Sunday, March 24, 2013

दृश्य संवेदना की सौन्दर्य सर्जना

शिवजी के छाया-चित्र 

कलाएं भीतर की हमारी संवेदना को चक्षु देती है। बहुतेरी बार वस्तुएं, दृष्य और अवस्थाएं ठीक हमारे सामने होती है परन्तु उन्हें हम खुली आंखो से भी देख नहीं पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं। कला की दीठ संवेदना के जो चक्षु देती है, उसी से तब बात बनती है। छायाकंन की ही बात करें। वहा यथार्थ का सादृश्य ही तो कैमरा दिखाता है परन्तु उसे बरतने वाला यदि कलाकार है तो वह दृश्य में निहित उस सौन्दर्य से भी हमारा साक्षात् करा देता है, जो नंगी आंखों से चाहकर भी हम देख नहीं पाते हैं।
बहरहाल, शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’ देश के प्रख्यात छायाचित्रकार हैं। कुछ दिन पहले वह जब जयपुर में थे तो उनके छायाचित्रों से साक्षात्कार हुआ। संवाद भी हुआ। लगा, छायाचित्रों में वह दृश्य की संवेदना में जाकर उसमें निहित सौन्दर्य को वह पकड़ते हैं। मसलन बहुतेरी बार वस्तुएं,  दृष्य और अवस्थाएं ठीक हमारे सामने होती है परन्तु उन्हें हम समझ नहीं पाते हैं। षिवजी अपने छायाचित्रों से हमें जैसे वह अवस्थाएं समझाते हैं। ऐसे बहुत से उनके छायाचित्रों में से एक है, मंदिर मे हुई आरती के बाद का। आरती होने के बाद बहुत सारे हाथ एक साथ आरती लेने को उत्सुक है। पाष्र्व में आरती और उसको लेने को खड़े हाथ। इसे देखते मंदिर में होती आरती जैसे हमारी आंखों के समक्ष जीवनत हो उठती है। रोजमर्रा में ऐसे बहुत से दृष्यों से हम साझा होते हैं परन्तु उनमे निहित इस प्रकार की संवेदना को हम क्या पकड़ पाते हैं! ऐसे ही एक छायाचित्र है, ऊपर श्वेतिमा ओढ़े पहाड़, नीचे हरितिमा से आच्छादित धरित्रि और दाहिने-बांये छितराए बादल। गौर करता हूं तो पाता हूं, हिन्दुस्तान का नक्षा मांड दिया गया है। षिवजी ने यह छायाचित्र बद्रीनाथ मंदिर के ठीक सामने दूर छोटी पहाड़ी पर औचक उभरते से भारत के नक्षे सरीखे लगते दृष्य को अनुभूत कर लिया था।  हिमाच्छादित पहाड़ी और इर्द-गिर्द छाए बादल और हरियाली का काॅन्ट्रास्ट। दृष्य में उभरी छायाकंन की इस भरपूर संभावना को एक संवेदनषील कलाकार मन ही पकड़ सकता है! 
ऐसा ही एक और छायाचित्र है, बारिष में भीगते जोधपुर के ऐतिहासिक दुर्ग मेहरानगढ़ का। पत्थरीली चट्टान पर मेहरानगढ़ वर्षा की बूंदों से भीग रहा है। उजाड़ की निरवता में सौन्दर्य कहां! सो भीगते मेहरानगढ के इस दृष्य को पाष्र्व में करते गुलाबी चुनर ओढ खड़ी महिला को इसका हिस्सा बना दिया। घटाटोप छाए बादल, बारिष, पहाड़ी पर मूक भीगता पाषाण दुर्ग और इस सबके विरोधाभाष में चटख रंग की चुनर ओढ़े महिला। छायाचित्र देखते लगता है, औचक इतिहास फीज़ा से रंगीन हो हमसे बतियाने लगा है। 
शिवजी का कैमरा दृष्य में निहित गति को भी गहरे से पकड़ता है। एक चित्र में  हाथ से रिक्षा चलाता व्यक्ति तेजी से रिक्षे को भगाए लिए जा रहा है परन्तु न तो दृष्य में रिक्षा स्पष्ट है और न ही उसे भागते हुए ले जाने वाला व्यक्ति। है तो बस गतिमान आकृतियों की धूंध। प्रेत सरीखा कुछ। कैमरे की भाषा में ये पैनिक इफेक्ट है। आदमी नहीं उसक प्रतिछाया जैसे दृष्य में भागी जा रही है। दृष्य का छाया में यही तो रूपान्तरण है। मुझे लगता है,षिवजी अपने छायाचित्रों में समय की गति को अपने तई रूपान्तरित करते हैं। इसलिए कि उनके छायाचित्रों में गति के साथ जीवन की सूक्ष्म अभिव्यंजना हुई है। वह वस्तुओं के प्रेत की गहराई में जाते उनसे हमारा नाता कराते हैं। इसलिए उनके चित्रों में पहाड़ ही नहीं पहाड़ों में औचक छितराकर आने वाले बादल, धूंध, धुंआ, अदृष्य ताप, दौड़ती-भागती जिन्दगी के दृष्यों का पल में होता लोप भी हमसे जैसे बतियाता है। 

