Friday, October 21, 2011

दीपो यत्नेन वार्यताम्

कार्तिक उत्सवधर्मिता का मास है। आम आदमी के कला सरोकारों, संस्कृति और परम्परा के पोषण का महिना। धार्मिक अर्थ में सूर्योदय से पहले स्नान का पावन मास। तमाम महिनों में श्रेष्ठतम। अनगिनत पर्व-परम्पराओं का संयोग इसी माह में होता है। शरद पूर्णिमा आती है। करवा चौथ आती है। धन तेरस, छोटी दिवाली, बड़ी दिवाली, गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, भैयादूज, गोपाष्टमी, देव उठनी एकादषी, तुलसी विवाह और भी बहुत सारे उत्सव दिन। मुझे लगता है, भीतर की हमारी कलाओं का पोषण इन सबमें ही तो होता है। करवा चौथ में सोलह श्रृंगार कर छलनी से चांद निहारने की परम्परा हो या फिर शरद पूर्णिमा में खीर बना उसे चांद की रोषनी में रख पान की परम्परा हो या फिर गोवर्धन पूजा के अंतर्गत गोबर में हिरमच और दूसरे रंग मिला मांडणे मांड दीप जला पूजने की रीत। सबमें उत्सवधर्मिता के साथ कलाओं को ही तो हम गहरे से जीते हैं। दीपावली आती है तो एक साथ असंख्य दीपकों का प्रकाष मन में भी उजास भरता है।

बहरहाल, कार्तिक माह में स्नान का विषेष महत्व है। याद पड़ता है, बीकानेर के अपने घर में दादी जब काति नहान करती थी तो घर उत्साह के अनगिनत रंगो से भी जैसे रंग जाता था। भोर के उजास से पहले दादी उठती। हरजस गाती ईष्वर को स्मरण करती। पौ फटने से पहले नहा लेती। ठंडे जल से। सुबह हम उठते तो स्नानघर के पास जगमगाते दीपक की लौ और हरजस का माधुर्य मन में अवर्णनीय आनंद की अनुभूति कराता। दादी कहती, नदी में स्नान होता तो और पुण्य मिलता। नदियां यहां कहां! दादी स्नानघर में ही नदियों को बुला लेती। अचरज होता कभी स्कूल नही गयी दादी परन्तु तमाम हमारी धार्मिक नदियों का संस्कृत आह्वान करती थी-

पुष्करादीनि तीर्थानिगङ्गाद्यारूसरितस्तथा।आगच्छन्तुपवित्राणिस्नानकालेसदा मम॥

गङ्गे चयमुनेचैवगोदावरिसरस्वति।नर्मदेसिन्धु कावेरिजलेऽस्मिन्संनिधिंकुरु॥

कला का यही जीवन उत्स है। जो नहीं है, अपूर्ण है उससे पूर्णता की गमन। किसी विषेष अनुभूति को निपुणता द्वारा अभिव्यक्त करना ही तो है कला। नदी नहीं है परन्तु नदी को अनुभूत करना। उसमें नहान के आनंद की यह अभिव्यक्ति ही क्या कला नहीं है!

मानव संस्कृति का आवष्यक अंग ही कला है। जीवन के सहज आनंद की अभिव्यक्ति के अलावा कला का कोई अन्य उद्देष्य हो भी कैसे सकता है। महात्मा गॉंधी ने इसीलिये तो कला को आत्मा का ईष्वरीय संगीत कहा है। कार्तिक नहान की परम्परा को पुण्य प्राप्ति से जोड़ा गया है। इस माह में नहान माने बाह्य और आभ्यन्तर की पवित्रता।

बहरहाल, परम्पराओं से ही कलाएं पोषित होती है। धर्म, संस्कार, रीत-रिवाज के तमाम हमारे कर्म कलाओं के ही तो हेतु हैं। दीप पर्व दीपावली तो कला का सिरमौर पर्व है। मिट्टी के जगमगाते दियों की अनवरत श्रृंखला के सौन्दर्य की दीठ इसी पर्व पर होती है। प्रजापति कुम्हार मिट्टी के दीये गढ़ता है, और भी बहुत सारी मूर्तियां बनाता है। मोलेला मृण मूर्तियों के लिये विष्व विख्यात है। अभी कुछ दिन पहले ही उदयपुर जाना हुआ तो वहां भी गया। पता चला सड़क के मोड़ पर है यह गांव सो इसका नाम कभी था ‘मोडेडा’। कालान्तर में परिष्कृत होते यह मोलेला बन गया। कार्तिक माह में मोलेला की मूर्तियां, दीपकों की सर्वाधिक बिक्री होती है। वहां बनी लोक देवी-देवताओं की मिट्टी की फड़ तो अब हर आम और खास में लोकप्रिय है। मिट्टी की फड़ माने लोक देवी-देवताओं की मूर्तियों का कोलाज। सोचता हूं तो पाता हूं जीवन में तमाम कलाओं का उत्स हमारी परम्पराओं, उत्सवधर्मिता की संस्कृति से ही तो है। उत्सवधर्मिता का उजास जीवन में होता है तभी तो कलाओं का सृजन होता है। दीपावली को ही लें, कला की उत्सवधर्मिता इस त्योहांर पर अपनी पूर्णता में होती है। शहरों में तो नहीं परन्तु गांव और बीकानेर जैसे हमारे कस्बाई शहर में घरों में दीपावली पर लक्ष्मी के आगमन के लिये प्रतीक रूप में कुमकुम से उसके पगलिये अभी भी बनाये जाते हैं। सुन्दर पगलिये। मांडणे। मिट्टी के सुन्दर दीपक घरों में लाये जाते हैं। उन्हे पहले धोकर साफ किया जाता है फिर तेल-बाती डाल घर के हर कोने में रखा जाता है। दीवारों पर दीपकों की पूरी की पूरी श्रृंखला बनायी जाती है। दीपक जलाते हैं परन्तु पूर्ण जतन से। कला की समग्रता से। ‘दीपो यत्नेन वार्यताम्’ माने दीया जलाओ पर जतने से जलाओ।



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