Saturday, August 14, 2010

पौराणिक, ऐतिहासिक चित्रों के रूपक

सर्जनशील कला परम्परा से पोषित होने के बावजूद कलाकार की स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही जन्म लेती है। तैलरंगीय चित्रों को ही लें। कला की यह शैली विदेश से भारत आयी है परन्तु कला की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य और सर्जनात्मक ऊंचाईयां इस कला को भारतीय कलाकारों ने अपनी स्वतंत्र आंतरिक प्रेरणा से ही प्रदान की।

राजा रवि वर्मा, बीपी बनर्जी, एम.ए. घोष, माधव विश्वनाथ, जामिनी प्रकाश आदि चित्रकारों की जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में लगी ‘टिन्ट टू दी मास’ प्रदर्शनी का आस्वाद करते लगा भारतीय कला ने सर्वव्यापी व शाश्वत तत्वों को अपने सम्मुख आदर्श के रूप में रखा है। वहां कलाकार कला के बाह्य रूप तक ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि यथार्थ, आख्यान के भीतर निहित संवेदना, उसके उत्स और भावनाओं पर अधिक गए हैं। यही कारण है कि दर्शकीय दीठ में चित्रकार दार्शनिक और कवि रूप में भी प्रायः मिलता है। क्रोमोलिथोग्राफ्स और ओलियोग्राफ्स तकनीक से मुद्रित शिव-पंचायत, राधा-कृष्ण, नृसिंह भगवान, विष्णु, सिद्वी विनायक और ऐसे ही पौराणिक आख्यान के दूसरे चित्रो की भाव-भंगिमाएं रूपकों की निर्मिती करती हैं। ऐतिहासिक चरित्रों के भी जो चित्र तब कलाकारों ने बनाए वे व्यक्ति चित्र नहीं होकर किसी आख्यान को नाटकीय रूप में उजागर करते हैं। तत्कालीन लोक जीवन की अनुगूंज भी इन चित्रो में विशेष रूप से दिखायी देती है। रामदरबार के एक प्रिंट में यहां राम मूंछो सहित है। लोकाख्यान की यह कला परिणति बहुत से स्तरों पर दूसरे ओलियोग्राफ्स में भी दिखायी देती है। लगभग सभी चित्रों में रेखाओं की रंगसंगति चमकीली व आकर्षक है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पश्चिम से प्रेरणा के बाद भी कला की इस शैली में भारतीय परम्परा कहीं विलुप्त नहीं हुई है।

बहरहाल, ओलियोग्राफ यानी तैलरंगीय छाप चित्रों के अंतर्गत पहले पहल फ्लेमिश कलाकार यान वान आइक ने चमकीलापन डाला। उनके इस प्रयोग को बाद में इटली के चित्रकार आंतोनेलो द मेस्सिना ने भी अपनाया और बाद में तो निम्न परत, मोटी परत, सूक्ष्म छटांकन आदि तरीको ंको अपनाते हुए तैल चित्रण पद्धति पूर्णतः विकसित होती चली गयी। थिओडोर जेन्सन नाम के इंगलिश चित्रकार से तैलरंगचित्रण पद्धति की शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजा रवि वर्मा ने भारतीय जीवन, व्यक्ति व पौराणिक विषयों को सांगोपांग ढंग से उकेरा। तैलरंगीय चित्रों को भारत मंे शास्त्रीयता प्रदान करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने ही कला की इस तकनीक को बहुसर्जक और एक प्रकार से मनोहारी भी बनाया। उनके बाद ऐसे चित्रों की एक प्रकार से हमारे यहां परम्परा सी ही बन गयी और घरों में आज भी दीवारों पर ऐसे बनाए चित्रों की प्रतिकृतियां के कैलेण्डर टंगे हम देख सकते हैं।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 13-08-10

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