Friday, February 22, 2013

रसमय नृत्य की सार्वभौम कला


                       
बैले फ्रांसीसी शब्द है। अर्थ है नृत्य करना। रंगमंचीय परम्परा से भी पहले संभवतः पन्द्रहवीं सदी में फ्रांस, इंगलैण्ड और रूस में समारोह नृत्य शैली के रूप में यह प्रचलन मंे आया। तब बड़े कक्षों में रंगमंचीय परम्परा में यह प्रदर्षित होता। संगीत की सुमधुर ध्वनियों के साथ अद्भुत लोच में लहराते बैले में समय के साथ इधर निरंतर विकास हुआ है। दूसरे बहुत से नृत्यों की शैलियों की आधारभूत तकनीकें इसमें निरंतर सम्मिलित जो होती रही है। 
बहरहाल, जयपुर में श्रुति मंडल नृत्य सम्राट उदयशंकर के नाम पर बैले समारोह अर्से से करता आ रहा है। बैले के साथ उदयषंकर का नाम इसलिए लिया जाता है कि इसमें भारतीयता के रंग उन्हांेने ही भरे। योरोप में पहले पहल वह जब बैले से रू-ब-रू हुए तो उसकी प्रदर्षन भूमिका से वह बेहद प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने भारतीय शास्त्रीय, लोक एवं जनजातीय कथाओं, मिथकों को इस नृत्य में जोड़ कला की सर्वथा नवीनतम स्वरूप की कल्पना की। योरोप में तब नृत्य की उनकी इस शैली को ‘हाई डांस’ कहा गया। बकौल उदयषंकर यह ‘रचनात्मक नृत्य’ था। ऐसा जिसमें भारतीय शास्त्रीय, लोक और जनजातीय नृत्य शैलियों के आधारभूत तत्वों को पष्चिम की बैले नृत्य तकनीक से जोड़ा गया था। रूस की प्रख्यात बैले नर्तकी अन्ना पावलोवा से वह जब मिले तो नृत्य की उनकी कला में क्रांतिकारी बदलाव आयसा। अन्ना तब भारतीय कलाओं के अध्ययन में रत थी। उदयषंकर ने उनके इस अध्ययन में मदद की और उनके साथ ही बाद में लंदन के सुप्रसिद्ध आॅपेरा हाउस में हिन्दु पौराणिक, धार्मिक आख्यानों की युगल प्रस्तुतियां भी की। अंजता, राजपूत, मुगल चित्र शैलियों और पौराणिक आख्यानों  को उन्होंने अपनी इन नृत्य प्र्रस्तुतियों में गहरे से जिया। बैले के साथ वह भारतीय नृत्यों की बारीकी में गए और इसी से नृत्य सम्राट भी कहाए।
