Friday, February 25, 2011

अर्थ के आग्रह से मुक्त कलाकृतियां


हिम्मत शाह की कला में अर्थ का आग्रह नहीं है। चित्रकृति बनायी है तो किसी खास विषय, विचार को उसमें संप्रेषित नहीं करते हुए वह उसमें सदा कुछ नये की तलाश करते रहे हैं और स्कल्पचर बनायें है तो वह भी पारम्परिक आकारोें की ऐकमेकता से मुक्त रहे हैं। उनकी सामग्री, माध्यम और तकनीक निरंतर बदलती रही है। खंड-खंड अनुभवों की समग्रता के साथ उनकी हर कलाकृति में स्पेस की प्रतीति अलग से होती है। सर्जन में वह व्यक्तियों, चीजों को जैसी है, वैसी नहीं दिखाकर बल्कि उससे भी आगे किसी एक अर्थ से मुक्त करते सर्वथा नये रूपों में उद्घाटित करते रहे हैं।

मूर्त के साथ अमूर्तन के उनका कला लोक सर्वथा नये चाक्षुष अनुभव के भव में प्रवेश कराता है। स्कल्पचर की उनकी सर्जन प्रक्रिया में कभी रचनात्मकता की अनंत खोज में उन्होंने मूर्ति से निकले, उभरे कईं तरह के हाथ दिखाए थे। बाद में उन्होंने ‘हैड्स’ का अनोखा संसार भी रचा। चेहरोें के इस भव में मुखाकृतियांे में आदिम मानव के साथ ही आधुनिकता भी हर ओर, हर छोर व्याप्त है। रेखाओं से उनका सघन नाता आरंभ से ही रखा है। लाईन वर्क की गहराईयों में जाते वह उनसे खेलते रहे हैं, उनमें रमते रहे हैं, उनके जरिए अपने भीतर के तनाव और बाहर के जगत के संत्रास को निरंतर उद्घाटित भी करते रहे हैं। उनकी कलाकृतियांे को किसी एक अर्थ नहीं दिया जा सकता। आशय की तलाश उनमें की भी नहीं जानी चाहिए क्योंकि उनकी कला और कलाकृतियां किसी एक समग्र का ही अनुभव हैै। किसी एक अर्थ में परिभाषित नहीं किया जा सकता। खंड-खंड उनसे पिछले कुछ समय के दौरान निरंतर संवाद हुआ, कहने लगे, ‘मैं आशयहीनता में ऊर्जा की तलाश करता हूं।’

खास बात यह भी है कि अपनी कला को प्रचारित करने की भी कभी कोई चाह उनमें नहीं रही है। कुछ समय पहले ही उन्होंने स्कल्पचर की नयी श्रृंखला निर्मित की है ‘होमेज टू राजस्थान’। ब्रोंज के उनके बहुत से रूपाकारों के शीर्ष पर एक पताका लगी हुई है। ठीक वैसी ही जैसे मंदिरों में लगी होती है।... हर रूपाकार में पारम्परिक मंदिर स्थापत्य और राजस्थान की पारम्परिक हवेलियों, घरों के स्थापत्य शिल्प की स्मृतियां हैं। इसे देखते मुझे लगता ंहै वह राजस्थान की समृद्ध स्थापत्य परम्पराओं, घरों के बाहर मांडे जाने वाले मांडणों और लोकचित्रकृतियों के लाईन वर्क को भी उनमें जी रहे हैं परन्तु ऐसा करते हुए भी उनकी रूपाकृतियों में औचक उभरे नये प्रतीक और बिम्ब लुभाते हुए देखने की नयी दीठ देते हैं। स्कल्पचर का उनका कला संसार बहुआयामी है। वह एक अधबने स्कल्पचर को दिखाने लगते हैं। लम्बी लैम्पनुमा आकृति, किसी पेड़ की भांति टेढ़ी-मेढ़ी परन्तु अडिग होते हुए भी औचक ऊंचाई में मोड़ लेती हुई। सतह में दो-तीन लकड़ीनुमा सहारे। पूरे ही स्कल्पचर में किसी कलाकृति में होने वाले लाईन वर्क, गाफ्रिक्स की बारीकी को भी अनुभूत किया जा सकता है और एक अलग तरह का स्पेस भी वहां दिखाई देता है। मुझे लगता है, हिम्मत शाह स्कल्पचर में ड्राईंग करते हैं। वह ब्रोंज, मिट्टी, प्लास्टर आॅव पेरिस संे लेकर बहुत से स्तरो ंपर रूपाकार रचते हैं। उनकी पहले की आकृतियां में ‘हैड’ की प्रधानता थी।... आशय मुक्त रूपाकारों में टैक्सचर, स्थापत्य और शिल्प सौन्दर्य को एक प्रकार से उन्होंने साधा है। एक अनूठा सौन्दर्य बोध भी उनकी आकृतियां लिए है। इस सौन्दर्यबोध में उभरे प्रतीक और बिम्ब हमारे भीतर की संवेदना को जगाते हैं।