Friday, March 15, 2013

छायाकला आकाश


छायाकार दिखाई दे रहे रूप को अपने तई अर्थपूर्ण बनाता है। वह यथार्थ का अपने कैमरे से रूपान्तरण ही नहीं करता बल्कि उसमें छिपे रंग, स्पेस, रेखाओं के जरिए तमाम कलात्मक संभावनाओं का आकाष हमारे समक्ष खोलता है। औचक ज़हन में कईं प्रष्न घुमड़ने लगे हैं। शब्द प्रकाष को चाह कर भी क्या पकड़ पाते हैं? गति को चाह कर भी क्या व्यंजित कर पाते हैं? झरने के झर-झर, पानी के उथलेपन को ठीक वैसे ही क्या जता पाते हैं? नहीं ना! परन्तु छायाकला में यह सब संभव है। इसलिए कि वहां छायाकार दृष्य की छवि अंकित करने के साथ अनुभूति के उस अपूर्व का भी रूपान्तरण कर रहा होता है, जिस तक शब्द चाहकर भी पहुंच नहीं पाते। मुझे लगता है, छायांकन चित्रों की मूक भाषा है। ऐसी जिसे हर कोई समझ सकता है। छवि को अंकित करते छायाकार वहां कैमरे का ही सहारा नहीं ले रहा होता बल्कि मनष्चक्षु से दिख रही छवियों को अपने तई पुर्नसृजित भी कर रहा होता है। वह दृष्य के साथ उसके अनूठे सौन्दर्यबोध से भी हमारा नाता जो करा रहा होता है! 