अभी बहुत समय नहीं हुआ, वाराणसी जाना हुआ तो एलिस बोनर की कला दृष्टि में उदयषंकर की नृत्य कला से फिर से साक्षात् हुआ। भारत कला भवन में एक कलादीर्घा एलिस के नाम की ही है। इसमें एलिस के उदयषंकर के नृत्य से जुड़ाव और उनकी नृत्य भंगिमाओं के महत्वपूर्ण रेखांकन हैं। एलिस ने ज्यूरिख में वर्ष 1926 मंे उदय शंकर का नृत्य देखा था। बस फिर क्या था! स्विट्जरलैण्ड की यह मूर्तिकार अपनी मूर्तिकला छोड़ उनके नृत्य मंे ही जैसे रच-बस गई। वह लिखती है, ‘मैंने शंकर रचित नृत्य शैली को देखा।  लगा जैसे मन्दिरों की दीवारों पर लगी मूर्तियां सजीव हो उठी हो।’ सच! उदयषंकर का नृत्य ऐसा ही रहा है। पत्नी अमला शंकर के साथ बाद में 1948 में उन्होंने ‘कल्पना’ फिल्म भी निर्मित की। 
उदयषंकर मूलतः राजस्थान के थे। उदयपुर वह जन्मे पर योरोप में ही पले-बढे। उन्हीं की स्मृति में पिछले 18 सालों से श्रुतिमंडल ‘उदयषंकर बैले एवं नृत्य समारोह’ आयोजित करता आ रहा है। आरंभ से ही इससे जुड़े रहे संस्कृतिकर्मी ईष्वरदत्त माथुर बताते हैं, ‘कौषल भार्गव ने इस समारोह की शुरूआत की थी। उदयषंकर के चचेरे भाई सचिन शंकर, पुत्र आनंद शंकर और पुत्री ममता शंकर ने भी यहां प्रस्तुतियां दी।’ अतीत के गलियारों में ले जाते वह श्रीलंका के परफा केईबुल लाम की बैले नृत्य प्रस्तुति को भी याद करते हैं। और यह बताना भी नहीं भुलते कि पहले केवल यह बैले समारोह ही हुआ करता था परन्तु बाद में भारतीय और दूसरी स्थानीय नृत्य प्रस्तुतियों का समावेष भी इसमें होता चला गया और यह ‘उदषंकर बैले एवं नृत्य समारोह’ से जाना जाने लगा। 
बहरहाल, भारतीय नृत्यों के साथ तमाम अन्य भारतीय कलाओं की बहुरंगी छटाओं से उदषंकर ने ही पष्चिम को बैले के जरिए साक्षात् कराया। उनकी याद संजोते श्रुतिमंडल की यह पहल सच में सराहनीय है। रसमय आंगिक क्रिया की सार्वभौम कला ही तो है नृत्य। ऐसे ही करती रहे यह कला बढ़त। आमीन!

