Saturday, July 31, 2010

पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति

सभी कलाओं का मूल उद्गम लोक है। भारतीय कलाओं में लोक की अनुगूंज हर ओर, हर छोर है। लोक दृश्यों का वहां अक्षय भंडार जो है। दरअसल यह लोक ही है जो आधुनिक और पारम्परिक कलाओं में आनुष्ठानिक उद्देश्यों और चिन्तन के व्यापक अर्थ समाहित करता है।

बहरहाल, हमारी लोक संस्कृति की जड़े आज भी इतनी हरी है कि यही पूरे देश को एकता के सूत्र मंे बांधे भी रखती है। लोक कलाओं के प्रतीक, बिम्ब और संस्कारों में ही जीवन मूल्यों के हमारे आदर्श निहित हैं। लोक संस्कृति पर लेखन से जुड़ी कमलेश माथुर ने पिछले दिनों अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ जब भेजी तो उसका आस्वाद करते लगा, आधुनिक कलाओं में भी यदि लोक का दर्शन नहीं हो तो वे रूखी-रूखी सी बेस्वादी ही लगेगी। मुझे लगता है, जिन आधुनिक कलाकारो ने लोक संस्कृति की परम्पराआंे को अपने सृजन में परोटा हैं, वे ही अधिक चर्चित हुई हैं। यह सही है कि भौतिकता की भागम-भाग के इस दौर में बहुत से स्तरों पर हमारी इन कलाओं का क्षय भी हुआ है परन्तु स्थान-विशेष के संदर्भ में उनकी महक अभी भी बरकरार है।

बहरहाल, लेखिका कमलेश माथुर लोक संस्कृति के गहरे सरोकारों से जुड़ी रही हैं। लोक कलाओं और परम्पराओं पर बहुविध उनके लेखन में मिट्टी की सौंधी महक को सहज अनुभूत किया जा सकता है। ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ पुस्तक में हालंाकि बहुत सी सामग्री पहले भी आयी हुई है परन्तु ग्रामीण अंचलांे में महिलाओं द्वारा घरों में बनायी जाने वाली मिट्टी की महलनुमा कलाकृतियां विषयक ‘वील’, काष्ठ के चित्ताकर्षक चलते-फिरते देवघर ‘कावड़’, भित्ति चित्रण की ‘पड़’, पारम्परिक ‘थेवा’ आदि कलाओं के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रांे मंे बहुप्रचलित ‘घूरा पूजन’, आदिवासियों से संबद्ध ‘भगोरिया प्रणय पर्व’, ‘गवरी’, आदि की परम्पराओं पर उनके मौलिक लेखन की दीठ भी सहज लुभाती है। उनकी इस पुस्तक में लोक कलाओं के विभिन्न अनछुए पक्ष भी अनायास ही उद्घाटित हुए हैं हालांकि उनकी संक्षिप्तता खटकती भी है। ऐेसे में मन मंे कहीं यह भाव भी अनायास ही आता है कि ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों में लोक से जुड़ी परम्पराओं को सहेजते हुए उनको व्यापक अर्थों में उद्घाटित करने के व्यापक प्रयास हों तो लोक कलाओं, बेषकीमती धरोहर और उससे जुड़ी हमारी संस्कृति का सही मायने में संरक्षण हो सकता है। ‘पारम्परिक कला एवं लोक संस्कृति’ इस संदर्भ में गहरी आष जगाती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 30-07-2010