सच! उन्होंने जो किया है, वह हमारे यहां न तो चित्रकला में हुआ है और न ही मूर्तिकला में। बंधी बंधायी लीक से परे। किसी शैली विशेष से मुक्त। उनके यहां अपनी कला के किसी अर्थ का आग्रह नहीं है। संवाद होता है तो कहते हैं, ‘शैली ठहराव लाती है। आप फिर उससे आगे बढ़ नहीं सकते। कोई बिन्दु, कोई क्षण यदि ठहर गया तो फिर शेष रहेगा ही क्या! अंत है फिर तो।’
डॉ. राजेश कुमार व्यास का "डेली न्यूज़" में प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ  "कला तट" दिनांक 25-2-2011

Saturday, February 19, 2011

कला, कलाकार और कलाकृतियां की यादों का वातायन




अखिलेश  के यहां स्म्रतियों की अनूठी कैनवस भाषा  हैं। ऐसी जिसमें संवेदनाओं का अपनापा है। मानव मन के उत्सवधर्मिता कोलाज की चित्रभाषा के अपने कहन में वह संवाद के लिए निरंतर हमें उकसाते है। प्रथमतः उनकी कलाकृतियों का आस्वाद करते यही धारणा बनती है। संयोग देखिए, उनके लिखे की पढ़त में इसकी पुष्टि  भी हो जाती है। राजकमल प्रकाशन ने हाल ही उनकी ‘अचम्भे का रोना’ जो पुस्तक प्रकाशित  की है उसमें कैनवस के समानान्तर, उससे इतर कला और कलाकारों के अंतरंग और बहिरंग में जाते कला अनुभवों की एक नई भाषा जैसे उन्होंने विकसित की है। अपनी इस भाषा में वह रजा, अम्बादास, रामकुमार, हुसैन, मनीश  पुस्कले, प्रभाकर बर्वे, नागजी पटेल, जनगणसिंह श्याम अवधेष यादव, मनजीत बावा जैसे ख्यात कलाकारों के अंतरंग में भी गए हैं और बहिरंग में भी।

कला और कलाकृतियों के यादों के अपने वातायन में वह द्रष्टि  स्पष्टता  में रंग और रेखाओं की ही नहीं बल्कि उन्हें बरतने वालों के मन के भीतर जाते, उनकी सोच से भी अनायास ही साक्षात् कराते हैं। मसलन वह जे.स्वामीनाथन की कलाकृतियों की वस्तुहीनता पर जाते रूप के विलोपन में इंच दर इंच चित्रित उनके कैनवस की बारीकियों को बांचते हैं तो हुसैन के कलाकर्म को उनके व्यक्तित्व के आईने से निहारते वह सहज उनकी कविताओं को याद करते हैं, किस्सागोई का बयान करते हैं और बहुत से वह अनछुए पहलू भी बताते हैं जिनमें उनके चित्रों में निहित संकेताक्षरों की कथा है, याद दिलाने पर वादा निभाने के लिए मुम्बई से औचक दिल्ली पहुंचने की दास्तां भी। अनुभूति के इस खरेपन में अखिलेश  कलाकारों के चित्र संस्कारों से भी अनायास ही साक्षात् करा देते हैं।

