Tuesday, January 25, 2011

काल का उनके गान पर क्या जोर!

पंडित भीमसेन जोशी कालवश नहीं हो सकते! अजर है, अमर है उनका गान। काल से होड़ लेते ब्रेन ट्यूमर के बाद भले वह मंद पड़ गए परन्तु उन्होंने संगीत का जो सागर हमें दिया है, उसकी अनंत गहराईयों को मापा नहीं जा सकता। याद करें लता और बाल मुरली कृष्णा के साथ आज भी घर-घर गूंज रहा है उनका गाया ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा...’। सच! यह पंडित भीमसेन जोशी ही थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की धारा का हर आम और खास में प्रवाह किया। ठुमरी और भजन गायकी में तो उनका आज भी कोई शानी नहीं है।

सवाई गंधर्व से गान की विधिवत् शिक्षा उन्होंने ली परन्तु बचपन में मां जब मधुर कीर्तन गाती तो वह ध्यान से सुनते। उसे भी बाद में उन्होनंे निरंतर गुना। जो उन्होंने सीखा उसके शास्त्र और उसकी रंजक शक्ति पर सदा उनका विश्वास भी रहा। सुनता तो उन्हें बचपन से ही रहा हूं परन्तु साक्षात् भेंट और मन मुताबिक संवाद करने का मौका साहित्य अकादमी की यात्रा फैलोशिप के तहत कोई एक दशक पहले ही महाराष्ट्र भ्रमण के दौरान पुणे में उनके निवास पर ही मिला था। याद पड़ता है, मैंने उनके गान पर एक बड़ा आलेख लिखा था और उसमें शास्त्रीय गान कीउनकी लोकोन्मुख धारा का विशेष रूप से जिक्र किया था। पुणे में मराठी के ख्यातनाम उपन्यासकार शिवाजी सावंत से भेंट के बाद उनके पुत्र श्रीनिवास जोशी जी से मिला और उन्हें वह लेख दिखाया। उन्होंने ही बाद में पंडितजी से भेंट की मुराद पूरी की। विश्वास नहीं हो रहा था, जिन्हे सुना है, जिनके बारे में लिखता रहा हूं, वह यूं मिल जाएंगे। श्रीनिवासजी खुद बहुत अच्छे गायक हैं...उनके साथ मिलने के सुख को बंया नहीं किया जा सकता। कल्पना मंे सदा बसी रहने वाली मुस्कराहट मेरे सामने थी। मंद मुस्काते ही पंडितजी ने देर तक बातें की। कौन नहीं जानता उनका व्यक्तित्व! सो मैंने गान पर ही संवाद केन्द्रित करते बहुत सी बातें पूछी थी। तभी उन्होंने कहा था, ‘स्व के आनंद के लिए गाता हूं और जब गाता हूं तो श्रोताओं की भीड़ को नहीं देखता।...गुरू आपको सिखाता है परन्तु आपने केवल वही कंठस्थ कर लिया तो वह दूसरों को रूचेगा नहीं। वह नकल होगा। आपको नकल थोड़े ही करनी है, गाना है। उसके लिए शक्ति चाहिए। दृष्टि चाहिए। अपनी समझ से गायकी में टिकने की, चिरंतन होने की शक्ति ही आपको आगे तक ले जाती है।’ कहते हुए वह सवाई गंधर्व के गान को याद करते यह कहना भी नहीं भुले थे कि उनका गला गान के लिए ठीक नहीं था परन्तु उसे उनके गुरू ने तैयार किया। सुबह एक घंटा और शाम को एक घंटा। गला तैयार करवाने की तालीम चली। पांच वर्ष यही चला। और कुछ नहीं।

बहरहाल, पंडितजी ने अपने को साधा। आरंभ में सोलह से सत्रह घंटे तक का रियाज किया। बाद में तो संगीत के सप्तक की उनकी समझ इतनी बढ़ी कि किराना घराने का उन्होनंे अपने तई पुनराविष्कार किया। इस पुनराविष्कार में लयबद्ध आलाप और भिन्न शैलियों के मिश्रण के बावजूद भावों की संगीत संवेदना हरेक के मन के भीतर तक प्रवेश करती है। उनके गान में आरोह-अवरोह में कहीं कोई तनाव नहीं है। अद्भुत संयम है वहां। अनंत माधुर्य। विराट रेंज। विशाल वितान में वह कईं बार सुरों को इतना ऊपर तो कईं बार इतना नीचे ले जाते कि अचरज होता, कैसे यह संभव होता था। अद्भुत आलापकारी के तो कहने ही क्या! पारम्परिक रागों में यह पंडित भीमसेन जोशी ही रहे हैं जो आरंभ में ही अपनी आवाज को पंचम में अवर्णनीय प्रभाव के साथ ले जाते और मुरकियां और आकर्षक मींड में श्रोताओं को अवर्णनीय आनंद की अनुभूति कराते हैं। परम्परा से जो उन्होंने ग्रहण किया उसमें युग के हिसाब से बहुत सा मिश्रण भी किया। मसलन सवाई गंधर्व से सीखे में उन्होंने जयपुर घराने की केसरबाई केरकर और पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर से बहुत सी तान रचनाएं ली तो इलाहबाद के भोलानाथ भट्ट से ‘सखि, श्याम नहीं आये’ रचना ली। उनके बहुत से बोल आलाप और बोल तान रचनाएं आगरा घराने के विलायत हुसैन खां साहब से भी प्रेेरित है। एक तरह से किराना घराने को बहुत से दूसरे घरानों से उन्होंने संगीत के नये संस्कार दिए परन्तु ऐसा करते स्वयं गान की अपनी मौलिकता को सदा उन्होंने बरकरार रखा। जरा सुनें उनके गान को...‘अखियां रही दर्शन को प्यासी...’, ‘जो भजे हरि को सदा वही परम पद पाएगा...’। दीर्घ तान के बाद ख्याल की बंदिश।...सधे स्वरांे में सम तक की यात्रा मंे उनका श्वांस नियंत्रण, ठहरावों के साथ लयात्मक जोर में ध्वनि उत्पादन की उनकी शैली मन को झंकृत करती है। अंतरर्मन संवेदना का अदभुत सौन्दर्य है वहां। यमन कल्याण, शुद्ध कल्याण, राग पूरिया, मालकौंस में तुकाराम, नामदेव के भजनों को सुनें तो मन न भरे। ठुमरी और नाट्य संगीत का अपूर्व रस भी वहां है। कभी उनके संगीत से प्रतिकृत चित्र हुसैन ने बनाए थे तो पंडित बिरजू महाराज ने उनकी गायकी पर नृत्य भी प्रस्ततु किया। लता को उनका गान बेहद पसंद है। सचिन को वह बेहद पसंद करते थे। सबको अचरज में डालते खुद लम्बी दूरी की कार ड्राइव करते गान के लिए पहुंच जाते थे।... पुणे में ही फिर से उनसे ‘सवाई गंधर्व संगीत समारोह’ में भी एक बार भेंट हुई थी। तब भी सहज बतियाए। कहीं से कुछ ओढ़ा हुआ नहीं। सब कुछ सहज। उनके व्यक्तित्व और गान की यही विशेषता थी। यह जब लिख रहा हूं, राग भीमपलासी मंे गाये ‘ब्रज में धूम मचावे..’ बोल मन को झंकृत करने लगे हैं। नहीं! वह कहीं नहीं गए। यहीं है। उनके सुर सदा हमारे साथ रहेंगे। काल का उनके गान पर क्या जोर! कालजयी हैं पंडित भीमसेन जोशी।

No comments: