Monday, April 27, 2015

पैसे की माया नोच रही जमीनो की काया

--गोरखपुर से कुशीनगर यात्रा --

साहित्य अकादेमी के सचिव श्रीनिवासराव  दूरभाष पर निमंत्रण देते हैं, ‘अकादेमी ने इस बार उत्तरपूर्वी एवं उत्तर लेखक सम्मेलन का दो दिवसीय आयोजन गोरखपुर में किया है। इसमें आपको कविता पाठ करना है। आप स्वीकृति भेजिए ताकि बाकी सभी व्यवस्थाएं कर सकूं।’ अंधा क्या चाहे? दो आंखे। जयपुर से दिल्ली और फिर दिल्ली से लखनऊ तक की हवाई यात्रा के बाद गोरखपुर के लिए ट्रेन या फिर बस ही साधन है। ट्रेन में पहले से आरक्षण करवा लिया था सो दिक्कत हुई नहीं। 
आयोजन स्थल पर असम, मणीपुर, त्रिपुरा, अरूणाचल से आए लेखकों संग बतियाया तो शीनकाफनिजाम साहब और गोविन्द मिश्र से यात्राओं और उनके लिखे पर निरंतर संवाद भी होता रहा। उन्होंने कुछ समय पहले तिस्ता यात्रा की चर्चा छेड़ी तो गंेगटोक से की देहरादून और नेपाल बोर्डर तक की यात्रा जेहन में फिर से ताजा हो गई। बुध महापरिनिर्वाण स्थल कुषीनगर जाने की चाह थी पर राह नहीं मिल रही थी। वहीं गोरखपुर विष्वविद्यालय में छायाकार मित्र फीरोज से टैक्सी कराने को कहा तो उसने मेरी बात हवा में उड़ा दी। कहा, ‘क्यों टैक्सी में पैसे बर्बाद करते हैं। बस पकडि़ये, आराम से पहुंचा देगी।’ माना नहीं और टैक्सी कर लेता हूं। ड्राईवर दूसरे दिन सुबह होटल से लेने का कहता है पर आता ही नहीं। पता चलता है, उसे कोई और दूर की तगड़ी सवारी मिल गई सो वहां चला गया। दूसरी टैक्सी कराने को कहता है तो डपटकर देता हूं। बस पकड़ता हूं। फीरोज बहुत याद आता है, कुषीनगर बस से ही जो जा रहा हूं! हिचकोले खाती बस गोरखपुर शहर को तेजी से छोड़ती मिलट्री ऐरिया में वार मेमोरियल क्षेत्र से आगे पहुंच गई है। औचक खिड़की से बाहर देखता हूं, सघन पेड़ों का झुरमुट। जहां तक निगाह जाए, पेड़ ही पेड़। सिकुड़ी सड़क पर उत्तर प्रदेष परिवहन निगम की बस और दोनों और इसी तरह पेड़ों का झुरमुट।  
गोरखपुर से जब चला था तब इस तरह के दृष्य की मन मंे कल्पना नहीं थी। एक के साथ एक आसमान छूने की होड़ में खड़े पेड़। कुछ देर तक बस पेड़ों के उस सघन जंगल के बीच से ही गुजरती रही। पर यह कुछ समय का ही सुकून था। थोड़े अंतराल में यह दृष्य लोप हो गया।  खिड़की से खेत और घास-फूस के छप्पर की बनी दुकानें नजर आने लगी।...बंजर जमीन और कुछ-कुछ देर में कुछ पक्का निर्माण कार्य भी चल रहा है। बिल्डरों के विज्ञापन। एक जगह बोर्ड लगा है, ‘प्लाॅट बिकाऊ है।’ पेड़ यहां पूरी तरह से नदारद। यह हरितिमा को रोंद कोंक्रीट के जंगल का आगाज है। पहले देख पेड़ों का झुरमुट शायद इसलिए बच गया कि वह वन क्षेत्र था। वन क्षेत्र का आवासीय रूपान्तरण नहीं हो सकता। पर खेतों का आवास परिवर्तन कौन रोके? सही है, आबादी बढ़ गयी है-रहने को जमीन कम पड़ रही है परन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि हरियाली लीलने फायदे का निवेष जमीनों में ही दिखाया जा रहा है। पैसो की माया जमीनों की काया नोंचने में लगी है। कृषि भूमि इसी से तेजी से आवासीय में रूपान्तरित होती जा रही है। देखता हूं, खेत हैं परन्तु लुखे। आवासीय प्रयोजन से बिकने को तैयार। मन बुझ जाता है।  
