Friday, August 20, 2010

चाक्षुष बिम्बों में भावों का सम्प्रेषण

कलाओं में परस्पर द्वैत नहीं अंर्तसम्बन्ध होते हैं। एक कलाकार जब सर्जन करता है तो रचना में निहित उसकी अनुभूति और संवेदना ही उसे उदात्त बनाती है, कईं मायनों में सर्वग्राही भी। फोटोग्राफी को ही लें। चित्रकला की भांति इसमें जो दिख रहा है, वही यदि उभरकर सामने आता है तो उसका कोई कला अर्थ नहीं है परन्तु भावग्राही दीठ वहां है तो वही उसका कला आधार बन जाता है।

बहरहाल, छायाकारी ही नहीं बल्कि किसी भी कला के रूप मंे परिवर्तन होते रहना उस कला को सचेत व प्रभावी रखने के लिए आवश्यक है। पहले पहल जब कैमरा अस्तित्व में आया तब उसका प्रमुख ध्येय जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू प्रस्तुत करना ही रहा होगा परन्तु जैसे-जैसे उसका विस्तार हुआ, कला माध्यम के रूप में भी उसने अपनी पहचान बनायी। भले ललित कला अकादमी फोटोग्राफी को अभी भी कला नहीं मानें परन्तु माध्यम के रूप में फोटोग्राफी को कोरी यांत्रिक प्रक्रिया भर नहीं कहा जा सकता। रघुराय, ज्योति भट्ट, अकबर पदमसी के छायाचित्रों को ही लेें। क्या वहां कला नहीं है? कैमरा जब यथार्थ में अन्र्तनिहित संवेदनाओं का सृजन करता है तो उस क्रिया में साधारण चीजें कला रूपान्तरण के रूप में ही हमारे सामने आती है। तब तस्वीरों में उभरने वाले अजीबोगरीब दृश्य हमारे अवचेतन मन को छूने लगते हैं। विश्व फोटोग्राफी दिवस पर छायाकार महेश स्वामी की छाया-कला प्रदर्शनी ‘यात्रा’ से रू-ब-रू होते भी लगा उसकी खींची तस्वीरें यथार्थ का अंकन भर नहीं है। वहां दृश्य में निहित संवेदनाओं, भावनाओं और उस सौन्र्दबोध को भी छुआ गया है जो हमारे अन्तर्मन को झकझोरते कुछ सोचने को विवश करता है। मसलन स्कल्पचर को कैमरे से पकड़ते उसने उसके आकाश, बुलन्द इमारत को भी इस खूबसूरती से प्रस्तुत किया है कि वह यथार्थ में जो दिख रहा है, उससे परे अमूर्त संवेदना का चाक्षुष बिम्ब बन गया है। इसी तरह समारोहों की हलचल में कदमताल को आउट आॅफ फोकस करते जो दृश्य संयोजन किए गए हैं, उनमें एक नये तरह का भावबोध संप्रेषित होता है। यही नहीं ऐतिहासिक इमारत के पानी में पड़ते अक्स, वास्तु धरोहर में परिन्दों के बास, प्रकृति दृश्यावलियों में अन्र्तनिहित सौन्दर्य के बिम्ब कला का सर्वथा नया मुहावरा ही रचते हैं।

मुझे लगता है, संवेदनाओं के चाक्षुष बिम्ब उकेरने वाला छायाचित्रकार भी सर्जक, चित्रकल्पी ही होता है। भावग्राही दृष्टि के अंतर्गत फोटोग्राफी और चित्रकला में परस्परावलम्बता है। दोनों में ही जब सर्जक यथार्थ को एक निजी अनुभव की तरह समझता है तो जीवन के नये तथा अद्वितीय बिम्ब हमारे सामने उभरकर सामने आते हैं और ऐसे बिम्बों के जरिए ही अनंत के बारे में एक जागरूकता विकसित होती है।...तो अब भी क्या फोटोग्राफी को हम कला नहीं कहेंगे!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 20-8-2010

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