गंभीरता नहीं दिखी। यानी विचारों के लिए वहां भी पूरे बरस शून्यता ही पसरी रही। हां, इस वर्ष कलाविद् सम्मान बरसों बाद फिर से प्रारंभ होन सुखद है।

नाट्य की दृष्टि से यह स्वर्णिम वर्ष रहा है। रवीन्द्र रंगमंच और जवाहरकला केन्द्र में वर्षपर्यन्त महत्वपूर्ण नाटकों का मंचन हुआ। नाट्य से जुड़े विचारों पर मंथन भी हुआ और बड़ी उपलब्धि यह भी रही है कि पणिक्कर नाट्य समारोह के जरिए संस्कृत नाटकों की समृद्ध परम्परा का आस्वाद जयपुर ने किया। जयरंगम और कथारंग जैसे आयोजन बदलते समय के साथ नाट्यकला में आए परिवर्तनों के संवाहक रूप में भी कम याद नहीं किए जाएंगे।

राजस्थानी भाषा अकादेमी ने आयोजनों की अच्छी पहल की। सुदूर स्थानों तक राजस्थानी भाषा के आयोजन हुए। बल्कि पुरस्कार बांटे जाने की बंधी-बंधायी दलीय परिपाटी में ही आबद्ध रहने की छवि को बहुत से स्तरों पर अकादेमी ने तोड़ा भी पर अंत बुरा रहा। राजस्थान साहित्य अकादेमी अध्यक्ष के चकारिये में विवादों के घेरे में इस कदर घिरी कि बाहर निकल ही नहीं पाई। और हां, बीतते वर्ष के आरंभ में हर बार की तरह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी चर्चा का विषय रहा। साहित्य के नाम पर उपभोक्तावाद के चरम रूप में संस्कृति की जड़ों को भले ही वह हिलाता आ रहा है परन्तु मीडिया प्रायोजकों के रूप में तमाम प्रचार तंत्र को अपने साथ मिलाकर उसने आयोजन के नए सूत्रों का बीजारोपण तो जयपुर में किया ही है। 

बहरहाल, बीतता जा रहा यह वर्ष साहित्य, संगीत और कलाओं के लिहाज से सोशल मीडिया के नाम भी कम नहीं रहा है। सृजन के जरिए जो कभी नहीं पहचाने गए, उन्होंने इस मीडिया का जमकर इस्तेमाल अपने को स्थापित करने में किया। इससे गढ़ी छवि दीर्घकाल तक भले ही न भी रहे परन्तु साहित्य और कलाओं से जुड़े तथाकथित मठाधिशों ने इससे भ्रम फैलाकर बहुत कुछ हासिल तो किया ही है! विडम्बना बीतते वर्ष की यह भी है कि हिन्दी से कमाने खाने वाले लोगों ने अंग्रेजी में लिखे को जमकर पोषित किया। एक कारण यह भी है कि वर्ष 2013 में उस साहित्य की अधिक चर्चा हुई जो हिन्दी, राजस्थानी में नहीं लिखा जाकर अंग्रेजी या दूसरी योरोपीय भाषाओं में लिखा गया। जो हो आईए साहित्य और संस्कृति के लोकतंत्र को नमन करें! यहां कोई आरक्षण नहीं है। यहां कोई है, रह रहा है या भविष्य में भी रहेगा तो केवल और केवल अपने बूते। कोई यहां अपनी पीठ आप ठोकता भी है तो उसे स्वयं के अधिकारों की लड़ाई चाहकर भी बना नहीं सकता। आखिर, यही तो है सच्चा लोकतंत्र!

साहित्य, संस्कृति और कला विश्लेषण 2013, 
"डेली न्यूज़" सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित, दिनांक 27-12-2013 
  http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/2125727 

