Friday, December 2, 2011

सौ रंगों की सारंगी हुई मौन

शब्द के साथ जब सुर मिलते हैं तभी होता है गान। उस्ताद सुल्तान खां की सांरगी को सुनें तो लगेगा वहां शब्द न भी घुले हों तब भी गान का माधुर्य है। उनकी सारंगी गाती थी। इस गाये में आलाप, स्वर की स्थिरता, मींड, गमक, मुरकी और तान की तमाम कंठ क्रियाओं को सहज अनुभूत किया जा सकता था। माने कंठ से जो स्वर निकले वह सब उस्ताद की सारंगी निकालती थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, पं. भीमसेन जोषी, मल्लिकार्जुन मंसूर, केसरबाई केरकर के गान में उनकी सारंगी संगत जैस सुरों की वर्षा करती। जब भी इनके स्वरों के साथ संजोयी उस्ताद की सारंगी पर जाता हूं, लगता है कंठ की हरकत को पकड़ते विकट तानों पर भी उनकी सारंगी सम पर जाकर ही थमती। पंडित रविषंकर के सितार, उस्ताद जाकिर हुसैन के तबला, पंडित षिवकुमार के संतुर और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसूरी के साथ उस्ताद सुल्तान खां की सारंगी बढ़त करती। बहुतेरी बार तो शब्द और सुरों को पूर्णता उनकी सारंगी ही प्रदान करती। तानों के उनके निकास पर जब भी जाता हूं मुझे लगता है वह जो बजाते उसमें लड़ियों का जैसे कोई सुन्दर सा नौलखा हार पिरोया गया है। भीतर के खालीपन को भरती उनकी सारंगी रागों को जैसे जीवंत करती। हर राग को गाती उनकी सारंगी में स्वर रस का जैसे निर्झर बहता।

सारंगी तत्सम शब्द है। अर्थ करें तो स्वर के माध्यम से अंगों में जो अमृत घोले वह सारंगी है। उस्ताद सुल्तान खा की सारंगी ऐसी ही थी। वह जब सारंगी बजाते तो ऐसा लगता जैसे कोई गला गा रहा है। गजल, ठुमरी, दादरा के सुरों में मिलती उनकी तरजें माधुर्य के अनुठे लोक में ले जाती। यह उस्ताद की सारंगी ही है जो ख्यात गायकों, वादकों के गान-वादन में सुनने की अवर्णनीय अनुभूति कराती है। शास्त्रीय ही नहीं लोकप्रिय संगीत में भी उनकी सारंगी के घुले रस जीवन के जिस आनंद रस का संचार करती रही है, उसे शब्द कहां बंया कर सकते है! राग भैरव, बसंत, मारवा और भी दूसरे रागों का गान करती उनकी सारंगी के साथ बहुतेरी बार दूसरे वाद्य सहयोग जरूर करते परन्तु मुझे लगता है किसी ओर के समाश्रित नहीं रही उनकी सारंगी। माने अन्य किसी भी वाद्य का आश्रय वहां नहीं है। बीन अंग के आलाप करते हुए मन्द्र सप्तक से लेकर अतितार सप्तकों तक वह विस्तार करते। गज चलाने की अद्भुत निपुणता। उल्टे सीधे-छोटे-लम्बे गज पर नियंत्रण। शायद इसका बडा कारण यह भी था कि उन्होंने सारंगी में अपने को समर्पित करते हुए साधा था। बड़े गुलाम अली खा, आंेकार नाथ ठाकुर, सिद्धेष्वरी देवी और भी तमाम उन लोगों से निरंतर उन्होंने सीखा जिनके साथ वह सारंगी वादन किया करते थे। उनकी सारंगी किसी एक घराने से नहीं बल्कि संगीत के तमाम घरानों से ताल्लुक रखती। घरानों की बढ़त में संगीत की विराटता का अहसास वहां है। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। देर तक चलने वाले लम्बे-लम्बे छंदों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सधे हुए गायक की मानिंद उनकी सारंगी स्वरों के अनूठे लोक में ले जाती। यह ऐसा था जिसमें मींड और गमक के साथ विकट तानों की पूर्णता होती थी। इसीलिये स्वर साधकों के साथ की उनकी सारंगी संगत गान को निखारती। गला जहां आलाप नहीं ले सकता, तान को पूरा नहीं कर सकता वहां उनकी सारंगी चली जाती। जब भी उनकी प्रस्तुति से साक्षात् हुआ, लगा उंगलियों को बाज के तार के किनारे दबाये रखते ऊपर-नीचे चलते वह सारंगी में रम जाते। साधनारत किसी जोगी की मानिंद। सारंगी की उनकी इस साधना से ही बाद में उनके गले के सुर भी सजे। ‘अलबेला सजन आयो रे...’, ‘पिया बसंती...’, ‘आंखो से ख्वाब रूठकर, पलकों से अष्क टूटकर...’ गान सुनें तो माधुर्य की अनूठी मौलिकता की अनुभूति होगी। अक्सर वह कहते भी थे, ‘मेरा रियाज नहीं गाता, रूह गाती है।’ सच! गान की उनकी यह रूह जैसे बंदे का खुदा से साक्षात् ही कराती। पंडित रामनारायण, मुनीर खां, शकूर खां, गुलाम साजिद, बन्ने खां, गोपाल मिश्र की सारंगी परम्परा को उन्होंने संजोया ही नहीं बल्कि अपने तई उसे सदा आगे भी बढ़ाया। सीकर में जन्में। बाद में जोधपुर आ बसे। विष्वभर में उन्होंने सारंगी को लोकप्रिय किया। सारंगी नहीं सौरंगी कहें। गायन-वादन के सौ रंग वहां जो हैं!


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