Monday, April 30, 2012

अंतर्मन संवेदना जगाते चित्र



कला का यह वह दौर है जिसमें कैनवस पर प्रयोगधर्मिता  का ताना-बाना बुनने की होड़ मची है तो संस्थापन में अचम्भित करने की। मानव मन संवेदना के साथ कला की सहज सौन्दर्य सृष्टि इसी से बहुतेरे स्तरों पर तिरोहित भी हो रही है। माने संवेदना से स्वतः होने वाली अभिव्यक्ति की बजाय कला प्रयासों की यांत्रिकता में गुम हो रही है। सब ओर इसी एकरसता को जैसे जिया जा रहा है। 
बहरहाल, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में युवा कलाकार मालचन्द पारीक के चित्रों से रू-ब-रू होते सुखद लगा। बंधी-बंधायी चित्र परम्परा की बजाय वहां अंतर्मन संवेदना को सर्वथा नये ढंग से उजागर जो किया गया था। प्रयोगधर्मिता परन्तु खाली प्रयोग के लिये ही नहीं। विषय-वस्तु की संवेदना भी वहां थी। मिश्रित माध्यम के पारीक के चित्रकर्म में भीतर की उसकी संवेदना का उजास तो है ही अभिव्यक्ति व विषुद्ध सौन्दर्य की खोज के बीच का द्वन्द भी दिखाई दिया। इसी से रूपायित ‘क्रांकीट जंगल’ की उसकी चित्र श्रृंखला देखने के बाद भी जेहन में बसती है।
बढ़ती आबादी के साथ कटते जंगल और उस पर इमारतों का खड़ा होता क्रांकीट संसार इन चित्रों के केन्द्र में है। खास बात यह है कि मालचन्द ने आत्मिक अनुभूति में जीवन के बदलते ढर्रे और तेजी से आ रहे बदलाव को सर्जन में गहरे से सहेजा है। शहरों की मॉल और फ्लेट संस्कृति पर एक प्रकार से अपनी कला से प्रष्न भी खड़े किये है। प्रष्न यह कि किस किमत पर हम इस संस्कृति के रहनुमा बन रहे हैं? प्रष्न यह कि सुकून का हमारा मापदंड क्या आधुनिक सुख सुविधाएं ही हैं? प्रष्न यह कि जंगल साफ कर अदेखे आकाष में हम कौनसे सपने चुन रहे हैं? तमाम उसके चित्रों का आस्वाद करते ऐसे ही सवाल और जेहन में कौंधते हैं। मुझे लगता है, चित्र सर्जन की यही वह मुखरता होनी चाहिए जिसमें दृष्य हमसे संवाद करे, भीतर की हमारी संवेदना को जगाए।
मालचन्द के चित्राकाष में खूबसूरत इमारतों में एक के ऊपर दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी और भी बहुत सी और खड़ी मंजिलों में गुम होते आकाष में वस्तुनिरपेक्ष रूप में विचारों का अनूठा प्रवाह है। इस प्रवाह में भौतिकता की दौड़ में तेजी से आ रहे मूल्यों के बदलाव को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। बाह्य रूप के सादृष्य में प्रतीकात्मक रूप मंे सौन्दर्य की अनूठी सृष्टि यहां है तो प्रकृति के गुम होते मूल्यों का रूदन भी है। ‘क्रांकीट जंगल’ श्रृंखला का रंग लोक भी अनूठा है। गहरे, हल्के और धूसरित के रंग बिम्ब। जल रंग, तेलीय, एक्रेलिंग का मिश्र प्रयोग। ज्यामीतिय संरचना में विषय-वस्तु के सूक्ष्म चितराम के अंतर्गत अंतर्मन संवेदना को इनमें गहरे से जिया जो गया है।
बहरहाल, मालचन्द के इन चित्रों को देखते हुए जेहन में वस्तु चित्रकार शार्द की याद आती है तो पौल सेजान के बनाए चित्र भीं औचक कोंधने लगते हैं। इसलिये कि दृष्य प्रभाव के साथ ही रूप तत्व को भी उसके चित्रों में तीव्रता से अनुभूत किया जा सकता है। मसलन बहुमंजिला एक इमारत के चित्र में मरे हुए शेर की खाल केन्द्र में है, पार्ष्व में जंगली जीवों के सफाया किये जाने के तमाम औजार आधुनिकता की चकाचौंध से झांकते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे ही फिष एक्वेरियम, गोल्डन मेमरी, एडजस्टेबल हैप्पीनेस, चेंज द हाउस, इट्स एनफ आदि चित्रों में जंगल काट बनायी इमारतों, बिजली के बेतरतीब झुलते तारों, होर्डिंग्स के बहाने जीवन के उस सच को मुखरित किया गया है जिसमें प्रकृति से दूर जीवन में यांत्रिकता का अनायास वरण हो रहा है।  
इन चित्रों को देखते कहीं पढ़ा औचक याद आ रहा है, ‘कला वास्तव के नैसर्गिक दृष्य रूप व काल्पनिक प्रतिकात्मक रूप के बीच घड़ी के  लंगर के समान झूलती रहती है।’ 


