Saturday, September 7, 2019

सुरों के रस का सारंगी गान


पंडित रामनारायण
करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करता तत्वाद्य है सारंगी। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी वहां है। माने कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। कोई कह रहा था, अतीत का ‘सारिंदा’ सारंगी बन गया। राजस्थानी लोकवाद्य ‘रावणहत्था’ से भी इसे प्रायः जोड़ा जाता है। यह जब लिख रहा हूं, पंडित रामनारायण की बजायी सारंगी के सुर ज़हन में बस रहे हैं। राग पीलू ठुमरी। सारंगी के स्वरों का जादू तन-मन को जैसे भीगो रहा है। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सारंगी रच रही है दृश्य की भाषा। ठुमरी के रंग रच गए तो लो अब सारंगी के तारों पर पंडितजी ने राग जोगिया की तान छेड़ दी है। सारंगी जैसे समझा रही है असार संसार का सार। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते सारंगी के सुर। निरवता का गान। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है यह नाद! 
उदयपुर में वह जन्में और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। उस्ताद अमीर खाॅं, गंगूबाई हंगल, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, केसर बाई, बड़े गुलाम अली खां के साथ उन्होंने सारंगी संगत की। यही नहीं, विश्व संगीत हस्तियों यहूदी मेनुहिन, पैब्लो कासाल्स और रास्त्रोपोविच के साथ विश्वभर के मंचों पर उन्होंने सारंगी की प्रस्तुतियां दी। कहें, सारंगी की शास्त्रीय पहचान उनसे ही हुई। वह नहीं होते तो सारंगी कब की हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर  पंडितजी ने सारंगी अपनायी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी गाने लगी। उस्ताद विलायत खां के साथ उनका एलपी रिकाॅर्ड आया। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की। याद करें ‘कश्मीर की कली’ का ‘दिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुरों पर गौर करें। मन करेगा बस उन्हें गुनें। गुनते ही रहें।
पंडित रामनारायणजी की सारंगी में सुरों का अनूठा उजास है। सुनते लगता है, बीन और अंग के आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की बढ़त करते हैं। गज चलाना कोई उनसे सीखे! दोनों हाथों की अंगुलियों का संतुलित संचालन। सारंगी बजाते खुद भी वह जैसे खो जाते हैं और सुनने वालों को सुरों के समन्दर की जैसे सैर कराते हैं। एक लहर आती है, दूर तक बहा ले जाती है। दूसरी आती है और जैसे अपने में समा लेती है। भीगोती, पानी के छींटे डालती हुई। ...सच! पंडित रामनारायणजी की सारंगी बजती नहीं, गाती हुई हममें जैसे सदा के लिए बसती है।
पंडितजी के पास उदयपुर से मुम्बई, लाहौर रेडियो स्टेशन पर स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में कार्य करने और फिर कोठों से निकालकर सारंगी को शास्त्रीयता की पवित्रता के साथ स्थापित करने की ढेरों यादें हैं। यादों का वातायन खुला तो फिर खुलता ही चला गया। कहने लगे, ‘सारंगी अपनायी तो संकट यह भी था कि तब इस वाद्य को बजाने वाले अधिकतर अपनी कला को कोठों में कैद किए हुए थे। सारंगी बाहर तब बजती भी कहां थी! मुझे गर्व है कि कोठों से निकाल मैने इस वाद्य की पवित्रता को फिर से कायम किया। अच्छी सारंगी आज उपलब्ध ही नहीं है। सारंगी युरोप में विकसित हुई। वहां आज भी सारंगी की परम्परा कायम है।’ सही भी है, पंडित रामनारायण ने ही उसे नृत्यांगनाओं के नृत्य मे ंप्रयुक्त संगीत के वाद्यों से निकाल एकल वाद्य के रूप में पहचान दी परन्तु एकल वाद्य के शास्त्रीय कार्यक्रम उनके जितने विदेशों में हुए, उतने भारत में कहां हुए! 