बहरहाल, मालवीय नेषनल इन्स्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलोजी की फोटोग्राफी क्लब क्रिएटिव सोसायटी संभवतः देष का पहला ऐसा उद्यम कहा जा सकता है जो विद्यार्थियों को छायाकंन के जरिए कला संवेदनाओं से गहरे से जोड़ता है। सर्वाधिक सक्रिय क्लब। इस मायने में कि हर वर्ष इसके अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर की फोटोग्राफी प्रदर्षनी के साथ प्रतिस्पद्र्धा आयोजित होती है। क्लब की सक्रियता और आयोजनधर्मिता के पीछे जिस संवेदनषील कला शख्स की अहम भूमिका है, वह है चर्चित छायाकार महेष स्वामी। महेष छायांकन को कला संवेदना से जोड़ने के उपक्रमों में जुनून की हद तक अपने को एक प्रकार से झोंके हुए हैं।  मालवीय संस्थान के फोटोग्राफी क्लब के अंतर्गत देष के भिन्न-भिन्न  प्रांतों के विद्यार्थियों की छायाकला प्रदर्षनी के साथ विषयवार छायाचित्रों से चुनिंदा का चयन कर उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। खास बात यह कि यह क्लब पूर्णतः स्वप्रेरणा से कार्य करती है। फोटो प्रदर्षनी के आयोजन से लेकर उसके समापन तक की तमाम औपचारिकताओं में विद्यार्थी ही प्रमुख होते हैं और उनकी इस भूमिका को पंख दे रहे होते हैं, क्लब के सलाहकार महेष। इस बार स्वामी के प्रयासों से नई पहल यह भी हुई कि देष के सुप्रसिद्ध छायाकार षिवनारायण जोषी ‘षिवजी’ विद्यार्थियों से रू-ब-रू हो सके। महेष के आग्रह पर प्रदर्षनी समापन पर खाकसार ने भी विद्यार्थियों से संवाद किया। सुखद लगा यह अनुभूत कर कि तकनीकी षिक्षा के छात्र-छात्राएं कलाओं के मर्म की गहराई में जाना चाहते हैं। संवाद में इन पंक्तियों के लेखक ने प्रस्तावित भी किया कि रोजमर्रा के जीवन से दृष्यों को हम छायाकला में जीएं। दृष्य में निहित  संवेदना को पकडें़, दृष्य में निहित गति के अदृष्य को छूएं। इसी से वस्तुओं के प्रेत हमसे बतियाएंगे। यथार्थ स्मृतियों में रूपान्तरित होकर हमसे संवाद करेगा। 

ब्हरहाल, छायाकला वह दर्पण जिसमें झांकने वाला स्वयं ही प्रतिबिम्बित होता है। आरोन शोर्फ ने अपनी पुस्तक ‘आर्ट एंड फोटोग्राफी’ और आल्फ्रेड स्टाइग्लिट्ज ने अपनी पत्रिका ‘कैमरा वर्क’ के जरिए कभी छायाकंन को कला का स्थान दिलाने की नींव रखी थी। आज तमाम दूसरे माध्यमों में छायाकंन की कला भूमिका साफ दिखाई दे रही है। क्या ही अच्छा हो, मालवीय नेषनल इन्स्टीट्यूट आॅफ टेकनोलोजी  के फोटोग्राफी क्लब के संरक्षक और वहां के सृजनषील निदेषक प्रो. आई.के. भट्ट छायांकन से संबंधित कुछ व्याख्यान तमाम अपने छात्र समुदाय के लिए आयोजित करे। तकनीकी षिक्षण संस्थाओं में इस तरह की पहल इसलिए भी जरूरी है कि इसी से छात्र भविष्य के संवेदनषील अभियंता के रूप में समाज को अपूर्व दिषा दे सकने मंे समर्थ हो सकेंगे।