जनगण के चित्रों को वॉन गॉग के बरक्स रखते वह दोनों की ही चित्रकला की रूढ़ियां तोड़ने की विशेषताओं  में हमें ले जाते हैं तो रजा के कैनवस को रंगों का घर बताते है। अम्बादास के चित्रों में भटकते शुक्राणु  रूप संधान में वह रचने के क्षण के सौन्दर्य को अनायास ही पकड़ते हैं तो प्रभाकर बर्वे के चित्रों की उन बारीकियां में भी हमें ले जाते हैं जिनमें कोई चित्रात्मक कविता समय और अवकाश  के संबंधों को गहरे से व्याख्यायित करती है। प्रकृति प्रदत्त सहज बोध से देह के द्रश्य  को चित्रित करते कलाकार के रूप में वह रामकुमार को याद करते हैं और नागजी पटेल को हेनरी मूर के समक्ष रखते है। मनीश पुश्कले के चित्रों को कविताओं की तरह पढ़ना संभव बताते वह मनजीत बावा के रूपाकारों, रंग के अचरज लोक  में उनके व्यक्तित्व की तलाश करते हैं तो स्वयं अपनी रचना प्रक्रिया को कैनवस के अंतिम सत्य तक पहुंचने की खोज बताते वह कला की खोज को सत्य की खोज बताते हैं। पुस्तक के अंत में अशोक  वाजपेयी का अखिलेश  से बेहद महत्वपूर्ण संवाद है। इसमें वह कहते हैं कि कला के एकान्त में ही सार्वजनिकता जन्म लेती है।

हमारे यहां कलाकारों ने दूसरों की कला और उनके व्यक्तित्व पर कम ही लिखा है। इस दीठ से ‘अचम्भे का रोना’ किसी कलाकार की उदात्त चेतना में कला और कलाकारों के बारे में हमें सर्वथा नये अर्थबोध देती अनुठी कला पुस्तक है। इसमें दूसरे की कलाकृतियों, उनके अपनापे में जाते सहज, सरल और आत्मीय हैं हमारे अखिलेश!
"डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश  कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 18-02-2011


Friday, February 11, 2011

फोटोग्राफी का नहीं छाया-कला का सम्मान


छायांकन की सुदीर्घ यात्रा का यह वह दौर है जब छापाचित्र, पेंटिग और मूर्तिशिल्प इन तीनों में ही छायाकारी का प्रभाव देखा जा सकता है। कभी घटिया मानकर भले फोटोग्राफी को कला मंे स्वीकार नहीं किया गया परन्तु कला स्वरूपों की सृजन प्रक्रिया का आज छायांकन ही प्रमुख आधार बनता जा रहा है। इधर न्यू मीडिया आर्ट की जो अवधारणा उभरी है, उसका तो प्रमुख आधार ही फोटोग्राफी ही है।

बहरहाल, पिछले दिनों पद्म अलंकरणों की सूची में होमाई व्यारावाला का नाम देखकर सुखद अचरज हुआ। चलो, फोटोग्राफी आखिर कला का दर्जा पाते सम्मानित हो ही गयी। होमाई व्यारावाला आजादी से पहले से छायांकन कर रही है। देश की पहली महिला फोटोग्राफर। आजादी से पहले और आजादी के बाद के भारत के बेहद संवेदनशील क्षणों को उन्होंने निरंतर अपनी छाया-कला में संजोया है। जब-तब पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में पढ़ते उनके छायाचित्रों सेे रू-ब-रू भी होता रहा हूं परन्तु संयोग देखिए, कुछ समय पहले ही जब दिल्ली मंे था तब नेशनल मॉर्डन गैलरी ऑफ आर्ट में पहली बार उनकी छायाचित्र प्रदर्शनी को देखने का भी सुअवसर मिल गया।