Friday, July 23, 2010

स्वर, राग और ताल का अनूठा आस्वाद

वाद्य संगीत में स्वर, राग और ताल का कहीं परिपूर्ण मेल है तो वह है बीन में। बीन माने वीणा। तार वाद्यों के सम्पूर्ण संकुल की द्योतक। अव्यवहित आकर्षण में संगीत का समग्रता में सृजन करती हुई। यह वीणा ही है जो शब्दों से परे नाद सौन्दर्य में व्यक्ति और वस्तु के बीच की विसंधि को वीलिन करती है। इसलिए कि प्रकट संगीतीय अभिव्यक्ति कंठ माध्यम की अपेक्षा वीणा अधिक प्रांजल जो है।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों जब अखिल भारतीय रूद्र वीणा समारोह का आयोजन हुआ तो कर्नाटक से आयी देश की पहली महिला रूद्र वीणा वादक ज्योति हेगड़े को सुनते नाद सौन्दर्य को जैसे गहरे से जिया। रूद्र वीणा वादन में वह ध्वनि में अन्र्तनिहित सौन्दर्य की जैसे बढ़त करती है। वह वीणा बजा रही थी परन्तु लग ऐसे रहा था जैसे वह गा रही है। वाद्य संगीत को कंठ संगीत की प्रतिकृति करते वह स्वरों के पूर्ण प्रलंबों और सूक्ष्म गमक में मन को भीतर तक झंकृत करती है। अपनेपन से भरते। राग मीया मल्हार का उनका रूद्र वीणा वादन सुना तो लगा स्वरों की बढ़त में जैसे वह हर बार अपने आपको ही रचती हैं। उनका यह रचना ऐसा है जिसमें संगीतीय अन्तरावधियों की समग्रता को सहज अनुभूत किया जा सकता है। मुझे लगता है, यह रूद्र वीणा ही है जिसमें संगीतीय मुहावरे के साथ-साथ उसकी गति को सुनने वाला अनुभूत कर सकता है। उस पर नजर रख सकता है।

ज्योति हेगड़े ने रूद्र वीणा में अपने आपको पूर्णतः साधा है। गत में लय को क्रमशः बढ़ाते हुए रूद्र वीणा पर चलती उनकी अंगुलियां राग और ताल को एकमेक करती अनूठा रस प्रदान करती है। राग मीया मल्हार में वर्षा की गिरती टप-टप बूंदों को उसने इस करीने से रूद्र वीणा में साधा कि बंद प्रेक्षागृह में भी झमा-झम का अहसास होने लगा। रूद्र वीणा के तारों में जब वह बढ़त कर उसे क्लाइमेक्स पर ले जाती है तो उत्तेजना के विपरीत प्रशांति पर बल देती है। वादन का उनका यह संगीतीय मुहावरा ही उन्हें ओरों से जुदा करता है।

बहरहाल, प्राचीन एवं मध्यकालीन संगीत शास्त्रीय ग्रंथों में अलापिनी, घोष, चित्रा, किन्नरी, सरस्वती वीणा, त्रितंत्री, सार वीणा, नारद वीणा, विपंची और रूद्र वीणा का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। शिव के एक नाम से व्युत्पन्न और शिव द्वारा सृजित होने के कारण रूद्र वीणा बाहर और भीतर से सौन्दर्य की प्रतीक है। इसे सुनते लगता है, वाद्य संगीत अनायास ही शब्दों से परे नाद के शुद्धतर विश्व से साक्षात् कराता है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 23-7-2010

Friday, July 16, 2010

अर्थपूर्ण स्पष्टता में भावों का सघन संचरण

चित्रकला में रंग, रेखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर बिंबो और रूपकों को रचते है। इस दृष्टि से युवा चित्रकार सुरेन्द्र सिंह के चित्रों का कला आकाश विशेष रूप से लुभाता है। उसके चित्रों में रूपकों की तलाश में दृष्टियों की बहुलता है। किसी एक थीम की बजाय एक साथ बहुत से विषयों को कैनवस पर निरूपित करते उसके चित्रों की बड़ी विशेषता यह है कि आकृतिमूलकता में अमूर्तन का रोचक अध्याय है। सद्य बनायी उसकी ‘प्रकृति’ श्रृंखला चित्रों को देखते मुझे लगता है, माध्यम से अधिक आशय की अर्थवत्ता में वह कला की बारीकियों में गया है।

बहरहाल, उसके चित्रों से रू-ब-रू होते यह अहसास स्पष्ट ही होता है कि वह किसी खास संकल्पना और विचार को लेकर कार्य प्रारंभ नहीं करता। जो कुछ हो रहा है, वह उसके कैनवस पर भी वैसे ही घटित होता है। हां, महत्वपूर्ण यह जरूर है कि प्रतिकात्मकता मंे कैनवस पर फूल और पत्तियों के जरिए ही वह संवाद करता है। पार्श्व में हल्के काले रंग को धूसरित करते वह औचक कहीं लाल और कहीं हरे रंगों में अनूठे बिम्बों की सर्जना करता है। एक्रेलिक, ऑयल और जल रंगो के उसके चित्रों में त्रिआयामी प्रभाव भी है। यह ऐसा है जिसमें लोक चित्रो में प्रयुक्त अलंकरण, फूल-पत्तियों की सौरभ तो है ही समकालीन बोध की विशिष्ट अर्थ छवियां भी है। खास बात यह जरूर है कि अमूर्तन होते हुए भी उसके ऐसे चित्रों मे आधुनिकता द्वारा पैदा विभ्रम नहीं है। मुझे लगता है समकालीन सरोकारों के अपने कला बोध में वह अपने चित्रों में प्रकृति और जीवन को सर्वथा नये ढंग से रूपायित करता है। यही उसके चित्रों की वह विशेषता है जो उसे अपने समकालीनों में भी सर्वथा अलग पहचान देता है।