Friday, February 15, 2013

मोहे अपने ही रंग में रंग दे


सुगम संगीत माने जिसमें कहीं कोई बंधन नहीं हो। निर्बन्ध। कंठ से सहज निकले सरल स्वर। कहें, लोकप्रिय संगीत। लोकगीत, गजल, भजन सब सुगम संगीत ही तो है। सुनेंगे तो मन करेगा इन्हंे गुनें। लोक जीवन मंे प्रवाहित होकर ही तो आखिर कलाएं शास्त्रबद्ध होती है।
बहरहाल, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् द्वारा जवाहर कला केन्द्र में कुछ दिन पहले की एक सांझ सुगम संगीत को समर्पित थी। गायिका थी संगीता आर्य। उनकी सुमधुर गायकी में अभी भी मन जैसे बसा हुआ ही है। सुना उन्हें पहले भी है परन्तु इस बार जब सुना तो लगा, उनके स्वर माधुर्य में गजब की बढ़त है। बढ़त माने विस्तार। गजल, भजन और लोकगीतों के गान में स्वर भंगिमाओं की वहां अद्भुत वैविध्यता है। कहूं, सुरों की वह मौलिकता जिसमें सहज गीत, गजल के शब्दों में निहित भावों को जिया गया था। अमीर खुसरो की रचना ‘मोहे अपने ही रंग में रंग दे..’ जब संगीता गा रही थी तो लगा संगीत मन में भी कहीं गहरे से घट रहा है। यह भीतर का अनगढ है। कईं बार भले सुर बाहर नहीं आते परन्तु मन गाता है। सुरों की गहराई की यही तो अध्यात्म की हिलारें है। संगीता का गान भीतर की इन हिलोरों को जैसे बाहर लाता है। मुझे लगता है, यह हमारा संगीत ही है जिसमें तन और मन किसी के गायन से इस तरह से स्पन्दित होता है। यह संगीत ही तो है जो भीतर के हमारे भव को लयबद्ध करता है। अनंत की वाणी, अनंत के शब्दों का उजास। कहीं पढ़ा हुआ, ओषो का कहा याद आ रहा है। एक स्वर को दूसरे स्वर से जोड़ने वाला बीच का सेतु है संगीत। संगीता आर्य यही तो करती है। शास्त्रीय रागों को लोक संगीत से, लोक संगीत को जन-जन से स्वर दर स्वर जोड़ती है। संगीत का नया मुहावरा गढ़ते। आरोह-अवरोह में श्वास को साधते। कहीं कोई सुर वहां छूटता नहीं लगता। कभी उनके स्वरों में लोकगीत ‘नीम्बूड़ा’ सुना था। लगा, शब्द को लयबद्ध करती वह अनूठी लय अंवेरती है। आरोह से त्वरित अवरोह। अवरोह से त्वरित आरोह। 
बहरहाल, सुन रहा हूं। इन्हीं सुरों में वह गा रही है, ‘ऋतू राग रंग बरसाए...’, ‘सब जुदा सा लगता है...’ और सदाबहार राजस्थानी लोक गीत ‘केसरिया बालम...’। सुर जैसे गहने पहन श्रृंगार कर रहे हैं। छोटी-छोटी तानें। मुरकियां। 
संगीता आर्य के गाये लोकगीत मन को स्पन्दित करते हैं। ‘चिरमी’, ‘चैमासो’, ‘बन्ना’, ‘केसरिया बालम’ में राजस्थान की माटी की सहज सौंधी महक। लोक वेदना का मर्म। सुरीलेपन में शब्द के अन्र्तनिहित की साधना। गान में शब्दों का सागीतिक उजास। भावनाओं का अनुठा भव। जहन में गांव, गांव की संस्कृति से साक्षात्। तरूण पंवार के संगीत निर्देषन में संगीता का गाया ‘छोटी सी उमर परणाई रै बाबोसा...’ को याद करता हूं। अद्भुत स्वर माधुर्य। सुनेंगे तो लगेगा, वेदना से उपजे इस उलाहने में भीतर का दर्द जैसे स्वरों से छलक-छलक बाहर आ रहा है। सुना इसे दूसरे स्वरों मे पहले भी था परन्तु संगीता आर्य की साफ आवाज और स्वरों का सहज प्रवाह मन मंे घर करता है। शायइ इसलिए की धोरों की धरा, उसके परिवेष की सहज लय वहां अंवेरी गयी है। यही क्यों, सुगम संगीत में और दूसरे गीत, गजल भी संगीता के सुरों में सुनते मन करता है-उनमें रचें, वहीं बसें। वहां परम्परा के सहज रंग जो हैं! संगीत के रंगों में इसीलिए तो संगीता आर्य ‘ओळ्यू’ की संवाहक बनती राजस्थान की वैविध्यपूर्ण संस्कृति की अपने तई ‘ओळख’ कराती है। आप क्या कहेंगे!