Friday, December 20, 2013

लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत

यह जानना सुखद है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में होने वाली परेड में प्रदेश के ख्यातनाम कलाकार हरशिव शर्मा निर्मित कावड़ कला की झांकी प्रदर्शित  होगी। कावड़ कला राजस्थान की समृद्ध लोक धरोहर है। ऐसे दौर में जब हम अपनी परम्पराओं को विस्मृत करते जा रहे हैं, राष्ट्रीय पर्व लुप्त होती कलाओं को सहेजने का जैसे संदेष ही देता है। 
बहरहाल, कावड़ लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत है। कावड़ माने धार्मिक, ऐतिहासिक और लोक कथाओं में गुंफित शिल्प का चित्रघर। डिब्बेनुमा काष्ठ आकृति जिसकी दरो-दिवारों पर कथाओं का मनोरम चित्रण। कावड़ में गाथाओं को बुना जाता है और फिर जब यह तैयार हो जाती है तो बुने को बांचते हुए गुना भी जाता है। काष्ठ निर्मित कलात्मक रूपाकारों में ईसर, तोरण, बाजोट, मुखौटे और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी होती है। कविता के छंद की भांति क्रमबध मंडे चित्र और चमकदार रंगों का सौन्दर्य वहां प्रधान होता है। एक रंग दूसरे का पूरक बनता इसीलिए मन को वहां भाता है। कावड़ में षिल्प की गढ़न के साथ चित्रांकन की सूक्ष्म दीठ होती है।  कहें,  वास्तु और शिल्प का मेल है कावड़। परत दर परत कपाटों से खुलता है चित्रों का कथा कोलाज। कावड़ बांचने वाले कपाट खोलते इसे ही बांचते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप किसी कलादीर्घा की वर्चुअल सैर कर रहे हैं। विविध कपाटों में परत दर परत मनोरम चित्रों के जरिए प्रभु की झांकी के पाट खुलते बंद होते धार्मिक कथा को यहां जीवंत करते हैं। इसीलिए कहें, कावड़ चलता फिरता देवघर है। 
कहते हैं, कावड़ कला की शुरूआत घर पर तीर्थ पुण्य प्रदान करने की सोच से कभी हुआ। ऐसे लोग जो तीर्थ नहीं जा पाते, प्रभु स्वयं पहुंचकर कावड़ के जरिए उन्हें तीर्थ लाभ देते। कावड़ के पाट खुलने का अर्थ ही है, पुण्य की प्राप्ति। उसे भी जो कावड़ चित्र कोलाज देखता है और उसे भी जो कावड़ बांचता है। पड़ की तरह कावड़ बांचते भाट मोर पंख का स्पर्श  कराके कावड़ के पाट खोलते-बंद करते ही कथा पूरी करता है। सभी प्रकार के कपाट खुलने पर अंत में राम-सीता के दर्शन होते हैं। कथा की इस पूर्णता के साथ ही आरती के साथ कावड़ पूरी हो जाती है। बैलगाडि़यों पर सजी-संवरी कावड़ कभी गांव-गांव, शहर-शहर  घूमती। 
बहरहाल, कावड़ डेढ़ से दो इंच की भी होती है और बीस फीट की बड़ी भी होती है। प्रायः यह अरडू, धाक, धोरनी, खिरनी, आम की लकड़ी से बनती है। पर इधर घरों में सजावट के लिहाज से सागवान से भी निर्मित होने लगी है। गोपीचंद-भरतरी, रामायण, महाभारत, लोक देवी-देवताओं ऐतिहासिक कथाओं के साथ ही इधर प्रयोगधर्मिता के चलते सम-सामयिक संदर्भो के चित्र भी कावड़ में बनने लगे हैं। रंग जो प्रयुक्त होते हैं उनमें लखारी यानी लाल रंग प्रमुख होता है। फिर इसमें हरतल यानी हरा, प्यावड़ी यानी पीला, काजल यानी काला आदि रंग मिलाए जाते हैं। आवश्यकतानुसार रंगों को गोंद  मिलाकर घोंटा लगाया जाता है। घोंटा यानी इंटाला। सूखने पर फिर से उसमें गोंद मिलाकर विविध पारम्परिक रंगो से क्रमवार कथाओं का चित्रण होता है। कथा चित्रों को सजाने के लिए मांडणे तथा अन्य अलंकरणों में लोक सौन्दर्य के चितराम भी काष्ठ पर मांडे जाते हैं। कहते हैं, कावड़ कला का उद्गम चित्तौड़ के बस्सी गांव से हुआ। वहां के रावत गोविन्ददास ही पहले पहल कावड़ कलाकार प्रभातजी सुथार को 1652 में मालपुरा टोंक से लेकर आए थे। उन्होंने तब बहुतेरी काष्ठकलाकृतियां बनाकर  रावत गोविन्ददास और महाराणा मेवाड़ को भेंट की। बस्सी काष्ठ कला का आज भी गढ़ है।...वहीं जन्मी जगचावी लोक कला कावड़ के उजास से इस बार पूरा देष नहाएगा।