Sunday, April 22, 2012

आलागीला और पक्षी चित्रण की नयी दीठ


आरायस , आलागीला, मोराकसी। आप सोच रहे होंगे ये शब्द मैं कहां से ले आया। हिन्दी में फ्रेस्को पेंटिंग के लिये यही शब्द प्रयुक्त होते हैं। भित्ति चित्रण पद्धति की इस परम्परा पर जब भी विचार करता हूं, देवकी नंदन शर्मा याद आते हैं। कहूं, यह शर्मा ही थे जिन्होंने फ्रेस्को का भारतीय दीठ से एक प्रकार से पुनराविष्कार किया। फ्रेस्को ही क्यों बातिक, पेपरमेषी और तमाम दूसरी परम्परागत कलाओं को जीवित करने, उनमे युगानुकूल  परिवर्ततन के साथ प्रयोगधर्मिता के जो तान-बाने उन्होंने बुने, उन्हीं से तो यह सब कलाएं फिर से सामयिक हुई।
बहरहाल, सात साल पहले इसी अप्रैल माह की 24 तारीख को वह चिरमौन हुए। कुछ दिन पहले जवाहर कला केन्द्र में ख्यात कलाकार नाथूलाल वर्मा के निर्देषन में फ्रेस्को पेंटिंग का षिविर आयोजित हुआ तो देवकी नंदनजी की यादें जेहन में कौंधने लगी थी। ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और उनकी परम्परा में बढ़त करने वाले कलाकार भवानीषंकर शर्मा से संवाद हुआ। मैंने सुझाव दिया कि देवकी नंदन शर्मा के कला आयामों पर अकादमी क्यों नहीं एक व्याख्यान माला ही आयोजित करे। आखिर जड़ों सींच कर ही तो कला का पेड़ हरा हो सकता है!
बहरहाल, देवकी नंदन शर्मा ने वह किया जो कोई ओर नहीं कर सका। अजन्ता के भित्ति चित्रों के साक्षात् में उनके मिटते अस्तित्व ने उन्हें जैसे उद्धेलित किया। उन्होंने जैसे तभी यह तय कर लिया कि भित्ति चित्रों की अतीत की विरासत को वह सहेजेंगे। यह वर्ष 1949 की बात है। वनस्थली के कच्चे भवनों का पक्के में उनके प्रयासों से ही रूपान्तरण हुआ। इनमें अजन्ता चित्रों की अनुकृतियां के साथ ही भित्ति चित्रण के सर्वथा नवीन प्रयोग हुए। शैलेन्द्रनाथ डे, बिनोद बिहारी मुखर्जी सरीखे कला आचार्यों को वनस्थली बुला भित्ति चित्रण की परम्परा का उनके हथूके पुनराविष्कार हुआ। 
