Friday, April 13, 2012

शताब्दी बिहार महोत्सव में मिट्टी की सौंधी महक


मानव सभ्यता की सहचरी कालजयी हैं तमाम हमारी कलाएं। माने काल पर उनका कोई वष नहीं है। युग की पीड़ा, हर्ष, प्रथा-गाथा, धर्म-संस्कार के तमाम स्वर एक साथ वहां है। लोक का आलोक लिये। नृत्य, संगीत, चित्रकला, नाट्य आदि में कलाओं की सौरम को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।
हरहाल, जवाहर कला केन्द्र के मुक्ताकाष, रंगायन सभागार और कलादीर्घाओं में पिछले दिनों शताब्दी बिहार महोत्सव में कलाओं की इसी सौंधी महक में मन जैसे रम गया था। बिहारमय राजस्थान की मेरे लिये यह अलग दीठ थी। ऐसी जिसमें लोक नृत्य, नाट्य, गीत, संगीत, चित्रकला प्रदर्षनी के जरिये संस्कृति के अनूठे चितराम आंखे देख रही थी। लगा, यह कलाएं ही हैं जिनमें जीवन की उदात्ता है। आत्मीयता का अपनापा है। जीवन का रस है। संस्कृति की जीवंतता है। रंजना सरकार और अपूर्वा सृष्टि के कथक, नलिनी मिश्रा के कुचीपुड़ी, शारदा सिन्हा के लोकगीत माधुर्य के साथ ही लोक नाट्य फूल नौटंकी विलास देखे। हर प्रस्तुति में कला समृद्ध बिहार ही जैसे आंखों के समक्ष जीवंत हो रहा था।
षिल्पग्राम के खुले मंच पर देष की ख्यात लोकगायिका शारदा सिन्हा ‘अमवा महुअवा के झूमे डलिया, तनी ताक न बलमवा...’ गा रही थी। लगा, यह लोकमानस ही है जिसमें स्वतंत्रता और उन्मुक्ति की ऐसी उर्वरता है। सहजता का गान है। इस गान में मिट्टी की सौंधी महक है। फालतू के आदर्ष नहीं है और न ही शास्त्र बंधे नियम वहां है। ओढ़ी हुई दानषमंदी की बजाय वहां प्रकृति उपजे भावों का सहज स्पन्दन है। शारदा सिन्हा के स्वरों में लोक की अद्भुत मिठास है। स्वरों में खोते अनुभूत होता है जैसे बिहार का लोकजीवन आंखों के समक्ष साकार हो रहा है। दूसरे दिन मनोरंजन ओझा ने अपनी लोकगायकी में भी कुछ ऐसे ही रंग बिखेरे।
रंगायन सभागार में अपूर्वा सृष्टि का कथक भी उर में आनंद के भाव देने वाला था। उसके नृत्य से रू-ब-रू होते लगा सीखे हुए में वह अपने तई बढ़त करती है। नई नई परनों और नये नये टूकड़ों का अद्भुत रचाव वहां है। ताल को गहरे से जीते उसके घुंघरूओं की खनक और ‘ता थेई थेई...तत’ में चमत्कारिक पद संचालन। षिव स्तुति में नृत्य की उसकी मोहक छटा में ही मन जैसे रच-बस गया। अंग-प्रत्यंग उपांगों से अपूर्वा सृष्टि भावों की प्रस्तुति में नृत्य रस की समग्रता का आस्वाद करा रही थी। इससे ठीक पहले सभागार में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के उत्तराधिकारी राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी ‘गोपा’ पर केन्द्रित नृत्य नाटिका में यषोधरा की अंतर्मन व्यथा, त्याग को कलाकारों ने अपने अभिनय से जीवंत किया। ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ के संगीत स्वरो के साथ ही पारिजात कलादीर्घा में मधुबनी, भागलपुर षिल्प और बिहार की दूसरी पारंपरिक चित्रकलाओं की समृद्ध परम्परा का आस्वाद भी अनूठा है।
बहरहाल, बिहार शताब्दी समारोह अनूठा आयोजन था। बिहार के कला संस्कृति विभाग के प्रमुख शासन सचिव अंजनी कुमार सिंह और राजस्थान के पुलिस आयुक्त बी.एल. सोनी शताब्दी समारोह की समापन सांझ में षिल्पग्राम के खुले मंच पर कलाकारों की प्रस्तुतियों से भाव विभोर थे। राजस्थान और बिहार की संस्कृति समानताओं पर उन्हें बतियाते देख लगा, कलाएं काल निरपेक्ष ही नहीं स्थान निरपेक्ष भी होती है। भीतर के आनंद का ओज जो वहां है! विष्व के पहले बड़े लोकतंत्र, भगवान बुद्ध और जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर की जन्मस्थली है बिहार। कहीं पढ़ी किवदंती याद हो आयी। रेगिस्तानी इलाकों से कभी बिहार पहुंचे ऊंट सवार वहां की हरियाली देख खुषी से चिल्ला उठे ‘बहार है बहार!’ कहते हैं यही बहार बाद में बिहार हो गया। यह कितना सच है, कह नहीं सकता परन्तु शताब्दी समारोह में बिहार की बहार अभी भी मन अनुभूत कर रहा है।

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