Friday, December 13, 2013

सांस्कृतिक नीति के लिए हो चिंतन

कलाओं का मूल आधार संस्कृति है। जीवन से जुड़े संस्कारों की नींव संस्कृति से ही तो तैयार होती है। साहित्य, संगीत आदि कलाएं संस्कृति का ही रूप है और हमारा आंतरिक इनसे ही तो उद्घाटित होता है। परन्तु हमारी जीवन पद्धति और मूल्य भी तो संस्कृति का ही हिस्सा है। स्वाभाविक ही है कि संस्कृति प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। या कहें उसमें हरेक की भागीदारी जरूरी है।
इस समय की बडी चुनौती तेजी से खत्म होते जा रहे जीवन मूल्य ही है। बड़ा कारण इसका संस्कृति के जीवंत मूल्यों से निरंतर हो रही हमारी दूरी भी है। प्रदेश में नई सरकार का आगमन हुआ है। बहुत सारे कार्य आने वाले समय में इस सरकार के जिम्मे है परन्तु संस्कृति को जीवन के व्यापक संदर्भों से जोडने की पहल की दिशा में यदि सर्वोच्च प्राथमिकता से कार्य हो तो दूसरे कार्यों में इससे अपने आप ही शुरूआत हो जाएगी। सरकारी अकादमियां और संस्थाएं सांस्कृतिक, साहित्यिक उन्नयन का कार्य कथित रूप में करती भी है परन्तु उनकी प्राथमिकताओं में संस्कृति से जुड़े पहलुओं का स्थूल रूप भर है। यानी साहित्य अकादेमी साहित्य के लिए, संगीत नाटक अकादेमी संगीत, नृत्य और नाट्य के लिए, ललित कला अकादेमी प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए कार्य करती है परन्तु संस्कृति इनसे ही नहीं है। संस्कृति समुदाय के आचरण से है। संस्कृति मनुष्य का व्यवहार और जीवन जीने का ढंग है। जैसे बीज हम बोएंगे-फल वैसा ही मिलेगा। इस दीठ से संस्कृति भविष्य की नींव तैयार करती है। 
सांस्कृतिक आयोजन श्रव्य, दृश्य से जुड़े होते हैं परन्तु सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत संस्कृति व्यापक संदर्भों के साथ जीवन को पोषित करती है। स्वाभाविक ही है कि इसके लिए सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति से ही कार्य हो सकता है। नई सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता रखते हुए इस ओर पहल करे तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। और फिर संस्कृति और सत्ता को अलग नहीं किया जा सकता। राज्य में सरकार को जो अपार जनमत मिला है, उसकी भी मांग शायद यही है कि राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक नीति बने। संस्कृति मूल्यों की सृष्टा और संपोषक जो है! साहित्य और कला अकादमियों के गठन और वहां पर अध्यक्ष, सदस्यों के मनोनयन या फिर किसी तरह के साहित्य, कला उत्सव करने से संस्कृति पोषित नहीं होती। साहित्य और कला के साधनों और सुविधाओं का विकास तो एक बात है परन्तु इससे भी बडी जरूरत यह है कि कलाएं अभिजात या फिर सीमित वर्ग तक की पहुंच के साथ तमाम जनता तक पहुंचे। स्वस्थ और दीर्घकालीन नीति यदि संस्कृति की बनती है तो उसमें साहित्य और कलाओं का ही नहीं व्यक्ति की सोच बदलने तक की ताकत है। यह बड़ी बात है पर पहली आवश्यकता तो अभी यही है कि प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक नीति हो, ऐसी जिसमें साहित्य और कलाएं व्यापक संदर्भों से जुडे। 
साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं में जो मठाधीश लोग हैं, उनकी बजाय सर्जन के सरोकारों से जुडे मूल लोगों को जोडते हुए, उनसे परामर्श करते हुए राज्य की सांस्कृतिक नीति बनायी जाए। ऐसी सांस्कृतिक नीति जिसमें मायड भाषा राजस्थानी के लिए कार्य हो, जिसमें संगीत, नृत्य चित्रकला और खासतौर से लोक कलाओं का जमीनी स्तर पर संरक्षण हो। संस्कृति की जीवंतता किससे  है? अंतर्विरोधों की पहचान से ही तो! अच्छे-बुरे की समझ से। इसलिए जरूरी यही है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हुए हम एक सुनियोजित सांस्कृतिक नीति के तहत सांस्कृतिक हों। संस्कृति जिससे जीवंत हो जीवाश्म न बने। आखिरकार तमाम हमारी कलाओं और दर्शन पर संस्कृति का ही तो प्रभाव रहता है। वह समृद्ध होगी तो हम भी समृद्ध-जीवंत रहेंगे। सरकार बदली है, संस्कृति के संबंध में यह चिंतन तो हो ही। आम जन की अपेक्षा यही है।