Saturday, March 9, 2013

संस्कृति का अनहद नाद


नीरज गोस्वामी कैनवस पर रंगो और रेखाओं का अनूठा भव रचते हैं। कैनवस पर म्यूरलनुमा संरचनाओं में वह एक प्रकार से सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद अपनी कला में करते हैं। उनका कैनवस अतीत की स्मृतियां कराता है परन्तु यह खण्डहरनुमा नहीं है, रंग संगति में रेखाओं के उजास में यह भविष्य की बुनघट है। काल को ध्वनित करते उनके चित्र कोई कथा, कोई व्यथा या दृष्टांत के औचक ही संवाहक बनते हैं। हम उन्हें देखते हंै और समय के, परिवेश के संदर्भ अपने आप ही हमसे तब जुड़ने लग जाते हैं। 
बहरहाल, केन्द्रीय ललित कला अकादेमी ने कुछ दिन पूर्व ही अजमेर में राष्ट्रीय कला शिविर का आयोजन किया था। इस शिविर में नीरज गोस्वामी के चित्रों से जब साक्षात् हुआ तो लगा, वह जो बनाते हैं, उसमें रंग और रेखाओं के उजास के साथ शिल्प का माधुर्य है। अलंकारिक वस्तुनिष्ठ चित्रों को वह हमारे समक्ष रखते आकृतियों से अपनापा कराते हैं। कैनवस पर व्यक्ति और वस्तुओं के रहस्यमय अस्तित्व को वह जैसे अपने तई उद्घाटित करते हैं। 
नीरज की कला का आस्वाद करते मार्शल मैक्लुहान के उस कहे की औचक याद हो आती है जिसमें उन्होंने शिल्प विज्ञान को मानव के मस्तिष्क और हाथों की क्षमता बढ़ाने की बात कही थी। सोचता हूं, शिल्प व्यक्ति की सोच में बढ़त करता है। माने शिल्पी जब कुछ गढ़ रहा होता है तो वह केवल मूर्ति की आकृति ही नहीं  स्वयं अपने को भी गढ़ रहा होता है। शिल्पी के मन की थाह कहां कोई ले सका है! अजन्ता, एलोरा और कोर्णार्क के साथ तमाम हमारे शिल्प पर जाते हैं तो लगता है शिल्पी पत्थर पर आकृतियो को गढते संगीत, नृत्य और चित्रकला को भी अपने तई जी ही तो रहा होता है। इस दीठ से नीरज रेखाओं और रंगों में शिल्प की गढ़त करते हैं। यह गढ़त ही उनकी कला की बढ़त है।  वहां दृश्य की शिल्प सिराओं को सहज पकड़ा जा सकता है। 
दृश्य सौन्दर्य में वहां लोक कलाओं का उजास है, माया सभ्यता की समृद्ध संस्कृति वहां उद्घाटित होती है तो भारतीय शिल्पकला का माधुर्य भी वहां है। रेखीय संरचनाओं का ज्यामीतिय आयाम लिए नीरज की कलाकृतियां सुनहरे आवरण में ढकी देखने के हमारे सौन्दर्य प्रतिमानों को सवाया करती है। उनके चित्र देखते कलाकृतियों को देखने का हमारा एकरसता का ढंग बदल जाता है। औचक, लगता है-कला का एक सौन्दर्य प्रतिमान यह भी है। 
मातिस के चित्रों की मानिंद नीरज के चित्रों में प्रकाश के स्थान पर रंगो का समरूप प्रयोग भी अद्भुत है। रंगो से वह अवकाश की रचना करते संयोजन और अंकन की सहज सरलता पर अनायास ही जाते लगते हैं। उनके चित्रों से साक्षात् होते बार-बार यह अहसास भी होता है कि जो कुछ वह बनाते हैं, उसमें स्वयं की उनकी आत्मिक अभिव्यक्ति है। वहां परम्परा है परन्तु वह जड़ रूप में नहीं। आधुनिकता है पर वह प्रदर्शन की चमक लिए नहीं। सौम्यत्या में व्यक्ति-वस्तु के बाह्य रूप से आन्तरिक सत्य का साक्षात् कराते उनके चित्र आकारों के सरलीकरण के साथ उनमें निहित सौन्दर्य से मन में गहरे से बसते हैं। मैक्सिन भित्ति-चित्रण में जन भावनाओं की अभिव्यक्ति में योरपीय पच्चीकारी से लेकर अर्नुवो शैली का जिस तरह से सहारा रिवेरा, ओरोस्को आदि कलाकारों ने लिया, ठीक उसी तरह से नीरज के चित्रों में भारतीय शिल्प, यहां के मिनिएचर, अध्यात्मक की परम्परा, ध्यान आदि का सम्मिश्रण है। नीरज के चित्रों में स्मृतियों की व्याकुलता है परन्तु वह ऐसी है जिसमें किसी प्रकार की छटपटाहट और भागमभाग नहीं है। शांत! चित्रों में ध्यान के साथ भीतर के ज्ञान का जैसे चित्र दर चित्र वह प्रवाह करते हैं।