Thursday, December 20, 2012

परम्परा का कलानुराग


लोक कलाएं निर्बन्ध हैं। माने वहां किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं है। चित्र है तो वहां कथा भी है। नृत्य है तो गान भी है। कहें, हर कला से थोड़ा कुछ लेते ही लोककलाएं बढ़त करती है। कथोपकथनों को गेय में व्यक्त करती। जीवन की उत्सवधर्मिता का नाद लिए। मनोरंजन के साधन जब नहीं थे, तब लोकलाओं का यह उजास ही तो मानव मन के रीतेपन को हरता था। 
बहरहाल, पिछले दिनों शहर के एक पांच सितारा होटल में लोक परम्पराओं के उजास को अनुभूत कर अजीब सा सुकून मिला। होटल में आधुनिक चकाचौंध और तड़क-भड़क के बावजूद छत का एक कोना जयपुर की परम्परा का संवाहक बना हुआ था। आंग्ल भाषा में इस आयोजन को नाम दिया गया था, ‘जयपुर टेल्स’। माने जयपुर बता रहा है। आमंत्रित आस्वादक भी हिन्दी बोलने, समझने के बावजूद अंग्रेजी दां थे। सो बताने वालों के बारे में घोषणा अंग्रेजी में ही हुई। सुखद यह था कि विरासत को बांचने वाले या कहें सुनाने वाले हिन्दी में बोले। लोकानुरंजन के तब के दौर को याद करते हुए जयपुर की कलाओं और वस्त्र परम्परा पर डॉ. चन्द्रमणीसिंह ने कुछ अनछुए पहलू बताए तो वास्तुकला से संबंधित जानकारियां गोपालसिंह नंदीवाल ने साझा की। स्वाभाविक ही था, इस दौरान राजा-महाराजाओं के कलानुराग का गान भी हुआ। जयपुर की मूर्तिकला से जुड़े पहलू तो खैर परम्परा की बात में आए ही परन्तु खाने के बाद पान का शौक फरमाने और लोकनाट्य की तमाशा परम्परा की बात चली तो लगा कुछ और भी था जो बंया किया जाना चाहिए था। एक साथ विरासत से जुड़ी बहुत सी परम्पराओं के पोषण को एक साथ रखे जाने की बड़ी सीमा आखिर यह तो होती ही है कि वक्त कम पड़ जाता है। जब तक कहने वाले की भूमिका बनती है, तब तक उसका समय समाप्त हो जाता है। सो रोचक कहन को सुनते यह बात अखरी। 
खैर...। पान खाने की जयपुर की परम्परा पर विरासत से जुड़ी दुकान के जुगलकिशोर ने पान के शौक से जुड़े लागों के बहुत से रोचक किस्से सुनाए। उनके इस सुनाने में लोकानुरंजन तो था ही, वह किस्सागोई भी थी जो अब धीरे-धीरे लोप हो रही है। वह सुना रहे थे, पान लेने आने वाले के साथ यदि कोई बच्चा आता तो उनके वालिद माधो उसे भी अपनी ओर से पान खिलाते। और ऐसे कब वह बच्चों में ‘माधोबाबा’ बन गए पता ही नहीं चला। उनकी दुकान भी फिर इसी नाम से जानी जाने लगी। यह सब सुनते पान का पारम्परिक स्वाद भी सुनने वालों को माधोबाबा की दुकान से चखवाया गया। इस दौरान संयोजक विनोद जोशी ने भी जयपुर की परम्परा को शिद्दत से बंया किया।
आयोजन में किस्से, कहानियां और भी थी। परन्तु भट्ट परिवार की परम्परा को निभाते आ रहे दिलीप भट्ट जब तमाशा के बारे में बताने लगे तो लगा वक्त थम गया है। लोकनाट्य की तमाशा शैली को भट्ट परिवार ने सींचा है। गोपीजी और  उनके पुरखों की परम्परा को दिलीप भट्ट के मुंह से सुना और तमाशा की उनकी प्रस्तुति से उसे गुना भी। पारम्परिक वेशभूषा में हारमोनियम, सारंगी और तबले की थाप पर भट्ट ने तमाशा किया। उनका पद संचालन और बुलंद आवाज मन में गहरे से जैसे बस गई है। 
तमाशा मूलतः लौकिक नाट्य है। वहां लोककथाएं हैं, पौराणिक आख्यान है, प्रेमाख्यान है और वर्तमान हालात का सांगीतिक चितराम भी है। दिलीप भट्ट इस आधुनिक दौर में भी तमाशा का निर्वहन और उसमें रेखांकित की जाने वाली भाववस्तु को अपने तई जीते हैं। उन्हें सुनते, भावाभिव्यक्ति करते देखते और अपनी कला में खोते हुए पाते व्यक्ति और समूह के अंतःसंबंधों की पहचान होती है। सोचता हूं, लोकानुरंजन के अंतर्गत एक प्रकार से लोक का यह वह अनुष्ठान ही है जिसमें परम्पराओं का पोषण हेाता है। हमारी विरासत में बहुत कुछ अभी भी ऐसा है, जो हममें से बहुतों के लिए नया है। जिसे सुना जा सकता है। गुना जा सकता है। बशर्ते, वक्त हो!

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