Friday, November 11, 2011

आकृतिमूलकता का अमूर्तन

हर शिव  शर्मा रेखाओं और रंगों में किसी क्षण की भंगिमाओं के बहाने आत्मान्वेषी अनुभवों की अनवरत यात्रा कराते हैं। रंग, रेखाओं और रूप के संधान में आवरण रहित देह के जरिये वह जीवन  के अबूझ रहस्यों में ले जाते भीतर की हमारी सुप्त संवेदनाओं को जैसे झकझोरते हैं। देखते हैं तो चित्रों में रंगों का गहरा कोहरा और रेखाओं के उजास में स्त्री देह की सिकुड़ी, लेटी, असावधानी में बैठी आकृतियां दिखाई देती है परन्तु वहां रंग, रेखाओं का अद्भुत संयोजनकौषल है। नैसर्गिक दृष्य के प्रति अंतर्मन में छिपी भावनाओं के प्रतीक रूप में इन चित्रों में भले क्षण विशेष की भंगिमा ही सर्जन का आधार बनी है परन्तु यथार्थ जीवन के गहरे अनुभव यहां है।
बहरहाल, हर शिव छायाकला में भी दक्ष है। यही कारण है कि उनके चित्रों में दूर एवं समीपवर्ती वस्तुओं के धुंधलेपन, दृष्य का अनैच्छिक विभाजन भी अलग से ध्यान खींचता है। कैनवस की उनकी रेखाओं का रंग संयोजन बगैर सूचना अकस्मात् खींचे छायाचित्रों का अहसास भी अनायास कराता है। असावधानी का स्वाभाविक प्रभाव वहां जो है! स्त्री देह की वह जो चित्र भाषा हमारे समक्ष रखते हैं उसमें विषेष किसी परिवेष के बहाने जीवन की विडम्बनाओं, त्रासदियों और तमाम घटनाओं के प्रति स्थितिप्रज्ञता को सहज पढ़ा जा सकता है। मसलन बहते रंगों के बीच घुटनों पर कोहनी टिकाए असावधानी मे बैठी स्त्रीदेह की एक आकृति के आस-पास जो परिवेष सृजित किया गया है, उसमें जीवन के तमाम द्वन्द जैसे उभर आए हैं। ऐसे ही लाल रंग के कोहरे में झांकती लेटी आकृति पर सफेद, पीला, नीला और थोड़ा सा बचा हरा रंग जैसे भीतर की हमारी संवेदना को झंझोड़ता कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहता है। मुझे लगता है, रंगों में अटकी, घुली, प्रवाह में बहती और एक प्रकार से बसी हुई उनकी आवरण रहित स्त्री आकृतियांे में प्रभाववाद भी है और प्रतीकवाद भी। उठने, बैठने, लेटे हुए के सामान्य स्त्री देह दृष्यों में अंकित क्षणिक दृष्य में निहित जीवन के शाष्वत सत्य की अनुभूति वहां की जा सकती है।
चित्रों के कहन पर जाता हूं तो नाबि चित्रकार पियर बोन्नार की भावनाओं को मानवीय आकृतियों में रूपायित करती उन कलाकृतियों की भी सहसा याद हो आती है, जिनमें समकालीन जीवन के विषयों को चुनकर उनका कल्पनारम्य, काव्यपूर्ण चित्रांकन है। हां, हर शिव शर्मा अपने गतिदार रेखांकन, किसी क्षण विषेष की भंगिमा के जरिये जीवन के शाष्वत सत्य से साक्षात्कार कराने की सोच और उद्देष्यपूर्ण रंग योजना के सर्वथा नये सर्जन संदर्भ हमें देते हैं। वहां अपने पूर्ववर्ती चित्रकारों के कला संस्कार तो हैं परन्तु उनका अनुकरण नहीं है। मसलन असावधानी की किसी मानवीय भंगिमा के इरोटिक फिगर और चटख रंगों का अद्भुत संयोजन जिसमें कभी रंग बहते नजर आते हैं तो कभी परिवेष में घुले विषय-वस्तु से अपनापे का सहज दर्षाव करते हैं। खास तौर से लाल रंग की वहां प्रधानता है परन्तु फ्रेम में उभरे दूसरे तमाम रंग अंष में रेखाओं का उनका कहन अलग से ध्यान खींचता है। मुझे लगता है प्रकृति और मानव निर्मित जीवन का वह अपने तई चित्राविष्कार करते क्षण विषेष की भंगिमा में अनुभूतियों की अनंतता का विस्तार करते हैं। उनकी कलाकृतियों को किसी एक अर्थ की बजाय क्षण विषेष की तमाम अर्थ संभावनाओं में देखा जा सकता है। ज्यॉं सेरॉ से कभी उनके चित्रों के अर्थ बताने के लिये आग्रह किया गया था तो उन्होंने उत्तर में बेहद रोचक कहानी सुनायी थी, जिसका सार यह था कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही क्यों तमाम ललित कलाओं पर ज्यॉ सेरॉ का यह कहा प्रासंगिक है। तमाम हमारी कलाएं अपनी स्वायत्ता में अर्थ की अनंत संभावनाएं लिये ही तो होती है।
बहरहाल, हर शिव शर्मा आवरण रहित स्त्री देह के बहाने प्रकृति के पंचभुत तत्वों के अर्थ गांभीर्य में ले जाते जीवन की उस समग्रता का कैनवस रूपान्तरण करते हैं जिसमें चीजों, लोगों और उनसे संबंधित विचारों को देखने का, उनके बारे में सोचने का हमारा ढंग बदल जाता है। चित्रकला में दिख रहे दृष्य की आकृतिमूलकता का यही तो अमूर्तन है। आप क्या कहेंगे!

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