Sunday, July 24, 2016

सत्यम् शिवम् सुन्दरम


शिव माने कल्याणकारी। जो कल्याण करता है, वही तो इस जगत में सुन्दर है। और जो सुन्दर है, वही सत्य है। इसीलिए कहें ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम’ का उत्स भगवान शिव है। देह कहां सुन्दर होती है, सुन्दर तो वह स्वरूप होता है जो मन में बसता है। शिव निराकार हैं। सुखद अनुभूति प्रदान करने वाले। सुन्दरता का अर्थ भद्र और कल्याण का भाव है। सौंदर्य की अवधारणा आनंदानुभूति में ही तो है। सौन्दर्य में शुचि, शुभ और भद्र की समन्विति है। मंगल की भावना है। कहते हैं, सृष्टि से पहले न सत् ही था न असत्। आदिकाल में जब केवल अंधकार ही अंधकार था, न दिन था न रात्रि, न सत् यानी कारण था न असत् यानी कार्य। तब केवल निर्विकार शिव ही विद्यमान थे, ‘न सन्नासच्छिव एव केवलः।’ केवल एक निर्विकार षिव। 
आदि देव। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र और आत्मा-अष्टमूर्ति  रूप से उपास्य। शिर पर गंगा और चन्द्र कला को धारण करने वाले। हाथ में त्रिशूल, डमरू लिए हुए भस्मी रमाये हुए। कभी दिगम्बर तो कभ व्याघ्र का चर्म वसन पहने हुए। त्रिपुर संहारक। भक्त मार्कण्डेय को बचाने के लिए यमराज की छाती पर पाद प्रहार करने वाले। विष्णु द्वारा एक हजार कमल अर्पण के संकल्प में एक कमल कम पड़ने पर स्वयं अपना ही नेत्रकमल उखाड़कर चढाने पर उन्हें प्रसन्न हो सुदर्शनचक्र प्रदान करने वाले भगवान शिव कोटि सूर्यप्रभः है। अखिल संसार की रचना करने वाले परमेश्वर। ज्ञान, वैराग्य के परम आदर्श। 
यह शिव ही तो हैं जो नृत्य, संगीत, नाट्य के आदि प्रवर्त्तक आचार्य हैं। संगीत को अधिक सूक्ष्मता प्रदान करने के लिए ही उन्होंने सुर सप्तक की रचना की। नादतनु कहलाए। शिव सूत्र में कहा गया है ‘नर्तक आत्मा’ अर्थात् आत्मा नर्तक है। शिव का नृत्य आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों ही स्तरों पर हो रहा है। नृत्य का जहां जन्म होता है, वहीं गति होती है। सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चौदह बार डमरू बजाया। इसी से चौदह शिवसूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चौदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की। मन में कल्पना होती है, नटराज शिव मगन हो नृत्य कर रहे हैं। सृष्टि के विकास में सभी प्रादुर्भूत सहायक शक्तियां वहां एकत्र है। ब्रह्मा ताल देते हैं। सरस्वती वीणा बजाती है। इन्द्र बांसूरी बजाते हैं और विष्णु मृदंग। लक्ष्मी गान करती है। भेरी, परह, भाण्ड, डिंडिम, पणन, गोमुख आदि अनद्ध वाद्यों से गुंजरित है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज का नृत्य ही तो है। शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है। 
मुझे लगता है, नटराज शिव केवल अपने वैभव, शक्ति, शांति, संयम में ही सर्वोत्तम नहीं है, वे समय और स्थिति के आध्यात्मिक अतिक्रमण के भी प्रतीक हैं। इसीलिए तो वह महादेव हैं। जहां कहीं भी ‘ईश्वर’ अथवा ‘ ईश’ शब्द बगैर किसी विशेषण के आया है उसका अर्थ शंकर ही तो है।...शिव का रूद्रावतार कला का पर्याय है। इसी अवतार में उन्होंने कभी नारद को संगीत कला का ज्ञान दिया था। नारद ने संगीत के पूर्ण ज्ञान के लिये भगवान शिव की तपस्या जो की थी। संगीत ही क्यों, शिव सभी विधाओं के आदि आचार्य हैं। इसीलिए तो कहा है, ‘ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः।’ 
सोचता हूं, अकेले शिव ही हैं जो नंग-धड़ंग पूजे जाते हैं। और कुछ नही ंतो लंगोटी की जगह चमड़े का टुकड़ा ही लपेट लिया। गहनों के नाम पर गले में सांप धारण कर लिया। चिता की राख लपेटे भी वह लुभाते हैं। उनकी सवारी भी कोई और नहीं सांड है। आप-हम उसके पास जाते हुए भी डरें। भंग-धतुरा उनका भोजन है। कंठ में विष की भंयकर ज्वालाएं। भूतभावन। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तो उसे कौन पीए। भोले भंडारी ही आगे आए। दूषण हलाहल उनके कंठ में पहुंच भूषण बन गया। इसी से वह नीलकंठ कहाए। गंगा के प्रचण्ड वेग को कौन धारण करें? शिव यहां भी आगे। कर लिया अपनी जटाओं में उसे धारण। कलंकी चन्द्रमा किसके पास जाए! शिव ने उसे भी अपने सर पर स्थान दिया।...यही तो है शिव का सौन्दर्य। कला का अद्भुत रूप! शिव लिंग जहां है वहां शिव की मूर्ति कहां है! माने वह मूर्त भी है और अमूर्त भी। जिस भी भेष में, रूप मंे हम दर्शन करना चाहें, प्रकट हो वह दर्शन दे देंगे। षिव यानी सर्वव्यापी। सर्वेष्वर। निर्गुण, सगुण, निराकार और साकार। शब्द जहां पहंुच नहीं पाते, ऐसे हैं षिव। शब्दातीत। कहते हैं एक भक्त ने उनके बगल में पार्वती की पूजा करने से इन्कार कर दिया। षिव आधा पुरूष आधा नारी यानी अर्धनारीष्वर बन गए। इसीलिए तो आदि शंकराचार्य लिखी षिव लहरी की पंक्तियां जेहन में कौंध रही है, ‘सा रसना ते नयने तावेव करौ स एव कृतकृत्यः। या ये यौ यो भर्गं वदतीक्षेते सदार्चतः स्मरति।।’ वही जिह्म है जो षिव के विषय में बोलती है। वे ही आंखे हें जो षिव को देखती है। वे ही हाथ हैं जो सदा षिव की पूजा करते हैं। वह ही कृतार्थ है जो सदा षिव का स्मरण करता है।
श्रावण शिव का प्रिय मास है। इस मास में शिव से संबंधित किसी भी लीला का वर्णन शास्त्र-पुराणों में नहीं है पर शिव को यही मास प्रिय है। कहते हैं, हिमालय की पुत्री के रूप में जब सती फिर से जन्मी तो श्रावण मास में ही शिव की विधिवत् पूजा-अर्चना की। शिव प्रसन्न हो पुनः पति रूप में उन्हें प्राप्त हो गये। फिर क्या था। श्रावण शिव का प्रिय हो गया। आषुतोष हैं शिव। शीघ्र प्रसन्न जो होते हैं। श्रावण षिव का मास है पर पूजा-पाठ का लम्बा-चौड़ा ताम-झाम करने की जरूरत नहीं है। मन से भजें शिव को, वह त्वरित प्रसन्न हो परम अलभ्य भी सहज दे देंगे। बिना जन्म और बिना अंत के हैं शिव। ईश्वर  की तरह अनंत पर ईश्वर से भी असीमित। देवों के देव महादेव! अर्चना कर रहा है मन, ‘प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप।’