Friday, January 13, 2012

संस्कृति का संस्थापन नाद

मकर राशि में सूर्य का संक्रमण यानी मकर सक्रान्ति। इससे पहले दक्षिणायन होता है। माने देवताओं के शयन का समय। सक्रान्ति के बाद होता है उत्तरायण। बसन्त आगमन का आभाष। देव जागने का समय। प्रकृति इसी समय सुनाती है जीवन का संदेश। शुरू होता है शुभ और मंगल का उल्लास।
पतंगबाजी का कला पर्व भी तो है मकर सक्रान्ति। हर ओर, हर छोर उड़ती पतंगे आसमान के कैनवस पर इस दिन अनूठे रंगों की जैसे सर्जना करती है। कहीं डोर संग लटकती कन्नी तो कहीं लहराती कटी पतंग। फर्र फर्र उड़ती भांत-भांत की पतंगे। जयपुर के महाराजा रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में सिटी पैलेस में देश-विदेश के पतंगों के संग्रह के लिये बाकायदा कभी पतंगखाना भी बनवाया गया। पतंग उड़ाने का इतिहास हकीम लुकमान से भी जुड़ा है तो नवाबों की पतंगबाजी के किस्से भी कम मशहूर नहीं है। पतंग उड़ाई में वाजिद अली शाह भी कम निष्णात न थे। हर साल पतंगबाजी के लिये वह अपनी टोली के साथ दिल्ली आते और आसमान पतंगों से भरते। पतंग उड़ाने के आशिक अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर भी रहे हैं। जयपुर मकर सक्रान्ति पर पतंगमय होता है तो मेरे अपने शहर बीकानेर में अक्षय तृतीया पर आसमान में किन्नों के पेच भिड़ते हैं। राव बीका ने बीकानेर की जब स्थापना की तो खुशी में एक बड़ा सा चिन्दा उड़ाया। चिन्दा माने बड़ी पतंग। बस तभी से मकर सक्रान्ति की बजाय वहां मई-जून की भीषण गर्मी में पतंगे उड़ाने का रिवाज हो गया जो आज भी चल रहा है।
बहरहाल, मकर सक्रान्ति से पहले ही इस बार जवाहर कला केन्द्र की एक कला दीर्घा पूरी की पूरी पतंग के अनूठे कला उत्सव से सराबोर थी। प्रदेश के प्रयोगधर्मी कलाकार गौरीशंकर सोनी ने संस्थापन में उत्सवधर्मिता की अद्भुत सौन्दर्य सृष्टि की। कला की उसकी इस दीठ में अनुभव और विचार का कैनवस पर ही नहंी बल्कि चर्खी, पतंगों पर भी गजब का रूपान्तरण हुआ। कलादीर्घा में भांत-भांत की छोटी-बड़ी पतंगे। एक बड़ी सी और बहुत सी छोटी टंगी चर्खियां। चर्खियों पर मंडा रेखाओं, रंगो का उजास। कैनवस की अमूर्त-मूर्त आकृतियों पर करीने से टंगा मांझा। मांझे की लछियां और लछियों की जैकेट। मांझे की रंग-बिरंगी गंेदे। गौरीशंकर ने मन मंे उड़ती उमंग, उल्लास के प्रतीक रूप में पतंगों को संस्थापन कला के बहुविध आयाम दिये तो चर्खी पर उकेरी सामयिक-एतिहासिक प्रसंगो से जुड़ी आकृतियों के भी अनूठे बिम्ब दिये।
हमारे यहां संस्थापन यानी इन्स्टालेशन का बेहद पुराना इतिहास रहा है। दुर्गा और गणेश विसर्जन के साथ ही जनमाष्टमी पर सजने वाली झांकियां आदि सभी में संस्थापन ही तो है। अतुल डोडिया, विवान सुन्दरम, सुबोध गुप्ता, अर्पणा कौर सरीखे कलाकारों ने संस्थापन को सामयिक संदर्भ दिये हैं। विडम्बना यह भी है कि इधर अधिकांश हमारा संस्थापन पश्चिम से ही प्रेरित हो रहा है। तकनीक का ही वहां बोलबाला जो है। ऐसे में आधुनिकता के साथ परम्परा के संस्कारों की गौरीशंकर सोनी की कला को देखकर बेहद सुखद भी लगा। गौरीशंकर ने पतंग, डोर, चर्खी को भिन्न आयामों में एक छत के नीचे एक अवकाश में रखते संस्थापन की अद्भुत दीठ दी। विषय-वस्तु और फॉर्म का सोनी का संयोजन विचार में रूपान्तरित होता जिस परिवेश की सृष्टि करता है उसमें उत्सवधर्मिता के अनूठे रंगों का औचक अहसास होता है।
संस्थापन स्थापत्य से जुड़ी कला है। कलानुभव के स्थापत्य से जुड़ी कला। बहुत सारी चीजों को तकनीक के जरिये बेतरतीब बिखरा देना, उनसे चमत्कारिक परिवेश की तलाश करना संस्थापन हो सकता है कला नहीं। कला माने कोई दीठ। ऐसी जो सोचने पर विवश करे। इस दृष्टि से गौरीशंकर का यह संस्थापन कला का अनूठा सौन्दर्य भव लिये है। इसलिये कि वहां पहले से आ रही उत्सवधर्मी हमारी परम्परा का सामयिक कला पोषण है। संस्कृति से जुड़े सरोकार वहां हैं। पश्चिम से प्रेरित संस्थापन नहीं बल्कि उत्सवधर्मी संस्कृति का देशज नाद। गौरीशंकर सोनी का भव्य रंग, रेखा संस्थापन नाद।

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