Friday, February 8, 2013

चिन्तन में संगीत


लय एवं ताल का व्यवस्थित रूप है संगीत। संगीत रत्नाकर के अनुसार गीत, वाद्य और नृत्य का समुच्य ही संगीत है। कहते हैं, ‘सम्यक् प्रकारेण यद् गीयते तत्संगीतम्’ माने संगीत वह जिसे सम्यक् प्रकार से गाया जा सके।  वह कला जिसमें स्वर और लय के जरिये भावों को प्रकट किया जाए। संस्कृति-निष्ठ ही तो है संगीत। इसलिए कि यह हमारी संस्कृति की पहचान कराता है। शायद इसीलिए संस्कृति पर चिन्तन को साथ लिए ही संगीत का विमर्ष हमारे यहां आगे बढ़ा है। कला की दृष्टि से संगीत पर संस्कृति से पृथक चिन्तन नहीं के बराबर हुआ है। इस दृष्टि से मुकुन्द लाठ से संवाद संगीत के अनूठे अनभव भव में ले जाता है। वह संगीत के मर्मज्ञ हैं और कईं अर्थों में देष के एक मात्र आधिकारिक विद्वान भी। पंडित जसराज के षिष्य होने के साथ ही वह संगीत के विरल शब्द साधक हैं। उनके चिंन्तन में संगीत की परम्परागत अवधारणाओं की बजाय विचार की बढ़त है। राग, धुन, आलाप की संगीत शब्दावली के सैद्धान्तिक पक्ष की बजाय वह उसके वैचारिक अन्र्तनिहित में जाते चिन्तन का नया आलोक जो देते हैं। 
बहरहाल, अभी बहुत दिन नहीं हुए। याद करता हूं, वह भोर उत्सवधर्मी थी। यह मुकुन्दजी के निवास की भोर थी। उनका निवास भी निवास कहां है! संस्कृति का अनमोल खजाना है। देष-विदेष के कलाकारांे की कलाकृतियां। पुस्तकें। संगीत वाद्य और संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं का दुर्लभ संग्रह। उनके इस संस्कृति घर में उस भोर कला-संस्कृति से जुड़े बहुतेरे हम लोग जमा थे। अधिकतर विदेषी चेहरे। कुछ मुकुन्दजी के संगीत चिन्तन पर शोधरत तो कुछ स्वयं उनके षिष्य। मुकुन्दजी की धर्मपत्नी नीरजा लाठ अपनापे से स्वागतातुर। पता चला, कुछ खास नहीं बस ऐसे ही बतियाने, मिलने-मिलाने के लिए ही सभी को याद किया गया है। ऐसा भी होता है! सुखद। छायाकार मित्र महेष स्वामी के साथ के साथ मुकुन्दजी से हुए संवाद को गहरे से जिया गया।
मुकुन्दजी संगीत शब्द साधक हैं। संगीत को शब्द से साधने वाले। बेहद संकोची। अपने बारे में कुछ बताते, संगीतविद् कहाते संकोच में गड़ जाते हैं। पर संगीत के वह अद्भुत विचार संवाहक हैं। बातें हुई तो कहने लगे, ‘सामगान हमारा सबसे प्राचीन संगीत ही नहीं, परवर्ती राग-संगीत का जनक भी है। पर साम धुन है, और राग धुन से बिल्कुल अलग। यह कहते वह धुन की अपने तई जो व्याख्या करते हैं उसमें हमारे संस्कार जैसे आंखों के समक्ष घुमने लगते हैं। यह वह संस्कार हैं, जिन्हें बरतते बरतते ही हम बहुत से स्तरों पर धुन के स्वयमेव सर्जक हो जाते हैं। उन्हें सुनते औचक लगता है, संगीत जीवन से जुड़ा राग ही तो है! ऐसे ही आलाप की उनकी व्याख्या देखें, ‘आलाप का अर्थ है बदल-बदल कर बढ़ना। स्वरों के नये नये बनाव, नई उपज, नये विस्तार, चलने के नये रास्ते, इन पर चलना। आलाप की इस व्याख्या के साथ ही वह स्वरों की संगति में संगीत की तलाष करते हैं। कहते हैं, ‘स्वरों की अपनी संगति में, संगीत की अपनी मर्यादाओं और संभावनाओं में, हम औचित्य की कसौटियों की खोज कर सकते हैं।’ 
बहरहाल, हमारे यहां संगीत सुनते तो उसे गुना गया है परन्तु चिन्तन में संगीत कहीं नहीं दिखता। मुकुन्दजी इसे दिखाते हैं। वह संगीत को परम्परागत सैद्धान्तिक दायरों से बाहर निकाल उसमें विचार के नए उन्मेष जगाते हैं। काव्य संग्रह ‘अनरहनी रहने दो’ की एक कविता में संगीत-नृत्य को अंवेरते वह लिखते हैं, ‘...नृत्य के पूरे वलय का/देह-घेरे, देह बाहर/जागता है अंगहार/नृत्य के आकाष में/अनदिख/हमारे देखने के शून्य भीतर/नाचता है..।’ आपको नहीं लगता, संगीत चिन्तन की उनकी इस चेतना, मीमांसा में अनुभव की अद्भुत व्याख्या है! 