वनस्थली में पचास के दषक से ही देवकी नंदन शर्मा ने फ्रेस्को के विधिवत् प्रषिक्षण षिविर भी आयोजित करवाने प्रारंभ किये। कला षिक्षण को इससे नये आयाम मिले। यही नहीं बातिक, पेपरमेषी जैसी पारम्परिक कलाओं की समृद्ध परम्परा में युगानुकूल परिवर्तन करते उन्होंने लुप्त होती इन कलाओं को एक प्रकार से जीवनदान दिया। जयपुर रेलवे स्टेषन पर फ्रेस्को तकनीक से बनायी उनकी ढोला-मारू कलाकृति बरसों तक यात्रियों को लुभाती रही। वनस्थली कला मंदिर की दीवारों पर राजा पुलकेषी दरबार, बोधिसत्व, पदमपाणी और अन्य जातक कथाओं पर बनाये उनके आरायष अपनी मौलिकता में भित्ति चित्रों की हमारी समृद्ध परम्परा के ही संवाहक हैं।
फ्रेस्को को जीवित करने के साथ ही पक्षी चित्रण का भी देवकी नंदनजी ने सर्वथा नया मुहावरा हमें दिया। उनके उकेरे कबूतर, मोर, भांत-भांत की चिड़ियाओं, कोव्वों को देखते दीठ संवेदना के सर्वथा नये बिम्बों से साक्षात्कार होता है। ऐसा है तभी तो कभी ब्रिटिष इन्फॉर्मेषन सर्विस ने उन्हें विष्व के 18 सर्वश्रेष्ठ पक्षी चित्रकारों की सूची में शुमार किया था। 
प्रकृति, लोक एवं पौराणिक आख्यानों को देवकी नंदन शर्मा ने अपने चित्रों में सर्वथा नयी दीठ दी। फ्रेस्को तकनीक को नयी पहचान दी। कला के विभिन्न माध्यमों में काम करते उनके चित्रों को जब भी देखता हूं, प्रकाष और छाया प्रभाव का भी लयात्मक नाद वहां पाता हूं। परम्परागत चित्रों में प्रयोगधर्मिता करते के साथ उन्हें सामयिक करने का महत्ती कार्य ही देवकी नंदन शर्मा ने नहीं किया बल्कि दैनिन्दिनी जीवन के अनुभवों को चित्रों में परोटते जीवन दर्षन की लय को बेहद षिद्दत से उन्होंने अपने चित्रों में पकड़ा है। मुझे लगता है, यह देवकी नंदन शर्मा ही हैं जिन्होंने पेड़ो ंपर चहचहाती चिड़िया, कबूतर, कौव्वे, मोर आदि की अपने तई वैयक्तिक पुनर्व्याख्या की है। मानवीय अनुभव अपने आस-पास के परिवेष को सिर्फ आंख से देखना भर ही तो नहीं है वह महसूस करना भी है जो आंख की पूतली की परिधि से परे भी दिखाई देता है। देवकी नंदन शर्मा का चित्रलोकयही तो महसूस कराता है। 


