Thursday, April 9, 2015

कलाकारों संग कोहरे में अयोध्या

बहुतेरी बार मन दृश्य साक्षात् से उपजी स्मृतियां और अनुभुतियां की यात्रा करता है।घर पर होते हैं तो कहां इस मन यात्री को जान पाते हैं! जितना घर से बाहर निकलते हैं, मन को भी और अधिक जानने लगते हैं। माने घर से बाहर की हर यात्रा मन की यात्रा है। बाहर न जाएं तो स्वयं अपने मन में झांकने का अवकाश ही न मिले। इसीलिए कहें, जब अपने स्थान को छोड़ दूर कहीं होते हैं तो वह स्थान की ही यात्रा नहीं होती, मन की भी होती है। हर यात्रा स्वयं तक हमें पहुंचाने का मार्ग भी है।...तीन-चार महिने पहले की बात है, इसी मार्ग पर था। कलाकार मित्र और ‘कलादीर्घा’ के संपादक डाॅ. अवधेश्र मिश्र ने फैजाबाद में राष्ट्रीय कला षिविर का संयोजन किया था। दूरभाष पर उनने कहा, आपको आना है, अयोध्या में राम के दर्षन भी कर लेंगे। मुझे लगा, देषभर के कलाकारों के साथ रामजी की अयोध्या देखने का यह सुयोग ही निकल आया है। वहां पहुंचा तो पता चला, सरयू तट पर बसे नगर अयोध्या में सर्दी के दिन देष के दूसरे स्थानों से सर्वथा भिन्न होते हैं। 
कोहरा पहले भी देखा था पर सुबह, दुपहर और सांझ इतनी धूंध पहले कभी नहीं देखी थी। हाथ को हाथ नहीं सूझे। धूप का कहीं कोई नामोनिंषा नहीं। एक रोज कलाकार मित्र विनय शर्मा आग्रह कर सरयू नदी के गुप्तार घाट ले गए। धूंध में सरयू जैसे उंघ रही थी। पटना से आए कलाकार मिलनदास बोले इससे भले तो होटल में थे। पर घुम्मकड़ मन कोहरे लिपटी सरयू में ही जैसे कुछ तलाष रहा था। कैमरा निकाला पर कोहरे में जैसे दृष्य गुम थे। कुछ भी नहीं मिला। वापस जाने की सोची कि कोहरा छंटने लगा। दोपहर के तब कोई 2 बजे होंगे। धूप नहीं निकली पर थोड़े छंटे कोहरे में सरयू में चलती दो नावों का साक्षात् हो गया। दूर मांझी नाव को खे रहा था पर दृष्य अनूठा था। कैमरे से त्वरित छवि को कैद किया। धूंधलेपन में नदी और नाव के संयोग के अनूठेपन को कैमरे ने जी लिया। 
कोहरे में लिपटी अयोध्या की यात्रा को संजोते वह क्षण भी न भूलने वाले थे जब एक रोज विवादास्पद कर दी गई रामजन्म भूमि जाना हुआ। दुपहरी धूंध भरी थी। आगे-आगे पुलिस की पायलेट गाड़ी और पीछे कलाकारों के साथ हम। पता चला, अयोध्या का एक बड़ा हिस्सा हाईकोर्ट ने प्रतिबंधित कर रखा है। बगैर पुलिस की अनुमति के वहां कोई प्रवेष नहीं कर सकता। हां, लोग रहते हैं पर उनके भी प्रवेष पास बने हुए हैं। चप्पे चप्पे पर केन्द्रिय सैन्य बल तैनात। कहीं कोई युद्ध न छीड़ जाए। मूल स्थान पर प्रवेष के समय एक एक चीज की तलाषी ली गई। और फिर एक तंग कंटिले तारों से निर्मित रास्ते में हम हो लिए। बाहर उत्पाती बंदर जैसे पींजड़े में हमें देख हंस रहे थे। कुछ देर तक उस तंग पींजरेनुमा रास्ते में चलते रहे और फिर राम जन्म भूमि के दर्षन कर लौट आए। लगा, धूंध मौसम की ही नहीं है, मन की भी है। हर कोई सहमा-सहमा सा। छावनी बनी अयोध्या में चुप्पी पसरी हुई। कोहरे का मर्म अब जैसे समझ आ रहा था। मन को मथता हुआ। पर बाद में इस कोहरे को देषभर के आए कलाकारों ने अपनी रंग-रेखाओं से जैसे भगा दिया।  महाराष्ट्र के कलाकार जाॅन डगलस ने धूंध को रंग-रेखाओं से मांडा पर सुहास बहुलकर ने मंदिर में घंटियां पकडे साधु के बरक्स कंटिले तारों को व्यंजित कर जैसे कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया था। 
गोवा से आए हनुमान काम्बली ने रावण वध के दृष्य की आड़ में सामयिक संदर्भों में रेखाओं का आकाष रचा। जयपुर के विनय शर्मा ने सरयू नदी और वहां के घाटों को जेहन में रखते हुए अतीत और वर्तमान को अपने कैनवस पर जिया। बनारस के प्रणामसिंह ने अयोध्या के मंदिरों में साधु-संतों की उपस्थिति को कैनवस पर जी रहे थे तो रंगों के छंद में अवधेष मिश्र ने अयोध्या के महात्म्य को उभारा। भोपाल के युसूफ ने रेखाओं की महीनता में एब्सट्रेक्ट के जरिए मारीच की व्यंजना की। युसूफ रंग पट्टिकाओं में स्थान विषेष ही नहीं वहां के संदर्भों को बेहद संवेदनषीलता से अपनी कला में जीते हैं। ऐसा ही बिहार के मिलनदास के साथ भी है। वह हल्के रंगों में घुले पत्रों की इबारत में अयोध्या के संदर्भ जब उकेरे रहे थे तो एकटक उनके कैनवस को ही निहार रहा था। उन्होंने अयोध्या की प्राचीनता को जैसे हिन्दी, अंग्रेजी और उडि़या भाषा में कैनवस पर ढूंढ निकाला। कोलकता के अमिताभ सेनगुप्ता लिपियों में संवेदना के मर्म जैसे उद्घाटित करते हैं। एक कैनवस पर उन्होंने मर्यादा पुरूषोतम राम को केन्द्र में रखते हुए नीचे मिनिएचर, लोक कला के भी संदर्भ दिए। मध्यप्रदेष से आए प्रो. लक्ष्मीनारायण भावसार, खैरागढ़ से आए महेषचन्द्र शर्मा ने परत दर परत रंगों में अयोध्या की मिट्टी, यहां के घरों और जन-जीवन में व्याप्त रंगों को कैनवस पर जिया। जय झरोटिया रेखाओं में बतिया रहे थे,कैनवस पर उनके हनुमान पहाड़ उठाए जैसे वाल्मिकी रामायण लेाक में ले जा रहे थे। कलाकार यह सब जब कैनवस पर उकेर रहे थे, उनके सृजन सरोकारों पर निरंतर बतियाना भी होता रहा। घटनाओं, इतिहास और मिथकों की कहानियांें में उनके साथ उतरते बहुत से नए संदर्भ भी जैसे लिखने के लिए मिले। लगा, कलाकृतियों में जो कुछ दिखता है, उससे बड़ा सच वह अदृष्य होता है जिसे लेकर मन में हलचल होती है। कोहरे लिपटी सुबह, दुपहरी और हाड़ कंपाती रात के अदृष्यपन में अयोध्या में उभरे रंग और रेखाओं के उजास ने ही यह सब कुछ शायद लिखा दिया।
-न्यूज़ टुडे, 9 अप्रैल, 2015 


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