Friday, February 4, 2011

रेखाचित्रों में गति का आख्यान



चारकोल माने मुलायम कोयले की शलाका। कागज और कैनवस पर इस माध्यम से हमारे यहां चित्र बनाने की सुदीर्घ परम्परा रही है परन्तु कला में यह चकाचैंध का वैश्विक दौर है। चमक-दमक में पारम्परिक रेखाएं जैसे कहीं लुप्त होती जा रही है। ऐसे में पिछले दिनों शिमला के कलाकार हिम चटर्जी के चारकोल जैसे पारम्परिक माध्यम में कागज और कैनवस पर किए कार्य को देखकर सुखद अचरज हुआ। लगा, जो बात श्वेत-श्याम में कईं बार रेखाएं कह देती है वह शायद रंगों के जरिए कही ही नहीं जा सकती थी।

बहरहाल, हिमाचल प्रदेश मंे शिमला, सोलन, मंडी, हमीरपुर आदि स्थानों में प्राचीन काल से ही भैंसो के मलयुद्ध की परम्परा रही है। हिम चटर्जी इधर शिमला के पास ही हिवान गांव में वास कर रहे हैं। उन्हें यह परम्परा इतनी भायी कि रेखीय चित्रों की पूरी की पूरी ‘फैलो-बफेलो’ श्रृंखला ही बना दी। रेखाओं की लय और स्वाभाविक सौन्दर्य में उन्होंने भैंसो के मलयुद्ध को अपने तई जीते आंखों के सामने इस परम्परा के दृश्यों को जैसे साकार किया है। इन्हें देखते औचक पिकासो के बुल की भी याद आती है। वही फोर्स, वही गति। रेखाओं का वही सधा हुआ रूप सौन्दर्य।

गत्यात्मक प्रवाह में भैंसों की लड़ाई की चारकोल निर्मित हिम चटर्जी की छाया सदृश्य आकृतियों की कंपोजीशन इस कदर सधी हुई है कि दृश्य को सहज पढ़ा जा सकता है। कहीं कोई बनावट नहीं। वास्तविक की प्रस्तुति के बहाने रेखीय आकृतियों में वह अमूर्तन के जरिए मलयुद्ध के दौरान आवाजों के शोर को भी जैसे कागज और कैनवस पर ध्वनित करते हैं। भैंसे लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में इस्तेमाल योद्धाओं के बल को उन्होंने कैनवस और कागज पर गहरे से पकड़ा है और फिर उसे गढ़ा है। यथार्थ के इस पुनर्सृजन में लाईन कार्य में भैंसों और उन्हे लड़ाने वाले लोगों का जो रूपकात्मक संयोजन वह करते हैं, उसमें वास्तविकता के प्रति स्वतः ही औत्सुक्य भाव पैदा होता है।

बारीक बाह्य रेखाओं में भैसों की भीड़न्त के दृश्यों में हिम चटर्जी आकारों के सरलीकरण के बावजूद गति का गजब दर्शाव करते है। वह दृश्य की गति को पकड़ते रेखाओं से उसे स्पन्दित करते आंखों के सामने जीवन्त करते हैं। सीधी सहज रेखा गति के दर्शाव में कब धूंआ सरीखी होती गत्यात्मक प्रवाह की संवाहक बन जाती है, पता ही नहीं चलता। खास बात यह भी कि उनकी रेखाओं में शास्त्रीयता का सौष्ठव तो है परन्तु आधुनिक कला की प्रयोगधर्मिता का ताना-बाना भी है। भैंसो को गुत्थम-गुत्था होते दिखाते वह आस-पास उड़ती मिट्टी की भी रेखीय अनुभूति कराते हैं तो उन्हें भीड़ाने वाले लोगों के उत्तेजकता की भी दृश्य अनुभूति कराते हैं। ऐसा करते रेखाओं को जोड़ते, एकमेक करते अनायास ही वह हमारे भीतर के सौन्दर्यबोध को जगाते हैं। गति के आभास की निर्मिती में वह मलयुद्ध परम्परा के सूक्ष्म और व्यापक अर्थ संदर्भ भी अनायास ही देते हैं। लड़ाई के दौरान भैंसों के पांवो, उसके सिंगो और तमाम दूसरी हरकतों और अन्र्मुखता के उनके दृश्य दर दृश्य रेखीय संयोजन की खास बात यह भी है कि कैनवस और कागज आपको चलचित्र का सा अहसास कराते हैं। यूं लगता है, आप स्वयं मलयुद्ध देखने पहुंच गए हैं।

पहाड़ की संस्कृति का व्यापक फलक प्रस्तुत करते है ‘फैलो-बफेलो’ श्रृंंखला के चटर्जी के यह चित्र। यह रेखाएं ही हैं जो दृश्य के संयोजन को सुगठित करती है। इस दीठ से लयबद्ध रेखाओं के आलेख में चटर्जी भैंसों के मलयुद्ध के बहाने परम्परा के एक काल को प्रत्यक्ष रूप से हमारे समक्ष जीवन्त करते हैं। मुझे लगता है, उनके यह रेखांकन स्वयं में एक स्वायत्त कला रूप हैं। गति का अनूठा आख्यान हैं इनमें। बेशक इन्हें देखा ही नहीं जा सकता, पढ़ा भी जा सकता है।
(कला तट 4-11-2011)

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