Monday, December 12, 2016

नर्मदा सौन्दर्य के अविराम चितराम

अमृत लाल वेगड़जी नर्मदा के अनथक पदयात्री तो हैं पर रेखाओं की लय में वह दृश्य संवेदनाओं का भी मोहक भव रचते हैं। नर्मदा की उनकी पदयात्रा को उनके शब्दों से ही नहीं बांचा जा सकता, रेखाओं में उकेरे उजास से भी अनुभूत किया जा सकता है। उनकी पेपर कोलाज कलाकृतियां भी नर्मदा के तीरे ले जाती अदभुत रंग लोक से साक्षात् कराती है। नर्मदा यात्रा और उनके कलाकर्म पर 'नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो!' पर यह आलेख ...

मध्यप्रदेष की जीवनरेखा है-नर्मदा नदी। विष्व की वह प्राचीनतम और एकमात्र नदी जिसकी परिक्रमा की जाती है। कहते हैं, जब हिमालय नहीं था, गंगा-यमुना का मैदान नहीं था, नर्मदा तब भी थी। सौन्दर्य की नदी नर्मदा! तपोभूमि नर्मदा! मध्यप्रदेष और गुजरात को मिला प्रकृति का वरदान नर्मदा! 
नर्मदा के अनथक यात्री हैं-अमृतलाल वेगड़। नर्मदा उनके लिए नदी नहीं संस्कृति है। याद है, बचपन में उनकी नर्मदा नदी के यात्रावृतान्त को पढ़ा था। जे़हन में बरसों वह बसा रहा। बाद में तो वेगड़जी की नर्मदा परिक्रमा की त्रयी ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ और ‘अमृतस्य नर्मदा’ को पढ़ा तो लगा नर्मदा उनके भीतर निरंतर घटती रही है। पर इधर उनकी एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाषित हुई है, ‘नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो’। सच! यह वेगड़जी द्वारा नर्मदा सौन्दर्य की भरी गागर है। ऐसी जिसमें नर्मदा के सौन्दर्य का सागर पूरी तरह से समाया हुआ है। 
अमृतलाल वेगड़ इस समय के अद्भुत कलाकार हैं। देष की नदियों में पांचवी सबसे बड़ी नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी है। देष की दूसरी तमाम नदियां पष्चिम से पूर्व की ओर बहती बंगाल की खाड़ी में मिलती है, पर नर्मदा पूर्व से पष्चिम की ओर बहती खंभात की खाड़ी में मिलती है। वर्ष 1977 से इस पवित्र नदी की पदयात्रा का सिलसिला वेगड़जी ने प्रारंभ किया था और तभी से उनके भीतर के कलाकार ने रेखाओं और रंगों में यात्रा अनुभूतियों, स्मृतियां, अंतर्मन संवेदनाओं के साथ ही  विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों के नर्मदा के कोलाज भी बनाने प्रारंभ कर दिए थे। नर्मदा के सौन्दर्य की ठौड़-ठौड़ व्यंजना करते वेगड़जी ने इस नदी की संस्कृति को गहरे से जिया है। पर मन की प्यास देखिए, 4 हजार किलोमीटर की नर्मदा पद परिकमा के बाद भी वह ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में लिखते हैं, ‘कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे।’
नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ ने इस नदी से विष्वभर के लोगों को अपने लिखे और कलाकर्म से साक्षात् कराया है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ में वेगड़जी लिखते हैं, ‘यात्रा पर निकलते समय हर बार कहता-नर्मदा! तुम संुदर हो, अत्यन्त सुन्दर। अपने सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुंचा सकूं। और नर्मदा ने मुझे कभी निराष नहीं किया। हर बार मेरी झोली छलका दी। मैंने अपने जीवन के उत्कृष्ट क्षण नर्मदा-तट पर बिताए हैं। परिक्रमा के दौरान मैंने कितने पहाड़ देखे, कितनी नदियां पार कीं, टूटी-फूटी धर्मषालाओं में रात रहा, ठंड में ठिठुरा, गरमी में झुलसा। खूबसूरत लेकिन कठिन पगडंडियों पर चला। खुला आकाष, हरियाली से लहलहाते खेत, सुरम्य प्रभात, जाने क्या-क्या देखा। कितने सुहाने थे वे दिन-एक से बढ़कर एक!’
