Friday, January 6, 2012

कैनवस पर सौन्दर्य संवेदना का गान


चित्र माने आकार की भाषा। सोचिए! सूक्ष्म और स्थूल आकार पर यदि किसी रंग का नाम लिख दें तो क्या वह आकार उस रंग में दिखाई देगा! नहीं ही दिखाई देगा क्योंकि चित्र की भाषा शब्द नहंी आकृति और रंग है। चित्रकला दृष्यकला इसीलिये तो है कि यह पढ़ने या सुनने की चीज नहीं देखने की चीज है। अर्थ नहीं अर्थ संकेत वहां सौन्दर्य के संवाहक जो होते हैं।

बहरहाल, कलादीर्घाओं में मूर्त-अमूर्त चित्रों से रू-ब-रू होते सौन्दर्य को इतने आयामों में अनुभूत किया है कि लिखूंगा तो न जाने कितने पन्ने भर जाए। अभी बहुत समय नहीं हुआ, कलानेरी कला दीर्घा में डॉ. सुमन एस. खरे की कलाकृतियां का आस्वाद करते लगा यथार्थ का कैनवस में वह अपने तई रंग और रेखाओं से पुनराविष्कार करती हैं। जल, जंगल और जमीन के साथ ही पषु-पक्षी, लोक कलााओं का उजास और उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति में निहित संवेदना को भी समझ के गहरे रंग, रेखाएं खरे ने दी है। आकृतिमूलकता में सौन्दर्य की अद्भुत सृष्टि। रंगों का अनूठा लोक। बिंबो की सघन श्रृंखला में लोक कलाओं का उजास। संवेदनाओं के अनुभव का यही तो है भव।

कैनवस पर बरते डॉ. सुमन एस. खरे के रंग बहुत से स्तरों पर भले यथार्थ से परे हैं परन्तु उनमें जीवंतता है। मयूर आकृतियों को ही लें। असल रंगों की बजाय मोर को बहुतेरे दूसरे रंगों में नृत्य करते दिखाया गया है परन्तु यह ऐसे हैं जिनसे हमारी दीठ का विस्तार होता है। माने रेत नहाता, रेत पर लोटता रेत रंग लिये मोर। पंख फैलाता और औचक घुमाकर अपने को ही देखता मयूर। मेघ मल्हार में नृत्य करते से भिन्न है यह मोर। मयूर की भिन्न स्थितियों को परोटते कैनवस पर खरे जैसे रंग सृष्टि करती है। प्रकृति के सौन्दर्य की रेखाओं और रंगों में यह गत्यात्मक लय है। इसलिये कि उनमें ध्वनित मयूर संस्कृति के अनगिनत चितराम औचक हमारी स्मृति का हिस्सा बनने लगते हैं। चित्रकला, संगीत, षिल्प, स्थापत्य की हमारी संस्कृति में मयूर यत्र तत्र सर्वत्र है। राजस्थान में तो लोकगीतों की मिठास मोर महिमा से ही है। आबू के पहाड़ों पर बोलते मोर की सुरमयी अभिव्यंजना हो या फिर ढलती रात में कलेजे में फांस की तरह फंसती मोर की आवाज।...और मोर पखों के सौन्दर्य की तो बात ही कुछ ओर है। भगवान श्री कृष्ण का तो एक नाम ही मोर मुकुट बंषीवाला है। नाद, स्पर्ष, रूप, रस और गंध के पर्याय मोर के पांच रंग ही तो है। तलाष करें तो पाएंगे सौन्दर्य के तमाम भाव यहां है। षड्ज स्वर भी मयूर नाद ही है। षिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर है।...मोर की महिमा अपरम्पार। जितना कहें उतना ही कम।

बहरहाल, खरे की मयूर कलाकृतियों ही नहीं बल्कि प्रकृति से जुड़ी तमाम कैनवस आकृतियांे के सधे हुए स्ट्रोक भीतर की हमारी संवेदना को गहरे से जगाते हैं। लोक अभिप्राय के रूपांकन में वह मिट्टी, गोबर और तमाम दूसरे रंगों की ठेठ देसजता को भी कैनवस पर अपने तई परोटती है। सहज आकर्षित करते हैं उनके यह चित्र। सलेटी, धूसर रंगों का मोर यहां भले यथार्थ से परे भी है परन्तु वह हमें भाता है। ऐसे ही मणिपुरी, असमी, मराठी लोकनृत्यों के भांत-भांत के चितराम भी लुभाते हैं। मसलन बिहू नृत्य में लड़कियों के पार्ष्व में परिवेष की सघनता, जंगल की आग में हरियाली की दहक, पलाष के फूलों के चटखपन के जीवंत दृष्य।

स्वस्फूर्त गतिषील प्रकाष पुंज में खरे के चित्र हमसे जैसे संवाद करते हैं। भीतर की हमारी सौन्दर्य संवेदना का गान यहां है। प्रकृति का सांगीतिक आस्वाद। रेखाओं और रंगों की गत्यात्मक लय। कैनवस पर सहज ग्राम्य जीवन, प्रकृति के पल-पल बदलते रूपों, जंगल की वनस्पतियों की भांत-भांत दीठ। मुझे लगता है, रेखाओं की अन्विति में वह दृष्य के उस सौन्दर्य को गहरे से रूपायित करती हैं जिसमें प्रकृति का सहज गान है। मेघों की छटाएं यहां है तो दूर तक पसरी धरित्रि की हरियाली है। आकृति का बाह्य रूप ही यहां नहंी है बल्कि प्रकृति की सौरम की ताने-बाने में बुनावट है। प्रकृति सौन्दर्य के अपार का उनका यह चाक्षुष स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़त ही तो है। आप क्या कहेंगे!


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