Friday, April 13, 2012

शताब्दी बिहार महोत्सव में मिट्टी की सौंधी महक


मानव सभ्यता की सहचरी कालजयी हैं तमाम हमारी कलाएं। माने काल पर उनका कोई वष नहीं है। युग की पीड़ा, हर्ष, प्रथा-गाथा, धर्म-संस्कार के तमाम स्वर एक साथ वहां है। लोक का आलोक लिये। नृत्य, संगीत, चित्रकला, नाट्य आदि में कलाओं की सौरम को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।
हरहाल, जवाहर कला केन्द्र के मुक्ताकाष, रंगायन सभागार और कलादीर्घाओं में पिछले दिनों शताब्दी बिहार महोत्सव में कलाओं की इसी सौंधी महक में मन जैसे रम गया था। बिहारमय राजस्थान की मेरे लिये यह अलग दीठ थी। ऐसी जिसमें लोक नृत्य, नाट्य, गीत, संगीत, चित्रकला प्रदर्षनी के जरिये संस्कृति के अनूठे चितराम आंखे देख रही थी। लगा, यह कलाएं ही हैं जिनमें जीवन की उदात्ता है। आत्मीयता का अपनापा है। जीवन का रस है। संस्कृति की जीवंतता है। रंजना सरकार और अपूर्वा सृष्टि के कथक, नलिनी मिश्रा के कुचीपुड़ी, शारदा सिन्हा के लोकगीत माधुर्य के साथ ही लोक नाट्य फूल नौटंकी विलास देखे। हर प्रस्तुति में कला समृद्ध बिहार ही जैसे आंखों के समक्ष जीवंत हो रहा था।
षिल्पग्राम के खुले मंच पर देष की ख्यात लोकगायिका शारदा सिन्हा ‘अमवा महुअवा के झूमे डलिया, तनी ताक न बलमवा...’ गा रही थी। लगा, यह लोकमानस ही है जिसमें स्वतंत्रता और उन्मुक्ति की ऐसी उर्वरता है। सहजता का गान है। इस गान में मिट्टी की सौंधी महक है। फालतू के आदर्ष नहीं है और न ही शास्त्र बंधे नियम वहां है। ओढ़ी हुई दानषमंदी की बजाय वहां प्रकृति उपजे भावों का सहज स्पन्दन है। शारदा सिन्हा के स्वरों में लोक की अद्भुत मिठास है। स्वरों में खोते अनुभूत होता है जैसे बिहार का लोकजीवन आंखों के समक्ष साकार हो रहा है। दूसरे दिन मनोरंजन ओझा ने अपनी लोकगायकी में भी कुछ ऐसे ही रंग बिखेरे।
रंगायन सभागार में अपूर्वा सृष्टि का कथक भी उर में आनंद के भाव देने वाला था। उसके नृत्य से रू-ब-रू होते लगा सीखे हुए में वह अपने तई बढ़त करती है। नई नई परनों और नये नये टूकड़ों का अद्भुत रचाव वहां है। ताल को गहरे से जीते उसके घुंघरूओं की खनक और ‘ता थेई थेई...तत’ में चमत्कारिक पद संचालन। षिव स्तुति में नृत्य की उसकी मोहक छटा में ही मन जैसे रच-बस गया। अंग-प्रत्यंग उपांगों से अपूर्वा सृष्टि भावों की प्रस्तुति में नृत्य रस की समग्रता का आस्वाद करा रही थी। इससे ठीक पहले सभागार में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के उत्तराधिकारी राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी ‘गोपा’ पर केन्द्रित नृत्य नाटिका में यषोधरा की अंतर्मन व्यथा, त्याग को कलाकारों ने अपने अभिनय से जीवंत किया। ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ के संगीत स्वरो के साथ ही पारिजात कलादीर्घा में मधुबनी, भागलपुर षिल्प और बिहार की दूसरी पारंपरिक चित्रकलाओं की समृद्ध परम्परा का आस्वाद भी अनूठा है।
बहरहाल, बिहार शताब्दी समारोह अनूठा आयोजन था। बिहार के कला संस्कृति विभाग के प्रमुख शासन सचिव अंजनी कुमार सिंह और राजस्थान के पुलिस आयुक्त बी.एल. सोनी शताब्दी समारोह की समापन सांझ में षिल्पग्राम के खुले मंच पर कलाकारों की प्रस्तुतियों से भाव विभोर थे। राजस्थान और बिहार की संस्कृति समानताओं पर उन्हें बतियाते देख लगा, कलाएं काल निरपेक्ष ही नहीं स्थान निरपेक्ष भी होती है। भीतर के आनंद का ओज जो वहां है! विष्व के पहले बड़े लोकतंत्र, भगवान बुद्ध और जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर की जन्मस्थली है बिहार। कहीं पढ़ी किवदंती याद हो आयी। रेगिस्तानी इलाकों से कभी बिहार पहुंचे ऊंट सवार वहां की हरियाली देख खुषी से चिल्ला उठे ‘बहार है बहार!’ कहते हैं यही बहार बाद में बिहार हो गया। यह कितना सच है, कह नहीं सकता परन्तु शताब्दी समारोह में बिहार की बहार अभी भी मन अनुभूत कर रहा है।