वेगड़जी की सद्य प्रकाषित कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते उनके इस कहे साक्षात् भी होता है। इसमें थोड़े शब्द हैं, चित्र और रेखांकन अधिक। नर्मदा तट पर तपस्या करके उसे तपोभूमि बनाने वाले ऋषियों के साथ सुदूर केरल से आकर नर्मदातट पर विद्याध्ययन करने और अत्यन्त मधुर नर्मदाष्टक लिखने वाले आदि शंकाराचार्य को निवेदित इस कृति में ‘एक नदी की सौंदर्ययात्रा’ में वेगड़जी ने शांतिनिकेतन में हुई अपनी षिक्षा-दिक्षा के साथ ही प्रकृति के सौन्दर्य को देखने की दृष्टि देने वाले आचार्य नन्दलाल वसु को षिद्दत से याद किया है। वह लिखते हैं, ‘जब पढ़ाई पूरी करके घर आने लगा तो गुरू के आषीर्वाद लेने गया। चरणस्पर्ष करके बैठा तो उन्होंने कहा, ‘बेटा, जीवन में सफल मत होना, अपना जीवन सार्थक करना।’ वेगड़जी ने यही किया। नर्मदा की परिक्रमा में अपने जीवन की सार्थकता देखते उन्होंने एक साथ नहीं, रूक-रूक कर, खंडो में नर्मदा की यात्रा की। उनके समस्त सृजन का आधार बाद में यही नर्मदा बनी। वह लिखते हैं, ‘नर्मदा ने मेरी कला को नया आयाम दिया। मेरी प्रथम परिक्रमा के समय नर्मदा तट का एक भी गांव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी जैसी सैंकड़ो वर्ष पर्वे थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौंदर्य को मैंने सदा के लिए इन पृष्ठों पर संजोकर रख दिया।’
यह सच है। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ इस दीठ से अपूर्व है। नर्मदा के सौन्दर्य चितराम ही इसमें पन्ने दर पन्ने मंडे हैं। रेखाओं के उजास में इसमें वेगड़जी के नदी मे ंस्नान करती, घाट पर कपड़े बदलती स्त्रियों के मनोरम स्केच हैं। गांव की संस्कृति, वहां के लोगों की बतकही, आस्था के सींचन को ठौड़-ठौड़ उद्घाटित करते नर्मदा से जुड़े जीवन को उन्होंने इसमें अपने कलाकर्म से जैसे जीवंत किया है। और सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि इसमे उनके वह पेपर कोलाज हैं, जिनमे नर्मदा का सौन्दर्य झिलमिलाता हमें उसके होने का जीवंत अहसास कराता है।
वेगड़जी विभिन्न रंगीन छपे कागजों की कतरनों से कोलाज बनाते हैं। आरंभ में सपाट पोस्टर पेपर से उन्होंने कोलाज बनाए परन्तु बाद में ‘नेषनल ज्योग्राफिक’ पत्रिका के रंगीन पृष्ठ ही उनके रंग और रेखाएं होते चले गए। ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ के पन्ने उनके इन्हीं पेपर कोलाज की सुरम्यता से लबरेज हैं। अचरज होता है! कैसे छाया-प्रकाष, जल के सूर्य से बदलते रंगों और जीवन से जुड़े सरोकारों की रंग धर्मिता को कैसे वेगड़जी ने कागजों से निर्मित अपनी कला में जीवंत किया है। लगता है, नर्मदा ने उनका इसमें निरंतर साथ दिया है। यह है तभी तो उनके रंगीन पेपर कोलाज में नर्मदा से जुड़ा जीवन गहरे से उद्घाटित होता देखने वाले के मन में जैसे हमेषा के लिए बस जाता है। एक पेपर कोलाज है, पेड़ की छांव उकेरता। मिट्टी और झांकते पेड़ के पत्तों और जमीन पर सूखे बिखरे पत्तों का परिवेष जैसे पूरी तरह से उद्घाटित हो गया है। छांव को पार कर वहां से गुजरते लोगों का पुस्तक का यह अद्भुत चितराम है। ऐसे ही ‘अमरकंटक से यात्रा शुरू’ पेपर कोलाज भी अद्भुत है। इसमें यात्रा की तैयारी की अनुभूति भर नहीं है बल्कि नर्मदा से जुड़ा वह परिवेष भी है जिसमें अभी भी कलाकार का मन बसा है। ‘नमामि देवी नर्मदे’ का स्त्री रेखांकन और बाद में नर्मदा पर दीप दान करती स्त्रियों के चित्र भी रंग-रेखाओं का अद्भुत लोक रचते हैं। ‘अमरकंटक के तीर्थयात्री’ पेपर कोलाज में यात्रा से जुड़े मन की सुमधुर व्यंजना है। और ‘कपिलधारा अमरकंटक’ कोलाज तो अद्भुत है। तेजी से बहते झरने के पानी का श्वेतपन और आस-पास का रंगाकन माधुर्य की सीमा को भी पार करता है। वेगड़जी के पेपर कोलाज की यही विषेषता है। वह अपने इस कलाकर्म में समय को जैसे व्यंजित करते संस्कृति का उसमें छांेक लगाते हैं। ‘नगारावादक’, ‘एक कन्या’, ‘बैगा महिला’, ‘रात में घाट’, एकांत स्नान, ‘विश्राम’, ‘दही मथती नारी’, ‘वानरलीला’, ‘एक शांत पहाड़ी गांव’, आदि बहुतेरे कोलाज ऐसे ही पुस्तक में हैं जो नर्मदा नदी की उनकी यात्रा की जीवंत गवाही सरीखे है। और वह चित्र तो अद्भुत है जिसमें नर्मदा को पैदल पार करते दंपति को उकेरा गया है। पेपर में अपना झोला उठाए दंपति की इस नर्मदा यात्रा के बारे में जितना कहा जाए उतना ही कम है। वेगड़जी के पास वह दृष्टि है जिसमे ंवह स्थानों को उसके भुगोल में ही नहीं वहां के संस्कार, संस्कृति में देखने वालों को बंचवाते हैं। पुस्तक में उनके रेखांकन की लय और निहित बारीकी में भी मन अटक अटक जाता है। ‘ओंकारेष्वर’ का रेखा चित्र ऐसा ही है। टापू पर स्थित ओंकारेष्वर को उसकी पूर्णता में उकेरते वह उससे जुड़े परिवेष को इसमें गहरे से व्यंजित करते हैं। यह सच है! प्रकृति को देखने की उनकी कला दृष्टि अपूर्व है। इस कला दृष्टि से उपजे उनके पेपर कोलाज, रेखांकनों पर पन्ने दर पन्ने लिखे जा सकते हैं फिर भी जो कुछ लिखा जाएगा, वह कम ही लगेगा।
बहरहाल, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़ की कृति ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ का आस्वाद करते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, हिन्दी में अपने तरह की यह विरल कृति है। यहां यात्रा के सौन्दर्य का शब्द गान है, रेखाओं का आकाष भर उजास है और है, वह रंगीन चित्रकृतियां जिससे नर्मदा के सौन्दर्य का घूंट घूंट पान किया जा सकता है। नर्मदा को उसकी समग्रता में, दिखाती-बंचाती ‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ कला जगत को अमृतलाल वेगड़ का अप्रतीम उपहार है। नर्मदा के सौन्दर्य का वेगड़जी का शब्द कहन देखें, ‘नर्मदा सौन्दर्य की नदी है। वह चलती है उछलती कूदती, बलखाती, चट्टानों को तराषती, पहाड़ों में मार्ग तलाषती, डग-डग पर सौन्दर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती।’ मुझे लगता है, उनकी कृति में इस शब्द कहन का चित्र सच है।
अमृतलाल वेगड़ इस समय 87 वर्ष के हैं। नर्मदा की 400 किलोमीटर की पद परिक्रमा उन्होंने की। सहधर्मिणी कान्ता भी 2002 में उनके 75 वें वर्ष में प्रवेष के समय 1250 मिलोमीटर साथ चली। नर्मदा को अपनी पदयात्राओं और कलाकर्म में उन्होंने गहरे से जिया है। ‘नर्मदा तुम कितनी  सुन्दर हो’ कृति में नर्मदा, उसके मोड़, घाट, नदी को पार करते ग्रामीणों, बैगा, गोंड, भील, आग तापते ग्रामीण, ग्रामीण गायक, पडे-पुरोहित, नाई, चक्की पीसती या मूसल चलाती महिलाएं और तमाम नर्मदा यात्रा का परिवेष रेखांकनों और पेपर कोलाज में जैसे हमसे बतियाता है। सौन्दर्य के अविराम चितराम है उनकी यह कृति। बावजूद इसके वेगड़जी इसमें लिखते हैं, ‘नर्मदा के राषि-राषि सौन्दर्य में से अंजुरी भर सौंदर्य ही लरा सका हूं। कोई असीम को कैसे समेट सकता है? इसलिए जो लाया हूंू वह ‘चिड़ी का चोंच भर पानी’ ही है।...‘नर्मदा तुम कितनी सुन्दर हो’ की यह व्यंजना गुदगुदा रही है। यह सब लिख दिया है पर मैं फिर से इस कलाकृतिनुमा पुस्तक के पन्ने पलटने लगा हूं। सौन्दर्य का घूंट घूंट आस्वाद कर रहा हूं, करता रहंूगा। अवसर मिले तो आप भी करियेगा।

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