Saturday, March 31, 2012

नमन धोरा धरा। नमन!

संस्कृति विकास के विविध रूपों की समन्वयात्मक समष्टि है। यह हमारी संस्कृति ही हैॅ जिसमें दृष्य और श्रव्य कलाओं का अनूठा भव है। कहें संस्कृति जीवन में व्याप्त है। यूं भी राजस्थान अपणायत का प्रदेष है। माने अपनत्व से लबरेज राज्य। उत्सवधर्मी संस्कति में रचा-बसा। कलाओं की विविधता लिये। यहां का इतिहास केवल तिथि-क्रम से ही जुड़ा हुआ नहीं है वरन् उसका संबंध उन मान्यताओं, परम्पराओं, विचारों से भी है जिनमें संस्कृति और समाज के गहरे सांस्कृतिक सरोकार निहित होते हैं।
मुझे लगता है, लोक का आलोक लिए है यह राजस्थान की कला-संस्कृति ही है जिसमें संगीत, नृत्य एवं लोक वाद्यों की मधुर झंकार है। रेत के धोरों में बजते अलगोजे, मोरचंग, नगाड़े, मंजिरों , तानपुरे की तान बरबस ही कानों में रस घोलती है तो घुमर, कालबेलिया, तेराताली, भवई जैसे लोक नृत्यों से मन मयुर औचक नाचने लगता है। रेत के धोरों में जीवन के स्पन्दन से जुड़ी है तमाम यहां की हमारी कलाए। माटी की सौंधी महक लिये। कालगत को देषगत बनाते।
चित्रकला की बात करें। तमाम पारम्परिक हमारी चित्रषैलियां जीवन साधना की संवाहक है। धार्मिकता और श्रृंगारिता इनके मूल में जो रही है। अलग-अलग रियासतों में पनपी भिन्न-भिन्न चित्रकला षैलियां। इनमें जीवन के विविध विषयों के साथ वहां के परिवेश का सांगोपांग उभार है। मसलन नाथद्वारा शैली को ही लें। ब्रज और उदयपुर शैली के समन्वय से बनी नाथद्वारा शैली के अंतर्गत श्रीनाथजी के प्राकट्य एवं लीलाओं से संबंधित असंख्य चित्र कागज और कपड़े पर तब से लेकर अब तक बन रहे हैं। बीकानेर शैली में यति मथेरणों की पारम्परिक जैन मिश्रित शैली और मुगल दरबार से आयी उस्ता परिवार की ऊॅंट की खाल पर चित्रकारी के अलावा विभिन्न शैलियों के मिश्रण के साथ बीकानेर के परिवेश को उद्घाटित करती ठेठ राजस्थानी शैली में हिन्दु कथाओं, संस्कृत और हिन्दी राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर बनाए चित्र सर्वथा अलग रंगत लिए है।
ऐसे ही किशनगढ़ शैली की बणी-ठणी ने विश्वभर में अपनी अलग धाक जमायी। रजपूति सभ्यता और संस्कृति, तत्कालीन परिस्थितियों, भौगोलिक विशेषताओं के बारीक पहलुओं को अपने में समेटे यहां चित्र शैलियों का जो विकास हुआ उसमें देशज काल की अनुरूपता तो है ही, प्रकृति परिवेश का भी बहुरंगी चित्रण है। जन जीवन की भावनाओं के लोकप्रिय विषयों, राधाकृष्ण के माधुर्य भाव के साथ ही विभिन्न पौराणिक आख्यानों, दरबारी जीवन, उत्सव, शिकार, राजा-रानियों के चित्रांकन, लोक कथाओं, काव्य आदि असंख्य विषयों पर कलाकारों द्वारा बनाए गए चित्रों में प्रयुक्त लाल, पीला, श्वेत और हरे रंगों का संयोजन ऐसा है जिससे विषय अपने विराट परिवेश में स्वतः ही उद्घाटित होता है। आधुनिक दौर में चित्रकला में सर्जन के महत्वपूर्ण आयाम भी जुड़े है। प्रभाववाद, घनवाद, अभिव्यंजनावाद, अमूर्त कला धारा, तंत्र कला और देष के कला आंदोलनों से जुड़ते सृजन की वैचारिकता के अंतर्गत अम्लांकन, काष्ठ, छापांकन व कोलोग्राफ विधा में भी इस दौरान पर्याप्त सृजनकर्म किया गया है तो सेरीग्राफ व लीथोग्राफ में भी नवीन सोच रखते महत्वपूर्ण कलाकर्म किया गया है। कला जगत में वैश्विक स्तर पर पर पसर रही नयी प्रवृति के अंतर्गत पश्चिम में जड़े जमा रहे वीडियो आर्ट या इंस्टालेशन की गंूज भी अब राजस्थान मे सुनायी देने लगी है।
बहरहाल, चित्रकला ही क्यों, संगीत और नृत्य में भी राजस्थान अत्यधिक समृद्ध प्रदेष है। उल्लसित लोक मानस से निकलने वाली अटूट धारा के यहां के लोक गीत, अलग-अलग क्षेत्रों की परम्पराओं, मान्यताओं और संस्कृति से जुड़े लोक नृत्यों में मानों जीवन थिरकता है। घूमर, गैर, गींदड़, डांडिया, तेरहताली, भवई, चकरी, बमरसिया, मेहंदी, पणिहारी का नाच, भैरूजी के भोपे का नृत्य, नाथपंथ कालबेलियों का पूंगी नृत्य, थोरियों का फड़ नृत्य, कच्छी घोड़ी का नृत्य, मिरासी, चित्तौड़ का तुर्रा-कलंगी नृत्य उल्लसित मन के ही तो प्रतीक हैं। लोकनाट्यों के साथ भी यही है। स्थान-विषेष की परम्पराओं को प्रतिबिम्बित करते इनमें नृत्य के साथ नाट्य संवाद भी निहित है। बीकानेर में होली के दिनों में रम्मतें होती है। हेड़ाउ मेरी, अमरसिंह राठौड़ की रम्मतों में एतिहासिक, पौराणिक के साथ सामाजिक जीवन से जुड़े प्रसंगों का चौक-मौहल्लों में प्रदर्षन होता है। कला मन के यही तो वह चितराम हैं, जिनमें व्यक्ति सदा बसना-रचना चाहता है। इसीलिये कहें कि उत्सवधर्मी राजस्थान में सात वार, नौ त्योंहार हैं। ‘पधारो म्हारे देस...’ की आतिथ्य सत्कार परम्परा के साथ कला-सस्कृति के अनूठे रंगों से सजी है यह धोरा धरती। नमन धोरा धरा। नमन!

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