प्रकृति के पंचभुत तत्वों में अग्नि, जल, वायु को अपने चित्रों में केन्द्र में रखते वह कला के गतिशील प्रवाह की सृष्टि भी करता है। कैनवस पर चित्रों का उसका लोक इसलिए भी लुभाता है कि उसमें स्वयंमेव प्रतिष्ठित होने का आग्रह नहीं है। मैटेलिक कलर के पार्श्व में उसके बहुतेरे चित्रों में गहरे से हल्के होते रंगों के बीच उभरते मोर पंख, रंग बिरंगे फूूल और परम्परा बोध के तहत उकेरी गयी पत्तियां में अनुभव का अनूठा भव है। विषय वस्तु में चित्र यहां आकारनिष्ठ हुए भी यहां रूपों को नैसर्गिकता प्रदान करते हैं। ग्राफिक में मटमेले होते रंगों में सुरेन्द्र सिंह के चित्रों में अर्थपूर्ण स्पष्टता और भावों का सघन संचरण है। किसी भी कला का वैशिष्ट्य और उसकी सफलता व्यक्तिगत आनंद की यह समाजगत अनुभूति करा देना ही क्या नहीं है!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 16-07-2010

Friday, July 9, 2010

अविगत गति कछु कहति न आवै...

बारिश की बूंदे मन को गढ़ती है, कुछ रचने के लिए। आसमान से टप-टप गिरती बूंदे जैसे हमें जगाती है-कुछ करने के लिए। इस बार जब बारिश हों तो आप उसे देखें नहीं, उसे सुनें और गुनें। आपको लगेगा प्रकृति गा रही है। प्रकृति के इस मधुर गान में, लगेगा आपके भीतर का कलाकार भी गा रहा है। मन तब जो गाता है, वही अनाहत नाद है। साहित्य, संगीत और कलाओं का अग्रज यह भीतर का हमारा अनाहत नाद। अंर्तध्वनि का प्रतीक यह सधे हुए वाद्य वृन्द की भांति बजता है। यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद के रूप में बज पड़ता है। अनाहद नाद का मूल स्त्रोत हमारी अनुभूति है। प्रकृति को महसूस करने की हमारी दृष्टि है। भावात्मक होने से अव्यक्त यानी अविगत है यह। इसीलिए अनाहत नाद भी अव्यक्त है। कहा भी तो गया है, ‘अविगत गति कछु कहति न आवै।...’

संगीत के इतिहास लेखक सांबमूर्ति कहते हैं, ‘अनाहत नाद को हमे महत्व देना चाहिए। नाद से ही यह समस्त विश्व निनादित जो है।’ सच ही तो कहते हैं सांब! बारिश जब होती है तो मोर बोलते हैं। कोयल गाती है। चिड़ियाएं चहचहाती हैं। प्रकृति मौन में भी अनूठे संगीत का आस्वाद कराने लगती है। कलाकृति प्रकृति के इन गुणों से ही क्या नहीं निकलती!

इस बार की बारिश में मन के भीतर के इस नाद को सुनें। आपको लगेगा आप वह नहीं है जो हैं। आप अपने भीतर के कलाकार को पहचानने लग जाएंगे। आपको लगेगा, आप भी कुछ रच सकते हैं। संगीत, नृत्य, चित्रकलाओं का जन्म आपके भीतर के कलाकार से ही तो होता है। वह प्रकृति से ही तो प्रेरणा ग्रहण करता है। इसीलिए तो हमारे यहां कहा गया है, कलाएं केवल शरण्य ही नहीं हैं। आश्रय भी हैं। जिनमें अपने आपको अभिव्यक्त करते बहा जा सकता है। तैरा जा सकता है। सच्ची कला आपको वहां ले जाती है जहां आप पहले कभी न गए हों।...भले कईं बार वह जानी-पहचानी जगह पर भी ले जाती है परन्तु तब उस स्थान को अप्रत्याशित ढंग से देखने के लिए वह आपको विचलित भी करती है। यह प्रकृति है, बारिश की बूंदे हैं जो परम्पराओं के भान में स्मृतियों का गान कराती है।

