Friday, December 28, 2012

रेखाओं की ध्वनि

जीवन से जुड़ी विद्रूपताओं  के सूक्ष्म अंकन की कला है व्यंग्यचित्र। कहें, यह वह संकते लिपि है जिसमें रेखाओं की ध्वनि को सुना जा सकता है। चित्रकला की ऐसी शैली जिसमें आकृतियां गुदगुदाती है, करारा प्रहार करती है तो कभी सोच का नया आकाश भी अनायास ही दे देती हे। मुझे लगतां है, यह व्यंग्यचित्र ही है जिसमें न्युनतम  रेखाओं में कहन की विराटता देखी जा सकती है।
बहरहाल, व्यंग्यचित्रों में प्रायः किसी समाचार के बहाने या फिर घटना जन्य परिस्थिति से बनी रेखाएं बहुत से स्तरो ंपर मारक प्रहार करती है तो कभी हास्य की अवर्णनीय स्थिति भी उत्पन्न करती है। इसीलिए तो कहते हैं, हजारों हजार शब्द जो नहीं कह सकते वह न्युनतम रेखाएं व्यंग्यचित्रों में कह देती है। यही नहीं, सब कुछ कहने के बाद भी बहुत कुछ फिर से वहां सोचने के लिए जेहन में रख दिया जाता है। स्वाभाविक ही है, इसके लिए रेखाओं की समझ ही पर्याप्त नहीं है-वह दृष्टि भी होनी चाहिए जिससे घटना या समाचार के वर्तमान के साथ उसके भविष्य को भी पढ़ा जा सके।

कार्टून और कैरिकेचर में महीन भेद है। कार्टून घटनाओं की पड़ताल करते जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति करते हैं जबकि कैरिकेचर व्यक्ति विशेष को उघाड़ते हैं। माने व्यक्ति के बाहरी ही नहीं अंदर के जगत की भी वहां तलाश होती है। वहां संवाद नहीं होता परन्तु शालिनता में रेखाएं बहुत कुछ कहती है। शिष्ट में चुभन और हास्य देने वाली परिस्थितियां औचक ही वहां पैदा होती है। कैरिकेचर के अतीत में जाए तो लगेगा, यह कला आज की नहीं राजा-महाराजाओं के जमाने से चली आ रही है।

इतालवी भाषा में कैरिकेचर कैरेक्टर है और स्पेनिश में कारा। अर्थ है-चेहरे। वैसे  नहीं जो सामान्यतः दिखाई  देते हैं, वह जिनमें व्यक्ति पूरी तरह से रंगा होता है। यानी व्यक्ति का चरित्र जिससे बंया हो। आसान नहीं है यह। कम से कम रेखाओं में व्यक्ति का बाहरी ही नहीं भीतरी भी बंया करना। कहते हैं, लियोनार्दो द विंचि ने कैरिकेचर कला की तलाश की थी। तब सिक्कों पर शासकों के चेहरे बने होते थे। विंचि ने देखा, सिक्के जब घिस जाते हैं तो शासको की छवियां भी विदु्रप हो जाती। कभी किसी शासक की ठूड्डी अजीब हो जाती तो कभी किसी की नाक। बस फिर क्या था, लियोनार्दो ने सिक्कों से प्रेरणा लेते हुए ही तत्कालीन विशिष्ट व्यक्तियों के कुछेक कैरिकेचर बनाए। लोगों ने उन्हें बहुत पंसद किया। बाद में तो यह कला विश्वभर में खूब पनपी।

थामस रोलेण्ड ने 19 वंी सदी में बड़ी-बड़ी हस्तियों के ऐसे चित्र बनाकर अपार लोकप्रिय प्राप्त की। विलियम होकार्थ वह कलाकार है जिसने पहले पहल एडिटोरियल कार्टून और कॉमिक स्ट्रिप की शुरूआत की।  होगार्थ ने जब ब्रिटिश समाज के आडम्बरपूर्ण चरित्रों को देखा तो उनके मन में सहज ही उनके प्रति आक्रोश उत्पन्न हुआ। परिणति में ही उन्होंने कला में शाश्वत विषयों की बजाय तात्कालीन विषयों पर रेखाओं से मारक प्रहार किये।
भारत में कार्टून कला के भीष्म पितामह शंकर हैं। कार्टून में पहले पहल विचार शंकर ही लेकर आए। इधर प्रायः सभी समाचार पत्रो के मुख्यपृष्ठ का एक कोना कार्टून का ही होता है। याद करें, आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’, सामू का ‘बाबूजी’, कदम का ‘टोपीधारी’ और सुधीर तैलंग का जींस पहनने वाला झोलाधारी-सबके सब चरित्र हममें इस कदर बस गए हैं कि इनके बिना कोई घटना इन दिनांे अधूरी नहीं लगतीि!
बहरहाल, कुछ दिन पहले लोकेन्द्र नाहर के बनाए व्यंग्यचित्रों, कैरिकेचर की प्रदर्शनी देखी तो यह सब जैसे याद आया। कार्टून, कैरिकेचर की उसकी प्रदर्शनी देखते लगा, इसमें उसके अंदर का कलाकार उसकी मदद करता है। इसीलिए भी कि वह जो बनाता है उसमें रेखाओं का सुघड़पन और उनकी कोमलता देंखने का न भूलाने वाला प्रभाव पैदा करती हैं। कैरिकेचर ऐसी कला है जिसमें कंपोजिशन सेंस तो खैर जरूरी है ही, ब्रश-स्ट्रोक भी मारक होना जरूरी है। यह जब लिख रहा हूं, हुसैन का बनाया लोकेन्द्र का कैरिकेचर और लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ याद कर रहा हूं। याद करंेगे तो आपको भी बहुत कुछ याद आने लगेगा!


No comments: