Friday, October 22, 2010

नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

कलात्मक खोज हमेशा जीवन को नया तथा अद्वितीय बिम्ब देती है। यह कलाएं ही तो है जो जीवन की अनंतता के बारे में हमें चिरन्तन ललक देती है। छायाचित्रों को ही लें। वहां पर सामान्यतः यथार्थ का ही दर्शाव होता है परन्तु इससे परे जब छायाकार अपनी अर्न्तदृष्टि में दृश्यों में निहित संवेदनाओं को परोटने लगता है तो वह चाक्षुष में दृश्य के सत्य को प्रकाशित करने लगता है। दरअसल सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में चित्रकला की बजाय छायाचित्र गति और स्थिति को अधिक प्रभावी ढंग से पुनःप्रेक्षित करते हैं। सृजन की आंतरिक गत्यात्मकता में तकनीक वहां कला में गजब का संतुलन जो स्थापित करती है। हस्तनिर्मित चित्रों में शायद यह संभव नहीं।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में कुछ समय पूर्व अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की छायाकृतियों से रू-ब-रू हुआ था। एक नजर में महाकुम्भ के दृष्यों के लोक ने खास आकृश्ट नहीं किया परन्तु जैसे-जैसे छायाचित्रों की गत्यात्मकता पर गया, लगा उन चित्रो में बहुत कुछ कुछ विषिश्ट है। अजय-एंड्रयू हरिद्वार के महाकुम्भ को कैमरे के अपने लैंस से खंगालते बहुत से स्तरों पर कला की गहराईयों में गए हैं। मसलन मोक्ष के लिए स्नान के अंतर्गत उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे एक व्यक्ति चित्र में विषय की बारीकी ही नहीं है बल्कि उसके महत्व की भी जैसे स्थापना की गयी है। ऐसे ही महाकुम्भ में एक स्थान पर साधु के हुक्के में उठती चिंगारी में दृश्य के साथ समय के अवकाश को पकड़कर उसे जैसे स्थिर कर दिया गया है। पूर्णाहुति में राख मले साधु हों या फिर शाही स्नान की ओर बढ़ते नागा साधुओं के कदम या फिर हुजूम में अकेलेपन को बंया करते नागा साधुओं के व्यक्ति चित्र-प्रदर्शित छायाकृतियां स्वयंस्फूर्त दृश्य संवाद कराती है। महाकुम्भ के बहाने साधुओं की फक्कड़ता, उनके राजसी ठाठ, मोक्ष के लिए उनकी भटकन के साथ ही कहीं-कहीं भौतिकता से विलग होते भी उसमें रमती उनकी मुखाकृतियां के छाया दृश्यों की यथार्थपरकता को एक प्रकार से छायाकारों ने चाक्षुष कला दृश्यों में रूपान्तरित किया है। ऐसा करते एकाधिक नागा साधुओं की मुखाकृतियों में एक खास एकांतिका भी अनायास ही उजागर हुई है।

बहरहाल, मुझे लगता है श्रद्धा की मूल भावना को महाकुम्भ श्रृंखला के छायाचित्र एक मधुर स्मृति में तब्दील करते महाकुम्भ के विराट रूपाकारों को साकार करते हैं। महाकुम्भ में नागा साधुओं, वहां आए श्रद्धालुओं की भावाविष्ट मुख-मुद्राओं, दृश्यों की लम्बी श्रृंखला की अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू की रचनात्मक छायाकृतियों का यह वृहत दस्तावेज छायाकला का उनका नया आयाम है।

जे.स्वामीनाथन् का कहा याद आ रहा है, ‘एक कलाकार का काम केवल कला-रचना या उसका सृजन मात्र नही है, बल्कि जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करना और प्रबुद्ध कला-दर्षकों को तैयार करना भी है।’ मुझे लगता है, छायाचित्र में छायाकार जो कुछ देखता है, उसका कैमरे की अपनी आंख से एक प्रकार से पुनराविश्कार करता है। ऐसा करते वह देखने की एक कला दृश्टि और षैली भी अपने तई विकसित करता है, वही उसका छायाकला का अपना मुहावरा होता है। छायाचित्र मंे यदि यथार्थ को हूबहू वैसे ही दिखा दिया जाता है, तो उसमें सब कुछ तकनीक का ही खेल होता है परन्तु जो दिख रहा है उसमें निहित संवेदना, उससे जुड़ा कला सौन्दर्य यदि छायाकार पकड़ लेता है तो वह एक प्रकार से सृजन ही कर रहा होता है। ऐसा करते वह जन अभिरूचियों में कला के प्रति आकर्शण पैदा करने का कार्य भी अनायास ही कर रहा होता है। अजय सोलोमन और जॉन एंड्रयू के छायाचित्र कला की दीठ से जनहितेशणा युक्त रचनाधर्मिता के सषक्त संवाहक हैं। हमारी समृद्ध परम्पराओं की छायाकला का उनका यह सृजन सतर्क कल्पनाषीलता के साथ बदलते दौर में महाकुम्भ के संदर्भ में सर्वथा नवीन वैचारिक स्थापनाएं भी कराता है। कलादीर्घा में उनके छायाचित्रों के भव में विचरते औचक मन कह उठा, नमन महाकुम्भ! तुम्हारे ये दृश्यालेख...

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