Sunday, August 23, 2015

कविताओं में अंवेरा शब्दों का अमृत-कुंड

ऐसे दौर में जब कविताओं से लय लोप हो रही हो और नकलीपन और निर्जीव वाग्मिता में कविता महज शब्दों का शोर बनती जा रही हो, कवि, चिंतक नंदकिशोर आचार्यजी का होना आश्वस्त  करता है। परम्परा बोध के बगैर आधुनिक दीठ और सांस्कृतिक शून्यता के इस कविता समय में आचार्य जी की कविताएं हमें जैसे उबारती है। कविता की उनकी यह पंक्तियां देखें-‘न सही/तुम्हारे में/मैं कहीं/अंधेरों में सही/दृश्य  से थक कर/जब-जब मुॅंदेगी आॅंखें/पाओगी मुझको वहीं।‘
कविता हालात की बयानबाजी नहीं है। घटनाओं की परिधि में शब्दों का सम्मोहक आवरण भी वह नहीं है। अंतर्मन संवेदनाओं का सुवास है कविता। इस दीठ से आचार्य की कविताएं कलात्मक अनुशासन  में विचार, भाव और रूप का विरल साहचर्य हैं। कविता कहन की उनकी भंगिमा में भाव-संवलित दृश्यात्मकता  मन को मोहती है, ‘यह डबडबा रहा है/आकाश  में जो जल‘ या फिर ‘खुद में खिलाना ही पेड़ होना है-/केवल हरा होना नहीं‘ या फिर ‘कितनी भी घनी हो/बारिश /कहीं कोई कोना/रह जाता है सूखा’ और ‘सूखा है तो क्या/रूंख है वह/इतना तो बनता है न/बारिश  का सम्मान‘ जैसी संग्रह की ढेरों व्यंजनाओं में नंदकिशोर आचार्य एकांत के क्षणों में उपजे चिंतन के कविता दृश्यलेख हमारे समक्ष रखते हैं। और यही क्यों, ‘सूर जनता है/गुंगापन’ सरीखी व्यंजना में वह मौन को भी स्वर देते हममें कवि रूप में जैसे गहरे से जैसे बस जाते हैं। मुझे लगता है, उनकी कविताएं सांस्कृतिक संदर्भों का विरल पाठ है। 
कविता संग्रह : आकाश भटका हुआ 
कवि :             नंदकिशोर आचार्य 
प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, विनायक शिखर,
                शिवबाड़ी रोड, बीकानेर -334001 

‘आकाश भटका हुआ’ संग्रह की कविताओं में विचार है, चिंतन का नया आकाष है पर आरोपित होता नहीं, हममें गूंजता जैसे आलोक का नया सिरा पकड़ाता हुआ। प्रकृति साहचर्य जनित एकांत के अनूठे राग में घुली शब्द व्यंजना देखें, ‘अनुरणन है जिस का /सारा आकाश /उस पुकार की/गुमशुदा लय हूं‘। आचार्य की कविताओं में प्रकृति से जुड़े ऐसे ही अनूठे आख्यान है-मौलिक दीठ लिए। दार्शनिक बोध में यहां वह मौसम को जीवन से जोड़ते हैं तो कभी मूक आकाश को अपने गूंगेपन से अभिहित करते धरती के संग सूरज के होने में सौन्दर्य, कोमलता की तलाश करते हैं। उनकी कविता शब्दों के अमृत कुण्ड में ले जाती है, ‘तुम भी भला क्या करती/डंक है केवल तुम्हारे पास/जहरीले/मेरे पास है/शब्दों का अमृत-कुंड’।
आचार्य जी के पास कविता का अपना मुहावरा है। अंतर्मन संवेदनाओं की लय में वह ‘सूनेपन के बसाव’, ‘किसी को नहीं निवेदित/है जो/ऐसी प्रार्थना हूं मैं‘ जैसी मर्मस्पर्षी पंक्तियांे में कविता की स्वच्छ मनोभूमि का सहज सौन्दर्यबोध कराते हैं। 
‘आकाश भटका हुआ’ संग्रह कविता में खोई हुई लय का गान है। उस प्रकृति की लय का जिससे हम हैं, उस पेड़ की लय का जिससे हरे हैं हम, उस पक्षी की लय का जो हममें अभी भी बैठा कहीं गा रहा है।  और हां, यह कविताएं उस शीला, धूप, हवा के प्रति कृतज्ञता का गान भी है जो हमें किसीन किसी रूप में कुछ अनायास देती है। जीवनानुभूतियों को अनुभव की कसौटी पर कसते-परखते आचार्य अपनी कविताओं में अभिप्रायों के लूंठे आख्यान हमारे समक्ष रखते हैं, ‘आकाश  भटका हुआ’ को पढ़ते यह अहसास बार-बार होता है।