Friday, February 1, 2013

सरोद में माधुर्य रस की वर्षा


कानों से होता हुआ संगीत मन तक पहुंचता है। लय और ताल में बंधा स्वर प्रवाह वहां जो है! कालिदास इसीलिए तो कहते हैं, ‘अहो रागबद्ध चित्तवृति आलिखित इव सर्वतो रंगः’ माने राग के माधुर्य से हृदय आकर्षित होने से श्रोता चित्रलिखित-से निश्चल बैठे रहते हैं। सच ही तो है, आरोह-अवरोह का नादब्रह्म है संगीत। जवाहर कला केन्द्र में बुधवार सांय उस्ताद अल्लादिया खां शास्त्रीय संगीत समारोह में पंडित बसन्त काबरा जब अपनी प्रस्तुति दे रहे थे तो तारों से कंपित उनके सरोद वादन में ही मन जैसे बस गया। 
पहुंचा तो, सरोद के तारों पर पंडित काबरा राग श्री की तान छेडने लगे थे। माधुर्य का अद्भुत प्रवाह तन-मन को झंकृत करने लगा। लगा, प्रार्थना के स्वर बढ़त कर रहे हैं। चहुंदिशा में गूंजायमान होते। आलाप के साथ खिलने लगा राग। ऐसे जैसे कली से शनै शनै खिल रहा हो फूल। पंखूरी दर पंखूरी झरता। तारों से उपजा गान। सरोद में स्वयं भी लीन हो पंडित काबरा सुनने वालों को सुरों की यात्रा कराने लगे। मींड और गमक में राग का विलम्बित लय में विस्तार। ...आलाप, जोड़, झाला, झपताल। धीरे-धीरे आरोह-अवरोह में बढ़ता सप्तक का कारवां। तंत्रकारी के साथ गायकी अंग का अद्भुत सुरीलापन। संगीत में रचता-बसता मन। राग श्री में पंडित काबरा जैसे प्रभु अर्चना कर रहे हैं। तेजी से चलती उनकी अंगुलियां। तारों में कंपन्न की दूर तक ले जाती सम्मोहक गूंज। मंदिर में जैसे आरती की धुन। बढ़ती हुई। औचक, काबरा के सरोद में एक नहीं अनेक वाद्यों की ध्वनियां जैसे निनादित होने लगी। घंटियां। ढोल-मंजिरे। प्रार्थना स्वरों का अनुष्ठान। स्वरों का पवित्र सौन्दर्य! 
मुझे लगता है, पंडित बसन्त काबरा सरोद में मार्धुय की अद्भुत सर्जना करते हैं! सरोद सुनते लगता है, संगंीत जीवनानुराग है। जीवन की नश्वरता का भान कराता ईश्वर की अर्चना को प्रेरित करता। यह संगीत ही है जिसमें ईश्वर से साक्षात् की अनुभूति होती है। फिर, राग श्री तो संगीत के आदि देव भगवान शिव से जुड़ा राग है। मोह-माया से मुक्त करता। आनंद की अनुभूति कराता। गुरू ग्रंथ साहब में कुल 31 राग है और वहां ‘राग श्री’ ही सबसे पहले आता है। नानक, गुरू रामदास, गुरू अर्जुन आदि ने इसी को आधार बना सबद गान किया। 
सरोद के साथ तबले पर उस्ताद अकरम खान की संगत भी कम प्रभावी नहीं थी। लय-ताल का सांगोपांग मेल। पंडित जी ने राग श्री के बाद राग मिश्र पीलू का वादन किया। स्वरों की अद्भुत रंजकता। मन को आंदोलित करती। रूपक मध्यलय में गत बजा जैसे उन्होंने राग मिश्र पीलू में उत्सव का आगाज किया। एक में घुला दूसरा। दूसरे में तीसरा। तीसरे में चैथा...। परस्पर घुलते, मोहकता का जादू बिखेरते सरोद के स्वर। संगीत की कभी न भुला देने वाली यात्रा। झूला। झरने। नदी। पहाड़ों के रास्ते। भांत-भांत के खिले फूल। पानी के बूलबूलों सा होता मन।...और फिर लोरीनुमा होले-होले थपकियां। सच! संगीत मन को अवर्णीय यात्रा कराता है। वहां ले जाता है जहां चाहकर भी कोई नहीं जा सकता। माधुर्य के आह्वान का अनुष्ठान है संगीत। सरोद वादन करते काबरा संगीत तत्व के बोल और झाला का अद्भुत निभाव करते हैं। मुझे लगतां है, बगैर किसी दिखावे के उन्होंने सरोद में अपने को साधा है। बाद में जब संवाद हुआ तो उनकी सहजता और संकोच में डूबी विनम्रता में ही राग रंग को अपने तई गुना।
बहरहाल, प्राचीनतम वाद्य है सरोद। रबाब का परिस्कृत रूप। कहते हैं ईरान-अफगानिस्तान के रास्ते कभी यह भारत आया। और पंडित बसन्त काबरा का सरोद तो माधुर्य रस की जैसे वर्षा करता है। संगीत से अपनापा कराता। चाहकर भी उनके सुने को कोई बिसरा सकता है!