अलकाजी फाउण्डेशन द्वारा राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में प्रदर्शित उनके छायाचित्रों को देखते मुझे लगा, जो चित्र होमाई व्यारावाला ने अपने कैमरे से लिए हैं, वे इतिहास के दस्तावेज भर नहीं है बल्कि उनमें कलात्मक सौन्दर्य, अंतर्मन संवेदना का अनूठा भव भी है। मसलन लॉर्ड माउन्टबेटेन, मार्शल टीटो, एजिलाबेथ, रिचर्ड निक्सन, डायना, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, विजयलक्ष्मी पंडित, इन्दिरा गॉंधी के जीवन के जो प्रसंग उन्होंने अपने कैमरे से कैद किए हैं, उनमें यथार्थ का अंकन भर नहीं है बल्कि समय के साथ व्यक्तियों, वस्तुओं के रूप, टैक्सचर की अनुभूत गति को भी उन्होंने भीतर की अपनी संवेदना आंख से गहरे से पकड़ा है। फोटो जब कोई खिंचवाता है तो सजग हो जाता है, उसकी यह सजगता छायाकारी की स्वाभाविकता को भंग कर देती है।...एक प्रकार से खींचे गए फोटो में तब संवेदना तिरोहित हो जाती है। वह साधारण दृश्य चित्र भर रह जाता है परन्तु होमाई व्यारावाला के छायाचित्रों का आकाश इससे परे है। उन्होंने अपने कैमरे से ऐतिहासिक क्षणों को भी कैद किया है तो अपनी उस तीसरी संवेदन आंख का सदा सहारा लिया है जिसमें समय के अवकाश को पकड़ा जाता है। मसलन महात्मा गॉंधी की शवयात्रा के क्षणों को कैद करते उनके कैमरे ने हजारों-हजार नम आंखों का जो दर्शाव किया है, उसमें निहित भावनाओं को देखने वाला आसानी से पढ़ सकता है। मुझे लगता है, यह उनकी तीसरी संवेदन आंख ही है जिसमें राजनीतिक घटनाक्रमों को कैद करते हुए भी उन्होंने सूक्ष्म वस्तुओं, दृश्यों के बहाने तत्कालीन परिवेश का एक प्रकार से छायांकन इतिहास रचा है। इसमें कलात्मक सौन्दर्य है। उनके छायाचित्रों के अद्भुत लोक में जाते औचक आंख ठहर जाती है जब संजय गॉंधी के जन्मदिन पर बिल्ली का मुखौटा लगाए पं. नेहरू को हम देखते हैं। तब भी ऐसा ही होता है जब जिन्ना भारत में अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेस करते हुए विभाजन के बोये बीज का अंकुर फूटा रहे हैं। छायांकन के इस लोक में तमाम दूसरे वह घटनाक्रम भी हैं जिनमें किसी विशेष समारोह के बहाने उसमें निहित विषय की संवेदना को स्वर दिया गया है।

होमाई व्यारावाला 98 वर्ष की हैं। पदम् अलंकरण कैमरे के पीछे की उनकी उस तीसरी संवेदन आंख का सम्मान है जिसमें उन्होंने इतिहास की घटनाओं, प्रसंगों को भीतर के अपने कलात्मक बोध से जिया है। फोटोग्राफी का नहीं यह छाया-कला का सम्मान है।
(कला तट, 11-2-2011)

Friday, February 4, 2011

रेखाचित्रों में गति का आख्यान



चारकोल माने मुलायम कोयले की शलाका। कागज और कैनवस पर इस माध्यम से हमारे यहां चित्र बनाने की सुदीर्घ परम्परा रही है परन्तु कला में यह चकाचैंध का वैश्विक दौर है। चमक-दमक में पारम्परिक रेखाएं जैसे कहीं लुप्त होती जा रही है। ऐसे में पिछले दिनों शिमला के कलाकार हिम चटर्जी के चारकोल जैसे पारम्परिक माध्यम में कागज और कैनवस पर किए कार्य को देखकर सुखद अचरज हुआ। लगा, जो बात श्वेत-श्याम में कईं बार रेखाएं कह देती है वह शायद रंगों के जरिए कही ही नहीं जा सकती थी।

