Thursday, May 18, 2017

सुन्दर समाज की नींव तैयार करते हैं कला संग्रहालय


संग्रहालय ज्ञान के अनुपम भंडार होते हैं। ऐसे जिनसे किसी देष या स्थान की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के बारे में जाना जा सकता है। मुझे लगता है, अतीत में प्रवेष करने, उसमें झांकने की दीठ कहीं है तो वह संग्रहालयों में ही है। यह है तभी तो देष आजाद होने के कुछ ही समय बाद 1949 में कोलकता के कला सम्मेलन में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (नेषनल गैलरी आॅफ माॅर्डन आर्ट) की आवष्यकता महसूस की गई और 1954 में फिर इसकी स्थापना नई दिल्ली स्थित जयपुर हाऊस में हुई। आज इस कला संग्रहालय में 18 हजार से अधिक कलाकृतियों का अनूठा संग्रह है और निरंतर इसमें वृद्धि ही हो रही है। बाद में इसकी दो और शाखाएं भी मुम्बई और बैंगलुरू में खुली। देष के 150 वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर को अंवेरे यह संग्रहालय भारतीय संस्कृति का जीता-जागता उदाहरण है।
ष्अभी बहुत समय नहीं हुआ, लखनऊ स्थित डाॅ. शकुन्तला मिश्र राष्ट्रीय पुनर्वास विष्वविद्यालय ने अपने यहां करीब 5 हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में 18 करोड़ रूपये की लागत से ‘समकालीन कला संग्रहालय’ स्थापना की घोषणा की है। किसी विष्वविद्यालय में इस तरह की शुरूआत की पहल बेहद महत्वपूर्ण है। इसलिए कि वहीं से नई पीढ़ी को भविष्य के संस्कार मिलते हैं। यह सही है, षिक्षण से अर्जित ज्ञान असीम होता है। पर इतना ही सच यह भी है कि षिक्षण के साथ यदि कलाओं के संस्कार भी मिले तो एक सुन्दर समाज की रचना स्वयमेव हो जाती है। 
मुझे लगता है, विष्वविद्यालयों में तमाम तरह की विधाओं के ज्ञान के साथ कलाओं के सौंदर्य बीज भी बोए जाने चाहिए। संग्रहालय एक तरह से अतीत का वातायन ही होते है। ऐसा वातायन जहां से हमारी विरासत में झांककर हम भविष्य की अपनी दृष्टि में बढ़त कर सकते हैं। कुछ समय पहले समकालीन कला पर आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी मंे बोलने के लिए डाॅ. शंकुतला मिश्र राष्ट्रीय पुनर्वास विष्वविद्यालय जाना हुआ था। कुलपति डाॅ. निषीथ राय और संगीत एवं कला संकाय के अध्यक्ष व देष के ख्यातनाम मूर्तिकार डाॅ. राजीव नयन ने तभी विष्वविद्यालय में स्थापित किए जाने वाले आधुनिक कला संग्रहालय की पूरी रूपरेखा बताई। सुखद लगा, यह जानकर कि वह अपने यहां ओपन एरिया गार्डन के साथ प्रिंट, मूर्तिकला और चित्रकला का ऐसा अनुपम भंडार करने जा रहे हैं जिसमें दृष्टिबाधित बच्चे भी कलाओं का स्पर्ष कर उन्हें भीतर से महसूस कर सके। ऐसा अगर होता है तो यह अपने आप में अनूठी कला संग्रह सर्जना होगी। विष्वविद्यालय में वाणिज्य सहित दूसरे विषयों के भी बहुत से संकाय है परन्तु यह देखना सुखद था कि मुख्य परिसर में देष के ख्यातनाम कलाकारों द्वारा सर्जित मूर्तियां, संस्थापन और कलाकृतियां  के प्रदर्षन से सौंदर्य का अनूठा कला संसार मन को मोहता है।
बहरहाल, कुछ बरस पहले केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के आमंत्रण पर एक व्याख्यान के लिए बनारस जाना हुआ था। तभी बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय प्रांगण में स्थित भारत कला भवन भी जाना हुआ था। तभी एषिया के उस सबसे बड़े विष्वविद्यालय संग्रहालय से साक्षात् हुआ था। सुप्रसिद्ध कलाविद् राय कृष्णदास ने भारत कला भवन की स्थापना की और आज इसमें 12 वीं से 20 शती तक के चित्र और मूर्तियों का अनूठा संग्रह है। पर यह विडम्बना ही है कि इसके बाद किसी विष्वविद्यालय में कला संग्रहालय के लिए इस तरह से कभी कोई विचार नहीं हुआ। इस दृष्टि से लखनऊ की पहल अनुकरणीय है।
होना यह भी चाहिए कि देष के तमाम प्रांतों के प्रमुख विष्वविद्यालय अपने यहां पर पृथक से क्षेत्र-विषेष में सृजित कलाओं की एक दीर्घा अपने यहां विकसित करें। ऐसा यदि होता है तो न केवल स्थान-विषेष की कलाओं के महत्ती पहलुओं को संरक्षित किया जा सकता है बल्कि विष्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की सौंदर्य सूझ भी इससे स्वतः विकसित होगी। कला संग्रहालयों की स्थापना में यह भी ध्यान में रखा जाए कि वहां कला के शास्त्रीय रूपों के साथ ही परम्परा और लोक के बीज भी हों। राजस्थान में रियासतों के एकीकरण से पहले लगभग सभी प्रांतों में राजा-महाराजाओं ने अपने तई संग्रहालयों की स्थापना की थी। यह सही है इनमें पुरा वस्तुओं का अनुपम भंडार है परन्तु अधिकतर संग्रहालयों में राजसी वैभव की ही महिमा का अधिक गान है। राजा-महाराजा कैसे रहते थे, उनके द्वारा उपयोग मे ंली गई वस्तुएं, वस्त्र, अस्त्र-षस्त्र आदि इनमें अधिक हैं।  हां, कुछेक निजी स्तर के प्रयासों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में देष के चर्चित कलाकार विनय शर्मा ने अपने तई इधर अपने यहां जो निजी संग्रहालय विकसित किया है, वह भी अनुकरणीय है। विनय का निजी संग्रहालय कलाओं की दृष्टि से बेहद संपन्न है। पुरखों की सहेजी वस्तुओं के साथ ही पुराने समय की बहियां, भोजपत्र, चित्रकलाओं के आधार और छायांकन के सौंदर्य के साथ ही संगीत, नृत्य और आधुनिक ध्वनि यंत्र रेडियो के इतिहास को उन्होंने अपने निजी संग्रहालय में करीने से जुनून की हद तक जाकर संजोया है। मुझे लगता है, इस तरह के प्रयासों को राजकीय स्तर पर तरजीह दी जानी चाहिए ताकि जो कुछ हमारे अतीत का हमारे पास है, उसे संजोया जा सके।
संग्रहालय हमारी सांस्कृतिक विरासत और इतिहास से रू-ब-रू होने के महत्ती स्त्रेात है। उनका होना अपने आप में सौंदर्य से संपन्न होना ही है। समकालीन कलाओं में प्रदर्षन के हदभात आग्रह से उपजी अर्थहीन छवियों के इस दौर में विष्वविद्यालयों, षिक्षण संस्थाओं में यदि कला संग्रहालयों की स्थापना होती है और निजी स्तर पर ऐसे प्रयासों को संरक्षण मिलता है तो सुन्द समाज की नींव अपने आप ही तैयार हो सकेगी।