सारंगी वादन की पंडितजी की शुरूआत आॅल इण्डिया रेडियो से हुई। संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘मैं 1944 में रेडियों आर्टिस्ट के रूप में नौकरी लग गया था। उस जमाने में डेढ सौ रूपये तन्खाह थी। कम नही थी, अच्छे से बसर हो जाती। परन्तु रेडियो आर्टिस्ट के रूप में मैने देखा आपको पूरा कार्यक्रम करने को नहीं मिलता। आपका कार्यक्रम काट दिया जाता। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैने सारंगी को ही अपने को समर्पित करने का निर्णय ले लिया-मुझे खुशी है मैं सही था।’ 
गज पकड़ने के अंदाज और उसके संतुलन की विशिष्टता में ही उनके बजायी धुनों की भी याद आने लगती है। उन्हें उनकी बजायी सारंगी की कुछेक रागों की याद दिलाते हुए बातें होती है तो औचक लगने लगता है, वह सारंगी बजाने लगे हैं। उनके बोल भी उनकी बजायी सारंगी की मानिंद होले-होले आगे बढ़ते हैं, ‘गज सारंगी की जुबान है। गज सही से नहीं पकड़ा जाए। उसे साधा नहीं जाए तो सारंगी बोल नहीं सकती। आप खुद ही बताईए, जुबान को ठीक से नहीं चलाया जाए तो गलत भाषा ही निकलेगी ना! इसलिए मैंने सारंगी में सबसे पहले यही काम किया। सारंगी के गज का संतुलन बनाया। गज चलाने के अपने स्तर पर कुछ सिद्धान्त बनाए। गज कैसे और कब चलाना चाहिए, इस पर ध्यान दिया। कहां गज चलाते हुए धीमे हो जाएं, कहां पर तेज-इस सबको अपने स्तर पर संतुलन के रूप में साधा। लोगों के पास रोटी-पानी का गुजारा ही नहीं होता। सारंगी के रंग खोजने की फुर्सत कहां से आएगी! और जब तक खोज नहीं होती रहेगी चीज खत्म होती जाएगी। इसलिए संगीत में खोज होती रहनी चाहिए।’ यह कहते हुए वह गज पकड़ने के बारे में बहुत सी और भी जानकारियां देते है। उनकी सारंगी के बारे में सोचकर यह भी लगता है, सारंगी बजती नहीं गाती है। हजारांे-हजार भावों की अनुभूतियां कराती हुई। सारंगी से जुड़ी बातों का सिलसिला चला तो चलता ही रहा। औचक, बचपन के दिनों और सांरगी की शुरूआत के बारे मंे प्रश्न होता है तो लगता है, अतीत उनकी आखों में तैरने लगा है। वह कहने लगे, ‘मेरी शुरूआत मेरे भाग्य मे थी। मेरे पिताजी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। उन्हीं से मैंने पढ़ने और सारंगी की शिक्षा भी पाई। 
कभी कहीं कोई आलोचना नहीं हुई। देश में ही नहीं विदेशों में उनकी बजायी सारंगी की विशेष पहचान है। कभी सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ यहूदी मेनुहिन ने पंडितजी की सारंगी पर कहा भी, ‘सारंगी भारत का ही नहीं भरतीयता का अधिकृत और वास्तविक नमन करने योग्य वाद्य यंत्र है। पंडित रामनारायण के हाथों सच में वह भारतीय सोच और भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति बहरहाल, पंडित रामनारायणजी देश के एकमात्र ऐसे जीवन्त किवदन्ती सारंगीवादक है जिनकी देता है। वह भारत के महान संगीतज्ञ है।’ पंडितजी सारंगी से अपने को पृथक नहीं पाते। इसीलिए कहते हैं, ‘सारंगी से ही मेरा वजूद है। मेरा तो जो कुछ है, वह यह सारंगी ही है।’ सोचता हूं, पंडितजी नहीं होते तो सारंगी क्या हमें यूं अपने रंगों से रंगती!