सुबह गोरखपुर में ओलावृष्टि की आपदा से फसलों की खराबी के समाचार ही अखबारों में पढ़े थे परन्तु खेतों की जमीन पर ‘प्लाट बिकाऊ’ की आपदा तो इससे भी भारी है। प्रकृति से भारी कोप तो मनुष्य का है। उसे तो अपनी पैसा उगाती बांसूरी की पड़ी है, बांस से उसे क्या! बांस नहीं रहे तो न रहे, अभी तो बांसूरी बज ही रही है। यह बांसूरी नहीं बजेगी तो कुछ और बजा लेंगे। सोचते-सोचते घबराहट बढ़ जाती है। कबूतर की तरह आंखे मुंद विचार के उगे इस संकट से अपने को बचाने का प्रयास करता हूं। डर भरी झपकी ले लेता हूं। टूटी सड़क पर बस झटका खाती है तो आंखे खोल सड़क की ओर देखता हूं। चैड़ी फोरलेन की सड़क। हम हाईवे पर है। यह मार्ग बिहार होते हुए दूर आसाम की ओर जाता है। उत्तर से उत्तरपूर्व की ओर। 
देखता हूं, बस की अपनी  अलग दुनिया है। मेरे सामने की सीट पर कोई सालेक भर का बच्चा अपनी मां की गोद में खड़ा खिड़की के पार झांक रहा है। तेजी से भागते पेड़ों, साथ चलती कारों, ट्रकों को कभी आगे तो कभी पीछे छूटते देख वह अचरज से किलकिला रहा है। उसके उड़ते बाल, कौतुक भरी मासूम निगाहें और मां की गोद में पूर्ण सुरक्षा का संतुष्ट भाव आनंदित करने वाला है। कुछ देर उसको खिड़की से पार भागते दृष्यों का आनंद लेते देख खुद भी आनंदित होता हंू। औचक बस रूकती है। लपककर एक लड़का चढ़ जाता है। पीछे-पीछे एक लड़की भी है। दोनों विद्यार्थी लग रहे हैं। सोचता हूं, काॅलेज से शायद घर लौट रहे हैं। धीरे हुई बस फिर से भागने लगी। मन में विचार आया, टैक्सी करता तो सफर यूं आबाद होता! मन यूं रंजित होता! 
बस में निगाह दौड़ता हूं। कोई उंघ रहा है, कोई मोबाईल से गीत सुन रहा है तो कोई दीन-दुनिया से दूर अपने सहयात्री से बातों में मषगूल है। सफर की यह  अलग ही दुनिया है। चेहरे जाने-पहचाने से लगते हैं पर सबके सब अनजाने। खिड़की के पार निगाह जाती है, चैंकता हूं। दाहिने ओर खेत पर बौने पेड़ों का समूह। शाखाओं में फैले हुए पर बैठे हुए। ऊंचाई नदारद। तना रहित हरे पेड़। ऐसे जैसे परस्पर बतिया रहे हों। प्रकृति की अदीठी कृतियां! ऐसे पेड़ पहले कहां देखे। देखता हूं, यहां ऐसे ही पेड़ हैं। दूर खेतों में अंतराल अंतराल में पेड़ों ने मिल अपने समूह जैसे बना रखे हैं-बतियाने के लिए। बस रूक गई है। 
‘लो कुषीनगर आ गया। आपको यहीं उतरना है।’ कहते हुए बस कंडक्टर मेरी ओर मुड़ता है। मैं ठीक उसके पीछे की सीट पर बैठा हूं। अपना बैग संभालते हुए उतरकर सड़क के दाहिने ओर उस पार कुषीनगर की ओर जाती सड़क की ओर हो लेता हूं।
-"न्यूज़ टुडे" 23-4-2015

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