Monday, October 15, 2018

अर्थ की विरल छटाओं से साक्षात


परीक्षित सिंह के पास कहन का अपना मुहावरा है। उनकी कविताएं बंधे-बंधाए ढर्रे से परे चिंतन का ऐसा आकाष रचती है जिसमें अर्थ की विरल छटाओं से हम साक्षात् होते हैं। यहां शब्द की अर्थगर्भित भंगिमाएं ऐसी है जिनमें मौन को भी सुना और बांचा जा सकता है।
बहरहाल, उनका सद्य प्रकाषित काव्य संग्रह ‘स्वयं का घुसपैठिया’ अंतर्मन संवेदनाओं का एक तरह से उजास है। इसमें जीवनानुभूतियों के बहाने मन के भीतर की जैसे कवि ने खोज की है। काव्य संग्रह का आस्वाद करते बहुतेरी बार उनका कहन लुभाता है, वह ‘कुटनीति में प्रतीति/ और पीड़ा में क्रीड़ा/हृदय की चित्कार अनंत शांति’ जैसे शब्दों में भविष्य और वर्तमान को कविता की अपनी आंख से देखते हैं हमें जैसे शब्द-षब्द पुनर्नवा करते हैं।
संग्रह में भावों का अथाह समन्दर है। वह आकाष भी जिसमें  ‘बहुत सालों से चुपचाप सुन रहा हूं मैं/ तुम्हें/मेरे पुरोहित/इन संस्कृत-ष्लोकों में कुछ दिख जाए/जो भी हो समाहित’ सरीखी दार्षनिक व्यंजना है तो ‘षून्यगत में शून्य/बस एक बिंदु’ जैसे शब्दों के बहाने वर्तमान समय को गहरे से जिया गया है। मुझे लगता है, अनपी इन कविताओं के जरिए वह पाठक को उस लोक में ले जाते हैं जहां  व्यक्ति अपने होने की तलाष करता है। इस दीठ से उनकी यह कविताएं व्यक्ति और उससे जुड़े सरोकारों में जीवन का आंतरिक अन्वेषण भी है। इनमें अपने शहर से जुड़ी स्मृतियों का आलोक यहां है तो संस्कृति की सुरभि भी है।  अपने आपको खोकर, राहें मिटाकर अपनों तक  कैसे जाने की प्रष्नाकुलता में वह जैसे भौतिकता में बदले जीवन मूल्यों की साख भरते हैं तो अह्म से अंतरंग सामीप्य में प्रकाषनमान माॅं के नेत्रों से जैसे सारा जहां पा लेते हैं।  लड़की के प्रेम में उसका आसमान हुआ चेहरा इन कविताओं में झिलमिलता है तो वैराग्य में लिप्त होने में लुप्त होने के विरल भाव भी कविता ने संजोए है।
बहरहाल, यह महज संयोग ही नहीं है कि परीक्षित सिंह की इन कविताओं को पढ़ते हुए ‘पूर्णमिद्म’ के भारतीय दर्षन से भी औचक साक्षात् होता है। हमारे यहां कहा गया है, पूर्ण में से यदि पूर्ण निकाल दिया जाए तो भी पूर्ण ही बचता है। इन कविताओं का स्वर भी कुछ ऐसा ही है कि इनमें शब्द अपनी अर्थगर्भिता में कविता के समाप्त होने के बाद भी हममें बचे रहते हैं। इसीलिए उनकी संग्रह की एक कविता में ‘मेरा शून्य पूरा कर दो’ जैसी मार्मिक व्यंजना में प्रकृति से अनूठा संवाद है। इन कविताओं में वह ‘दर्पण में एक और दर्पण’ और ‘व्योम में चक्रमान एक और व्योम’, ‘सभी रोषनियां साये हैं’, ‘वह कैसा व्यक्ति था/जो अपनी श्रद्धांजलि/स्वयं लिख गया’ जैसे शब्द ओज में भूत, भविष्य और वर्तमान को अपने तई गहरे से अंवेरा गया है। बहुतेरी कविताओं में जीवन से जुड़ी विसंगतियों और विडम्बनाओं का चित्रण तो है परन्तु आषा के वह स्वर भी है जिसमें व्यक्ति तमाम द्वन्दों से बाहर निकल सकता है, बषर्ते अपनी खोज की राह को बंद न करे। एक प्रकार से उनकी कविताएं अंतर की खोज का आह्वान है, जरा गौर करें इन पंक्तियों पर-‘अग्नि की ज्वाला भी/स्वर्णिम फूल है/जिसकी पंखुड़ियां/एक-एक कर खुलती है/जैसे कलियां।’
परीक्षित सिंह के पास कहन का अपना मुहावरा है और अनूठा सौंदर्य बोध भी है। इसमें ‘अंत में बचता है क्या/कुछ भी तो नहीं/थोड़ा-सा प्रेम/कुछ आराधना/बूझती रोषनियां।’ की शब्द व्यंजना में जैसे उन्होंने गागर में सागर भरा है।
‘स्वयं का घुसपैठिया’ संग्रह की कविताओं में अंतर्मन संवेदनाओं के अन्वेषण के बहाने प्रेम, आस्था, दर्षन और अध्यात्म की लूंठी-अलूंठी व्यंजना की गयी है। भाव-चिंतन की गहराईयों में ले जाती यह कविताएं मन के झरोखे में दृष्य का विरल भव रचती है। यह महत्वपूर्ण है कि इन कविताओं में दर्षन की गहराईयां तो है ही, साथ ही मौन का स्वर भी इनमें अंतर उपजे भावों से सुना जा सकता है।  कविताओं के साथ रविन, रंजन बंदोपाध्याय, अरणी चैधुरी के चित्र भी मन को रंजित करने वाले हैं।


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