आईए, इस बार बारिश को देखें नहीं उसे सुनें भी। इस सुनने मंे जो सुकून है, उसे अनुभूत करें। प्रकृति के अनाहत नाद में बचेगा वही जो रचेगा।...तो आईए, बारिश की बूंदों को रचें। कैनवस पर उकेरे सृष्टि के इस अनुभव के भव को। प्रकृति कितना दे रही है। हम क्या उससे उतना ले रहे हैं!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 9-7-210

Friday, July 2, 2010

कबीर का अनहत नाद, कुमार गंधर्व का गान

चौंसठ  कलाओं में सर्वश्रेष्ठ और पहली कला संगीत है। इसलिए कि यह संगीत ही है जो बगैर किसी मध्यस्थ के सीधे श्रोता के हृदय को स्पर्श करता है। संगीत के हर अलाप में ध्वनि से भावों की व्यंजना की जाती है। कुमार गंधर्व को जब भी सुनता हूं, संगीत के इन गुणों को जीने लगता हूं। मुझे लगता है संगीत के जरिए वह मन के भीतर झांकने का अवसर देते हैं। अशोक वाजपेयी के शब्दों मे कहूं तो वह जब गाते हैं तो समय ही नहीं बल्कि समयातीत भी बोलता है। मित्र सुनीत मुखर्जी के बहाने उनकी गायी कबीर की वाणी ‘उड़ जायगा हंस अकेला...’ फिर से सुनी तो लगा संगीत श्रव्य सुख ही प्रदान नहीं करता मन की आंखों को जगाने का कार्य भी करता है। यह कुमार गंधर्व ही हैं जो श्रव्य में मनःदृश्य का ऐसा आस्वाद कराते हैं।

बहरहाल, कबीर की वाणी अनहत नाद है। अलायदा फक्कड़पन लिए वह जब कहते हैं, ‘गुरू की करनी गुरू जायेगा, चेले की करनी चेला...’ तो जीवन का मर्म गहरे से समझ आने लगता है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। शब्दों का व्यर्थ आडम्बर नहीं। सीधे सपाट जो कहना है, कहा है..और कबीर के शब्दों में कुमार गंधर्व ‘ज्यों की त्यों धर दीनी...’ की तरह संगीत में उसे वैसे ही सुनने वालों के सामने रख देते हैं। शास्त्रीय गान में अमूर्तन से परे कुमार गंधर्व अनूठी वाचिकता प्रदान करते हैं। ऐसी जिसमें मन की आंखे खुल जाती है। तब असार जीवन का जो चित्र उभरता है, उसमें लगता है सारे पड़पंच व्यर्थ है। कर्म गति का गंधर्व गान अलभ्य कलात्मकता से मन के भीतर अनूठा आलोक देता है।

सच! यह कुमार गंधर्व ही हैं जिन्होंने  कबीर की रचनाओं को शास्त्रीय रागरूप प्रदान करते उसके भीतर के मर्म को इस गहराई से छुआ है। सुनने वाला उनके गान में कबीर के फक्कड़पन, दिगंबरत्व को सहज अनुभूत कर सकता है।

कबीर तो लोकोन्मुखी ही थे परन्तु उनकी वाणी का शास्त्रीय संगीत में लोकोन्मुखीकरण करने का कार्य कुमार गंधर्व ने ही किया। अलंकार रहित उनके गान में साजों पर ध्यान नहीं जाता, इसलिए कि वहां उनका गायन प्रमुख है। आरोह-अवरोह के उनके भाव महत्वपूर्ण है। वह कबीर को अपने गान में हृदय की अंतरतम गहराईयों से जीते हैं। कबीर के सीधे सपाट शब्द वहां हैं परन्तु उनके अचूक अर्थों की अनुभूति संगीत स्वतः कराता है। कबीर की वाणी का अनहत नाद ही क्या सृष्टि के संगीत का सच नहीं है!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट"
दिनांक 2-07-2010