बहरहाल, हिमाचल प्रदेश मंे शिमला, सोलन, मंडी, हमीरपुर आदि स्थानों में प्राचीन काल से ही भैंसो के मलयुद्ध की परम्परा रही है। हिम चटर्जी इधर शिमला के पास ही हिवान गांव में वास कर रहे हैं। उन्हें यह परम्परा इतनी भायी कि रेखीय चित्रों की पूरी की पूरी ‘फैलो-बफेलो’ श्रृंखला ही बना दी। रेखाओं की लय और स्वाभाविक सौन्दर्य में उन्होंने भैंसो के मलयुद्ध को अपने तई जीते आंखों के सामने इस परम्परा के दृश्यों को जैसे साकार किया है। इन्हें देखते औचक पिकासो के बुल की भी याद आती है। वही फोर्स, वही गति। रेखाओं का वही सधा हुआ रूप सौन्दर्य।

गत्यात्मक प्रवाह में भैंसों की लड़ाई की चारकोल निर्मित हिम चटर्जी की छाया सदृश्य आकृतियों की कंपोजीशन इस कदर सधी हुई है कि दृश्य को सहज पढ़ा जा सकता है। कहीं कोई बनावट नहीं। वास्तविक की प्रस्तुति के बहाने रेखीय आकृतियों में वह अमूर्तन के जरिए मलयुद्ध के दौरान आवाजों के शोर को भी जैसे कागज और कैनवस पर ध्वनित करते हैं। भैंसे लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में इस्तेमाल योद्धाओं के बल को उन्होंने कैनवस और कागज पर गहरे से पकड़ा है और फिर उसे गढ़ा है। यथार्थ के इस पुनर्सृजन में लाईन कार्य में भैंसों और उन्हे लड़ाने वाले लोगों का जो रूपकात्मक संयोजन वह करते हैं, उसमें वास्तविकता के प्रति स्वतः ही औत्सुक्य भाव पैदा होता है।

बारीक बाह्य रेखाओं में भैसों की भीड़न्त के दृश्यों में हिम चटर्जी आकारों के सरलीकरण के बावजूद गति का गजब दर्शाव करते है। वह दृश्य की गति को पकड़ते रेखाओं से उसे स्पन्दित करते आंखों के सामने जीवन्त करते हैं। सीधी सहज रेखा गति के दर्शाव में कब धूंआ सरीखी होती गत्यात्मक प्रवाह की संवाहक बन जाती है, पता ही नहीं चलता। खास बात यह भी कि उनकी रेखाओं में शास्त्रीयता का सौष्ठव तो है परन्तु आधुनिक कला की प्रयोगधर्मिता का ताना-बाना भी है। भैंसो को गुत्थम-गुत्था होते दिखाते वह आस-पास उड़ती मिट्टी की भी रेखीय अनुभूति कराते हैं तो उन्हें भीड़ाने वाले लोगों के उत्तेजकता की भी दृश्य अनुभूति कराते हैं। ऐसा करते रेखाओं को जोड़ते, एकमेक करते अनायास ही वह हमारे भीतर के सौन्दर्यबोध को जगाते हैं। गति के आभास की निर्मिती में वह मलयुद्ध परम्परा के सूक्ष्म और व्यापक अर्थ संदर्भ भी अनायास ही देते हैं। लड़ाई के दौरान भैंसों के पांवो, उसके सिंगो और तमाम दूसरी हरकतों और अन्र्मुखता के उनके दृश्य दर दृश्य रेखीय संयोजन की खास बात यह भी है कि कैनवस और कागज आपको चलचित्र का सा अहसास कराते हैं। यूं लगता है, आप स्वयं मलयुद्ध देखने पहुंच गए हैं।

पहाड़ की संस्कृति का व्यापक फलक प्रस्तुत करते है ‘फैलो-बफेलो’ श्रृंंखला के चटर्जी के यह चित्र। यह रेखाएं ही हैं जो दृश्य के संयोजन को सुगठित करती है। इस दीठ से लयबद्ध रेखाओं के आलेख में चटर्जी भैंसों के मलयुद्ध के बहाने परम्परा के एक काल को प्रत्यक्ष रूप से हमारे समक्ष जीवन्त करते हैं। मुझे लगता है, उनके यह रेखांकन स्वयं में एक स्वायत्त कला रूप हैं। गति का अनूठा आख्यान हैं इनमें। बेशक इन्हें देखा ही नहीं जा सकता, पढ़ा भी जा सकता है।
(कला तट 4-11-2011)