Friday, October 7, 2011

कलाओं से रचा ‘संगना’ छंद

कहीं पढ़ा जेहन में कौंध रहा है, ‘ज्योतिरूपो रसः स्मृतः।’ केवल रस रूप नहीं। ज्योतिरूप रस। ज्योति का संवाहक रस। संगीत, नृत्य, नाट्य कलाओं के आस्वाद की अनुभूति। कलाओं से खाली रस ही थोड़े ना मिलता है। सोचिए! संगीत सुनते हम उसे गुनते हैं। नृत्य-नाट्य कलाओं का आस्वाद करते बहुतेरी बार हम खुद ही उनमें रमने लगते हैं। वहां जो रस मिलता है, वह देखने-सुनने के समय ही नहीं बल्कि उसके बाद भी सजीव रूप में बचा रहता है। कईं बार पूरा जीवन ही उस रस से ओत-प्रोत हो जाता है। कलाओं के आस्वाद की स्मृति छायाएं ही तो नहीं है कहीं यह ज्योति रस!
 ख्यात कला समीक्षक, कवि प्रयाग शुक्ल ने कुछ दिन पहले स्नेहवष ‘संगना’ भेजी। संगीत नाटक अकादमी ने इसे उनके संपादन में प्रकाषित किया है। ‘संगना’ शब्द ‘संगीत नाटक’ में प्रयुक्त अक्षरों से निर्मित किया गया है। संगीत से संग और नाटक से ना लिया गया है। ‘संगना’ माने जो संग हो। ‘संगना’ में ध्वनित ‘हमारे संग हो ना’ की उनकी सम्पादकीय व्याख्या लुभाती है।
बहरहाल, संगीत, नाटक और नृत्य कलाओं पर  216 पृष्ठीय सामग्री का आगाज सुखद है। मसलन मुकुन्द लाठ का विषेष आलेख ही लें जिसमें संगीत की शास्त्रीयता के साथ ही जन सरोकारों पर रोषनी डाली गयी है। लाठ संगीत को स्वर-पद-ताल का समवाय कहते हैं। लिखते हैं, ‘लय को काल का ऐसा प्रवाह कह सकते हैं जिसका हमारे भावबोध से अंतरंग संबंध होता है...हम कुछ भी गाए या बजाएं तो स्वर का प्रवाह लय मंे छन्द के गुच्छे उभारता चलता है...।’ रमेषचन्द्र शाह द्वारा संगीत और अन्य कलाओं पर समय-समय पर लिखी ‘डायरी’ भी गजब की है। ‘जब जो सुना सुनकर गुना’ में वह संगीत और नृत्य में शरीर और साहित्य में शब्द माध्यम पर विचारते आधुनिक जीवन की लय को ही जैसे व्याख्यायित करते हैं। ऐसे ही रवीन्द्र संगीत की लय को जीवन से जोड़ती नवनीता देवसेन का शब्द माधुर्य भी लुभाता है। गीतों के झरने तले’ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों से गुंफित जीवनानुभवों में नवनीता के कथाकार, कवि मन को भी गहरे से समझा जा सकता है।
अषोक वाजपेयी के कहन में सदा ही शब्दों की संस्कार परिणति देखी है। और स्पष्ट करूं तो कला संस्कार परिणति।  मल्लिकार्जुन मंसूर पर लिखी कविताएं और उनके गान, व्यक्तित्व पर उनके लिखे संस्मरण की पंक्तियां देखें, ‘मल्लिकार्जुन मंसूर का संगीत जीवन की सुरों से आरती उतारते हुए संसार का गुणगान  था: उसमें गहरी आसक्ति, उच्छल मोह, अदम्य आवेग और निपट एकान्त सब थे जैसे कि संसार में होते हैं।...’
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के शहनाई गान और उनके व्यक्तित्व पर ‘संगना’ में व्योमेष शुक्ल का रचा शब्द रूपक और पंडित भीमसेन जोषी के गान पर यतीन्द्र मिश्र का आलेख गायन-वादन को समझने की नयी दीठ देता है। हबीर तनवीर की रंग दृष्टि के बहाने रंगकर्म में लोक एवं शास्त्र की सूक्ष्म आवाजाही को संगीता गुंदेचा ने आलेख में गहरे से उद्घाटित किया है। बाल रंगमंच की पुरोधा रेखा जैन के व्यक्तित्व और उनके रंग सरोकारों पर ज्योतिष जोषी का संस्मरण भी पठनीय है। असमिया सिनेमा के अंतर्गत श्रीमंत शंकर देव पर बनी फीचर फिल्म पर लिखा रत्नेष कुमार का आलेख भी अलग से ध्यान खींचता है।
उदयन वाजपेयी के लिखे की चर्चा भी मुझे जरूरी लगती है। लिखे में दृष्य आस्वाद कराते वह पणिक्कर के साथ नाटक पर काम करते की जो याद करते हैं, उसमें उनकी प्रकृति संवेदना से भी साक्षात् होता है। लिखते हैं, ‘कावालम में पणिक्कर का घर खूबसूरत पम्पा नदी के तट पर था। मेरी सोच में यह नदी रामायण से निकलकर इस गांव तक बहती चली आई थी।...बहती हुई नदी चित्र-लिखित-सी...’
सामग्री और भी है, महत्वपूर्ण भी। लिखूंगा तो न जाने और कितने पन्ने भर जाए। हां, यह जरूर है कि प्रयाग शुक्ल ने अपनी गहरी सम्पादकीय सूझ से ‘संगना’ के जरिये संगीत, नृत्य और नाट्य पर सोचने, विचारने का नया वातायन दिया है। आखिर यह कलाएं ही तो हैं जिनमें जीवन का उजास है। विद्यानिवास मिश्र के शब्द उधार लूं तो कहूं कला सन्निविष्ट है हमारा जीवन। कलाओं के बिना जीवन अपना सहज छंद क्या पहचान पाएगा! लिख रहा हूं तो ‘संगना’ साथ है। आप भी तो हैं!
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