Saturday, May 5, 2012

सिनेमा में झांकता कला संसार


दृष्य से अदृष्य की सत्ता बड़ी होती है। दृष्य में यथार्थ की दीठ भर होती है परन्तु अदृष्य स्मृतियों, अनुभूतियों का अनंत आकाष जो लिये होता है। इसीलिये शायद कभी अज्ञेय ने कहा भी, ‘स्मृति ही वह गतिषील सर्जनात्मक तत्व है, जो काल, इतिहास, साहित्य और हां, भाषा के नये परिदृष्य रचती चलती है।’ यह स्मृतियां ही हैं जो सर्जना में काल के गाल विगत-वर्तमान का अंतर पाटती है। विनय शर्मा के चित्रों पर जब भी विचार करता हूं, कैनवस पर मूल कैलिग्राफी में झांकती स्मृतियां रोमांचित करती है। उनका कैनवस अतीत से जुड़ी चीजों का वस्तुगत यथार्थ नहीं होकर स्मृतियों के निजी संवेदन संज्ञान के रूप में हमारे समक्ष उद्घाटित होता है। मूल कैलिग्राफी में तड़कते कागजों की पुरानी बहियां, पोस्टकार्ड, स्टाम्प पेपर, जन्मपत्रियों आदि के साथ ही इस्तेमाल कुछ वैसे ही रंगो में भीतर के संवेदन को रूपायित करने की उनकी क्षमता अद्भुत है।
बहरहाल, हाल ही उनके कला के इस आयाम पर ख्यात फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज और रोहित सूरी ने लघु फिल्म ‘रिम्बेर्म्स ऑफ थिंग्स पास्ट: द वर्ल्ड ऑफ विनय शर्मा’ बनायी है। इसका आस्वाद करते चित्रकला, संगीत और सिनेमा के रिष्तों को गहरे से जिया जा सकता है। पंडित विद्याधर व्यास के स्वरों में राग बागेश्री के गान में संजोयी इस फिल्म की शुरूआत सांगानेर स्थित कागज के कारखाने से होती है। लुगदी से कागज बन रहा है। इस बन रहे कागज में चित्र सर्जन की तमाम संभावनाएं तलाषते स्वयं विनय कागज को अपने तई आकार देते मूल कैलिग्राफी में अतीत से जुड़ी वस्तुओं को सहेज रहे हैं। दृष्य बदलता है। विनय का जन्म स्थल लालसोट दिखाई देता है। कस्बाई गली, पुराना घर और उसके अंदर रखा बड़ा सा संदूक। पितामह आत्मानंद सरस्वती के बड़े से संदूक से पुराने ग्रंथ, पोस्टकार्ड, स्टाम्प पेपर, पुराने कागजाद निकालते विनय अपनी कला यात्रा की जैसे यहां गवाही दे रहे हैं। सर्जन की तलाष आगे बढ़ती है। रेखाओं के रंग आच्छादित कैनवस में संवाद करती स्मृतियां से अनायास अपनापा होने लगता है। गाढे रंगों में मूल कैलिग्राफी के अंतर्गत प्रकृति के चितराम हैं तो जीवनगत सरोकार भी हैं। फिल्म के एक दृष्य में विनय स्टूडियों में काम कर रहे हैं। कला मगन मुद्रा का रोहित सूरी का लॉन्ग शॉट और उसकी बारीकी मन को छूती है।  दृष्य और भी हैं जिनमें कैनवस अलंकरण करते कलाकार की भाव मुद्राएं हैं तो हाल का विनय का वह संस्थापन भी है जिसमें पुरानी लालटेन, कलम दवात और दूसरी अतीत की चीजें उनके कला संवेदन को गहरे से हमारे समक्ष रखता है। पूरी फिल्म में कहीं कोई संवाद नहीं है, दृष्य ही देखने वाले से जैसे संवाद करते हैं। 
विनय देष के संभवतः ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अतीत से जुड़ी चीजों को मूल कैलिग्राफी में सर्जन का हिस्सा बनाते स्मृतियॉं के अंकन का सर्वथा नया कला भव निर्मित किया है। वह अतीत से जुड़ी किसी एक वस्तु को उसकी पूर्णता में नही बल्कि उसके किसी आयाम को निकालकर भीतर के अपने भावों के अनुसार उसका रूपाकार गढ़ते हैं। ऐसा करते अंतर्मन संवेदना के संप्रेष्य के तमाम आयामों का भरपूर इस्तेमाल उनकी सर्जना में होता है। कहें, लघु फिल्म उनके सर्जन के इस आयाम को गहरे से उद्घाटित करती है।
सिनेमा और चित्रकर्म का आरंभ से ही गहरा रिष्ता रहा है। कभी गोपी गजवानी ने ‘द टाईम’ और ‘द एंड’ शीर्षक से कला फिल्में बनायी थी। हुसैन और विवान सुन्दरम निर्मित कला फिल्में कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहती हैं। इनमंें कहीं कोई कथा नही थी परन्तु विषय का जो ट्रिटमेंट है, उसे गहरे से जिया गया है। कला और कलाकार पर फिल्म निर्मिती में दृष्य के साथ कलाकार की संवेदना के तमाम आयामों को बहुत कम समय में छूना ही तो होता है। इस दृष्टि से विनय के कला संसार पर निर्मित यह फिल्म कलाकार की भीतर की संवेदना से देखने की हमारी संवेदना को गहरे से जोड़ती है। उनकी कला से साक्षात्कार कराती है।


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