Friday, December 6, 2013

कलाओं में गूंथे जीवन के मर्म


कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। मुंशी  प्रेमचन्द की कहन कला को ही लें। कहानी विधा के रूप में वहां साहित्य प्रधान है परन्तु कहानियों के मर्म में उतरेंगे तो पाएंगे कहन में जीवन से जुड़े सरोकार यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। भाषायी अदाकारी में जीवन से जुड़े मर्म की तलाश  ही तो है उनकी कहानियां!  लूंठी-अलूंठी दृष्टि-संपन्न्ता में वहां पूरी की पूरी एक विचारधारा समय का सच उघाड़ती हममें जैसे बतियाती है। 
बहरहाल, यह सच है कि कहानियां जीवन को बयां तो करती है परन्तु जीवन नहीं हो सकती। जीवन तो कलाओं से ही है। इसीलिए तो कहते हैं-संगीत, नृत्य, चित्र और नाट्य जीवन को रंजित ही नहीं करते गहरे से बंया करते हैं। यह बात इसलिए कि कुछ दिन पहले प्रेमचन्द की एक कहानी का नाट्य रूपान्तरण देखा था।  लगा, कहानी को मंच देकर उसे जीवन्त करने की कला नाट्य से ही उपजी है। याद पड़ता है, व्यवस्था प्रसूत विसंगतियों पर लिखी उनकी कहानी ‘नमक का दरोगा’ विद्यालयी दिनों में ही पढ़ी थी। कथा में प्रेमचन्द द्वारा वेतन को पूर्णमासी का चांद की उपमा देकर महिने में एक बार ही दिखने की संज्ञा आज भी कहां भूल पाया हूं। पढ़ने के बाद कहानी के इस तरह के संवाद ज़हन में निरंतर कौंधते हैं। कुछ दिन पहले इस कहानी के नाट्य रूपान्तरण का आस्वाद करते इसमें निहित घटनाओं का दृष्टा भी बना। 
कहानी का नाट्य रूपान्तरण और प्रस्तुति सिद्धहस्त नाट्यकर्मियों ने नहीं करके राजस्थान पुलिस अकादेमी के प्रेक्षागृह में वहां के प्रशिक्षुओं ने किया। पुलिस अकादेमी के निदेशक बी.एल. सोनी के आमंत्रण पर उनके साथ इस कहानी का नाट्य आस्वाद करते लगा, प्रेमचन्द के कहन को कला में पात्रों ने गहरे से जिया है। पुलिस सेवा के प्रशिक्षुओं ने कहानी के मर्म में उतरते नाट्यकला से जुड़ी संवेदनाओं को जैसे आत्मसात किया था। ‘नमक का दरोगा’ कहानी के केन्द्र में ईमानदारी और बेईमानी की ताकत है। ईमानदार पात्र वंशीधर और जमींदार पंडित अलोपीदीन  इसके मुख्य पात्र है। कहानी में अच्छाई की हार के बावजूद अंततः अच्छेपन के सम्मान के मार्मिक प्रसंगों की जीवन्त और मार्मिक नाट्य प्रस्तुति ने मन में कुछ सवाल भी पैदा किए। मसलन पुलिस प्रशिक्षण अकादेमियों में संबद्ध प्रशिक्षण के साथ ही प्रशिक्षुओं में निहित नैसर्गिक प्रतिभाओं को तराषने के अवसर दिये जाएं तो वहां बगैर किसी उपदेष, व्याख्यान के ही मानवीय गुणों का विकास किया जा सकता है। 
अमूमन देखा यह गया है कि प्रशिक्षण अकादेमियों में अधिकारी अपनी नियुक्ति को लेकर खास कोई उत्साहित नहीं होते हैं। ऐसे में प्रायः प्रशिक्षण औपचारिकताओं की भेंट चढ़ता प्रशिक्षुओं को भविष्य के अपने कार्य के प्रति जोश  नहीं जगाकर कार्य आरंभ करने से पहले ही उसके बोझ का ही निरंतर अहसास कराता है। स्वाभाविक ही है कि प्रशिक्षण उपरान्त पुलिस के सामाजिक सरोकारों के नतीजों में स्वाभाविक मानवीय गुणों का लोप ही तब अधिक दिखाई देता है। इस दीठ से विचार यह भी आया कि क्यों नहीं आवश्यक  प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकार भी प्रशिक्षण का हिस्सा हों। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक और राजस्थान पुलिस अकादेमी के इस समय के निदेशक बी.एल. सोनी की पहल इस दृष्टि से उदाहरण बन सकती है। वह स्वयं मानवीय संवेदनाओं से लबरेज व्यक्तित्व है, इसलिए उनकी पहल से ही अकादेमी में साहित्य और कलाओं से जुड़े सरोकारों की इस तरह की पहल हुई है। क्या ही अच्छा हो, तमाम दूसरे प्रशिक्षण  संस्थानों में विषय संबद्ध प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकारों को इसी तरह से जोड़ा जाए। 
यह सही है,प्रशिक्षण  व्यक्ति को संवारकर दक्षता प्रदान करता है परन्तु कलाओं से जुड़े सरोकार प्रषिक्षण में सम्मिलित होंगे तो व्यक्ति जीवन से जुड़े गुणों का पाठ भी स्वतः ही कर सकेगा। रोबोटी होते दौर में संवेदनाओं का वास आखिर कलाएं ही करा सकती है।